surdas ke pad class 10

CBSE Class 10 Hindi Chapter 1 “Surdas Ke Pad”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book

सूरदास के पद – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 1 Surdas Ke Pad Summary with detailed explanation of the lesson ‘Surdas Ke Pad’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग  2 के पाठ 1 सूरदास के पद  के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें।  चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 सूरदास के पद  पाठ के बारे में जानते हैं।

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कवि परिचय

कवि – सूरदास

सूरदास

 

सूरदास के पद पाठ प्रवेश (Surdas ke pad – Introduction to the chapter)

सूरदास ने तीन ग्रंथों की रचना की। ये तीन ग्रन्थ थे – सूरसागर , साहित्य लहरी और सूर सारावली। इन तीन ग्रंथों सूरसागर , साहित्य लहरी और सूर सारावली में से सूरसागर ही सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। अर्थात सूरसागर को लोगों द्वारा अधिक पसंद किया गया। सूरदास को ‘ वात्सल्य ’ और ‘ शृंगार ’ का श्रेष्ठ कवि माना जाता है। सूरदास द्वारा कृष्ण और गोपियों के प्रेम के वर्णन से मानवीय प्रेम की बहुत ही सरल और मान – मर्यादा को दर्शाने वाली छवि समाज के सामने प्रस्तुत हुई है। सूरदास की कविता में ब्रजभाषा का निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। सूरदास ने अपनी कविताओं में अक्सर चली आ रही लोकगीतों की परंपरा को ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

प्रस्तुत पाठ में सूरदास के ग्रन्थ ‘ सूरसागर ‘ के ‘ भ्रमरगीत ‘ से चार पद लिए गए हैं। श्री कृष्ण ने मथुरा जाने के बाद स्वयं न लौटकर उद्धव के जरिए गोपियों के पास संदेश भेजा था कि अब वे वापिस लौट कर नहीं आएँगे। उद्धव ने भी श्री कृष्ण के सन्देश को गोपियों तक पहुँचाया और उन्हें निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने का उपदेश दिया अर्थात श्री कृष्ण गोपियों का उनके प्रति मोह तोड़ना चाहते थे इसलिए उन्होंने उद्धव के जरिए गोपियों को सन्देश भिजवाया कि ईश्वर अनादि , अनन्त है , वह न जन्म लेता है न मरता है , इसलिए वे मोह को त्याग दे एवं योग का सहारा ले कर अपनी विरह वेदना को शांत करने का प्रयास करें। परन्तु गोपियाँ इस तरह के ज्ञान मार्ग के बजाय प्रेम मार्ग को पसंद करती थीं। इस कारण उन्हें उद्धव के द्वारा लाया गया श्री कृष्ण का यह सूखा संदेश पसंद नहीं आया। जब उद्धव और गोपियाँ बातें कर रहीं थी तब वहाँ एक भौंरा आ पहुँचा। यहीं से भ्रमरगीत का प्रारंभ होता है। गोपियों ने भ्रमर के बहाने उद्धव का बहुत मजाक बनाया। प्रस्तुत चार पदों में उद्धव और गोपियों के बीच हुए इसी वार्तालाप के एक अंश को दिखाया गया है।

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सूरदास के पद पाठ सार (Surdas ke Pad Summary)

 प्रस्तुत पद सूरदास जी द्वारा रचित सूरसागर के भ्रमरगीत से लिया गया है। प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे , तो गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली बताती हैं क्योंकि श्री कृष्ण के वापिस न आने पर जितना प्रभाव उन पर पड़ा है उद्धव उससे कोसों दूर है।

पहले पद में गोपियों की यह शिकायत वाजिब लगती है कि यदि उद्धव कभी स्नेह के धागे से बँधे होते तो वे विरह की वेदना को अनुभूत अवश्य कर पाते। गोपियाँ उद्धव अर्थात श्री कृष्ण के मित्र से व्यंग करते हुए कह रही हैं कि वह बहुत भाग्यशाली है , जो अभी तक श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से अब तक अछूता है। गोपियाँ उद्धव की तुलना कमल के पत्तों व तेल के मटके के साथ करती हैं क्योंकि जिस प्रकार कमल के पत्ते हमेशा जल के अंदर ही रहते हैं , लेकिन उन पर जल के कारण कोई दाग दिखाई नहीं देता और जिस प्रकार तेल से भरी हुई मटकी पानी के मध्य में रहने पर भी उसमें रखा हुआ तेल पानी के प्रभाव से अप्रभावित रहता है , उसी प्रकार श्री कृष्ण के साथ रहने पर भी तुम्हारे ऊपर उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यही कारण है कि गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली समझती हैं , जबकि वे खुद को अभागिन अबला नारी समझती हैं , जो श्रीकृष्ण के प्रेम में उलझ गई हैं , उनके मोहपाश में लिपट गई हैं। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं और उनकी विरह की व्यथा और बढ़ गई। दूसरे पद में गोपियों की यह स्वीकारोक्ति कि उनके मन की अभिलाषाएँ मन में ही रह गईं , कृष्ण के प्रति उनके प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त करती है। श्री कृष्ण के गोकुल छोड़ कर चले जाने के उपरांत , गोपियों के मन में स्थित श्री कृष्ण के प्रति प्रेम – भावना मन में ही रह गई है। वे उद्धव से शिकायत करती हैं कि अब वे अपनी यह व्यथा / यह पीड़ा किसे जाकर कहें ? उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। वे अब तक इसी कारण जी रहीं थी कि श्री कृष्ण जल्द ही वापिस आ जाएंगे और वे सिर्फ़ इसी आशा से अपने तन – मन की पीड़ा को सह रही थीं कि जब श्री कृष्ण वापस लौटेंगे , तो वे अपने प्रेम को कृष्ण के समक्ष व्यक्त करेंगी। सूरदास जी के इस पद में गोपियाँ उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम है , जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। बल्कि इससे उनका प्रेम और भी दृढ़ हो जाएगा। तीसरे पद में वे उद्धव की योग साधना को कड़वी ककड़ी जैसा बताकर अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट करती हैं। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमारे श्री कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस तरह हारिल पक्षी अपने पंजों में लकड़ी को बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़े रहता है , उसे कहीं भी गिरने नहीं देता , उसी प्रकार हमने भी मन , वचन और कर्म से नंद पुत्र श्री कृष्ण को अपने ह्रदय के प्रेम – रूपी पंजों से बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़ा हुआ है अर्थात दृढ़तापूर्वक अपने हृदय में बसाया हुआ है। हम तो जागते सोते , सपने में और दिन – रात कान्हा – कान्हा रटती रहती हैं। इसी के कारण हमें तो जोग का नाम सुनते ही ऐसा लगता है , जैसे मुँह में कड़वी ककड़ी चली गई हो। चौथे पद में गोपियाँ उद्धव को ताना मारती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। जिसके कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं और अंत में गोपियों द्वारा उद्धव को राजधर्म ( प्रजा का हित ) याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधर्मिता को दर्शाता है। गोपियाँ व्यंग्यपूर्वक उद्धव से कहती हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर अर्थात उद्धव के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। गोपियाँ कहती हैं कि मथुरा जाते समय श्री कृष्ण उनका मन अपने साथ ले गए थे , जो अब उन्हें वापस चाहिए। वे तो दूसरों को अन्याय से बचाते हैं , फिर उन पर अन्याय क्यों कर रहे हैं ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए अथवा न ही सताना चाहिए। इसलिए श्री कृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्शन के लिए आना चाहिए।

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सूरदास के भ्रमरगीत के पद पाठ व्याख्या (Surdas ke Pad Lesson Explanation)

पहला पद 

भ्रमरगीत के पद

 

ऊधौ , तुम हौ अति बड़भागी ।
अपरस रहत सनेह तगा तैं , नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर , ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि , बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ , दृष्टि न रूप परागी ।
‘ सूरदास ‘ अबला हम भोरी , गुर चाँटी ज्यौं पागी ||

शब्दार्थ
ऊधौ – उद्धव  ( श्री कृष्ण के सखा / मित्र )
हौ – हो
अति – बहुत , अधिकता , जिसको करने में मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण किया गया हो , सीमा से अधिक किया गया
बड़भागी – भाग्यवान , ख़ुशनसीब
अपरस – अछूता , जिसे किसी ने छुआ न हो , अस्पृश्य , अनासक्त , अलिप्त
सनेह – स्नेह
तगा – धागा / बंधन
नाहिन – नहीं
अनुरागी – प्रेम से भरा हुआ , अनुराग करने वाला , प्रेमी , भक्त , आसक्त
पुरइनि पात – कमल का पत्ता
दागी – दाग , धब्बा
ज्यौं – जैसे
माहँ – बीच में
गागरि – मटका
ताकौं – उसको
प्रीति नदी – प्रेम की नदी
पाउँ – पैर
बोरयौ – डुबोया
दृष्टि – नज़र , निगाह
परागी – मुग्ध होना
अबला – बेचारी नारी , जिसमें बल न हो , असहाय , कमज़ोर
भोरी – भोली
गुर चाँटी ज्यौं पागी – जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है

नोट – प्रस्तुत पद सूरदास जी द्वारा रचित सूरसागर के भ्रमरगीत से लिया गया हैं। प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे , तो गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली बताती हैं क्योंकि श्री कृष्ण के वापिस न आने पर जितना प्रभाव उन पर पड़ा है उद्धव उससे कोसों दूर है।

व्याख्या –  प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात श्री कृष्ण के मित्र से व्यंग करते हुए कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो अभी तक श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से तुम अब तक अछूते हो और न ही तुम्हारे मन में श्रीकृष्ण के प्रति कोई प्रेम – भाव उत्पन्न हुआ है । गोपियाँ उद्धव की तुलना कमल के पत्तों व तेल के मटके के साथ करती हुई कहती हैं कि जिस प्रकार कमल के पत्ते हमेशा जल के अंदर ही रहते हैं , लेकिन उन पर जल के कारण कोई दाग दिखाई नहीं देता अर्थात् वे जल के प्रभाव से अछूती रहती हैं और इसके अतिरिक्त जिस प्रकार तेल से भरी हुई मटकी पानी के मध्य में रहने पर भी उसमें रखा हुआ तेल पानी के प्रभाव से अप्रभावित रहता है , उसी प्रकार श्री कृष्ण के साथ रहने पर भी तुम्हारे ऊपर उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उद्धव ने कृष्ण के प्रेम – रूपी दरिया या नदी में कभी पाँव नहीं रखा और न ही कभी उनके रूप – सौंदर्य पर मुग्ध हुए। यही कारण है कि गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली समझती हैं , जबकि वे खुद को अभागिन अबला नारी समझती हैं , जिस प्रकार चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं , ठीक उसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के प्रेम में उलझ गई हैं , उनके मोहपाश में लिपट गई हैं।

भावार्थ –  प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात श्री कृष्ण के मित्र से व्यंग कर रही हैं वे उद्धव को भाग्यशाली कहती हैं क्योंकि वे श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से अछूते रहे हैं जबकि गोपियाँ श्री कृष्ण के मोहजाल में ऐसी फस गई हैं जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं।

दूसरा पद 

 मन की मन ही माँझ रही ।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीं परत कही ।
अवधि अधार आस आवन की , तन मन बिथा सही ।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि , बिरहिनि बिरह दही ।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं , उत तैं धार बही ।
‘ सूरदास ’ अब धीर धरहिं क्यौं , मरजादा न लही ।

शब्दार्थ
माँझ – अंदर ही
जाइ – जा कर
अवधि – समय
अधार – आधार ,  अवलंब , सहारा , नींव
आस – आशा , किसी कार्य या बात के पूर्ण हो जाने की उम्मीद , इच्छा , विश्वास , उम्मीद , संभावना
आवन – आने की
बिथा – व्यथा , मानसिक या शारीरिक क्लेश , पीड़ा , वेदना , चिंता , कष्ट
जोग सँदेसनि – योग के संदेशों को
बिरहिनि – वियोग में जीने वाली
बिरह दही – विरह की आग में जल रही हैं
हुती – थीं
गुहारि – रक्षा के लिए पुकारना
जितहि तैं – जहाँ से
उत तैं- उधर से
धार – योग की धारा
धीर – धैर्य
धरहिं – धारण करें / रखें
मरजादा – मर्यादा
लही – रही

नोट – जब श्री कृष्ण मथुरा वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा मथुरा यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं और उनकी विरह की व्यथा और बढ़ गई।

व्याख्या – जब श्री कृष्ण के मथुरा वापस नहीं आने का संदेश गोपियाँ सुनती हैं तो गोपियाँ उद्धव से अपनी पीड़ा बताते हुए कह रही हैं कि हमारे मन की इच्छाएँ  हमारे मन में ही रह गईं , क्योंकि हम श्री कृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि हम उनसे प्रेम करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के गोकुल छोड़ कर चले जाने के उपरांत, उनके मन में स्थित श्री कृष्ण के प्रति प्रेम – भावना मन में ही रह गई है। वे उद्धव से शिकायत करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! अब तुम ही बताओ कि हम अपनी यह व्यथा / यह पीड़ा किसे जाकर कहें ? उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। अब तक श्री कृष्ण के आने की आशा ही हमारे जीने का आधार थी। अर्थात वे अब तक इसी कारण जी रहीं थी कि श्री कृष्ण जल्द ही वापिस आ जाएंगे और वे सिर्फ़ इसी आशा से अपने तन – मन की पीड़ा को सह रही थीं कि जब श्री कृष्ण वापस लौटेंगे , तो वे अपने प्रेम को कृष्ण के समक्ष व्यक्त करेंगी। परन्तु जब उन्हें श्री कृष्ण का जोग अर्थात् योग – संदेश मिला , जिसमें उन्हें पता चला कि वे अब लौटकर नहीं आएंगे , तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं , जिस कारण उनकी विरह की व्यथा और बढ़ गई। अब तो उनके विरह सहने का सहारा भी उनसे छिन गया अर्थात अब श्री कृष्ण वापस लौटकर नहीं आने वाले हैं और इसी कारण अब उनकी प्रेम – भावना कभी संतुष्ट होने वाली नहीं है। वे जहाँ से भी श्री कृष्ण के विरह की ज्वाला से अपनी रक्षा करने के लिए सहारा चाह रही थीं , उधर से ही योग की धारा बहती चली आ रही है । उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब वह हमेशा के लिए श्री कृष्ण से बिछड़ चुकी हैं और किसी कारणवश गोपियों के अंदर जो धैर्य बसा हुआ था, अब वह टूट चुका है। इसी वजह से गोपियाँ वियोग में कह रही हैं कि श्री कृष्ण ने सारी लोक – मर्यादा का उल्लंघन किया है , उन्होंने हमें धोखा दिया है। तो भला हम धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं ?

भावार्थ – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की अभिलाषाएँ उनके मन में ही रह गईं , क्योंकि वे श्री कृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि वे उनसे प्रेम करती हैं । अब वे अपनी यह व्यथा किसे जाकर कहें ? क्योंकि श्री कृष्ण के आने की आशा के आधार पर उन्होंने अपने तन – मन के दुःखों को सहन किया था। अब उनके द्वारा भेजे गए जोग अर्थात् योग के संदेश को सुनकर वे विरह की ज्वाला में जल रही हैं। और कहती हैं कि अब जब श्रीकृष्ण ने ही सभी मर्यादाओं का त्याग कर दिया , तो भला वे धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं ? कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियाँ श्री कृष्ण के मोह में इतनी बांध चुकी हैं कि अब वे श्री कृष्ण से दूर रह कर जीवन जीना असंभव मानती हैं।

तीसरा पद

हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद – नंदन उर , यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि , कान्ह – कान्ह जक री ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यह तौ ‘ सूर ’ तिनहिं लै सौंपौ , जिनके मन चकरी ।।

शब्दार्थ
हरि – श्री कृष्ण
हारिल – ऐसा पक्षी , जो अपने पैरों में लकड़ी दबाए रहता है
लकरी – लकड़ी
क्रम – कार्य
नंद – नंदन – नंद का पुत्र अर्थात श्री कृष्ण
उर – हृदय
दृढ़ – मज़बूती से / दृढ़तापूर्वक
पकरी- पकड़ी
जागत – जागना
सोवत – सोना
दिवस – दिन
निसि – रात
जक री – रटती रहती हैं
जोग – योग का संदेश
करुई – कड़वी
ककरी – ककड़ी / खीरा
सु – वह
ब्याधि – रोग
तिनहिं – उनको
मन चकरी – जिनका मन स्थिर नहीं रहता 

नोट – सूरदास जी के इस पद में गोपियाँ उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम है , जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। बल्कि इससे उनका प्रेम और भी दृढ़ हो जाएगा।

व्याख्या – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमारे श्री कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस तरह हारिल पक्षी अपने पंजों में लकड़ी को बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़े रहता है , उसे कहीं भी गिरने नहीं देता , उसी प्रकार हमने भी मन , वचन और कर्म से नंद पुत्र श्री कृष्ण को अपने ह्रदय के प्रेम – रूपी पंजों से बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़ा हुआ है अर्थात दृढ़तापूर्वक अपने हृदय में बसाया हुआ है। हम तो जागते सोते , सपने में और दिन – रात कान्हा – कान्हा रटती रहती हैं। इसी के कारण हमें तो जोग का नाम सुनते ही ऐसा लगता है , जैसे मुँह में कड़वी ककड़ी चली गई हो। योग रूपी जिस बीमारी को तुम हमारे लिए लाए हो , उसे हमने न तो पहले कभी देखा है , न उसके बारे में सुना है और न ही इसका कभी व्यवहार करके देखा है। सूरदास गोपियों के माध्यम से कहते हैं कि इस जोग को तो तुम उन्हीं को जाकर सौंप दो , जिनका मन चकरी के समान चंचल है। अर्थात हमारा मन तो स्थिर है , वह तो सदैव श्री कृष्ण के प्रेम में ही रमा रहता है।  हमारे ऊपर तुम्हारे इस संदेश का कोई असर नहीं पड़ने वाला है।

भावार्थ – सूरदास जी के इन पदों में गोपियां उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम है , जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। उनके ऊपर उद्धव के द्वारा लाए गए संदेश का कुछ असर होने वाला नहीं है। इसलिए उन्हें इस योग – संदेश की कोई आवश्यकता नहीं है। यह संदेश उन्हें सुनाओ , जिनका मन पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में डूबा नहीं और शायद वे यह संदेश सुनकर विचलित हो जाएँ। पर उनके ऊपर उद्धव के इस संदेश का कोई असर नहीं पड़ने वाला है। क्योंकि उनका श्री कृष्ण के प्रति प्रेम अटूट है। 

चौथा पद 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही , अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए ।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग – सँदेस पठाए ।
ऊधौ भले लोग आगे के , पर हित डोलत धाए ।
अब अपनै मन फेर पाइहैं , चलत जु हुते चुराए ।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन , जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहै ‘ सूर ’ , जो प्रजा न जाहिं सताए ।।

शब्दार्थ
पढ़ि आए – पढ़कर / सीखकर आए
मधुकर – भौरा , गोपियों द्वारा उद्धव के लिए प्रयुक्त संबोधन
पाए – प्राप्त करना
पठाए – भेजा
आगे के – पहले के
पर हित- दूसरों की भलाई के लिए
डोलत धाए – घूमते – फिरते थे
फेर – फिर से
पाइहैं – चाहिए
हुते – थे
आपुन – अपनों पर
अनीति – अन्याय 

नोट – इस पद में गोपियाँ उद्धव को ताना मारती हैं कि श्री कृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। जिसके कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं और अंत में गोपियों द्वारा उद्धव को राजधर्म ( प्रजा का हित ) याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधर्मिता को दर्शाता है।

व्याख्या – इस पद में गोपियाँ व्यंग्यपूर्वक उद्धव से कहती हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर अर्थात उद्धव के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। श्री कृष्ण पहले से ही बहुत चतुर चालाक थे , अब मथुरा पहुँचकर शायद उन्होंने राजनीति शास्त्र भी पढ़ लिया है , जिस के कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं , जो उन्होंने तुम्हारे द्वारा जोग ( योग ) का संदेश भेजा है । हे उद्धव ! पहले के लोग बहुत भले थे , जो दूसरों की भलाई करने के लिए दौड़े चले आते थे। यहाँ गोपियाँ श्री कृष्ण की ओर संकेत कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अब श्री कृष्ण बदल गए हैं। गोपियाँ कहती हैं कि मथुरा जाते समय हमारा मन श्री कृष्ण अपने साथ ले गए थे , जो अब हमें वापस चाहिए। वे तो दूसरों को अन्याय से बचाते हैं , फिर हमारे लिए योग का संदेश भेजकर हम पर अन्याय क्यों कर रहे हैं ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए अथवा न ही सताना चाहिए। इसलिए श्री कृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्शन के लिए आना चाहिए।

भावार्थ :-  प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार गोपियाँ श्री कृष्ण के वियोग में खुद को दिलासा दे रही हैं। सूरदास गोपियों के माध्यम से कह रहे हैं कि श्री कृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर (उद्धव) के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। राजधर्म तो यही कहता है कि राजा को प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए और न ही सताना चाहिए। इसलिए गोपियाँ चाहती हैं कि श्री कृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्शन के लिए आना चाहिए।

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CBSE Class 10 Hindi Kshitij and Kritika Lessons Explanation

 

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