CBSE Class 10 Hindi Chapter 9 “Lakhnavi Andaz”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
लखनवी अंदाज़ – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 9 Lakhnavi Andaz Summary with detailed explanation of the lesson ‘Lakhnavi Andaz’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 9 लखनवी अंदाज़ के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 लखनवी अंदाज़ पाठ के बारे में जानते हैं।
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“ लखनवी अंदाज़ ”
लेखक परिचय
लेखक – यशपाल
लखनवी अंदाज़ पाठ प्रवेश (Lakhnavi Andaz – Introduction to the chapter)
वैसे तो यशपाल जी ने ‘ लखनवी अंदाश ‘ , जो की एक व्यंग्य है , यह साबित करने के लिए लिखा था कि बिना किसी कथ्य के कहानी नहीं लिखी जा सकती परंतु फिर भी एक स्वतंत्र रचना के रूप में इस रचना को पढ़ा जा सकता है। यशपाल जी उस पतन की ओर जाने वाला सामंती वर्ग पर तंज़ करते हैं जो असलियत से अनजान एक बनावटी जीवन शैली का आदी है। इस बात को नकारा नहीं सकता कि आज के समय में भी ऐसे दूसरों पर निर्भर रहने वाली संस्कृति को देखा जा सकता है।
लखनवी अंदाज़ पाठ सार (Lakhnavi Andaz Summary)
लेखक अपने सफ़र की शुरुआत का हिस्सा बताते हुए कहते हैं कि लोकल ट्रेन के चलने का समय हो गया था इसलिए ऐसा लग रहा था जैसे वह लोकल ट्रेन चल पड़ने की हड़बड़ी या बेचैनी में फूंक मार रही हो। आराम से अगर लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास में जाना हो तो उसके लिए कीमत भी अधिक लगती है। लेखक को बहुत दूर तो जाना नहीं था। लेकिन लेखक ने टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया ताकि वे अपनी नयी कहानी के संबंध में सोच सके और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य का नज़ारा भी ले सकें , इसलिए भीड़ से बचकर , शोरगुल से रहित ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो , लेखक ने चुना। लेखक जिस लोकल ट्रेन से जाना चाहता था , किसी कारण थोड़ी देरी होने के कारण लेखक से वह गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर , लेखक ज़रा दौड़कर उसमें चढ़ गए। लेखक ने अंदाज़ा लगाया था कि लोकल ट्रेन का वह सेकंड क्लास का छोटा डिब्बा खाली होगा परन्तु लेखक के अंदाज़े के विपरीत वह डिब्बा खाली नहीं था। उस डिब्बे के एक बर्थ पर लखनऊ के नवाबी परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक सज्जन व्यक्ति बहुत सुविधा से पालथी मार कर बैठे हुए थे। उन सज्जन ने अपने सामने दो ताज़े – चिकने खीरे तौलिए पर रखे हुए थे। लेखक के उस डिब्बे में अचानक से कूद जाने के कारण उन सज्जन के ध्यान में बाधा या अड़चन पड़ गई थी , जिस कारण उन सज्जन की नाराज़गी साफ़ दिखाई दे रही थी। लेखक उन सज्जन की नाराज़गी को देख कर सोचने लगे कि , हो सकता है , वे सज्जन भी किसी कहानी के लिए कुछ सोच रहे हों या ऐसा भी हो सकता है कि लेखक ने उन सज्जन को खीरे – जैसी तुच्छ वस्तु का शौक करते देख लिया था और इसी हिचकिचाहट के कारण वे नाराज़गी में हों। उन नवाब साहब ने लेखक के साथ सफ़र करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई ख़ुशी जाहिर नहीं की। लेखक भी बिना नवाब की ओर देखते हुए उनके सामने की सीट पर जा कर बैठ गए। लेखक की पुरानी आदत है कि जब भी वे खाली बैठे होते हैं अर्थात कोई काम नहीं कर रहे होते हैं , तब वे हमेशा ही कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और अभी भी वे उस सेकंड क्लास की बर्थ पर उस नवाब के सामने खाली ही बैठे थे , तो वे उस नवाब साहब के बारे में सोचने लगे। लेखक उस नवाब साहब के बारे में अंदाजा लगाने लगे कि उन नवाब साहब को किस तरह की परेशानी और हिचकिचाहट हो रही होगी। लेखक सोचने लगे कि हो सकता है कि , नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा करने के अंदाजे से और बचत करने के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया होगा और अब उनको यह सहन नहीं हो रहा होगा कि शहर का कोई सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति उन्हें इस तरह बीच वाले दर्जे में सफर करता देखे , कहने का तात्पर्य यह है कि नवाब लोग हमेशा प्रथम दर्ज़े में ही सफर करते थे और उन नवाब साहब को लेखक ने दूसरे दर्ज़े में सफ़र करते देख लिया था तो लेखक के अनुसार हो सकता है कि इस कारण उनको हिचकिचाहट हो रही हो। या फिर हो सकता है कि अकेले सफर में वक्त काटने के लिए ही उन नवाब साहब ने खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति अर्थात लेखक के सामने खीरा कैसे खाएँ , यह सोच कर ही शायद उन्हें परेशानी हो रही हो ? लेखक बताते हैं कि वे नवाब साहब के सामने वाली बर्थ पर आँखें झुकाए तो बैठे थे किन्तु वे आँखों के कोनों से अर्थात तिरछी नजरों से छुप कर नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर तक तो गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर वर्तमान स्थिति पर गौर करते रहे थे , अचानक से ही नवाब साहब ने लेखक को पूछा कि क्या लेखक भी खीरे खाना पसंद करेंगे ? इस तरह अचानक से नवाब साहब के व्यवहार में हुआ परिवर्तन लेखक को कुछ अच्छा नहीं लगा। नवाब साहब के खीरे के शौक को लेखक ने देख लिया था और खीरा एक साधारण वस्तु माना जाता है , जिस कारण नावाब साहब हिचकिचाने लगे थे और लेखक को लग रहा था कि इसी हिचकिचाहट को छुपाने के लिए और साधारण वस्तु का शौक रखने के कारण वे लेखक से खीरा खाने के बारे में पूछ रहे हैं। लेखक ने भी नवाब साहब को शुक्रिया कहते हुए और सम्मान में किबला शब्द से सम्मानित करते हुए जवाब दिया कि वे ही अपना खीरे को खाने का शौक पूरा करें। लेखक का जवाब सुन कर नवाब साहब ने फिर एक पल खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर किया और दृढ़ निश्चय से खीरों के नीचे रखा तौलिया झाड़ा और अपने सामने बिछा लिया। फिर अपनी सीट के नीचे रखा हुआ लोटा उठाया और दोनों खीरों को खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ कर सूखा लिया। फिर अपनी जेब से एक चाकू निकाला। दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें चाकू से गोदकर उनका झाग निकाला , जिस तरह से हम भी खीरे खाने से पहले काटते हैं। यह सब करने के बाद फिर खीरों को बहुत सावधानी से छीलकर लंबाई में टुकड़े करते हुए बड़े तरीक़े से तौलिए पर सजाते गए। लेखक हम सभी पाठकों को लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका बताते हुए कहते हैं कि हम सभी लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका तो जानते ही हैं। वे अपने ग्राहक के लिए जीरा – मिला नमक और पिसी हुई लाल मिर्च को कागज़ आदि में विशेष प्रकार से लपेट कर ग्राहक के सामने प्रस्तुत कर देते हैं। नवाब साहब ने भी उसी तरह से बहुत ही तरीके से खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेर दी। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब की हर एक क्रिया – प्रक्रिया और उनके जबड़ों की कंपन से यह स्पष्ट था कि उन खीरों को काटने और उस पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेरने की सारी प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रस का स्वाद लेना की कल्पना मात्र से ही जल से भर गया था। जिस तरह जब हम अपनी पसंदीदा खाने की किसी चीज़ को देखते हैं तो हमारे मुँह में पानी आ जाता है उसी तरह नवाब साहब के मुँह में भी खीरों को खाने के लिए तैयार करते समय पानी भर आया था। लेखक आँखों के कोनों से अर्थात तिरछी नज़रों से नवाब साहब को यह सब करते हुए देखकर सोच रहे थे , नवाब साहब ने सेकंड क्लास का टिकट ही इस ख़याल से लिया होगा ताकि कोई उनको खीरा खाते न देख लें लेकिन अब लेखक के ही सामने इस तरह खीरे को खाने के लिए तैयार करते समय अपना स्वभाविक व्यवहार कर रहे हैं। अपना काम कर लेने के बाद नवाब साहब ने फिर एक बार लेखक की ओर देख लिया और फिर उनसे एक बार खीरा खाने के लिए पूछ लिया , और साथ – ही – साथ उन खीरों की खासियत बताते हुए कहते हैं कि वे खीरे लखनऊ के सबसे प्रिय खीरें हैं। लेखक बताते हैं कि नमक – मिर्च छिड़क दिए जाने से उन ताज़े खीरे की पानी से भरे लम्बे – लम्बे टुकड़ों को देख कर उनके मुँह में पानी ज़रूर आ रहा था , लेकिन लेखक पहले ही इनकार कर चुके थे , जिस कारण लेखक ने अपना आत्मसम्मान बचाना ही उचित समझा , और उन्होंने नवाब साहब को शुक्रिया देते हुए उत्तर दिया कि इस वक्त उन्हें खीरे खाने की इच्छा महसूस नहीं हो रही है , और साथ ही साथ लेखक ने अपनी पाचन शक्ति कमज़ोर होने का बहाना बनाते हुए नवाब साहब को ही खीरे खाने को कहा। लेखक का जबाव पाते ही नवाब साहब ने लालसा भरी आँखों से नमक – मिर्च के संयोग से चमकती खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों की ओर देखा। फिर खिड़की के बाहर देखकर एक लम्बी साँस ली। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब ने खीरे के एक टुकड़े को उठाया और अपने होंठों तक ले गए , फिर उस टुकड़े को सूँघा , नवाब साहब केवल खीरे को सूँघ कर उसके स्वाद का अंदाजा लगा रहे थे। खीरे के स्वाद के अंदाज़े से नवाब साहब के मुँह में भर आए पानी का घूँट उनके गले से निचे उतर गया। यह सब करने के बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़े को बिना खाए ही खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब ने खीरे के सभी टुकड़ों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से अपने हाथ और होंठ पोंछ लिए और बड़े ही गर्व से आँखों में खुशी लिए लेखक की ओर देख लिया , ऐसा लग रहा था मानो वे लेखक से कह रहे हों कि यह है खानदानी रईसों का तरीका। नवाब साहब ने जो खीरे की तैयारी और इस्तेमाल किया था उससे वे थक गए थे और थककर अपनी बर्थ में लेट गए। लेखक सोच रहे थे कि जिस तरह नवाब साहब ने खीरे का इस्तेमाल किया उससे केवल खीरे के स्वाद और खुशबू का अंदाजा ही लगाया जा सकता है , उससे पेट की भूख शांत नहीं हो सकती। परन्तु नवाब साहब की ओर से ऊँचे डकार का शब्द ऐसे सुनाई दिया , जैसे उनका पेट भर गया हो। और नवाब साहब ने लेखक की ओर देखकर कहा कि खीरा होता तो बहुत स्वादिष्ट है लेकिन जल्दी पचने वाला नहीं होता , और साथ – ही – साथ बेचारे बदनसीब पेट पर बोझ डाल देता है। नवाब साहब की ऐसी बातें सुन कर लेखक कहते हैं कि उनके ज्ञान – चक्षु खुल गए अर्थात लेखक को जो बात समझ नहीं आ रही थी अब समझ में आ रही थी ! नवाब साहब की बात सुन कर लेखक ने मन ही मन कहा कि ये हैं नयी कहानी के लेखक ! क्योंकि लेखक के अनुसार अगर खीरे की सुगंध और स्वाद का केवल अंदाज़ा लगा कर ही पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार , बिना किसी घटना और पात्रों के , लेखक के केवल इच्छा करने से ही ‘ नयी कहानी ’ क्यों नहीं बन सकती?
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लखनवी अंदाज़ पाठ व्याख्या (Lakhnavi Andaz Lesson Explanation)
पाठ – मुफस्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फूँकार रही थी। आराम से सेकंड क्लास में जाने के लिए दाम अधिक लगते हैं। दूर तो जाना नहीं था। भीड़ से बचकर , एकांत में नयी कहानी के संबंध में सोच सकने और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देख सकने के लिए टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया।
गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर , ज़रा दौड़कर उसमें चढ़ गए। अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था। एक बर्थ पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे। सामने दो ताज़े – चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे। डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखाई दिया। सोचा , हो सकता है , यह भी कहानी के लिए सूझ की चिंता में हों या खीरे – जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हों।
शब्दार्थ
मुफस्सिल – गांव की बस्ती
पैसेंजर ट्रेन – वह सवारी गाड़ी जो प्रत्येक ठहराव पर रुकती है , ( लोकल ट्रेन )
उतावला – किसी काम को जल्द करने की हड़बड़ी , बेचैनी , अधीरता , जल्दबाज़ी
फूँकार – फूंक मारना
दाम – मूल्य , कीमत , रुपया , पैसा
एकांत – निर्जन स्थान , सूना स्थान , शांत या शोरगुल रहित ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो , तनहाई , जो स्थान निर्जन या सूना हो
अनुमान – अंदाज़ा , अटकल
प्रतिकूल – खिलाफ़ , विरुद्ध , विपरीत
निर्जन – वह स्थान जहाँ कोई व्यक्ति न हो
सहसा – अचानक
एकांत चिंतन – गहराई से सोचने का भाव , सोचना – विचारना , कोई बात समझने या सोचने के लिए बार – बार किया जाने वाला उसका ध्यान
विघ्न – बाधा या अड़चन
असंतोष – नाख़ुशी , नाराज़गी , अप्रसन्नता
अपदार्थ – अद्रव्य , नगण्यता , तुच्छता , तुच्छ चीज़
संकोच – झिझक , हिचकिचाहट , असमंजस
नोट – इस गद्यांश में लेखक अपने लोकल ट्रेन के सफ़र की पहली झलक दिखा रहे हैं और सफ़र में होने वाले अपने साथी का पहला परिचय दे रहे हैं।
व्याख्या – लेखक अपने सफ़र की शुरुआत का हिस्सा बताते हुए कहते हैं कि गांव की बस्ती की वह सवारी गाड़ी जो प्रत्येक ठहराव पर रुकती है अर्थात लोकल ट्रेन के चलने का समय हो गया था इसलिए ऐसा लग रहा था जैसे वह लोकल ट्रेन चल पड़ने की हड़बड़ी या बेचैनी में फूंक मार रही हो। लेखक बताते हैं कि आराम से अगर लोकल ट्रेन के सेकंड क्लास में जाना हो तो उसके लिए कीमत भी अधिक लगती है। लेखक को बहुत दूर तो जाना नहीं था। लेकिन लेखक ने टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया ताकि वे अपनी नयी कहानी के संबंध में सोच सके और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य का नज़ारा भी ले सकें , इसलिए भीड़ से बचकर , शोरगुल से रहित ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो , लेखक ने चुना। लेखक जिस लोकल ट्रेन से जाना चाहता था , किसी कारण थोड़ी देरी होने के कारण लेखक से वह गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर , लेखक ज़रा दौड़कर उसमें चढ़ गए। लेखक ने अंदाज़ा लगाया था कि लोकल ट्रेन का वह सेकंड क्लास का छोटा डिब्बा खाली होगा परन्तु लेखक के अंदाज़े के विपरीत वह डिब्बा खाली नहीं था। उस डिब्बे के एक बर्थ पर लखनऊ के नवाबी परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक सफेद कपड़े पहने हुए सज्जन व्यक्ति बहुत सुविधा से पालथी मार कर बैठे हुए थे। उन सज्जन ने अपने सामने दो ताज़े – चिकने खीरे तौलिए पर रखे हुए थे। लेखक के उस डिब्बे में अचानक से कूद जाने के कारण उन सज्जन की आँखों में जो गहराई से सोचने का भाव या कहा जा सकता है कि उसके ध्यान में बाधा या अड़चन पड़ गई थी , जिस कारण उन सज्जन की नाराज़गी साफ़ दिखाई दे रही थी। लेखक उन सज्जन की नाराज़गी को देख कर सोचने लगे कि , हो सकता है , वे सज्जन भी किसी कहानी के लिए कुछ सोच रहे हों या ऐसा भी हो सकता है कि लेखक ने उन सज्जन को खीरे – जैसी तुच्छ वस्तु का शौक करते देख लिया था और इसी हिचकिचाहट के कारण वे नाराज़गी में हों।
पाठ – नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया। हमने भी उनके सामने की बर्थ पर बैठकर आत्मसम्मान में आँखें चुरा लीं।
ठाली बैठे , कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है , नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफायत के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर का कोई सफेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफर करता देखे। … अकेले सफर का वक्त काटने के लिए ही खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफेदपोश के सामने खीरा कैसे खाएँ?
शब्दार्थ
ठाली – जो कुछ भी काम – धंधा न करता हो , निठल्ला
कल्पना – सोचना , मान लेना
असुविधा – कठिनाई , परेशानी , सुविधाविहीनता , ज़हमत , दिक्कत
संकोच – सिकुड़ने की क्रिया या भाव , झिझक , हिचकिचाहट , असमंजस , थोड़े में बहुत सी बातें करना
अनुमान – अंदाज़ा , अटकल
संभव – हेतु , कारण , उपयुक्तता , समीचीनता , कर सकने की योग्यता
किफायत – बचत
गवारा – जो मान्य हो , सहने लायक , मनोनुकूल , सह्य , स्वीकार्य
मँझला – बिचला , बीच का , मध्यम , मध्य का
नोट – इस गद्यांश में लेखक , सेकंड क्लास में सफ़र करने वाले नवाब के डिब्बे में लेखक के चढ़ जाने के कारण उस नवाब को होने वाली परेशानी को देखते हुए उस नवाब की परेशानी का अंदाज़ा लगा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जब लेखक सेकंड क्लास में चढ़े तो उसमें पहले से ही एक नवाब मौजूद थे। परन्तु उन नवाब साहब ने लेखक के साथ सफ़र करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई ख़ुशी जाहिर नहीं की। लेखक ने भी उन नवाब के सामने की बर्थ पर बैठकर अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए नवाब से आँखें चुरा लीं , अर्थात लेखक भी बिना नवाब की ओर देखते हुए उनके सामने की सीट पर जा कर बैठ गए। लेखक बताते हैं कि उनकी पुरानी आदत है कि जब भी वे खाली बैठे होते हैं अर्थात कोई काम नहीं कर रहे होते हैं , तब वे हमेशा ही कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और अभी भी वे उस सेकंड क्लास की बर्थ पर उस नवाब के सामने खाली ही बैठे थे , तो वे उस नवाब साहब के बारे में सोचने लगे। लेखक उस नवाब साहब के बारे में अंदाजा लगाने लगे कि उन नवाब साहब को किस तरह की परेशानी और हिचकिचाहट हो रही होगी। लेखक सोचने लगे कि हो सकता है कि , नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा करने के अंदाजे से और बचत करने के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया होगा और अब उनको यह सहन नहीं हो रहा होगा कि शहर का कोई सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति उन्हें इस तरह बीच वाले दर्जे में सफर करता देखे , कहने का तात्पर्य यह है कि नवाब लोग हमेशा प्रथम दर्ज़े में ही सफर करते थे और उन नवाब साहब को लेखक ने दूसरे दर्ज़े में सफ़र करते देख लिया था तो लेखक के अनुसार हो सकता है कि इस कारण उनको हिचकिचाहट हो रही हो। या फिर हो सकता है कि अकेले सफर में वक्त काटने के लिए ही उन नवाब साहब ने खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफेद कपड़े पहने हुए व्यक्ति अर्थात लेखक के सामने खीरा कैसे खाएँ , यह सोच कर ही शायद उन्हें परेशानी हो रही हो ?
पाठ – हम कनखियों से नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर करते रहे।
‘ ओह ’ , नवाब साहब ने सहसा हमें संबोधन किया , ‘ आदाब – अर्ज़ ’ , जनाब , खीरे का शौक फरमाएँगे ?
नवाब साहब का सहसा भाव – परिवर्तन अच्छा नहीं लगा। भाँप लिया , आप शराफत का गुमान बनाए रखने के लिए हमें भी मामूली लोगों की हरकत में लथेड़ लेना चाहते हैं। जवाब दिया , ‘ शुक्रिया , किबला शौक फरमाएँ। ’ नवाब साहब ने फिर एक पल खिड़की से बाहर देखकर गौर किया और दृढ़ निश्चय से खीरों के नीचे रखा तौलिया झाड़कर सामने बिछा लिया। सीट के नीचे से लोटा उठाकर दोनों खीरों को खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकाला। दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें गोदकर झाग निकाला। फिर खीरों को बहुत एहतियात से छीलकर फाँकों को करीने से तौलिए पर सजाते गए।
शब्दार्थ
कनखियों – आँखों के कोनों से
संबोधन – जगाना , बतलाना , समझाना – बुझाना , आह्वान करना , पुकारना
आदाब – अर्ज़ – नमस्कार कहने का एक तरीक़ा होता है
सहसा – अचानक , अकस्मात , एकाएक , एकदम
भाँप – जान लेना
शराफत – शरीफ या सज्जन होने की अवस्था या भाव , सज्जनोचित कोई व्यवहार या शिष्टाचार
गुमान – अभिमान , अहंकार , गर्व
मामूली – साधारण , सामान्य , मध्यमस्तरीय , महत्वहीन
लथेड़ना – ज़मीन पर या कीचड़ आदि में घसीटना , पटकना , पछाड़ना , परेशान करना या तंग करना
किबला – बाप – दादा एवं अन्य प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्तियों के लिए संबोधन का शब्द
गोदना – गड़ाना , चुभाना , कोंचना
एहतियात – सावधानी , ख़बरदारी , चौकसी , सतर्कता
फाँक – भाग विशेष , टुकड़ा , निश्चित मात्रा , फल आदि का लंबाई में काटा हुआ खंड
करीने से – कोई भी काम तरीक़े से करना
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने नवाब साहब के खीरों को काटने के तरीके का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि वे नवाब साहब के सामने वाली बर्थ पर आँखें झुकाए तो बैठे थे किन्तु वे आँखों के कोनों से अर्थात तिरछी नजरों से छुप कर नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर तक तो गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर वर्तमान स्थिति पर गौर करते रहे थे , अचानक से ही नवाब साहब ने लेखक को संबोधित करते हुए अपनी भाषा में नमस्कार करते हुए पूछा कि क्या लेखक भी खीरे खाना पसंद करेंगे ? इस तरह अचानक से नवाब साहब के व्यवहार में हुआ परिवर्तन लेखक को कुछ अच्छा नहीं लगा। उन नवाब साहब के उस अचानक से हुए व्यवहार परिवर्तन से लेखक ने यह जान लिया कि वे नवाब साहब अपने आप के शिष्ट व्यवहार के अहंकार को बनाए रखने के लिए लेखक को भी साधारण लोगों की हरकत में अपने साथ ले लेना चाहते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि उन नवाब साहब के खीरे के शौक को लेखक ने देख लिया था और खीरा एक साधारण वस्तु माना जाता है , जिस कारण नावाब साहब हिचकिचाने लगे थे और लेखक को लग रहा था कि इसी हिचकिचाहट को छुपाने के लिए और साधारण वस्तु का शौक रखने के कारण वे लेखक से खीरा खाने के बारे में पूछ रहे हैं। लेखक ने भी नवाब साहब को शुक्रिया कहते हुए और सम्मान में किबला शब्द से सम्मानित करते हुए जवाब दिया कि वे ही अपना खीरे को खाने का शौक पूरा करें। लेखक का जवाब सुन कर नवाब साहब ने फिर एक पल खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर किया और दृढ़ निश्चय से खीरों के नीचे रखा तौलिया झाड़ा और अपने सामने बिछा लिया। फिर अपनी सीट के नीचे रखा हुआ लोटा उठाया और दोनों खीरों को खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ कर सूखा लिया। फिर अपनी जेब से एक चाकू निकाला। दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें चाकू से गोदकर उनका झाग निकाला , जिस तरह से हम भी खीरे खाने से पहले काटते हैं। यह सब करने के बाद फिर खीरों को बहुत सावधानी से छीलकर लंबाई में टुकड़े करते हुए बड़े तरीक़े से तौलिए पर सजाते गए।
पाठ – लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले खीरे के इस्तेमाल का तरीका जानते हैं। ग्राहक के लिए जीरा – मिला नमक और पिसी हुई लाल मिर्च की पुड़िया भी हाज़िर कर देते हैं।
नवाब साहब ने बहुत करीने से खीरे की फाँकों पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की सुर्खी बुरक दी। उनकी प्रत्येक भाव – भंगिमा और जबड़ों के स्फुरण से स्पष्ट था कि उस प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रसास्वादन की कल्पना से प्लावित हो रहा था।
हम कनखियों से देखकर सोच रहे थे , मियाँ रईस बनते हैं , लेकिन लोगों की नज़रों से बच सकने के खयाल में अपनी असलियत पर उतर आए हैं।
नवाब साहब ने फिर एक बार हमारी ओर देख लिया , ‘ वल्लाह , शौक कीजिए , लखनऊ का बालम खीरा है ! ’
नमक – मिर्च छिड़क दिए जाने से ताज़े खीरे की पनियाती फाँकें देखकर पानी मुँह में ज़रूर आ रहा था , लेकिन इनकार कर चुके थे। आत्मसम्मान निबाहना ही उचित समझा , उत्तर दिया , ‘ शुक्रिया , इस वक्त तलब महसूस नहीं हो रही , मेदा भी ज़रा कमज़ोर है , किबला शौक फरमाएँ। ’
नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक – मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निश्वास लिया।
शब्दार्थ
इस्तेमाल – उपयोग , प्रयोग , किसी वस्तु को काम में लाने का भाव
पुड़िया – किसी कागज़ आदि में किसी वस्तु को विशेष प्रकार से ऐसे लपेट देना
हाज़िर – उपस्थित , मौजूद , जो सामने हो , प्रस्तुत
सुर्खी – लाली , ललाई
बुरक – बिखेरना
स्फुरण – अंकुरण , स्फुटन , कंपन , फड़कन , स्फूर्ति
रसास्वादन – किसी रस का स्वाद लेना , किसी सुख अथवा आनंद का उपभोग करना
प्लावित – जल से व्याप्त , तैराया हुआ
रईस – धनी , अमीर , बड़ा आदमी
बालम – प्रेमी , प्रियतम
पनियाती – रसीला , रसभरा , रसदार , पानी से सराबोर होना , पानी से भरपूर , जिसके अंदर पानी की मात्रा हो
तलब – माँग , चाह , इच्छा , लत , आवश्यकता
मेदा – आमाशय , पेट , उदर
सतृष्ण – तृष्णा – युक्त , तृष्णापूर्ण , लालसा
संयोग – मेल , मिश्रण , ( कॉम्बिनेशन ) , समागम
दीर्घ निश्वास – लम्बी साँस
नोट – इस गद्यांश में लेखक नवाब साहब और लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के द्वारा खीरे के इस्तेमाल के तरीकों में समानता दर्शा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक हम सभी पाठकों को लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका बताते हुए कहते हैं कि हम सभी लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले लोगों के खीरे के इस्तेमाल का तरीका तो जानते ही हैं। वे अपने ग्राहक के लिए जीरा – मिला नमक और पिसी हुई लाल मिर्च को कागज़ आदि में विशेष प्रकार से लपेट कर ग्राहक के सामने प्रस्तुत कर देते हैं। नवाब साहब ने भी उसी तरह से बहुत ही तरीके से खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेर दी। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब की हर एक क्रिया – प्रक्रिया और उनके जबड़ों की कंपन से यह स्पष्ट था कि उन खीरों को काटने और उस पर जीरा – मिला नमक और लाल मिर्च की लाली बिखेरने की सारी प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रस का स्वाद लेना की कल्पना मात्र से ही जल से भर गया था। अर्थात जिस तरह जब हम अपनी पसंदीदा खाने की किसी चीज़ को देखते हैं तो हमारे मुँह में पानी आ जाता है उसी तरह नवाब साहब के मुँह में भी खीरों को खाने के लिए तैयार करते समय पानी भर आया था। लेखक आँखों के कोनों से अर्थात तिरछी नज़रों से नवाब साहब को यह सब करते हुए देखकर सोच रहे थे , मियाँ बड़े आदमी बनते हैं , लेकिन लोगों की नज़रों से बच सकने के खयाल में अपनी असलियत पर उतर आए हैं। अर्थात नवाब साहब ने सेकंड क्लास का टिकट ही इस ख़याल से लिया होगा ताकि कोई उनको खीरा खाते न देख लें लेकिन अब लेखक के ही सामने इस तरह खीरे को खाने के लिए तैयार करते समय अपना स्वभाविक व्यवहार कर रहे हैं। अपना काम कर लेने के बाद नवाब साहब ने फिर एक बार लेखक की ओर देख लिया और फिर उनसे एक बार खीरा खाने के लिए पूछ लिया , और साथ – ही – साथ उन खीरों की खासियत बताते हुए कहते हैं कि वे खीरे लखनऊ के सबसे प्रिय खीरें हैं। लेखक बताते हैं कि नमक – मिर्च छिड़क दिए जाने से उन ताज़े खीरे की पानी से भरे लम्बे – लम्बे टुकड़ों को देख कर उनके मुँह में पानी ज़रूर आ रहा था , लेकिन लेखक पहले ही इनकार कर चुके थे , जिस कारण लेखक ने अपना आत्मसम्मान बचाना ही उचित समझा , और उन्होंने नवाब साहब को शुक्रिया देते हुए उत्तर दिया कि इस वक्त उन्हें खीरे खाने की इच्छा महसूस नहीं हो रही है , और साथ ही साथ लेखक ने अपनी पाचन शक्ति कमज़ोर होने का बहाना बनाते हुए नवाब साहब को ही खीरे खाने को कहा। लेखक का जबाव पाते ही नवाब साहब ने लालसा भरी आँखों से नमक – मिर्च के संयोग से चमकती खीरे के लम्बे – लम्बे टुकड़ों की ओर देखा। फिर खिड़की के बाहर देखकर एक लम्बी साँस ली।
पाठ – खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए। फाँक को सूँघा। स्वाद के आनंद में पलकें मुँद गईं। मुँह में भर आए पानी का घूँट गले से उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर , वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बाहर फेंकते गए।
नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए और गर्व से गुलाबी आँखों से हमारी ओर देख लिया , मानो कह रहे हों – यह है खानदानी रईसों का तरीका
नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए। हमें तसलीम में सिर खम कर लेना पड़ा – यह है खानदानी तहज़ीब , नफ़ासत और नज़ाकत !
हम गौर कर रहे थे , खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का सूक्ष्म , नफ़ीस या एब्स्ट्रैक्ट तरीका ज़रूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से उदर की तृप्ति भी हो सकती है ?
नवाब साहब की ओर से भरे पेट के ऊँचे डकार का शब्द सुनाई दिया और नवाब साहब ने हमारी ओर देखकर कह दिया , ‘ खीरा लज़ीज़ होता है लेकिन होता है सकील , नामुराद मेदे पर बोझ डाल देता है। ’
ज्ञान – चक्षु खुल गए ! पहचाना – ये हैं नयी कहानी के लेखक !
खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार , घटना और पात्रों के , लेखक की इच्छा मात्र से ‘ नयी कहानी ’ क्यों नहीं बन सकती ?
शब्दार्थ
मुँद गईं – बंद हो गई
वासना – भावना , कामना , इच्छा , कल्पना , विचार , ख़याल , दबी हुई इच्छा
रसास्वादन – किसी रस का स्वाद लेना , किसी सुख अथवा आनंद का उपभोग करना
तसलीम – किसी बात को मान लेने या अंगीकार कर लेने की क्रिया या भाव , स्वीकार , अभिवादन , नतमस्तक
तहज़ीब – शिष्टाचार , भल – मनसाहत , सज्जनता , सभ्यता , संस्कृति
नफ़ासत – मृदुलता , कोमलता , सुंदरता , अच्छाई , स्वच्छता , सफ़ाई , निर्मलता
नज़ाकत – नाज़ुक होने का भाव , सुकमारता , स्वभावगत कोमलता , मृदुलता
संतुष्ट – जिसके मन को तुष्ट कर दिया गया हो या जो तुष्ट हो गया हो , तृप्त , प्रसन्न , जो राजी हो गया हो या मान गया हो
नफ़ीस – उत्तम , उमदा , श्रेष्ठ
एब्स्ट्रैक्ट – विचार में विद्यमान
उदर – आमाशय , पेट
तृप्ति – आनंद , संतुष्टि , ख़ुशी , प्रसन्नता
लज़ीज़ – स्वादिष्ट , ज़ायकेदार
सकील – भारी , वज़नी ,जल्दी न पचने वाला
नामुराद – अभागा , बदनसीब , दुर्भाग्यशाली
नोट – इस गद्यांश में लेखक नवाब साहब के खीरे खाने के अनोखे तरीके का वर्णन किया है और साथ ही साथ लेखक यह भी बताते हैं कि यदि कल्पना मात्र से ही पेट भर सकता है या डकार आ सकती है तो बिना विचार , घटना और पात्रों के , लेखक की इच्छा मात्र से ‘ नयी कहानी ’ भी बन सकती है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि नवाब साहब ने खीरे के एक टुकड़े को उठाया और अपने होंठों तक ले गए , फिर उस टुकड़े को सूँघा , उस खीरे के स्वाद की कल्पना की ख़ुशी में लेखक की पलकें बंद हो गई। अर्थात नवाब साहब केवल खीरे को सूँघ कर उसके स्वाद का अंदाजा लगा रहे थे। खीरे के स्वाद के अंदाज़े से नवाब साहब के मुँह में भर आए पानी का घूँट उनके गले से निचे उतर गया। यह सब करने के बाद नवाब साहब ने खीरे के टुकड़े को बिना खाए ही खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब ने खीरे के हर एक टुकड़े को नाक के पास ले जाकर , अपनी कल्पना में ही खीरे के रस का स्वाद ले कर खीरे के हर टुकड़े को खिड़की के बाहर फेंकते गए। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब ने खीरे के सभी टुकड़ों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से अपने हाथ और होंठ पोंछ लिए और बड़े ही गर्व से आँखों में खुशी लिए लेखक की ओर देख लिया , ऐसा लग रहा था मानो वे लेखक से कह रहे हों कि यह है खानदानी रईसों का तरीका। अर्थात नवाब साहब ने लेखक को दिखाने के लिए कि वे खीरे जैसी साधारण वस्तु का उपयोग इसी तरह करते हैं सभी खीरे के टुकड़ों को बिना खाए ही खिड़की से बाहर फ़ेंक दिया। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब ने जो खीरे की तैयारी और इस्तेमाल किया था उससे वे थक गए थे और थककर अपनी बर्थ में लेट गए। लेखक बताते हैं कि नवाब साहब के खीरे खाने के तरीके देख कर लेखक ने यह बात स्वीकार कर ली की यह है खानदानी शिष्टाचार , स्वच्छता अथवा सफ़ाई और मृदुलता ! लेखक कहते हैं कि वे इस बात पर गौर कर रहे थे , कि नवाब साहब के द्वारा खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की खुशबू और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का छोटा सा श्रेष्ठ या एब्स्ट्रैक्ट अर्थात विचार में विद्यमान तरीका तो ज़रूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से पेट की तृप्ति भी हो सकती है ? अर्थात लेखक सोच रहे थे कि जिस तरह नवाब साहब ने खीरे का इस्तेमाल किया उससे केवल खीरे के स्वाद और खुशबू का अंदाजा ही लगाया जा सकता है , उससे पेट की भूख शांत नहीं हो सकती। परन्तु नवाब साहब की ओर से ऊँचे डकार का शब्द ऐसे सुनाई दिया , जैसे उनका पेट भर गया हो। और नवाब साहब ने लेखक की ओर देखकर कहा कि खीरा होता तो बहुत स्वादिष्ट है लेकिन जल्दी पचने वाला नहीं होता , और साथ – ही – साथ बेचारे बदनसीब पेट पर बोझ डाल देता है। नवाब साहब की ऐसी बातें सुन कर लेखक कहते हैं कि उनके ज्ञान – चक्षु खुल गए अर्थात लेखक को जो बात समझ नहीं आ रही थी अब समझ में आ रही थी ! नवाब साहब की बात सुन कर लेखक ने मन ही मन कहा कि ये हैं नयी कहानी के लेखक ! क्योंकि लेखक के अनुसार अगर खीरे की सुगंध और स्वाद का केवल अंदाज़ा लगा कर ही पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार , बिना किसी घटना और पात्रों के , लेखक के केवल इच्छा करने से ही ‘ नयी कहानी ’ क्यों नहीं बन सकती ?
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