CBSE Class 10 Hindi Chapter 8 “Balgobin Bhagat”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
बालगोबिन भगत – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 8 Balgobin Bhagat Summary with detailed explanation of the lesson ‘Balgobin Bhagat’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 8 बालगोबिन भगत के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 बालगोबिन भगत पाठ के बारे में जानते हैं।
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- बालगोबिन भगत पाठ प्रवेश
- बालगोबिन भगत पाठ सार
- बालगोबिन भगत पाठ व्याख्या
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“बालगोबिन भगत”
लेखक परिचय
लेखक – स्वयं प्रकाश
बालगोबिन भगत पाठ प्रवेश (Balgobin Bhagat – Introduction to the chapter)
बालगोबिन भगत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे अनेक लक्षणों वाले चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता , लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। किसी के पहनावे या बाहरी दिखावों से कोई संन्यासी नहीं होता , संन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को संन्यासी लगते हैं। यह पाठ सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रहार करता है। इस रेखाचित्र की एक विशेषता यह है कि बालगोबिन भगत के माध्यम से गाँव के जीवन की सजीव झाँकी देखने को मिलती है।
बालगोबिन भगत पाठ सार (Balgobin Bhagat Summary)
लेखक बालगोबिन भगत के बारे में बताते हैं कि वे न तो बहुत लम्बे थे और न ही बहुत छोटे थे बल्कि उनका कद मध्यम था , बालगोबिन भगत का रंग भी गोरा था। बालगोबिन भगत जी को देखने से प्रतीत होता था कि उनकी उम्र साठ वर्ष से अधिक की ही होगी। क्योंकि उनके सारे बाल पक गए थे अर्थात उनके सारे बाल सफ़ेद हो गए थे। बालगोबिन भगत कोई लंबी दाढ़ी और बालों का जुड़ा तो नहीं रखते थे , परन्तु हमेशा ही उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता था। वे ज्यादा कपड़े भी नहीं पहनते थे बल्कि बिलकुल कम पहनते थे चाहे कोई भी मौसम क्यों न हो। वे हमेशा ही कमर पर केवल एक लंगोटी और सिर में कबीरपंथियों के जैसी कनफटी टोपी पहना करते थे। केवल जब ठण्ड का मौसम आता या ठण्ड बढ़ जाती तो एक छोटा सा काला कम्बल ऊपर से ओढ़ लेते थे। वे मस्तक पर हमेशा रामानंदी चंदन लगाया करते थे जो चमकदार होता था और उसको लगाने का तरीका भी अनोखा होता था। वे उस चन्दन के टिके को नाक के एक छोर से ही शुरू करते थे जैसे औरतें अपने टीके को लगाती हैं। वे हमेशा ही अपने गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल बेढंगी से माला बाँधे रहते थे , जो देखने में बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी। बालगोबिन भगत कोई विरक्त व्यक्ति थे , जिसने सभी भौतिक सुखों का त्याग कर दिया हो। ऐसा बिलकुल नहीं था , बल्कि वे तो पत्नी और बाल – बच्चों वाले आदमी थे। उनकी पत्नी की तो लेखक को याद नहीं हैं , परन्तु उनके बेटे और बेटे की पत्नी को तो लेखक ने देखा था। बालगोबिन भगत की थोड़ी खेतीबारी भी थी और उनका एक अच्छा साफ़ – सुथरा मकान भी था। बालगोबिन भगत कबीर के भक्त थे , वे कबीर को ‘ साहब ’ मानते थे , उन्हीं के गीतों को हमेशा गाते रहते थे और उन्हीं के दिए या बताए हुए आदेशों पर चलते थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे , उनका व्यवहार छल – कपट से रहित था। बालगोबिन भगत किसी से भी दो – टूक बात करने में कोई झिझक नहीं करते थे अर्थात उन्हें जो कहना होता था वे झट से कह देते थे , बालगोबिन भगत किसी से भी बिना बात के कोई झगड़ा नहीं करते थे। वे किसी की कोई भी चीज़ बिना पूछे उपयोग में नहीं लाते थे , छूना तो बहुत दूर की बात है। वे इस नियम को कभी – कभी इतनी बारीकी से अपने व्यवहार में लाते कि लोगों को आश्चर्य होता था कि कोई कैसे इतना नियमों का पालन कर सकता है ! जो कुछ भी वे मेहनत करके खेती – बाढ़ि करके खेत में आनाज पैदा करते , पहले उसे सिर पर लादकर साहब यानी कबीर के दरबार में ले जाते और वहाँ से वापिस आशीर्वाद के रूप में जो भी अन्न उन्हें मिलता , उसे घर लाते और उसी से अपने घर – परिवार का गुजारा चलाते थे ! बालगोबिन भगत का जिस तरह का व्यवहार था उन सबके ऊपर लेखक मोहित हो गए थे। उनके मधुर गान – जो वे हमेशा ही गुनगुनाते रहते थे , वे लेखक को हमेशा सुनने को मिलते थे। जब भी वे कबीर के सीधे – सादे पद गुनगुनाते थे , तो ऐसा प्रतीत होता था कि उनके कंठ से निकलकर वे पद मानो सजीव हो उठते थे। आसाढ़ मास में जब सब अपने – अपने कामों में व्यस्त होते हैं तब सबके कानों में एक स्वर – तरंग की झन – झन की ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह ध्वनि क्या है या यह कौन है जो इस ध्वनि को उत्पन्न कर रहा है ! यह किसी को पूछने की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि इसके बारे में सभी को पता है। बालगोबिन भगत का पूरा शरीर कीचड़ में लिपटा हुआ है और वे भी अपने खेत में धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक – एक धान के पौधे को , एक सीध में , खेत में बिठा रही है। उनका गला संगीत के एक – एक शब्द को जुबान पर चढ़ाकर कुछ शब्दों को ऊपर , स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर भेज रहा है ! अर्थात बालगोबिन भगत के संगीत के स्वर चारों ओर गूँज रहे हैं। बच्चे खेलते हुए जब बालगोबिन भगत का संगीत सुनते हैं तो वे झूम उठते हैं ; खेतों के किनारे पर खड़ी औरतों के होंठ भी काँप उठते हैं , अर्थात वे भी बालगोबिन भगत के स्वरों के साथ गुनगुनाने लगती हैं ; हल चलाने वाले लोगों के पैर भी उन स्वरों के ताल से उठने लगते हैं ; धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम करने वालों की अँगुलियाँ भी एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं ! यह सब दृश्य देख कर एक ही प्रश्न मन में उठता है कि बालगोबिन भगत का यह संगीत है या कोई जादू है ! लेखक भादो महीने की उस अंधेरी आधी रात का वर्णन कर रहे हैं जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है और चाँद की चाँदनी कहीं नज़र नहीं आ रही है। उस आधी रात में लेखक बताते हैं कि अभी , कुछ समय पहले ही वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों ने बरसना बंद किया है। उस समय जब वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों के साथ ही , बादलों की बहुत गंभीर आवाज़ और बिजली की चमचमाहट में किसी ने कुछ नहीं सुना हो , किन्तु अब झींगुरों की झन – झन की ध्वनि या मेंढकों की टर्र – टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने शोर में नहीं डुबो सकतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि उस आधी रात में भी जब चारों ओर केवल अँधेरा ही अँधेरा था तब भी बालगोबिन भगत अपने संगीत को हमेशा की तरह गुनगुना रहे थे और बादलों की गंभीर आवाज़ और बिजली की चमचमाहट से भले ही उनके संगीत को कोई न सुन पाया हो किन्तु झींगुरों या मेंढकों की ध्वनि उनके संगीत को दबा नहीं सकती। जैसे ही कातिक का महीना आता है वैसे ही बालगोबिन भगत की सुबह के समय गाए जाने वाले गीत शुरू हो जाया करते थे और वे गीत फागुन महीने तक चला करते थे। इन महीनों में वे सुबह होते ही उठ जाते थे। किसी को भी यह पता नहीं चल पाता था कि वे किस वक्त जग जाया करते थे और बालगोबिन भगत हर सुबह नहाने के लिए दो मील दूर नदी में जाया करते थे। वहाँ से नहा – धोकर जब वे घर लौटते थे तो घर आने से पहले गाँव के बाहर ही , एक तालाब था , वे उसके ऊँचे हिस्से पर , अपनी खँजड़ी लेकर बैठ जाया करते थे और अपने गाने गुनगुनाने लगते थे। लेखक अपने बारे में बताते हैं कि वे शुरू से ही देर तक सोने वाले रहे हैं , परन्तु , एक दिन जब लेखक ने , माघ की उस दाँत किटकिटाने वाली सुबह में भी , उनका संगीत सूना तो लेखक को ऐसा लगा जैसे वह संगीत लेखक को उस तालाब पर ले गया था। उस समय आसमान में तारे पूरी तरह से ओझिल नहीं हुए थे। किन्तु हाँ , पूरब में हल्की लालिमा आ गई थी और उस लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत , बगीचा , घर – सब पर कुहरा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से ढाका हुआ मालूम पड़ता था। वे अपने गाने को गाते – गाते इतने मस्त हो जाते थे और इतने सुरूर में आ जाते थे , इतने उत्तेजित हो उठते थे कि उनको देख कर ऐसा मालूम होता था जैसे वे गाना गाते हुए कभी भी खड़े हो जाएँगे। उनका छोटा सा कम्बल तो बार – बार सिर से नीचे खिसकता जाता था। लेखक बताते है कि उस ठण्ड से वे तो कँपकँपा रहे थे , परन्तु तारे की छाँव में भी बालगोबिन भगत के माथे पर उनके गाना गाने के परिश्रम से आई पसीने की बिंदु , जब – तब , चमक ही पड़ती थी। लेखक बाल गोबिन भगत के संगीत का गुणगान करते हुए कहते हैं कि गर्मियों के दिनों में बाल गोबिन भगत की वो संगीत से भरी शाम न जाने कितनी उमस भरी शाम को ठंडक प्रदान करती थी ! लेखक बताते हैं कि वे अपने घर के आँगन में हर शाम को आसन जमा कर संगीत गुनगुनाने के लिए बैठ जाया करते थे। गाँव के कुछ लोग जो उनके संगीत को पसंद करते थे वे भी हर शाम को बाल गोबिन भगत के घर के आँगन में जुट जाया करते थे। धीरे – धीरे उन लोगों का मन उनके तन पर हावी हो जाता। और लेखक बताते हैं कि यह सब होते – होते , एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे होते और उनके साथ ही सबके तन और मन भी नाच उठने को होने लगते। हर शाम को बाल गोबिन भगत का सारा आँगन नृत्य और संगीत से भरा पूरा प्रतीत होता था ! लेखक बताते हैं कि बाल गोबिन भगत की संगीत – साधना कितनी अधिक उन्नत है , इसका प्रमाण उस दिन देखा गया जिस दिन उनके बेटे का निधन हो गया। लेखक बताते हैं कि वह उनकी अकेली औलाद थी , जिसको उन्होंने अधिक लाड़ – प्यार में पाला था। उनका वह बीटा कुछ सुस्त और नासमझ – सा था , परन्तु इसी कारण से बाल गोबिन भगत उसे और भी ज्यादा मानते थे। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए , क्योंकि जो थोड़े कमअक्ल या नासमझ होते हैं वे दूसरों की निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। लेखक आगे यह भी बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने बड़ी ही इच्छा के साथ अपने उस बेटे की शादी कराई थी , उन्हें उनकी बहु बड़ी ही सौभाग्यवान और सुशील मिली थी। उसने घर को पूरी तरह से अपने प्रबंध में लेकर बाल गोबिन भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से मुक्त कर दिया था। उनका बेटा बीमार है , इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत मिलती थी ! परन्तु लेखक बताते हैं कि भले ही कोई आपके जिन्दा होने पर आपकी खबर भी न लें किन्तु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक और बाकि सभी ने सुना कि बाल गोबिन भगत का बेटा मर गया है। जिज्ञासा वश लेखक भी उनके घर गया। लेकिन जो कुछ लेखक ने वहां पर देखा , उसे देखकर लेखक दंग रह गया। बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा था। वह कुछ फूल जिनको वे हमेशा ही रोपते रहते थे , उन फूलों में से कुछ फूल तोड़कर उन्होंने अपने बेटे की लाश पर बिखरा दिए थे ; उस पर फूल और तुलसी के पत्ते भी थे। सिरहाने के पास एक चिराग जला रखा था। और , उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे थे ! वही पुराना स्वर , वही पुरानी तल्लीनता। घर में पुत्र की पत्नी रो रही थी जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही थी। परन्तु , बाल गोबिन भगत गीत गाए जा रहे थे ! हाँ , गाते – गाते कभी – कभी पुत्र की पत्नी के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। और अपनी बहु को समझाते हुए कहते कि आत्मा परमात्मा के पास चली गई , विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली , भला इससे बढ़कर आनंद की कौन ही बात हो सकती है ? यह सब बाते सुनते – सुनते कभी – कभी लेखक सोच में पड़ जाते थे , कि कहीं बेटे की मौत के कारण वे पागल तो नहीं हो गए हैं। परन्त नहीं , जब लेखक उनकी कही हुई बातों को ध्यान से सोचते हैं तब उन्हें लगता है कि वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था – वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का परमात्मा से मिलन मोक्ष है और मोक्ष की प्राप्ति आत्मा का अंतिम लक्ष्य। और जो कोई इस बात को समझ जाए वह मृत्यु से कभी भय नहीं कर सकता।लेखक बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे के अंतिम – कर्मों में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ; यहाँ तक की उनके बेटे को आग भी उनकी बहु ने ही दिलाई। किन्तु जैसे ही पितरों अथवा मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाला धार्मिक कर्मकांड , पिंडदान, अन्नदान आदि का समय पूरा हुआ , वैसे ही अपनी बहु के भाई को बुलाकर उसे उसके साथ कर दिया , और यह आदेश दिया कि इसकी दूसरी शादी कर देना। किन्तु उनकी बहु रो – रोकर कहती रही कि वह चली जाएगी तो बुढ़ापे में कौन बाल गोबिन भगत के लिए भोजन बनाएगा , यदि कभी बीमार पड़े , तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा ? अर्थात उनकी बहु जानती थी कि अगर वह चली जाएगी तो बाल गोबिन भगत बिलकुल अकेले हो जाएंगे। वह बाल गोबिन भगतके पैर पड़ती रही कि वह उसे अपने चरणों से अलग न करे ! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। उन्होंने अपनी बहस का अंत करते हुए कहा कि वह चली जाए , नहीं तो वे ही इस घर को छोड़कर चले जाएंगे। अब इस तरह की बात के आगे बेचारी की क्या चलती ? कहने का तात्पर्य यह है कि न चाहते हुए भी बाल गोबिन भगत की बहु को उन्हें बुढ़ापे में अकेले छोड़ कर जाना पड़ा। लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के मुताबिक़ हुई। वह हर वर्ष गंगा – स्नान करने जाते थे। उनकी स्नान पर उतनी आस्था नहीं होती थी , जितना साधु -संतों से मिलने और जगाहों को देखने पर होती। अर्थात बाल गोबिन भगत को घूमना – फिरना पसंद था। वे पैदल ही जाते थे। उनके घर से करीब तीस कोस दुरी पर गंगा थी। लेखक कहते हैं कि साधु को किसी का सहारा लेने का क्या हक है ? और , गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे ? इसलिए इसी सोच के कारण , बाल गोबिन भगत घर से खाकर चलते , तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते , गाते और जहाँ प्यास लगती , पानी पी लेते। चार – पाँच दिन आने – जाने में लगते ; किन्तु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती ! अब बुढ़ापा जरूर आ गया था , परन्तु टेक वही जवानी वाली थी। परन्तु लेखक बताते हैं कि अंतिम बार जब वे लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने – पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी , थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु अपने रोज़ के कामों को तो छोड़ने वाले नहीं थे। वही दोनों समय गीत गुनगुनाना , स्नानध्यान , खेतीबारी देखना। किन्तु अब दिन प्रतिदिन कमजोर और क्षिण होने लगे थे। उनकी तबियत को देखते हुए लोगों ने उन्हें नहाने – धोने से मना किया , आराम करने को कहा। किन्तु , वे हँसकर टाल देते रहे। लेखक बाल गोबिन भगत के आखरी दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उस दिन भी शाम के समय उन्होंने गीत गाए , किन्तु उस समय ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कोई तागा टूट गया हो , माला का एक – एक दाना बिखरा हुआ सा लग रहा था। सुबह में लोगों ने जब गीत नहीं सुना , तब जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ उनका मांस – त्वचा आदि से ढके हुए शरीर की हड्डियों का ढाँचा पड़ा हुआ था !
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बालगोबिन भगत पाठ व्याख्या (Balgobin Bhagat Lesson Explanation)
पाठ – बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे – चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे , किन्तु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लंगोटी – मात्र और सिर में कबीरपंथियों की – सी कनफटी टोपी। जब जाड़ा आता , एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते। मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन , जो नाक के एक छोर से ही , औरतों के टीके की तरह , शुरू होता। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते।
शब्दार्थ
मँझोले – बीच के
बाल पक जाना – बाल सफेद हो जाना
जटाजूट – लंबे बालों या जटा को समेटकर बनाया जाने वाला जूड़ा
जगमग – जगमगाहट , जो प्रकाश पड़ने पर चमकता हो , चमकीला
लंगोटी – लंगोट पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला एक अन्त:वस्त्र है , यह पुरुष जननांग को ढककर एवं दबाकर रखने में सहायता करता है
जाड़ा – छह ऋतुओं में से एक जिसमें ठंड पड़ती है , शीत ऋतु , सरदी का मौसम , हेमंत और शिशिर ऋतुओं का काल , आधे कार्तिक से आधे फागुन तक का समय
काली कमली – काले रंग का कम्बल
ओढ़ना – ओढ़नी , शरीर ढकने हेतु शरीर के उपर से डाला जाने वाला वस्त्र
छोर – किसी चीज़ का अंतिम सिरा , किनारा , किसी वस्तु का भाग या विस्तार , सीमा , कोना
बेडौल – जो सुडौल न हो , भद्दा , कुरूप , भद्दी बनावट का , बेढंगा
नोट – इस गद्यांश में लेखक बालगोबिन भगत के बारे में बात रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत न तो बहुत लम्बे थे और न ही बहुत छोटे थे बल्कि उनका कद मध्यम था , बालगोबिन भगत का रंग भी गोरा था। बालगोबिन भगत जी को देखने से प्रतीत होता था कि उनकी उम्र साठ वर्ष से अधिक की ही होगी। क्योंकि उनके सारे बाल पक गए थे अर्थात उनके सारे बाल सफ़ेद हो गए थे। बालगोबिन भगत कोई लंबी दाढ़ी और बालों का जुड़ा तो नहीं रखते थे , परन्तु हमेशा ही उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता था। वे ज्यादा कपड़े भी नहीं पहनते थे बल्कि बिलकुल कम पहनते थे चाहे कोई भी मौसम क्यों न हो। वे हमेशा ही कमर पर केवल एक लंगोटी और सिर में कबीरपंथियों के जैसी कनफटी टोपी पहना करते थे। केवल जब ठण्ड का मौसम आता या ठण्ड बढ़ जाती तो एक छोटा सा काला कम्बल ऊपर से ओढ़ लेते थे। वे मस्तक पर हमेशा रामानंदी चंदन लगाया करते थे जो चमकदार होता था और उसको लगाने का तरीका भी अनोखा होता था। वे उस चन्दन के टिके को नाक के एक छोर से ही शुरू करते थे जैसे औरतें अपने टीके को लगाती हैं। वे हमेशा ही अपने गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल बेढंगी से माला बाँधे रहते थे , जो देखने में बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती थी।
पाठ – ऊपर की तसवीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे। नहीं , बिलकुल गृहस्थ ! उनकी गृहिणी की तो मुझे याद नहीं , उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी , एक अच्छा साफ़ – सुथरा मकान भी था।
किन्तु , खेतीबारी करते , परिवार रखते भी , बालगोबिन भगत साधु थे – साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले। कबीर को ‘ साहब ’ मानते थे , उन्हीं के गीतों को गाते , उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते , खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो – टूक बात करने में संकोच नहीं करते , न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज़ नहीं छूते , न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी – कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता ! – कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते ! वह गृहस्थ थे ; लेकिन उनकी सब चीज़ ‘ साहब ’ की थी। जो कुछ खेत में पैदा होता , सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते – जो उनके घर से चार कोस दूर पर था – एक कबीरपंथी मठ से मतलब ! वह दरबार में ‘ भेंट ’ रूप रख लिया जाकर ‘ प्रसाद ’ रूप में जो उन्हें मिलता , उसे घर लाते और उसी से गुज़र चलाते !
शब्दार्थ
साधु – संत , महात्मा , सज्जन व भला पुरुष , उत्तम , अच्छा , भला , विरक्त , धार्मिक , सदाचारी
गृहस्थ – पत्नी और बाल – बच्चों वाला आदमी
गृहिणी – घर पर रहने वाली विवाहित स्त्री , घर की कर्ता – धर्ता स्त्री , गृहस्वामिनी , पत्नी , भार्या
पतोहू – पुत्र की पत्नी , पुत्रवधू
खेतीबारी – खेती – किसानी , कृषि – कर्म , सब्ज़ी इत्यादि उगाने का काम
खरा उतरना – किसी बात को सिद्ध करना
खरा – सच्चा , जिसमें किसी प्रकार का खोट या मैल न हो , छल – कपट से रहित , निष्कपट , ईमानदार
व्यवहार – बरताव , सलूक
संकोच – झिझक , हिचकिचाहट , असमंजस , थोड़े में बहुत सी बातें करना , भय या लज्जा का भाव
खामखाह – बिना किसी बात के
झगड़ा मोल लेना – झगड़ा करना
कुतूहल – जानने और सीखने की प्रबल इच्छा , किसी अद्भुत या विलक्षण विषय के प्रति होने वाली जिज्ञासा , उत्सुकता , आश्चर्य , अचंभा
शौच – पाख़ाना ( लैटरिन ) जाना
कोस – दूरी मापने की प्राचीन भारतीय पद्धति का एक पैमाना , दो किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी
भेंट – उपहार , सौगात में दी गई वस्तु
प्रसाद – अनुग्रह , कृपा , आशीर्वाद , वह खाद्य पदार्थ या मिठाई जिसे देवता आदि को चढ़ाने के उपरांत लोग ग्रहण करते हैं
गुज़र – गुज़ारा , जीवनचर्या
नोट – इस गद्यांश में लेखक बालगोबिन भगत के व्यवहार के बारे में वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जिस तरह का वर्णन उन्होंने ऊपर के गद्यांश में बालगोबिन भगत का किया है उससे यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत कोई विरक्त व्यक्ति थे , जिसने सभी भौतिक सुखों का त्याग कर दिया हो। ऐसा बिलकुल नहीं था , बल्कि वे तो पत्नी और बाल – बच्चों वाले आदमी थे। लेखक बताते हैं कि उनकी पत्नी की तो लेखक को याद नहीं हैं , परन्तु उनके बेटे और बेटे की पत्नी को तो लेखक ने देखा था। बालगोबिन भगत की थोड़ी खेतीबारी भी थी और उनका एक अच्छा साफ़ – सुथरा मकान भी था। परन्तु लेखक बताते हैं कि भले ही बालगोबिन भगत खेतीबारी करते थे और परिवार वाले व्यक्ति थे , फिर भी बालगोबिन भगत विरक्त व्यक्ति थे – क्योंकि विरक्त व्यक्ति की जो भी विशेषताएँ होती हैं वे उन सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले व्यक्ति थे। बालगोबिन भगत कबीर के भक्त थे , वे कबीर को ‘ साहब ’ मानते थे , उन्हीं के गीतों को हमेशा गाते रहते थे और उन्हीं के दिए या बताए हुए आदेशों पर चलते थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे , उनका व्यवहार छल – कपट से रहित था। लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत किसी से भी दो – टूक बात करने में कोई झिझक नहीं करते थे अर्थात उन्हें जो कहना होता था वे झट से कह देते थे , बालगोबिन भगत किसी से भी बिना बात के कोई झगड़ा नहीं करते थे। वे किसी की कोई भी चीज़ बिना पूछे उपयोग में नहीं लाते थे , छूना तो बहुत दूर की बात है। वे इस नियम को कभी – कभी इतनी बारीकी से अपने व्यवहार में लाते कि लोगों को आश्चर्य होता था कि कोई कैसे इतना नियमों का पालन कर सकता है ! – चाहे कितनी भी मुसीबत आन पड़े वे कभी भी दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते थे ! वह पत्नी और बाल – बच्चों वाले आदमी थे ; लेकिन उनकी सब चीज़ ‘ साहब ’ अर्थात कबीर के जैसी थी। जो कुछ भी वे मेहनत करके खेती – बाढ़ि करके खेत में आनाज पैदा करते , पहले उसे सिर पर लादकर साहब यानी कबीर के दरबार में ले जाते – जो उनके घर से चार कोस दूर पर था – कबीर के दरबार से यहाँ एक कबीरपंथी मठ से है ! वह दरबार में अपनी फ़ासल को सौगात के रूप रख लिया करते और वहाँ से वापिस आशीर्वाद के रूप में जो भी अन्न उन्हें मिलता , उसे घर लाते और उसी से अपने घर – परिवार का गुजारा चलाते थे!
पाठ – इन सबके ऊपर , मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर – जो सदा – सर्वदा ही सुनने को मिलते। कबीर के वे सीधे – सादे पद , जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते।
आसाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं ; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी – भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा ; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर – तरंग झंकार – सी कर उठी। यह क्या है – यह कौन है ! यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े , अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक – एक धान के पौधे को , पंक्तिबद्ध , खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक – एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर , स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर ! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं ; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं , वे गुनगुनाने लगती हैं ; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं ; रोपनी करने वालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं ! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू !
शब्दार्थ
मुग्ध – मोहित , आसक्त
मधुर गान – मीठा गीत , कर्णप्रिय गीत
सर्वदा – हमेशा , सदा
सजीव – जिसमें जीवन या प्राण हो , जीवनयुक्त , सप्राण , ओजपूर्ण , जीवंत
आसाढ़ – जेठ के बाद का महीना
रिमझिम – वर्षा की छोटी – छोटी बूँदें गिरना , फुहार पड़ना
समूचा – संपूर्ण , पूरा
रोपनी – बीज या पौधे आदि एक स्थान से लाकर दूसरे स्थान पर लगाने की क्रिया
धान – एक फ़सल जिसके बीज को कूटकर चावल निकाले जाते हैं
कलेवा – सुबह का जलपान नाश्ता , उपाहार , यात्रा के दौरान खाने के लिए लिया गया खाद्य पदार्थ
मेंड – खेत का अंत
पुरवाई – पुरवा हवा , पूर्व से चलने वाली या आने वाली वायु , पूर्व की वायु
स्वर – तरंग – स्वरों का आरोह – अवरोह
झंकार – झन – झन की ध्वनि , झनझनाहट , धातु की किसी चीज़ पर चोट करने से उससे उत्पन्न होने वाली
झनझनाहट , झींगुर आदि कीटों के बोलने का शब्द
लिथड़े – लिपटना
पंक्तिबद्ध – किसी उद्देश्य से एक सीध में या क्रमिक रूप से खड़े हुए , एक शृंखला में बँधा हुआ , क्रमिक, कतारबद्ध , श्रेणीबद्ध
हलवाहा – हल चलाने वाला
नोट – इस गद्यांश में लेखक वर्णन कर रहे हैं कि धान की रुपाई करते समय बालगोबिन भगत गाना गुनगुना रहे होते थे तो किस तरह का माहौल बनता था।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत का जिस तरह का व्यवहार था उन सबके ऊपर लेखक मोहित हो गए थे। उनके मधुर गान – जो वे हमेशा ही गुनगुनाते रहते थे , वे लेखक को हमेशा सुनने को मिलते थे। जब भी वे कबीर के सीधे – सादे पद गुनगुनाते थे , तो ऐसा प्रतीत होता था कि उनके कंठ से निकलकर वे पद मानो सजीव हो उठते थे। लेखक उस समय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आसाढ़ मास में जब वर्षा की छोटी – छोटी बूँदें गिर रही होती है , तो पूरा गाँव अपने – अपने खेतों में उतर पड़ता है। कहीं कोई हल चल रहे हैं , तो कहीं पर धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम हो रहा है। धान के खेतों में पानी भरा हुआ है और बच्चे उन खेतों में उछल रहे हैं। औरतें सुबह का जलपान नाश्ता लेकर खेत के किनारे पर बैठी हुई हैं। आसाढ़ मास में आसमान पूरी तरह बादल से घिरा हुआ होता है और कहीं पर भी धूप का नाम नहीं होता। पूर्व से चलने वाली या आने वाली ठंडी हवाएँ चल रही है। लेखक बताते हैं कि ऐसे ही समय में जब सभी आसाढ़ मास में अपने – अपने कामों में व्यस्त होते हैं तब सबके कानों में एक स्वर – तरंग की झन – झन की ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह ध्वनि क्या है या यह कौन है जो इस ध्वनि को उत्पन्न कर रहा है ! यह किसी को पूछने की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि इसके बारे में सभी को पता है। बालगोबिन भगत का पूरा शरीर कीचड़ में लिपटा हुआ है और वे भी अपने खेत में धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक – एक धान के पौधे को , एक सीध में , खेत में बिठा रही है। उनका गला संगीत के एक – एक शब्द को जुबान पर चढ़ाकर कुछ शब्दों को ऊपर , स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर भेज रहा है ! अर्थात बालगोबिन भगत के संगीत के स्वर चारों ओर गूँज रहे हैं। बच्चे खेलते हुए जब बालगोबिन भगत का संगीत सुनते हैं तो वे झूम उठते हैं ; खेतों के किनारे पर खड़ी औरतों के होंठ भी काँप उठते हैं , अर्थात वे भी बालगोबिन भगत के स्वरों के साथ गुनगुनाने लगती हैं ; हल चलाने वाले लोगों के पैर भी उन स्वरों के ताल से उठने लगते हैं ; धान के पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने का काम करने वालों की अँगुलियाँ भी एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं ! यह सब दृश्य देख कर एक ही प्रश्न मन में उठता है कि बालगोबिन भगत का यह संगीत है या कोई जादू है !
पाठ – भादो की वह अंधेरी अधरतिया। अभी , थोड़ी ही देर पहले मुसलधार वर्षा खत्म हुई है। बादलों की गरज , बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो , किन्तु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र – टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकतीं। उनकी खँजड़ी डिमक – डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं – ” गोदी में पियवा , चमक उठे सखिया , चिहुँक उठे ना ! ” हाँ , पिया तो गोद में ही है , किन्तु वह समझती है , वह अकेली है , चमक उठती है , चिहुँक उठती है। उसी भरे – बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता ?अरे , अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है , बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है , जगा रहा है ! – तेरी गठरी में लागा चोर , मुसाफ़िर जाग ज़रा !
शब्दार्थ
भादो – श्रावण और आश्विन के बीच का महीना जो अंग्रेजी महीने के अगस्त और सितम्बर के बीच में आता है
अंधेरी – ऐसी रात जिसमें चारों तरफ़ अँधेरा छाया रहता है या चंद्रमा की रोशनी नहीं होती
अधरतिया – आधी रात
मुसलधार वर्षा – वह वर्षा जो मोटी – मोटी बूंदों के रूप में बरसती है
गरज – बहुत गंभीर या घोर शब्द
तड़प – छटपटाहट , व्याकुलता , बेचैनी
झिल्ली – झींगुर
झंकार – झन – झन की ध्वनि , झनझनाहट , धातु की किसी चीज़ पर चोट करने से उससे उत्पन्न होने वाली झनझनाहट , झींगुर आदि कीटों के बोलने का शब्द
दादुरों – मेंढक , दर्दुर
कोलाहल – अनेक लोगों के बोलने , चीखने – चिल्लाने से होने वाला शब्द , ध्वनि या शोर , हलचल
खँजड़ी – संगीत उत्पन्न करने वाला एक यंत्र
चिहुँक – चहकना
अकस्मात – अचानक , एकदम से , एकाएक , औचक , सहसा , संयोगवश
कौंध – चमक , आकाशीय विद्युत की चमक
चौंकाना – एकाएक कोई ऐसी बात या घटना का हाल कहना जिसे सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो उठें
निस्तब्धता – निस्तब्ध होने की अवस्था या भाव , निश्चेष्टता , गतिहीनता
गठरी – कपड़े में गाँठ लगाकर बाँधा हुआ सामान , बड़ी पोटली , इकट्ठी की गई धन – दौलत , माल , बड़ी रकम
मुसाफ़िर – यात्री , सफ़र करने वाला व्यक्ति , पथिक , बटोही , परदेशी
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने बालगोबिन भगत के गीत का वर्णन किया है कि उनके गीत किस तरह लोगो का ध्यान आकर्षित करते थे ?
व्याख्या – लेखक भादो महीने की उस अंधेरी आधी रात का वर्णन कर रहे हैं जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है और चाँद की चाँदनी कहीं नज़र नहीं आ रही है। उस आधी रात में लेखक बताते हैं कि अभी , कुछ समय पहले ही वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों ने बरसना बंद किया है। उस समय जब वर्षा की मोटी – मोटी बूंदों के साथ ही , बादलों की बहुत गंभीर आवाज़ और बिजली की चमचमाहट में किसी ने कुछ नहीं सुना हो , किन्तु अब झींगुरों की झन – झन की ध्वनि या मेंढकों की टर्र – टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने शोर में नहीं डुबो सकतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि उस आधी रात में भी जब चारों ओर केवल अँधेरा ही अँधेरा था तब भी बालगोबिन भगत अपने संगीत को हमेशा की तरह गुनगुना रहे थे और बादलों की गंभीर आवाज़ और बिजली की चमचमाहट से भले ही उनके संगीत को कोई न सुन पाया हो किन्तु झींगुरों या मेंढकों की ध्वनि उनके संगीत को दबा नहीं सकती। उनकी खँजड़ी जिसको वे हमेशा संगीत की धुन बजाने के लिए उपयोग में लाते है वो डिमक – डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं – ” गोदी में पियवा , चमक उठे सखिया , चिहुँक उठे ना ! ” हाँ , पिया तो गोद में ही है , किन्तु वह समझती है , वह अकेली है , चमक उठती है , चिहुँक उठती है। लेखक बताते हैं कि उसी भरे – बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अचानक से आकाशीय विद्युत की चमक की तरह किसे न चौंका देता ? अर्थात हर कोई उनका गाना सुन कर हैरान हो जाता क्योंकि भयंकर बारिश और बिजली में भी वे अपने नियमित कार्य को लगन के साथ करते रहते। ऐसी ठंडी , सर्द और आधी रात में जब सारा संसार बिना किसी हलचल के सोया हुआ है , बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है , जगा रहा है ! कि तेरी इकट्ठी की गई धन – दौलत में लागा चोर , सफ़र करने वाले व्यक्ति अपनी नींद से जाग ज़रा !
पाठ – कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुईं , जो फागुन तक चला करतीं। इन दिनों वह सबेरे ही उठते। न जाने किस वक्त जगकर वह नदी – स्नान को जाते – गाँव से दो मील दूर ! वहाँ से नहा – धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही , पोखरे के ऊँचे भिंडे पर , अपनी खँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते। मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूँ , किन्तु , एक दिन , माघ की उस दाँत किटकिटानेवाली भोर में भी , उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था। अभी आसमान के तारों के दीपक बुझे नहीं थे। हाँ , पूरब में लोही लग गई थी जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत , बगीचा , घर – सब पर कुहासा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह , काली कमली ओढे़ , बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुँह से शब्दों का ताँता लगा था , उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थीं। गाते – गाते इतने मस्त हो जाते , इतने सुरूर में आते , उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता , अब खड़े हो जाएँगे। कमली तो बार – बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था , किन्तु तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रम बिंदु , जब – तब , चमक ही पड़ते।
शब्दार्थ –
कातिक – आश्विन और मार्गशीर्ष के बीच में पड़ता है और जो अंग्रेजी महीने के अक्टूबर और नवम्बर के बीच में आता है
प्रभातियाँ – एक प्रकार का गीत जो प्रातःकाल गाया जाता है
मील – दूरी की एक नाप 1760 गज
पोखर – छोटा तालाब , बड़ा गड्ढा जिसमें वर्षा का जल जमा हो जाता है
गाने टेरने लगना – गाना गाने लगना
भोर – सूर्योदय के पूर्व की स्थिति , प्रातःकाल , तड़के
लोही – अरुणिमा , लालिमा
लालिमा – लाल होने की अवस्था या भाव , लाली , सुर्ख़ी , अरुणिमा
कुहासा – हवा में मिले हुए या वातावरण में मौजूद जलवाष्प के अत्यंत सूक्ष्म कण जो बादल की तरह अदृश्यता या धुँधलापन पैदा करते हैं , धुंध , कोहरा , नीहार
आवृत – ढका हुआ , आच्छादित
कुश – कड़ी और नुकीली पत्तियों वाली एक प्रसिद्ध घास जिसकी पत्तियाँ हिंदुओं की पूजा , यज्ञ आदि में काम आती हैं , दर्भ
मस्त – मद या नशे में चूर , मदोन्मत्त , मतवाला , मनमौजी , लापरवाह , बेफ़िक्र
सुरूर – नशा , हलका नशा , ख़ुशी , आनंद , प्रसन्नता
उत्तेजित – आवेश में आया हुआ , उत्तेजना से भरा हुआ , प्रेरित , प्रोत्साहित , क्षुब्ध , भड़का हुआ
सरकना – फिसलना , गिरना
मस्तक – सिर का ऊपरी और सामने वाला भाग , माथा , भाल , ललाट
श्रम बिंदु – परिश्रम के कारण आई पसीने की बूँदें
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने बालगोबिन भगत की दिनचर्य और उनके संगीत के प्रति प्रेम का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जैसे ही कातिक का महीना आता है वैसे ही बालगोबिन भगत की सुबह के समय गाए जाने वाले गीत शुरू हो जाया करते थे और वे गीत फागुन महीने तक चला करते थे। इन महीनों में वे सुबह होते ही उठ जाते थे। किसी को भी यह पता नहीं चल पाता था कि वे किस वक्त जग जाया करते थे और वे हमेशा नदी – स्नान को जाते थे अर्थात वे हमेशा नदीं में ही नहाया करते थे। नदी उनके गाँव से दो मील दूर थी ! कहने का तात्पर्य यह है कि बालगोबिन भगत हर सुबह नहाने के लिए दो मील दूर नदी में जाया करते थे। वहाँ से नहा – धोकर जब वे घर लौटते थे तो घर आने से पहले गाँव के बाहर ही , एक तालाब था , वे उसके ऊँचे हिस्से पर , अपनी खँजड़ी लेकर बैठ जाया करते थे और अपने गाने गुनगुनाने लगते थे। लेखक अपने बारे में बताते हैं कि वे शुरू से ही देर तक सोने वाले रहे हैं , परन्तु , एक दिन जब लेखक ने , माघ की उस दाँत किटकिटाने वाली सुबह में भी , उनका संगीत सूना तो लेखक को ऐसा लगा जैसे वह संगीत लेखक को उस तालाब पर ले गया था। अर्थात लेखक उस संगीत को सुनकर उस तालाब तक खींचे चले आए थे जहाँ बाल गोबिन भगत गाना गा रहे थे। लेखक उस समय के बारे में बताते हैं कि उस समय आसमान में तारे पूरी तरह से ओझिल नहीं हुए थे। किन्तु हाँ , पूरब में हल्की लालिमा आ गई थी और उस लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत , बगीचा , घर – सब पर कुहरा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से ढाका हुआ मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक प्रकार के घास से बनी चटाई पर पूरब की और मुँह किए , छोटा सा काला कम्बल ओढे़ हुए , बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे हुए थे। उनके मुँह से लगातार शब्द उच्चारित हो रहे थे अर्थात वे अपना गाना गाने में मस्त थे , उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थीं अर्थात वे अपने गीत को संगीत खँजड़ी की मदद से स्वयं ही दे रहे थे। वे अपने गाने को गाते – गाते इतने मस्त हो जाते थे और इतने सुरूर में आ जाते थे , इतने उत्तेजित हो उठते थे कि उनको देख कर ऐसा मालूम होता था जैसे वे गाना गाते हुए कभी भी खड़े हो जाएँगे। उनका छोटा सा कम्बल तो बार – बार सिर से नीचे खिसकता जाता था। लेखक बताते है कि उस ठण्ड से वे तो कँपकँपा रहे थे , परन्तु तारे की छाँव में भी बालगोबिन भगत के माथे पर उनके गाना गाने के परिश्रम से आई पसीने की बिंदु , जब – तब , चमक ही पड़ती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस ठण्ड में दूसरे कँपकँपा जाएँ उस ठण्ड में भी बालगोबिन भगत अपने गाने को गुनगुनाने का कर्म नहीं तोड़ते थे और जब वे गाना गुनगुनाने लगते थे तब उन्हें ठण्ड का आभास भी नहीं होता था।
पाठ – गर्मियों में उनकी ‘ संझा ’ कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती ! अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खंँजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते , उनकी प्रेमी – मंडली उसे दुहराती , तिहराती। धीरे – धीरे स्वर ऊँचा होने लगता – एक निश्चित ताल , एक निश्चित गति से। उस ताल – स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे – धीरे मन तन पर हावी हो जाता। होते – होते , एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं। सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है !
बालगोबिन भगत की संगीत – साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह ! कुछ सुस्त और बोदा – सा था , किन्तु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए , क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी , पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है , इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत ! किन्तु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। हमने सुना , बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते , उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं ; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और , उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं ! वही पुराना स्वर , वही पुरानी तल्लीनता। घर में पतोहू रो रही है जिसे गाँव की स्त्रिायाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किन्तु , बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं ! हाँ , गाते – गाते कभी – कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई , विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली , भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात ? मैं कभी – कभी सोचता , यह पागल तो नहीं हो गए। किन्तु नहीं , वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था – वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।
शब्दार्थ
संझा – शाम , संध्या , सायंकाल
उमस – वर्षा ऋतु की ऐसी गरमी जो हवा बंद हो जाने पर लगती है , बरसात की नमी युक्त गरमी
शीतल – ठंडा , शीत उत्पन्न करने वाला , सर्द , जो ठंडक उत्पन्न करता हो , जिसमें शीतलता हो
आसन – मूँज , कुश , ऊन आदि से निर्मित छोटी चटाई
करतालों – दोनों हथेलियों के टकराने या आघात से उत्पन्न ध्वनि , ताली , लकड़ी – काँसे आदि का बना हुआ एक वाद्य , मजीरा
भरमार – बहुतायत , प्रचुरता , चीज़ों की अधिकता , समृद्धि
दुहराना – किसी बात या काम को दुबारा कहना या करना , पुनरावृत्ति करना
श्रोता – सुनने वाला व्यक्ति , किसी सभा आदि में हो रहे भाषण आदि को सुनने वाला व्यक्ति या समूह
चरम – आख़िरी हद या पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ , जैसे – चरम सुख , अत्यधिक , परम , सबसे ऊँचा या ऊपर का
उत्कर्ष – ऊपर की ओर जाने या उठने की क्रिया या भाव , उन्नति , विकास , समृद्धि
इकलौता – ऐसी संतान जिसके अन्य भाई – बहन न हों , अकेली औलाद जो अधिक लाड़ – प्यार में पलती है
बोदा – कमज़ोर , कमअक्ल , तुच्छ , निकम्मा
निगरानी – देख – रेख , निरीक्षण , देख – भाल , संरक्षण
हकदार – हक या अधिकार रखने वाला , अधिकारी
साध – लालसा , मन्नत , अभिलाषा
पतोहू – पुत्र की पत्नी , पुत्रवधू
सुभग – सुंदर , मनोहर , भाग्यवान , प्रिय
सुशील – उत्तम शील या स्वभाववाला , सच्चरित्र , विनीत , सीधे या सरल स्वभाव का
प्रबंधिका – व्यवस्थापक , प्रबंधकर्ता , ( मैनेजर ) ,व्यवस्था करने वाली , प्रबंध करने वाली
निवृत्त – प्रत्यागमन , सांसारिक विषयों से विरक्त , अवकाश प्राप्त , मुक्त
कुतूहल – जानने और सीखने की प्रबल इच्छा , कौतूहल , किसी अद्भुत या विलक्षण विषय के प्रति होने वाली जिज्ञासा , उत्सुकता , आश्चर्य , अचंभा
तुलसीदल – तुलसी के पौधे का पत्ता , तुलसीपत्र
नोट – इस गद्यांश में एक ओर तो लेखक बाल गोबिन भगत के घर में शाम के समय लगने वाली संगीत मंडली के बारे में बता रहे हैं और दूसरी ओर उनके बेटे की मृत्यु पर भी दुःखी न होते हुए अपनी बहु को भी उत्सव मनाने को कहने के पीछे का अद्धभुत कारण समझा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बाल गोबिन भगत के संगीत का गुणगान करते हुए कहते हैं कि गर्मियों के दिनों में बाल गोबिन भगत की वो संगीत से भरी शाम न जाने कितनी उमस भरी शाम को ठंडक प्रदान करती थी ! लेखक बताते हैं कि वे अपने घर के आँगन में हर शाम को आसन जमा कर संगीत गुनगुनाने के लिए बैठ जाया करते थे। गाँव के कुछ लोग जो उनके संगीत को पसंद करते थे वे भी हर शाम को बाल गोबिन भगत के घर के आँगन में जुट जाया करते थे। जब गीत – संगीत शुरू होता तब खंजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती थी। गीत का एक पद बालगोबिन भगत कह जाते थे तो उनकी प्रेमी – मंडली उस गीत के पद को दुहराती , तिहराती थी। जैसे – जैसे गीत – संगीत बढ़ता जाता वैसे – वैसे धीरे – धीरे गीत के स्वर भी ऊँचा होने लगते। ऐसा प्रतीत होता जैसे सभी एक निश्चित ताल , एक निश्चित गति का अनुकरण कर रहे हों। जैसे – जैसे उस गीत के ताल – स्वर में चढ़ाव होता वैसे – वैसे उस गीत को सुनने वाले लोगों के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे – धीरे उन लोगों का मन उनके तन पर हावी हो जाता। और लेखक बताते हैं कि यह सब होते – होते , एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे होते और उनके साथ ही सबके तन और मन भी नाच उठने को होने लगते। हर शाम को बाल गोबिन भगत का सारा आँगन नृत्य और संगीत से भरा पूरा प्रतीत होता था ! लेखक बताते हैं कि बाल गोबिन भगत की संगीत – साधना कितनी अधिक उन्नत है , इसका प्रमाण उस दिन देखा गया जिस दिन उनके बेटे का निधन हो गया। लेखक बताते हैं कि वह उनकी अकेली औलाद थी , जिसको उन्होंने अधिक लाड़ – प्यार में पाला था। उनका वह बीटा कुछ सुस्त और नासमझ – सा था , परन्तु इसी कारण से बाल गोबिन भगत उसे और भी ज्यादा मानते थे। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए , क्योंकि जो थोड़े कमअक्ल या नासमझ होते हैं वे दूसरों की निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। लेखक आगे यह भी बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने बड़ी ही इच्छा के साथ अपने उस बेटे की शादी कराई थी , उन्हें उनकी बहु बड़ी ही सौभाग्यवान और सुशील मिली थी। उसने घर को पूरी तरह से अपने प्रबंध में लेकर बाल गोबिन भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से मुक्त कर दिया था। उनका बेटा बीमार है , इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत मिलती थी ! परन्तु लेखक बताते हैं कि भले ही कोई आपके जिन्दा होने पर आपकी खबर भी न लें किन्तु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक और बाकि सभी ने सुना कि बाल गोबिन भगत का बेटा मर गया है। जिज्ञासा वश लेखक भी उनके घर गया। लेकिन जो कुछ लेखक ने वहां पर देखा , उसे देखकर लेखक दंग रह गया। बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा था। वह कुछ फूल जिनको वे हमेशा ही रोपते रहते थे , उन फूलों में से कुछ फूल तोड़कर उन्होंने अपने बेटे की लाश पर बिखरा दिए थे ; उस पर फूल और तुलसी के पत्ते भी थे। सिरहाने के पास एक चिराग जला रखा था। और , उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे थे ! वही पुराना स्वर , वही पुरानी तल्लीनता। घर में पुत्र की पत्नी रो रही थी जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही थी। परन्तु , बाल गोबिन भगत गीत गाए जा रहे थे ! हाँ , गाते – गाते कभी – कभी पुत्र की पत्नी के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। और अपनी बहु को समझाते हुए कहते कि आत्मा परमात्मा के पास चली गई , विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली , भला इससे बढ़कर आनंद की कौन ही बात हो सकती है ? यह सब बाते सुनते – सुनते कभी – कभी लेखक सोच में पड़ जाते थे , कि कहीं बेटे की मौत के कारण वे पागल तो नहीं हो गए हैं। परन्त नहीं , जब लेखक उनकी कही हुई बातों को ध्यान से सोचते हैं तब उन्हें लगता है कि वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था – वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का परमात्मा से मिलन मोक्ष है और मोक्ष की प्राप्ति आत्मा का अंतिम लक्ष्य। और जो कोई इस बात को समझ जाए वह मृत्यु से कभी भय नहीं कर सकता।
पाठ – बेटे के क्रिया – कर्म में तूल नहीं किया ; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किन्तु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई , पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया , यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। इधर पतोहू रो – रोकर कहती – मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा , बीमार पड़े , तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा ? मैं पैर पड़ती हूँ , मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए ! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। तू जा , नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूँगा – यह थी उनकी आखिरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती ?
बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा – स्नान करने जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते , जितना संत – समागम और लोक – दर्शन पर। पैदल ही जाते। करीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक ? और , गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे ? अतः , घर से खाकर चलते , तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते , गाते जहाँ प्यास लगती , पानी पी लेते। चार – पाँच दिन आने – जाने में लगते ; किन्तु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती ! अब बुढ़ापा आ गया था , किन्तु टेक वही जवानी वाली। इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने – पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी , थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु नेम – व्रत तो छोड़ने वाले नहीं थे। वही दोनों जून गीत , स्नानध्यान , खेतीबारी देखना। दिन – दिन छीजने लगे। लोगों ने नहाने – धोने से मना किया , आराम करने को कहा। किन्तु , हँसकर टाल देते रहे। उस दिन भी संध्या में गीत गाए , किन्तु मालूम होता जैसे तागा टूट गया हो , माला का एक – एक दाना बिखरा हुआ। भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना , जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ उनका पंजर पड़ा है !
शब्दार्थ
क्रिया – कर्म – अंतिम संस्कार
तूल – किसी बात का बहुत बढ़ जाना
ज्योंही – जैसे ही
श्राद्ध – पितरों अथवा मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाला धार्मिक कर्मकांड , पिंडदान, अन्नदान आदि
अवधि – निर्धारित समय , नियत समय , मीयाद , सीमा , हद
चुल्लू – उँगलियों को थोड़ा मोड़कर गहरी की हुई हथेली , अंजलि
अटल – दृढ़ , दृढ़निश्चयी , पक्का , निश्चित , अवश्यंभावी , अचल , स्थिर
दलील – अपने पक्ष में सोच – विचार कर रखा जाने वाला तर्क , युक्ति , वाद – विवाद , बहस
अनुरूप – सदृश , समरूप , अनुसार , मुताबिक , अनुकूल
आस्था – धार्मिक विश्वास , निष्ठा , धारणा , आलंबन , श्रद्धा
संत – साधु , संन्यासी , त्यागी , विरक्त पुरुष , महात्मा , सज्जन
समागम – नज़दीक या पास आना , आगमन , सामने आना , मिलना , एकत्र होना , सम्मेलन , सभा
लोक – दर्शन – लोगों से मिलना
संबल – कोई सहायक वस्तु , बात या विचार , सहारा , ताकत
उपवास – एक व्रत जिसमें व्यक्ति निराहार रहता है , अनशन
दोनों जून – दो वक्त
छीजना – किसी चीज़ का क्षीण होना या घिस जाना , समाप्त होना , ख़राब होना
पंजर – हड्डियों का ढाँचा , मांस – त्वचा आदि से ढके हुए शरीर की हड्डियों का ढाँचा जिनके आधार पर शरीर ठहरा रहता है , कंकाल , ठठरी
नोट – इस गद्यांश में लेखक बाल गोबिन भगत के अंतिम समय के क्रियाकलापों का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि बाल गोबिन भगत ने अपने बेटे के अंतिम – कर्मों में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ; यहाँ तक की उनके बेटे को आग भी उनकी बहु ने ही दिलाई। किन्तु जैसे ही पितरों अथवा मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाला धार्मिक कर्मकांड , पिंडदान, अन्नदान आदि का समय पूरा हुआ , वैसे ही अपनी बहु के भाई को बुलाकर उसे उसके साथ कर दिया , और यह आदेश दिया कि इसकी दूसरी शादी कर देना। किन्तु उनकी बहु रो – रोकर कहती रही कि वह चली जाएगी तो बुढ़ापे में कौन बाल गोबिन भगत के लिए भोजन बनाएगा , यदि कभी बीमार पड़े , तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा ? अर्थात उनकी बहु जानती थी कि अगर वह चली जाएगी तो बाल गोबिन भगत बिलकुल अकेले हो जाएंगे। वह बाल गोबिन भगतके पैर पड़ती रही कि वह उसे अपने चरणों से अलग न करे ! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। उन्होंने अपनी बहस का अंत करते हुए कहा कि वह चली जाए , नहीं तो वे ही इस घर को छोड़कर चले जाएंगे। अब इस तरह की बात के आगे बेचारी की क्या चलती ? कहने का तात्पर्य यह है कि न चाहते हुए भी बाल गोबिन भगत की बहु को उन्हें बुढ़ापे में अकेले छोड़ कर जाना पड़ा। लेखक बताते हैं कि बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के मुताबिक़ हुई। वह हर वर्ष गंगा – स्नान करने जाते थे। उनकी स्नान पर उतनी आस्था नहीं होती थी , जितना साधु -संतों से मिलने और जगाहों को देखने पर होती। अर्थात बाल गोबिन भगत को घूमना – फिरना पसंद था। वे पैदल ही जाते थे। उनके घर से करीब तीस कोस दुरी पर गंगा थी। लेखक कहते हैं कि साधु को किसी का सहारा लेने का क्या हक है ? और , गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे ? इसलिए इसी सोच के कारण , बाल गोबिन भगत घर से खाकर चलते , तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते , गाते और जहाँ प्यास लगती , पानी पी लेते। चार – पाँच दिन आने – जाने में लगते ; किन्तु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती ! अब बुढ़ापा जरूर आ गया था , परन्तु टेक वही जवानी वाली थी। परन्तु लेखक बताते हैं कि अंतिम बार जब वे लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने – पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी , थोड़ा बुखार आने लगा। किन्तु अपने रोज़ के कामों को तो छोड़ने वाले नहीं थे। वही दोनों समय गीत गुनगुनाना , स्नानध्यान , खेतीबारी देखना। किन्तु अब दिन प्रतिदिन कमजोर और क्षिण होने लगे थे। उनकी तबियत को देखते हुए लोगों ने उन्हें नहाने – धोने से मना किया , आराम करने को कहा। किन्तु , वे हँसकर टाल देते रहे। लेखक बाल गोबिन भगत के आखरी दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उस दिन भी शाम के समय उन्होंने गीत गाए , किन्तु उस समय ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कोई तागा टूट गया हो , माला का एक – एक दाना बिखरा हुआ सा लग रहा था। सुबह में लोगों ने जब गीत नहीं सुना , तब जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ उनका मांस – त्वचा आदि से ढके हुए शरीर की हड्डियों का ढाँचा पड़ा हुआ था !
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