CBSE Class 10 Hindi Chapter 11 “Teesri Kasam ka Shilpkaar Shailendra”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Sparsh Bhag 2 Book
तीसरी क़सम के शिल्पकार शैलेंद – Here is the CBSE Class 10 Hindi Sparsh Bhag 2 Chapter 11 Teesri Kasam ka Shilpkaar Shailendra Summary with detailed explanation of the lesson ‘Teesri Kasam ka Shilpkaar Shailendra’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
- तीसरी क़सम के शिल्पकार शैलेंद पाठ प्रवेश
- तीसरी क़सम के शिल्पकार शैलेंद पाठ की व्याख्या
- तीसरी क़सम के शिल्पकार शैलेंद पाठ सार
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लेखक परिचय
लेखक – प्रहलाद अग्रवाल
जन्म – 1947 (मध्य प्रदेश, जबलपुर)
तीसरी क़सम के शिल्पकार पाठ प्रवेश
साल के किसी महीने का शायद ही कोई ऐसा शुक्रवार जाता हो जिसमें कोई फिल्म सिनेमा घरों तक न पहुँचती हो। इन फिल्मों में से कुछ तो सफल रहती है परन्तु कुछ को असफलता का मुँह देखना पड़ता है। कुछ फ़िल्में दर्शकों को सालों तक याद रहती है और कुछ को तो वे सिनेमा घरों के बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। लेकिन जब कोई फिल्मकार किसी फिल्म को पूरी लगन और ईमानदारी से बनाता है तो उसकी वह फिल्म लोगों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें महत्वपूर्ण सन्देश देने में भी सफल रहती है और लोगो को सदियों तक याद भी रहती है।
एक गीतकार के रूप में फ़िल्मी जगत से जुड़े रहने वाले कवि और गीतकार ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिनेमा परदे पर उतारा तो ये फिल्म मील का पत्थर सिद्ध हुई अर्थात इस फिल्म की जगह कोई दूसरी फिल्म नहीं ले पाई। आज भी इतने साल बीत जाने के बाद भी इस फिल्म को हिंदी फिल्म जगत की कुछ खास अमर फिल्मों में याद किया जाता है। इस फिल्म ने न केवल अपने गीत, संगीत और कहानी के बलबूते पर शौहरत कमाई बल्कि इस फिल्म में उस ज़माने के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने अपनी सभी फिल्मों से ज्यादा बेहतरीन एक्टिंग करके सभी को आश्चर्य में डाल दिया। फिल्म की हीरोइन वहीदा रहमान ने भी वैसी ही एक्टिंग की जैसी सबको उनसे उम्मीद थी।
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इस तरह एक यादगार फिल्म होने के बावजूद ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फिल्म को बनाने के बाद यह भी सिद्ध हो गया कि हिंदी फिल्म जगत में एक सार्थक और उदेश्य से भरपूर फिल्म को बनाना कितना कठिन और कितना जोखिम भरा काम है। जोखिम इसलिए क्योंकि ऐसी फिल्म बनाने के बाद सफल होगी या नहीं इसकी कोई गेरंटी नहीं दे सकता।
तीसरी क़सम के शिल्पकार पाठ सार
एक गीतकार के रूप में फ़िल्मी जगत से जुड़े रहने वाले कवि और गीतकार शैलेंद्र ने जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कृति ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम’ को सिनेमा परदे पर उतारा तो ये फिल्म मील का पत्थर सिद्ध हुई अर्थात इस फिल्म की जगह कोई दूसरी फिल्म नहीं ले पाई। ‘तीसरी कसम’ को आज इसलिए भी याद किया जाता है क्योंकि इस फिल्म को बनाने के बाद यह भी सिद्ध हो गया कि हिंदी फिल्म जगत में एक सार्थक और उदेश्य से भरपूर फिल्म को बनाना कितना कठिन और कितना जोखिम भरा काम है।
‘संगम’ नाम की फिल्म की आश्चर्यजनक सफलता के बाद फिल्म के नायक राजकपूर में गहरा आत्मविश्वास आ गया जिसके कारण उन्होंने एक साथ चार फिल्मों में काम करने की सार्वजनिक बात कर दी। इन्हीं फिल्मों में सन 1966 में कवि शैलेंद्र के द्वारा बनाई गई फिल्म ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। कहा जा सकता है कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म नहीं बल्कि कवि शैलेंद्र द्वारा कैमरे की रील पर लिखी गई एक कविता थी।
‘तीसरी कसम’ फिल्म कवि शैलेंद्र के जीवन की पहली और अंतिम फिल्म है। इस फिल्म को बहुत सारे पुरूस्कारों से सम्मानित किया गया। यह फिल्म कला से परिपूर्ण थी जिसके लिए इस फिल्म की बहुत तारीफ़ हुई थी। इस फिल्म में शैलेंद्र की भावुकता पूरी तरह से दिखाई देती है। अभिनय को देखते हुए ‘तीसरी कसम’ फिल्म राजकपूर के द्वारा उनके जीवन में की गई सभी फिल्मों में से सबसे खूबसरत फिल्म मानी जाती है। राजकपूर को एशिया के सबसे बड़े शोमैन का ख़िताब हासिल था। वे अपनी आँखों से अभिनय करने और अपनी आँखों से ही भावनाओं को दिखने में माहिर थे। इसके विपरीत शैलेंद्र एक उमदा गीतकार थे जो भावनाओं को कविता का रूप देने में माहिर थे। शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को अपनी कविता और फिल्म की कहानी में शब्द रूप दिए और राजकपूर ने भी उनको बड़ी ही खूबी से निभाया।
राजकपूर जानते थे कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म शैलेंद्र की पहली फिल्म है इसलिए उन्होंने एक अच्छे और सच्चे मित्र के नाते शैलेंद्र को फिल्म की असफलता के खतरों से भी परिचित करवाया। परन्तु शैलेंद्र को न तो अधिक धन-सम्पति का लालच था न ही नाम कमाने की इच्छा। उसे तो केवल अपने आप से संतोष की कामना थी। ‘तीसरी कसम’ चाहे आज बहुत कामयाब फिल्मों में गिनी जाती हो, लेकिन यह एक कड़वा सच रहा है कि इसे परदे पर दिखाने और प्रसारित करने के लिए लोग बहुत ही मुश्किल से मिले थे। इस फिल्म की कहानी में जो भावनाएँ थी उनको समझना किसी मुनाफा कमाने वालों के लिए आसान नहीं था। इस फिल्म में जिस करुणा के साथ भावनाओं को दर्शाया गया था उनको किसी तराज़ू में नहीं तौला जा सकता था।
‘श्री 420’ का एक गीत – ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल’ की एक पंक्ति -‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ’, इस पंक्ति में संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति जताई थी। लेकिन शैलेन्द्र इस पंक्ति को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए। वे चाहते थे कि दर्शकों की पसंद को ध्यान में रख कर किसी भी फिल्म निर्माता को कोई भी बिना मतलब की चीज़ दर्शकों को नहीं दिखानी चाहिए। उनका मानना था कि एक कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह दर्शकों की पसंद को अच्छा और सुंदर भी बनाने की कोशिश करे।
शैलेंद ने जो भी गीत लिखे वे सभी बहुत पसंद किये जाते रहे है। शैलेंद्र ने कभी भी झूठे रंग-ढ़ग या दिखावे को नहीं अपनाया। उनके गीत नदी की तरह शांत तो लगते थे
परन्तु उनका अर्थ समुद्र की तरह गहरा होता था। इसी विशेषता को उन्होंने अपनी जिंदगी में भी अपनाया था और अपनी फिल्म में भी इसी विशेषता को साबित किया था।
‘तीसरी कसम’ अगर सिर्फ एकलौती नहीं तो उन कुछ सफल फिल्मों में जरूर है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है। ‘तीसरी कसम’ फिल्म की यह खास बात थी कि उसमें दुःख को किसी भी तरह बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत नहीं किया गया था उसमे दुःख को जीवन की सही परिस्थितियों की ही भाँति प्रस्तुत किया गया था। ‘तीसरी कसम’ की जो मुख्य कहानी है वह खुद लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखी है। कहानी का एक छोटे-से-छोटा भाग, उसकी छोटी-से-छोटी बारीकियाँ फिल्म में पूरी तरह से दिखाई देती है।
तीसरी क़सम के शिल्पकार पाठ की व्याख्या
‘संगम’ की अद्भुत सफलता ने राजकपूर में गहन आत्मविश्वास भर दिया और उसने एक साथ चार फिल्मों के निर्माण की घोषणा की -‘मेरा नाम जोकर’, ‘अजंता’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ और ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’। पर जब 1965 में राजकपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ का निर्माण आरम्भ किया तब संभवतः उसने भी यह कल्पना नहीं की होगी कि इस फिल्म का एक ही भाग बनाने में छह वर्षों का समय लग जायेगा।
अद्भुत – आश्चर्यजनक
गहन – गहरा
घोषणा – सार्वजानिक बात
संभवतः – संभव / मुमकिन है कि
कल्पना – मन की उपज
लेखक कह रहा है कि ‘संगम’ नाम की फिल्म की आश्चर्यजनक सफलता के बाद फिल्म के नायक राजकपूर में गहरा आत्मविश्वास आ गया था। जिसके कारण उन्होंने एक साथ चार फिल्मों में काम करने की सार्वजनिक बात कर दी। ये चार फ़िल्में थी – ‘मेरा नाम जोकर’, ‘अजंता’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ और ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’।परन्तु जब राजकपूर ने 1965 में ‘मेरा नाम जोकर’ नामक फिल्म में काम करना शुरू किया तो उनके मन में भी यह बात नहीं आई कि इस फिल्म के एक ही भाग को बनने में छह साल का समय लग जायेगा।
इन छह वर्षों के अंतराल में राजकपूर द्वारा अभिनीत कई फ़िल्में प्रदर्शित हुईं, जिनमें सन 1966 में प्रदर्शित कवि शैलेंद्र कि ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। यह वह फिल्म है जिसमें राजकपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की। यही नहीं ‘तीसरी कसम’ वह फिल्म है जिसने हिंदी साहित्य की एक अत्यंत मार्मिक कृति को सैल्यूलाइड पर पूरी सार्थकता से उतारा। ‘तीसरी कसम’ फिल्म नहीं, सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी।
शब्दार्थ
अंतराल – समय
अभिनीत – अभिनय
सर्वोत्कृष्ट – सर्वोश्रेष्ठ / सबसे अच्छा
मार्मिक – जो दिल या मर्म को छू जाए
सैल्यूलाइड – कैमरे की रील में उतार चित्र पर प्रस्तुत करना
सार्थकता – सफलता के साथ
‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के एक ही भाग में जब छह साल लग गए तो इन छह सालों के बीच में राजकपूर द्वारा अभिनय की हुई बहुत सारी फ़िल्में प्रदर्शित हुई, इन्हीं फिल्मों में सन 1966 में कवि शैलेंद्र के द्वारा बनाई गई फिल्म ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। इस फिल्म में हिंदी साहित्य की एक दिल को छू लेने वाली कहानी को बड़ी ही सफलता के साथ कैमरे की रील में उतार कर चलचित्र द्वारा प्रस्तुत किया गया था। कहा जा सकता है कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म नहीं बल्कि कवि शैलेंद्र द्वारा कैमरे की रील पर लिखी गई एक कविता थी।
‘तीसरी कसम’ शैलेंद्र के जीवन की पहली और अंतिम फिल्म है। ‘तीसरी कसम’ को ‘राष्ट्रपति स्वर्णपदक’ मिला, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की लंबी-चौड़ी तारीफ़ें हुई। इसमें शैलेंद्र की संवेदनशीलता पूरी शिद्द्त के साथ मौजूद है। उन्होंने ऐसी फिल्म बनाई थी जिसे सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था।
शब्दार्थ
कलात्मकता – कला से परिपूर्ण
संवेदनशीलता – भावुकता
शिद्द्त – तीव्रता
मौजूद – उपस्थित
लेखक कहता है कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म कवि शैलेंद्र के जीवन की पहली और अंतिम फिल्म है। इस फिल्म को बहुत सारे पुरूस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘तीसरी कसम’ को ‘राष्ट्रपति स्वर्णपदक’ दिया गया, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा भी इस फिल्म को सबसे अच्छी फिल्म के लिए पुरस्कृत किया गया और भी बहुत सारे पुरस्कारों द्वारा इस फिल्म को सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को पुरस्कृत किया गया था। यह फिल्म कला से परिपूर्ण थी जिसके लिए इस फिल्म की बहुत तारीफ़ हुई थी। इस फिल्म में शैलेंद्र की भावुकता पूरी तरह से दिखाई देती है। शैलेंद्र ने ऐसी फिल्म बनाई थी जिसे सिर्फ एक सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था क्योंकि इतनी भावुकता केवल एक कवि के हृदय में ही हो सकती है।
शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं। राजकुमार ने अपने अनन्य सहयोगी की फिल्म में उतनी ही तन्मयता के साथ काम किया, किसी पारिश्रमिक की अपेक्षा किए बगैर। शैलेंद्र ने लिखा था कि वे राजकपूर के पास ‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनाने पहुँचे तो कहानी सुनकर उन्होनें बड़े उत्साहपूर्वक काम करना स्वीकार कर लिया। पर तुरंत गंभीरता पूर्वक बोले- “मेरा पारिश्रमिक एडवांस देना होगा।” शैलेंद्र को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि राजकपूर जिंदगी-भर की दोस्ती का ये बदला देंगे। शैलेंद्र का मुरझाया हुआ चेहरा देखकर राजकपूर ने मुस्कुराते हुए कहा, “निकालो एक रूपया, मेरा पारिश्रमिक! पूरा एडवांस।” शैलेंद्र राजकपूर की इस याराना मस्ती से परिचित तो थे, लेकिन एक निर्माता के रूप में बड़े व्यावसायिक सूझबूझ वाले भी चक्कर खा जाते हैं, फिर शैलेंद्र तो फिल्म-निर्माता बनाने के लिए सर्वथा अयोग्य थे।
शब्दार्थ
अनन्य – एकमात्र / परम
तन्मयता – तल्लीनता
पारिश्रमिक – मेहनताना
बगैर – बिना
याराना मस्ती – दोस्ताना अंदाज
लेखक कहता है कि फिल्म को देखकर ऐसा लगता है कि शैलेंद्र ने फिल्म को पहले नहीं लिखा बल्कि राजकपूर की भावनाओं को ही बाद में शब्द दे दिए हों। राजकपूर ने भी अपने परम मित्र की फिल्म में बहुत मन लगाकर काम किया था, बिना किसी मेहनताने की परवाह किए । शैलेंद्र ने कहीं पर लिखा था कि जब वे राजकपूर के पास ‘तीसरी कसम’ फिल्म की कहानी को ले कर गए तो उन्होंने बड़े ही उत्साह के साथ फिल्म में काम करना स्वीकार कर लिया। परन्तु तुरंत ही बड़ी गंभीरता के साथ बोले कि शैलेंद्र को उनका मेहनताना पहले ही दे देना होगा। शैलेन्द्र को ऐसी उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी क्योंकि राजकपूर उनके बहुत पुराने मित्र थे और पुराना मित्र इस तरह से पूरी जिंदगी-भर की दोस्ती का बदला लेगा ये कभी नहीं सोचा था। शैलेंद्र का चेहरा मुरझा गया और शैलेंद्र का मुरझाया हुआ चेहरा देखकर राजकपूर मुस्कुरा कर बोले कि निकालो एक रूपया, उनका पूरे-का-पूरा मेहनताना वो भी फिल्म से पहले। शैलेंद्र राजकपूर के इस दोस्ताना-अंदाज को जानते तो थे परन्तु एक फिल्म निर्माता के रूप में बड़े-बड़े सूझ-बुझ से व्यवसाय करने वाले भी चक्कर खा जाते हैं। फिर शैलेंद्र तो अभी इस व्यवसाय में नए थे क्योंकि यह उनकी पहली फिल्म थी।
राजकपूर ने एक अच्छे और सच्चे मित्र की हैसियत से शैलेंद्र को फिल्म की असफलता के खतरों से आगाह भी किया। पर वह तो एक आदर्शवादी भावुक कवि था, जिसे अपार सम्पति और यश तक की इतनी कामना नहीं थी जितनी आत्म-संतुष्टि के सुख की अभिलाषा थी। ‘तीसरी कसम’ कितनी ही महान फिल्म क्यों न रही हो, लेकिन यह एक दुखद सत्य है कि इसे प्रदर्शित करने के लिए बमुश्किल वितरक मिले। बावजूद इसके कि ‘तीसरी कसम’ में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे नामज़द सितारे थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, जिनकी लोकप्रियता उन दिनों सातवें आसमान पर थी और इसके गीत भी फ़िल्म के प्रदर्शन के पूर्व ही बेहद लोकप्रिय हो चुके थे, लेकिन इस फिल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। दरअसल इस फिल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने का गणित जानने वाले की समझ से परे थी। उसमें रची-बसी करुणा तराज़ू पर तौली जा सकने वाली चीज़ नहीं थी। इसीलिए बमुश्किल जब ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई तो इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फ़िल्म कब आई, कब चली गई, मालूम ही नहीं पड़ा।
हैसियत – रंग-ढंग / नाते
आगाह – सचेत
भावुक – सज्जन आदमी / भावनाओं में बहने वाला
कामना – इच्छा
अभिलाषा- इच्छा
बमुश्किल – बहुत कठिनाई से
वितरक – प्रसारित करने वाले लोग
नामज़द – विख्यात
संवेदना – सहानुभूति
लेखक कहता है कि राजकपूर जानते थे कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म शैलेंद्र की पहली फिल्म है इसलिए उन्होंने एक अच्छे और सच्चे मित्र के नाते शैलेंद्र को फिल्म की असफलता के खतरों से भी परिचित करवाया। परन्तु शैलेंद्र तो एक सज्जन भावनाओं में बहने वाला व्यक्ति था, जिसको न तो अधिक धन-सम्पति का लालच था न ही नाम कमाने की इच्छा। उसे तो केवल अपने आप से संतोष की कामना थी। ‘तीसरी कसम’ चाहे आज बहुत कामयाब फिल्मों में गिनी जाती हो, लेकिन यह एक कड़वा सच रहा है कि इसे परदे पर दिखाने और प्रसारित करने के लिए लोग बहुत ही मुश्किल से मिले थे। यहाँ तक कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे बेहतरीन कलाकार थे, शंकर-जयकिशन का संगीत था, जिनका संगीत उस समय सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला था और-तो-और इस फिल्म के परदे पर आने से पहले ही इस फिल्म के गीत बहुत ज्यादा पसंद किये जा चुके थे, परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी इस फिल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। बात यह थी कि इस फिल्म की कहानी में जो भावनाएँ थी उनको समझना किसी मुनाफा कमाने वालों के लिए आसान नहीं था। इस फिल्म में जिस करुणा के साथ भावनाओं को दर्शाया गया था उनको किसी तराज़ू में नहीं तौला जा सकता था। इसीलिए जब बड़ी मुश्किल से ‘तीसरी कसम’ फिल्म को परदे पर दिखाया गया तो इसका प्रचार नहीं हो पाया। फिल्म को कब परदे पर दिखाया गया और कब फिल्म परदे से उतर गई किसी को पता भी नहीं चला।
ऐसा नहीं है कि शैलेंद्र बीस सालों तक फ़िल्म इंडस्ट्री में रहते हुए भी वहाँ के तौर-तरीकों से नावाकिफ़ थे। परन्तु उन में उलझकर वे अपनी आदमियता नहीं खो सकते थे। ‘श्री 420’ का एक लोकप्रिय गीत है – ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।’ इसके अंतरे की एक पंक्ति- ‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ’ पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका ख्याल था कि दर्शक ‘चार दिशाएँ तो समझ सकते हैं- ‘दस दिशाएँ’ नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रूचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। और उनका यकीन गलत नहीं था। यही नहीं, वे बहुत अच्छे गीत भी जो उन्होंने लिखे बेहद लोकप्रिय हुए। शैलेंद्र ने झूठे अभिजात्य को कभी नहीं अपनाया। उनके गीत भाव-प्रणव थे-दुरूह नहीं। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ -यह गीत शैलेंद्र ही लिख सकते थे। शांत नदी का प्रवाह और समुद्र की गहराई लिए हुए। यही विशेषता उनकी जिंदगी की थी और यही उन्होंने अपनी फिल्म के द्वारा भी साबित किया था।
नावाकिफ़ – अनजान
आदमियता – इंसानियत
मंतव्य – इच्छा
परिष्कार – सुंदर एवं स्वच्छ बनाना
अभिजात्य – परिष्कृत
भाव-प्रणव – भावनाओं से भरा हुआ
दुरूह – कठिन
लेखक कहता है कि ऐसा बिलकुल नहीं था कि शैलेन्द्र बीस सालों तक फिल्म जगत में रहे और उनको वहाँ के रहन-सहन या रंग-ढंग के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। परन्तु बात तो यह थी कि वे फिल्म जगत के उस रंग-ढंग में फसकर अपनी इंसानियत को भूलना नहीं चाहते थे। ‘श्री 420’ का एक बहुत ही अधिक पसंद किया गया गीत है -‘प्यार हुआ, इकरार हुआ है,प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।’ इसके एक अंतरे की एक पंक्ति है -‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ’, इस पंक्ति में संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति जताई थी। उनका मानना था कि दर्शकों को चार दिशायें तो समझ आ सकती है परन्तु दर्शक दस दिशाओं को समझने में परेशान हो सकते हैं। लेकिन शैलेन्द्र इस पंक्ति को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए। वे चाहते थे कि दर्शकों की पसंद को ध्यान में रख कर किसी भी फिल्म निर्माता को कोई भी बिना मतलब की चीज़ दर्शकों को नहीं दिखानी चाहिए। उनका मानना था कि एक कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह दर्शकों की पसंद को अच्छा और सुंदर भी बनाने की कोशिश करे। और शैलेंद्र का यह यकीन गलत नहीं था क्योंकि दर्शक जो देखता है उसी को सच भी मान लेता है। शैलेंद ने जो भी गीत लिखे वे सभी बहुत पसंद किये जाते रहे है। शैलेंद्र ने कभी भी झूठे रंग-ढ़ग या दिखावे को नहीं अपनाया। वे अपने गीतों में भावनाओं को अधिक महत्त्व देने वाले थे न की अपने गीतों को कठिन बनाने वाले। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ -यह गीत शैलेंद्र ही लिख सकते थे, क्योंकि इसमें सच्ची भावना झलक रही है। उनके गीत नदी की तरह शांत तो लगते थे परन्तु उनका अर्थ समुद्र की तरह गहरा होता था। इसी विशेषता को उन्होंने अपनी जिंदगी में भी अपनाया था और अपनी फिल्म में भी इसी विशेषता को साबित किया था।
‘तीसरी कसम’ यदि एकमात्र नहीं तो चंद उन फिल्मों में से है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया हो। शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे स्टार को ‘हीरामन’ बना दिया था। हिरामन पर राजकपूर हावी नहीं हो सका। और छींट की सस्ती साडी में लिपटी ‘हीराबाई’ ने वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। कजरी नदी के किनारे उकड़ू बैठा हिरामन जब गीत गाते हुए हीराबाई से पूछता है ‘मन समझती हैं ना आप?’ तब हीराबाई ज़ुबान से नहीं, आँखों से बोलती है। दुनिया-भर के शब्द उस भाषा को अभिव्यक्ति नहीं दे सकते। ऐसी ही सूक्ष्मताओं से संपदित थी- ‘तीसरी कसम’।अपनी मस्ती में डूबकर झूमते हुए गाड़ीवान- ‘चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’। टप्पर-गाडी में हीराबाई को जाते हुए देखकर उनके पीछे दौड़ते-गाते बच्चों का हुजूम- ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनिया’, एक नौटंकी की बाई में अपनापन खोज लेने वाला सरल हृदय गाड़ीवान! अभावों की जिंदगी जीते लोगों के सपनीले कहकहे।
उकड़ू – घुटने मोड़कर पैर के तलवों के सहारे बैठना
सूक्ष्मता – बारीकी
टप्पर-गाडी – अर्धगोलाकार छप्परयुक्त बैलगाड़ी
हुजूम – भीड़
अभिव्यक्ति – प्रकट करना
लेखक कहता है कि ‘तीसरी कसम’ अगर सिर्फ एकलौती नहीं तो उन कुछ सफल फिल्मों में जरूर है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है। शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे उमदा कलाकार को अपनी फिल्म में एक छोटा आदमी ‘हिरामन’ बना दिया था। राजकपूर ने भी हिरामन की भूमिका को इतनी बखूबी से निभाया की सभी को राजकपूर, हिरामन ही लगे।
और छींट की सस्ती साडी पहन कर वहीदा रहमान ने जब हीराबाई का किरदार किया तो लोग वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को भूल गए। फिल्म में जब कजरी नदी के किनारे घुटने मोड़कर पैर के तलवों के सहारे बैठा हिरामन गीत गाते हुए हीराबाई से पूछता है ‘मन समझती हैं ना आप’, तब हीराबाई ज़ुबान से कुछ नहीं कहती, परन्तु आँखों ही आँखों से सब कुछ बोलती है और दुनिया-भर के शब्द उस भाषा को प्रकट नहीं कर सकते कि हीराबाई क्या कहती है। ऐसी बहुत सी बारीकियों से सजाई गई थी फिल्म- ‘तीसरी कसम’। अपनी मस्ती में डूबकर झूमता हुआ गाड़ीवाला गाना गा रहा है- ‘चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’। अर्धगोलाकार छप्पर युक्त बैलगाड़ी में हीराबाई को जाते हुए देख कर उसके पीछे दौड़ते हुए और गाना गाते हुए बच्चों की भीड़- ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनिया’, किसी नाटक में काम करने वाली बाई में अपनापन खोज लेने वाला सरल हृदय वाला गाड़ीवान! जिंदगी में कई कमियों को झेलते हुए लोगों के सपनों की कहानियाँ, इसी तरह की बहुत सी बारीकियों वाली फिल्म है ‘तीसरी कसम’।
हमारी फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है, लोक-तत्व का आभाव। वे जिंदगी से दूर होती है। यदि त्रासद स्थितियों का चित्रांकन होता है तो उन्हें ग्लोरिफ़ाई किया जाता है। दुख का ऐसा वीभत्स रूप प्रस्तुत होता है जो दर्शकों का भावनात्मक शोषण कर सके। और ‘तीसरी कसम’ की यह खास बात थी कि वह दुःख को भी सहज स्थिति में, जीवन-सापेक्ष प्रस्तुत करती है।
लोक-तत्व – लोक सम्बन्धी
त्रासद – दुखद
ग्लोरिफ़ाई – गुणगान करना
वीभत्स – भयावह
जीवन-सापेक्ष – जीवन के प्रति
लेखक कहता है कि हमारी फिल्मों की सबसे बड़ी कमजोरी होती हैं कि उनमें लोगों के जीवन से सम्बंधित चीज़े नहीं होती है। फ़िल्में आम जीवन से बहुत दूर होती है अर्थात उनमें वास्तविकता जैसा कुछ भी नहीं होता है। अगर फिल्मों में कहीं दुखद स्थितियों का वर्णन किया जाता है तो उसको बहुत अधिक बढ़ा -चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है। दुःख को अधिक भयानक रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि वो लोगो को भावनात्मक रूप से कमजोर कर सके और लोग ज्यादा-से-ज्यादा फिल्मों की ओर आकर्षित हो सकें। परन्तु ‘तीसरी कसम’ फिल्म की यह खास बात थी कि उसमें दुःख को किसी भी तरह बढ़ा -चढ़ा कर प्रस्तुत नहीं किया गया था उसमे दुःख को जीवन की सही परिस्थितियों की ही भाँति प्रस्तुत किया गया था।
मैंने शैलेंद्र को गीतकार नहीं, कवि कहा है। वे सिनेमा की चकाचौंध के बीच रहते हुए यश और धन-लिप्सा से कोसों दूर थे। जो बात उनकी जिंदगी में थी वही उनके गीतों में भी। उनके गीतों में सिर्फ करुणा नहीं, जूझने का संकेत भी था और वह प्रक्रिया भी मौजूद थी जिसके तहत अपनी मंजिल तक पहुँचा जाता है। व्यथा आदमी को पराजित नहीं करती, उसे आगे बढ़ने का संकेत देती है।
शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ को अपनी भावप्रणवता का सर्वश्रेष्ठ तथ्य प्रदान किया। मुकेश की आवाज में शैलेंद्र का यह गीत तो अद्वितीय बन गया है –
सजनवा बैरी हो गए हमार चिठिया हो तो हर कोई बाँचै भाग न बाँचै कोय…..
चकाचौंध – चमक दमक
धन-लिप्सा – धन की अत्यधिक चाह
प्रक्रिया – प्रणाली
व्यथा – बहुत अधिक दुःख
पराजित – हारना
संकेत – इशारा
अद्वितीय – अनोखा
लेखक कहता है कि उसने शैलेंद्र को कभी भी गीतकार नहीं कहा है, बल्कि हमेशा ही कवि कहा है। वे फ़िल्मी दुनिया की चमक-दमक के बीच रहते हुए भी नाम कमाने और धन की अत्यधिक चाह से मीलों दूर थे। जो बात उनकी असल जिंदगी में थी वे उसी को अपने गीतों में लिखा करते थे। उनके गीतों में सिर्फ दुःख-दर्द नहीं होता था, उन दुखों से निपटने या उनका सामना करने का इशारा भी होता था। और वो सारी क्रिया-प्रणाली भी मौजूद रहती थी जिसका सहारा ले कर कोई भी व्यक्ति अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है। उनका मानना था कि दुःख कभी भी इंसान को हरा नहीं सकता बल्कि हमेशा आगे बढ़ने का इशारा देता है।
शैलेन्द्र ने अपनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ में अपनी भावना को प्रस्तुत करने की सबसे अच्छी कला का उदाहरण दिया है। मुकेश की आवाज में शैलेंद्र का गीत- ‘सजनवा बैरी हो गए हमार चिठिया हो तो हर कोई बाँचै भाग न बाँचै कोय…..’ अनोखा ही बन गया।
अभिनय के दृष्टिकोण से ‘तीसरी कसम’ राजकपूर की जिंदगी की सबसे हसीन फिल्म है। राजकपूर जिन्हें समीक्षक और कला-मर्मज्ञ आँखों से बात करने वाला कलाकार मानते हैं, ‘तीसरी कसम’ में मासूमियत के चर्मोत्कर्ष को छूते हैं। अभिनेता राजकपूर जितनी ताकत के साथ ‘तीसरी कसम’ में मौजूद हैं, उतना ‘जागते रहो’ में भी नहीं। ‘जागते रहो’ में राजकपूर के अभिनय को बहुत सराहा गया था, लेकिन ‘तीसरी कसम’ वह फिल्म है जिसमें राजकपूर अभिनय नहीं करता। वह हिरामन के साथ एकाकार हो गया है। खालिस देहाती भुच्च गाड़ीवान जो सिर्फ दिल की जुबान समझता है, दिमाग की नहीं। जिसके लिए मोहब्बत के सीवा किसी दूसरी चीज़ का कोई अर्थ नहीं।
दृष्टिकोण – देखने, सोचने-समझने का पहलू
हसीन – खूबसूरत
समीक्षक – समीक्षा/परीक्षण करने वाला
कला-मर्मज्ञ – कला की परख करने वाला
चर्मोत्कर्ष – ऊँचाई के शिखर पर
खालिस – शुद्ध
देहाती – गाँव में रहने वाला
भुच्च – गवाँर/मुर्ख
अभिनय को देखते हुए ‘तीसरी कसम’ फिल्म राजकपूर के द्वारा उनके जीवन में की गई सभी फिल्मों में से सबसे खूबसरत फिल्म मानी जाती है। परिक्षण करने वाले और कला की परख करने वाले राजकपूर को आँखों से बात करने वाला कलाकार मानते हैं, उन्हीं राजकपूर ने ‘तीसरी कसम’ फिल्म में मासूमियत से अपने किरदार को ऊँचाइयों के शिखर पर पहुँचा दिया। राजकपूर ने जितने अच्छे ढंग से ‘तीसरी कसम’ फिल्म में अभिनय किया है, उतना तो ‘जागते रहो’ में भी नहीं किया था। ‘जागते रहो’ में राजकपूर के अभिनय की बहुत अधिक प्रशंसा की गई थी। परन्तु ‘तीसरी कसम’ वह फिल्म है जिसमें राजकपूर अपना वक्तित्व भुला कर हिरामन ही बन गए थे। एक शुद्ध गाँव में रहने वाला गवाँर या मुर्ख गाड़ीवाला जो सिर्फ दिल की जुबान समझता है, दिमाग से वह कोई काम नहीं लेता। उसके लिए सिर्फ मोहब्बत ही एक ऐसी चीज़ है जिसका कोई अर्थ है बाकी किसी दूसरी चीज़ का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है।
बहुत बड़ी बात यह है कि ‘तीसरी कसम’ राजकपूर के अभिनय-जीवन का वह मुकाम है, जब वह एशिया के सबसे बड़े शोमैन के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनका अपना व्यक्तित्व एक किंवदंती बन चूका था। लेकिन ‘तीसरी कसम’ में वह महिमामय व्यक्तित्व पूरी तरह हिरामन की आत्मा में उतर गया है। वह कही हिरामन का अभिनय नहीं करता, अपितु खुद हिरामन में ढल गया है। हीराबाई की फेनू-गिलासी बोली पर रीझता हुआ, उसकी ‘मनुआ-नटुआ’ जैसी भोली सूरत पर न्योछावर होता हुआ और हीराबाई की तनिक-सी उपेक्षा पर अपने अस्तित्व से जूझता हुआ सच्चा हिरामन बन गया है।
‘तीसरी कसम’ की पटकथा मूल कहानी के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने स्वयं तैयार की थी। कहानी का रेशा-रेशा, उसकी छोटी-से-छोटी बारीकियाँ फिल्म में पूरी तरह उतर आई।
मुकाम – पड़ाव / जगह
किंवदंती – कहावत
पटकथा – मुख्य कथा
लेखक कहता है कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म राजकपूर के फ़िल्मी जीवन में अभिनय का वह पड़ाव था, जब राजकपूर को एशिया के सबसे बड़े शोमैन का स्थान मिल चूका था। राजकपूर का अपना खुद का व्यक्तित्व ही कहावत बन चूका था, लोग उनकी मिसाल देने लगे थे। लेकिन ‘तीसरी कसम’ फिल्म में राजकपूर ने अपने उस महान व्यक्तित्व को पूरी तरह से हिरामन बना दिया था। पूरी फिल्म में राजकपूर कहीं पर भी हिरामन का अभिनय करते हुए नहीं दिखे, बल्कि वे तो खुद ही हिरामन बन गए थे। ऐसा हिरामन जो हीराबाई की फेनू-गिलासी बोली पर प्यार दिखता है, उसकी ‘मनुआ-नटुआ’ जैसी भोली सूरत पर अपना सब कुछ हारने को तैयार है और हीराबाई के थोड़े से भी गुस्सा हो जाने पर आपने आप को ही दोषी ठहरता हुआ सच्चा हिरामन बन जाता है।
‘तीसरी कसम’ की जो मुख्य कहानी है वह खुद लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखी है। कहानी का एक छोटे-से- छोटा भाग, उसकी छोटी-से-छोटी बारीकियाँ फिल्म में पूरी तरह से दिखाई देती है।
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