CBSE Class 10 Hindi Chapter 10 “Ek Kahani Yeh Bhi”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
एक कहानी यह भी – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 10 Ek Kahani Yeh Bhi Summary with detailed explanation of the lesson ‘Ek Kahani Yeh Bhi’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 10 एक कहानी यह भी के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 एक कहानी यह भी पाठ के बारे में जानते हैं।
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- एक कहानी यह भी पाठ प्रवेश
- एक कहानी यह भी पाठ सार
- एक कहानी यह भी पाठ व्याख्या
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“एक कहानी यह भी”
लेखिका परिचय
लेखिका – मन्नू भंडारी
एक कहानी यह भी पाठ प्रवेश (Ek Kahani Yeh Bhi – Introduction to the chapter)
‘ एक कहानी यह भी ‘ के रचना के बारे में सबसे पहले तो हमें यह पता होना चाहिए कि मन्नू भंडारी ने पारिभाषिक अर्थ में कोई क्रम के अनुसार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपने आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में लिखा है जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं। प्रस्तुत पाठ में संकलित अंश में मन्नू जी के अठारह वर्ष से काम उम्र के जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलिज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल जी का व्यक्तित्व विशेष तौर पर उभरकर आया है , जिन्होंने आगे चलकर लेखिका के लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेखिका ने प्रस्तुत पाठ में बहुत ही खूबसूरती से साधरण लड़की के असाधरण बनने के शुरू के सभी पड़ावों को प्रकट किया है। सन् 1946 – 1947 की आज़ादी की आँधी ने मन्नू जी को भी अछूता नहीं छोड़ा। अर्थात लेखिका ने बढ़ – चढ़ कर आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आज़ादी की लड़ाई में जिस तरह अपनी भागीदारी सुनिश्चित की , उसमें उसका उत्साह , ओज , संगठन – क्षमता और विरोध् करने का तरीका देखते ही बनता है।
एक कहानी यह भी पाठ सार (Ek Kahani Yeh Bhi Summary)
लेखिका बताती हैं कि उनका जन्म भले ही मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ हो , लेकिन लेखिका को अपने और अपने परिवार के बारे में जो भी याद है वह उनको उनके जन्म – स्थान से नहीं बल्कि जहाँ वें रहती थी वहीं से उनको सब याद है। जिस मकान में लेखिका बचपन में रहती थीं वह दो – मंज़िला मकान था। उस मकान की ऊपरी मंज़िल में लेखिका के पिताजी का साम्राज्य था। उनके पिता जी अपने कमरे में बहुत ही अधिक बेतरतीब ढंग से फैली – बिखरी हुई पुस्तकों – पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर कुछ सुनकर कुछ लेख या अनुलेखन लिखते रहते थे। अपनी माँ के बारे में बताते हुए लेखिका कहती कि उनकी माँ लेखिका और लेखिका के सभी भाई – बहिनों के साथ रहती थीं। वह सवेरे से शाम तक लेखिका और लेखिका के परिवार की इच्छाओं और लेखिका के पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए हमेशा आतुर रहती थीं। अजमेर से पहले उनके पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनका बहुत अधिक सम्मान और इज़्ज़त की जाती थी , उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी और उनका नाम था। उनके पिता जी केवल शिक्षा के उपदेश ही नहीं देते थे , बल्कि उन दिनों वे आठ – आठ , दस – दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया करते थे , और उन विद्यार्थियों में से कई तो बाद में ऊँचे – ऊँचे पदों पर पहुँचे। लेखिका अपने पिता जी के दो व्यक्तित्व हमें बताती हैं। वे कहती हैं कि एक ओर तो उनके पिता जी बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और स्वयं को दूसरों से बढ़कर समझने वाले अर्थात घमंडी व्यक्ति थे। लेखिका के पिता जी को उनके काम में बहुत अधिक नुक्सान हो गया था , इस आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे , जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल – बूते और हौसले से विषय पर आधारित अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। उस समय यह अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। लेखिका बताती हैं कि इस शब्दकोश ने उनके पिता जी को नाम और सम्मान तो बहुत दिया , परन्तु इससे उनको कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली। धीरे – धीरे लेखिका के पिता जी अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान हो कर अपने स्वभाव के सभी उपयोगी पहलु खोते जा रहे थे। लेखिका के पिता जी को हमेशा उन्नति के शिखर पर रहने की इच्छा थी परन्तु अपनी गिरती आर्थिक स्थिति के कारण और सफलता से असफलता की ओर खिसकने के कारण आए ग़ुस्से को वे अपनी पत्नी अर्थात लेखिका की माँ पर निकाला करते थे। लेखिका के पिता पहले सभी पर विश्वास करते थे परन्तु अपनों से धोखा खाने के बाद कभी – कभी लेखिका के पिता कुछ बातों पर अपने ही परिवार के लोगों पर भी संदेह करने लग गए थे। लेखका अपने पिता जी के बारे में इसलिए बता रही हैं ताकि वे यह समझ सकें कि उनके पिता जी की कौन – कौन से अच्छाइयाँ और बुराइयाँ लेखिका के अंदर भी आ गई हैं। लेखिका बताती हैं कि आज भी जब कोई उनका परिचय करवाते समय जब कुछ विशेषता लगाकर लेखिका की लेखक संबंधी महत्वपूर्ण सफलताओं का ज़िक्र करने लगता है तो लेखिका झिझक और हिचकिचाहट से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने – गड़ने को हो जाती हैं। इसका कारण बताते हुए लेखिका कहती हैं कि शायद अचेतन मन में किसी पर्त के नीचे अब भी कोई हीन – भावना दबी हुई है जिसके चलते लेखिका को अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं हो पता है। सब कुछ लेखिका को ऐसा लगता है जैसे सब कुछ लेखिका को किस्मत से मिल गया है। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी – न – किसी बात पर हमेशा लेखिका की टक्कर ही चलती रही , वे तो न जाने कितने रूपों में लेखिका में हैं। लेखिका अपने अंदर अपने पिता जी के कई स्वभावों को अनुभव करती हैं। लेखिका यह समझाना चाहती हैं कि हमारे अतीत की झलक हमारे साथ किसी न किसी रूप में साथ रहती ही है। लेखिका अपनी माँ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि उनकी माँ उनके पिता के ठीक विपरीत थीं अर्थात लेखिका के पिता जी का जैसा स्वाभाव था लेखिका की माँ का स्वभाव उसका बिलकुल उल्टा था। अपनी माँ के धैर्य , शांति और सब्र की तुलना लेखिका धरती से करती हैं और कहती हैं कि उनकी माँ में धरती से भी ज्यादा सहनशक्ति थी। उनकी माँ उनके पिता जी के हर अत्याचार और कठोर व्यवहार को इस तरह स्वीकार करती थी जैसे वे उनके इस तरह के व्यवहार को प्राप्त करने के योग्य हो और लेखिका की माँ अपने बच्चों की हर फ़रमाइश और ज़िद को चाहे वो फ़रमाइश सही हो या नहीं , अपना फर्ज समझकर बडे़ सरल और साधारण भाव से स्वीकार करती थीं। भले ही लेखिका और उनके भाई – बहिनों का सारा लगाव उनकी माँ के साथ था लेकिन उनका त्याग , उनकी सहनशीलता और क्षमाशीलता लेखिका अपने व्यवहार में शामिल नहीं कर सकीं । लेखिका अपने बारे में बताती हुई कहती हैं कि वे पाँच भाई – बहिनों में सबसे छोटी थी। जब लेखिका की सबसे बड़ी बहन की शादी हुई उस समय लेखिका की उम्र सात साल की थी और उसकी एक याद ही लेखिका के मन में है और वह याद अस्पष्ट – सी ही थी , लेकिन लेखिका से दो साल बड़ी बहन सुशीला और लेखिका ने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले थे। इन खेलों में सतोलिया , लँगड़ी – टाँग , पकड़म – पकड़ाई , काली – टीलो और पास – पड़ोस की सहेलियों के साथ कमरों में गुड्डे – गुड़ियों के ब्याह रचाना आदि। वैसे तो खेलने को लेखिका और उनकी बहन ने भाइयों के साथ गिल्ली – डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने , काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया , लेकिन जहाँ लेखिका के भाइयों के खेल की गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और लेखिका और उनकी बहन के खेल की गतिविधियों की सीमा घर के अंदर तक ही थी। परन्तु उस जमाने की एक अच्छी बात यह थी कि उस ज़माने में एक घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी , बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। लेखिका पुराने समय के ‘ पड़ोस – कल्चर ’ को आज के फ़्लैट सिस्टम से बहुत अधिक अच्छा और सुरक्षित मानती हैं। लेखिका ने अपने द्वारा लिखी कहानियों में जिन भी किरदारों को लिया वो सभी किरदार लेखिका के आस – पास के लोगों से ही प्रेरित थे। बस इन सभी लोगों को देखते – सुनते , इनके बीच ही लेखिका बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप लेखिका के मन पर कितनी गहरी थी , इस बात का अनुभव या ख़याल तो लेखिका को कहानियाँ लिखते समय हुआ। इस बात का एहसास लेखिका को और एक घटना से हुआ जब बहुत वर्ष बीत जाने के बाद या उनके अपनी जन्मभूमि से दूर होने के बाद भी उन सभी लोगों की भाव – भंगिमा , भाषा , किसी को भी समय ने धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बडे़ सहज भाव से वे लेखिका की कहानियों में उतरते चले गए थे। अर्थात लेखिका बहुत आसानी से उन लोगों के व्यक्तित्व को आज भी अपनी कहानियों में लिख पाती थी। जब लेखिका अपनी कृति ‘ महाभोज ’ को लिख रही थीं तब उनके पात्र के लिए जो किरदार वो लिखना चाह रही थी वह पात्र लेखिका के बचपन के मोहल्ले में रहने वाले दा साहब से हूबहू मेल खा रहा था या कहा जा सकता है कि दा साहब को ध्यान में रख कर ही ‘ महाभोज ’ के किरदार का वर्णन लेखिका ने किया होगा। लिखिका के परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य नितांत आवश्यक अर्थात कंपल्सरी योग्यता जो थी , वह थी लड़की की उम्र सोलह वर्ष हो जानी चाहिए और शिक्षा में उसने दसवीं पास कर ली हो। सन् ’ 44 में लेखिका से बड़ी बहन सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त कर ली थी और उनकी शादी कर दी गई और वह शादी करके कोलकाता चली गई। लेखिका के दोनों बड़े भाई भी अपनी आगे पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर चले गए। जब तक लेखिका अपने भाई – बहनों के साथ थी तब तक वे उनके साथ ही अपने आप को हर कार्य में अनुभव करती थीं लेकिन जैसे ही लेखिका की बहनों की शादी हो गई और लेखिका के भाई भी पढ़ाई करने के लिए लेखिका से दूर हो गए वैसे ही लेखिका ने अपने आप को एक प्रकार से स्वतंत्र अनुभव किया और यह लेखिका के लिए बिलकुल नया था। सभी बच्चों के दूर चले जाने के बाद लेखिका के पिता जी का ध्यान भी पहली बार लेखिका पर केंद्रित हुआ। लेखिका बताती हैं कि लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ – साथ सलीकेदार गृहिणी और हर काम को श्रेष्ठ तरीके से ने में योग्य , खाना बनाने की कला में निपुण बनाने के उपाय सिखाए जाते थे , लेखिका के पिता जी इस बात पर बार – बार ज़ोर देते रहते थे , कि लेखिका रसोई से दूर ही रहे। लेखिका के पिता जी का मानना था कि अगर लडकियां केवल रसोई में ही रहेंगी तो भले ही वे अच्छी गृहणी के हर कार्य में निपुण हो जाएँ पर उनके अंदर के सभी गुण और योग्यताएँ समाप्त हो जाती हैं और वे एक छोटे से दायरे तक ही सिमित रह जाती हैं। लेखिका के घर में आए दिन विविध प्रकार की राजनैतिक पार्टियों के लिए लोगों के समूह इकट्ठे होते ही रहते थे और जमकर वाद – विवाद भी होते रहते थे। किसी भी बात पर वाद – विवाद करना लेखिका के पिता जी का सबसे मनपसंद शौक था। वे चाहते थे कि लेखिका भी वहीं बैठे , वहाँ हो रहे वाद – विवादों को सुनें और यह जाने कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। लेखिका को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ , उनके आपसी अनबन या बिगाड़ या मतभेदों की तो दूर – दूर तक कोई समझ ही नहीं थी। परन्तु लेखिका जब क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के बारे में सुनती थी तो उनका मन उदास हो जाता था। दसवीं कक्षा तक हालत यह थी कि लेखिका बिना किसी खास समझ के घर में होने वाले वाद – विवादों को सुनती थी और बिना चुनाव किए , बिना लेखक के महत्व से समझते हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् 1945 में जैसे ही दसवीं पास करके लेखिका ‘ फर्स्ट इयर ’ में आई , तो हिंदी की महिला प्राध्यापक शीला अग्रवाल जी से उनका परिचय हुआ। लेखिका को किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान जो होता है वह सीखा , वह था सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल। शीला अग्रवाल जी ने लेखिका को सही ढंग से साहित्य का ज्ञान दिया। शिला अग्रवाल जी खुद चुन – चुनकर लेखिका को किताबें देती थी। और पढ़ी हुई किताबों पर वाद – विवाद भी करती थी , जहाँ पहले लेखिका केवल कुछ गिने – चुने लेखकों के बारे में जानती थी अब उन लेखकों की संख्या काफी बड़ गई थी। उस समय जैनेंद्र जी का ‘ सुनीता ’ नाम का उपन्यास लेखिका को बहुत अच्छा लगा था , अज्ञेय जी का उपन्यास ‘ शेखर : एक जीवनी ’ लेखिका ने पढ़ा ज़रूर था परन्तु उस समय वह लेखिका की समझ की सीमा के दायरे में समा नहीं पाया था। लेखिका को साहित्य की काफी समझ हो गई थी जिस कारण लेखिका किसी भी लेखक की कृति को पढ़ने पर उस कृति पर प्रश्न भी उठा पा रही थी। शीला अग्रवाल जी ने उनके साहित्य के दायरे को बढ़ाया ही था और साथ – ही – साथ लेखिका को घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने – समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था , लेखिका जहाँ केवल पहले अपने घर में होने वाले वाद – विवादों को सुनती थी अब शिला अग्रवाल जी की सलाहों से वे उन वाद – विवादों में हिस्सा भी लेने लगीं थीं। लेखिका बताती हैं कि सन 1946 – 1947 के दिनों में जो स्थितियाँ देश में बानी हुईं थी , उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना किसी के लिए भी संभव नहीं था। उन दिनों सुबह सवेरे – घुमाना , चलाना , हड़तालें , जुलूस , भाषण हर शहर का केवल यही चरित्र था और पूरे दमखम अर्थात ताकत और जोश – खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना उन दिनों हर युवा का एक प्रकार से अत्यधिक प्रेम बन चूका था। लेखिका अपने बारे में कहती हैं कि वे भी युवा थी और शीला अग्रवाल जी की जोश से भरी हुई बातों ने लेखिका की रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था। लेखिका के पिता जी ने जो आज़ादी लेखिका को दी थी , उस आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में लेखिका घर में आए लोगों के बीच उठे – बैठे , स्थितियों को जाने – समझें। लेकिन हाथ उठा – उठाकर नारे लगाती , हड़तालें करवाती , लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो अपने पिता जी द्वारा दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना लेखिका के लिए। लेखिका बताती हैं कि जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे नियम या आज्ञा जिसमें किसी बात की मनाही हो , सारी कार्य या बात के वर्जित होने की अवस्था या प्रतिबंध और सारा भय कैसे नष्ट हो जाता है , यह लेखिका ने तभी जाना। क्योंकि ये वो समय था जब लेखिका अपने पिता जी की आज्ञा न मान कर आंदोलन में बड़ चढ़ कर भाग ले रही थीं। अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला लेखिका का उस समय शुरू हुआ था वह लेखिका की राजेंद्र से शादी होने तक चलता ही रहा। लेखिका कहती हैं कि प्रशंसा की इच्छा अथवा बड़ाई की इच्छा बल्कि यदि कहा जाए कि किसी चीज़ को किसी भी प्रकार पाने की अनियंत्रित इच्छा या चाहत अथवा किसी चीज़ की प्राप्ति की प्रबल इच्छा , लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमज़ोरी थी और लेखिका के पिता जी के जीवन का अक्ष यह उसूल अथवा प्रिंसिपल था कि व्यक्ति को कुछ असाधारण या अद्भुत बन कर जीना चाहिए और कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो , सम्मान हो , प्रतिष्ठा या इज़्ज़त हो , वर्चस्व या आधिपत्य हो। लेखिका बताती हैं कि इन सिद्धांतों के कारण ही लेखिका एक – दो बार अपने पिता जी के क्रोध से बच गई थी। क्योंकि लेखिका भले ही उनकी बातों को न मान कर आंदोलनों में हिस्सा ले रहीं थी परन्तु इससे लेखिका का मान समाज में बड़ रहा था। लेखिका का रवैया जिस तरह का था उनके कॉलिज के प्रिंसिपल के अनुसार वह अनुशासनात्मक बिलकुल नहीं था। और लेखिका को कोई सज़ा क्यों नहीं देनी चाहिए इसका कारण बताने के लिए लेखिका के पिता जी को कॉलेज बुलाया गया था। पत्र पढ़ते ही लेखिका के पिता जी आग – बबूला हो गए। उनके पिता जी गुस्से से हताशा हुए ही कॉलेज गए थे। लेखिका को यह अंदाजा था कि जब लेखिका के पिता जी घर लौटकर आएँगे तो उनका कैसे प्रकोप लेखिका पर बरसना था , इसी लिए लेखिका अपने पिता जी के आने से पहले ही पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। लेखिका ने अपनी माँ को कह दिया था कि जब पिता जी लौटकर आएँ और उनके मन में दबा हुआ क्रोध अथवा शिकायत कुछ निकल जाए , तब लेखिका को बुलाना। लेकिन जब लेखिका की माँ ने आकर लेखिका से कहा कि लेखिका के पिता जी कॉलेज से आकर तो खुश ही हैं , वह घर चल सकती है , यह सुन कर लेखिका को तो विश्वास नहीं हुआ। लेखिका के पिता जी ने लेखिका को आते देख कहना शुरू किया कि सारे कॉलिज की लड़कियों पर लेखिका का दबदबा है। सारा कॉलिज लेखिका और उनकी तीन साथियों के इशारे पर चल रहा है ? अध्यापक लोग किसी तरह डरा – धमकाकर , डाँट – डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर लेखिका और उनकी साथी एक इशारा कर दें कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। कहाँ तो जाते समय उनके पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ प्रिंसिपल को बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है। एक और घटना का वर्णन करते हुए कहती हैं कि एक शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी – वर्ग मुख्य बाजार के चौराहे पर इकट्ठा हुआ और फिर वहाँ पर भाषणबाज़ी शुरू हुई। जब वे मुख्य बाजार के चौराहे पर भाषण दे रहीं थी तब लेखिका के पिता जी के इस बहुत ही रुढ़िवादी या पुराने ख़याल या विचारों के एक मित्र ने लेखिका को भाषण देते हुए देख लिया और लेखिका के पिता जी लेखिका पर विश्वास करने लगे थे , इसी विश्वास को तोड़ने का काम लेखिका के पिता जी के उन मित्र ने लेखिका के घर आ कर लेखिका के पिता जी से लेखिका की शिकायत करते हुए कहा कि लेखिका अर्थात मन्नू की तो मत मारी गई है पर लेखिका के पिता जी अर्थात भंडारी जी को क्या हुआ है ? यह सब तो ठीक है कि लेखिका के पिता जी ने अपनी लड़कियों को आज़ादी दी है , लेकिन लेखिका के पिता जी के मित्र लेखिका के पिता जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि लेखिका न जाने कैसे – कैसे उलटे – सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती , हुड़दंग मचाती फिर रही है। क्या उनके और लेखिका के पिता जी के घरों की लड़कियों को यह सब शोभा देता है ? कोई मान – मर्यादा , इज़्ज़त – आबरू का खयाल भी रह गया है लेखिका के पिता जी को या नहीं ? लेखिका को इन सारी बातों की कोई ख़बर ही नहीं थी कि उनके घर पर दिन में क्या – क्या हुआ है। रात होने पर लेखिका जब घर लौटी तो लेखिका ने देखा कि उस समय घर पर डॉ. अंबालाल जी बैठे थे , जो लेखिका के पिता जी के एक बहुत ही अंतरंग और अभिन्न मित्र के साथ – साथ अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति भी थे। लेखिका को देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से लेखिका का स्वागत किया और कहा कि वे तो चौपड़ पर लेखिका का भाषण सुनते ही सीधा लेखिका के पिता जी भंडारी जी को बधाई देने चले आए। उन्होंने कहा कि उन्हें लेखिका पर गर्व है। जब लेखिका घर के भीतर गई तो लेखिका की माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात लेखिका को बताई तो लेखिका ने राहत की साँस ली। क्योंकि अगर डॉ. अंबालाल जी आज लेखिका के घर नहीं आते तो लेखिका के पिता जी लेखिका का घर से बाहर निकलना बंद करवा देते। लेखिका को ऐसा लगता है कि उस समय डॉक्टर साहब ने जो इतनी प्रशंसा की थी शायद लेखिका उस लायक नहीं थी। परन्तु लेखिका अपने पिता जी के बारे में बताती हैं कि उनके पिता जी कितनी तरह के एक ही समय में परस्पर विरोधी स्थितियाँ के बीच जीते थे। एक ओर अपने आप को सबसे अलग बनने और दूसरों को भी सबसे अलग बनाने की प्रबल इच्छा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सावधानी। पर क्या यह दोनों चीज़ें संभव है ? क्या लेखिका के पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है ? लेखिका कहती हैं कि सन् 1947 के मई महीने में शीला अग्रवाल जी को कॉलिज वालों ने लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में नोटिस थमा दिया। इस बात को लेकर कोई हुड़दंग न मचे , इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके लेखिका और उनकी साथी छात्राओं का कॉलेज में प्रवेश करना बंद कर दिया। परन्तु लेखिका और उनकी साथियों ने हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा। लेखिका और बाकी साथियों को जीत की खुशी तो थी , पर उनके सामने इससे भी खड़ी बहुत – बहुत बड़ी खुशी थी जिसके के सामने यह खुशी कम पड़ गई। और वह ख़ुशी थी शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि 15 अगस्त 1947 अर्थात आज़ादी की खुशी।
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एक कहानी यह भी पाठ व्याख्या (Ek Kahani Yeh Bhi Lesson Explanation)
पाठ –जन्मी तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में थी , लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो – मंज़िला मकान से , जिसकी ऊपरी मंज़िल में पिताजी का साम्राज्य था , जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली – बिखरी पुस्तकों – पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘ डिक्टेशन ’ देते रहते थे। नीचे हम सब भाई – बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी – लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ … सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर। अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी , सम्मान था , नाम था। कांग्रेस के साथ – साथ वे समाज – सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे , बल्कि उन दिनों आठ – आठ , दस – दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया है जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे – ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और अहंवादी।
शब्दार्थ
सिलसिला – एक के बाद एक चलते रहने वाला क्रम , क्रमिकता , श्रेणी , पंक्ति , कतार
साम्राज्य – एक विशाल राज्य जिसके अधीन अनेक छोटे – छोटे राज्य या देश हों , सार्वभौम राज्य , सल्तनत
निहायत – अत्यंत , बहुत अधिक , ज़्यादा , हद , सीमा
अव्यवस्थित – असहज , जो ठीक क्रम से न हो , बेतरतीब
डिक्टेशन – श्रुतलेख , सुनकर लिखा जाने वाला लेख , इमला , अनुलेखन
सदैव तत्पर – आज्ञाकारी , आतुर , उतावला , उत्साही , इच्छुक
प्रतिष्ठा – मान – मर्यादा , सम्मान , इज़्ज़त
ओहदों – पद , पदवी
दरियादिली – सज्जनता , नेकी , सहृदयता , अति उदारता , दान देने की प्रवृत्ति , दयालुता
अहंवादी – स्वयं को दूसरों से बदकर समझने वाला , अहंमन्य , घमंडी
नोट – इस गद्यांश में लेखिका ने अपने माता – पिता की एक झलक दिखाने की कोशिश की है।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि इनका जन्म भले ही मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ हो , लेकिन उनका जो यादों का एक के बाद एक चलते रहने वाला क्रम शुरू होता है , वह शुरू होता है – अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले से। अर्थात लेखिका को अपने और अपने परिवार के बारे में जो भी याद है वह उनको उनके जन्म – स्थान से नहीं बल्कि जहाँ वें रहती थी वहीं से उनको सब याद है। जिस मकान में लेखिका बचपन में रहती थीं वह दो – मंज़िला मकान था। उस मकान की ऊपरी मंज़िल में लेखिका के पिताजी का साम्राज्य था। साम्राज्य लेखिका ने इसलिए कहा है क्योंकि जिस तरह साम्राज्य में एक विशाल राज्य के अधीन अनेक छोटे – छोटे राज्य या देश होते हैं उसी तरह लेखिका के पिता जी भी पुरे घर को अपने अधीन रखते थे। लेखिका बताती हैं कि उनके पिता जी अपने कमरे में बहुत ही अधिक बेतरतीब ढंग से फैली – बिखरी हुई पुस्तकों – पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर कुछ सुनकर कुछ लेख या अनुलेखन लिखते रहते थे। अपनी माँ के बारे में बताते हुए लेखिका कहती कि उनकी माँ लेखिका और लेखिका के सभी भाई – बहिनों के साथ रहती थीं। लेखिका अपनी माँ को बेपढ़ी – लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ कहती हैं क्योंकि उनकी माँ पढ़ी – लिखी नहीं थी और व्यक्तित्वविहीन इसलिए कहा है क्योंकि उनकी माँ अपने लिए कुछ भी नहीं करती थीं , वह सवेरे से शाम तक लेखिका और लेखिका के परिवार की इच्छाओं और लेखिका के पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए हमेशा आतुर रहती थीं। लेखिका बताती हैं कि अजमेर से पहले उनके पिता जी इंदौर में थे जहाँ उनका बहुत अधिक सम्मान और इज़्ज़त की जाती थी , उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी और उनका नाम था। लेखिका के पिता कांग्रेस के साथ जुड़े हुए थे और साथ – ही – साथ वे समाज – सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। लेखिका बताती हैं कि उनके पिता जी केवल शिक्षा के उपदेश ही नहीं देते थे , बल्कि उन दिनों वे आठ – आठ , दस – दस विद्यार्थियों को अपने घर रखकर पढ़ाया करते थे , और उन विद्यार्थियों में से कई तो बाद में ऊँचे – ऊँचे पदों पर पहुँचे। ये लेखिका के पिता जी की खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरियादिली अर्थात अति उदारता के चर्चे भी कम नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका के अनुसार जब उनके पिता जी अजमेर में थे तब वे बहुत खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। लेखिका अपने पिता जी के दो व्यक्तित्व हमें बताती हैं। वे कहती हैं कि एक ओर तो उनके पिता जी बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी ओर बेहद क्रोधी और स्वयं को दूसरों से बढ़कर समझने वाले अर्थात घमंडी व्यक्ति थे।
पाठ – पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा , तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे , जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल – बूते और हौसले से अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश ( विषयवार ) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी , पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक – स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम – से – कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी आदतें , अधूरी महत्वाकांक्षाएँ हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती – थरथराती रहती थीं।
शब्दार्थ
भग्नावशेष – मलबा , अवशेष
हौसला – उत्साह , साहस , हिम्मत
शब्दकोश – शब्दों के वर्ण विन्यास , अर्थ , प्रयोग , व्युत्पत्ति तथा पर्याय आदि से संबंधित ग्रंथ , अभिधान कोश , कोश
विषयवार – विषय अनुसार
यश – प्रशंसा , बड़ाई , कीर्ति , नाम , सुख्याति
सकारात्मक – निश्चित और स्थिर स्वरूप वाला , निश्चयी , ( पॉजिटिव ) , उपयोगी
सिकुड़ना – आकुंचित होना , सिमटना , आकार में छोटा हो जाना , शिकन , सिलवट पड़ना
विस्फारित – फैलाया हुआ , फाड़ा हुआ , खोला हुआ
अहं – स्वयं की सत्ता , औरों से भिन्न अपनी पृथक सत्ता का भान , अहंकार , घमंड , अहम्मन्यता
अनुमति – किसी कार्य को करने की इजाज़त , स्वीकृति , ( एस्सेंट ) , अनुज्ञा , ( परमिशन )
विवशता – चाहकर भी किसी काम को न कर पाने की स्थिति , विवश होने की अवस्था या भाव , लाचारी , पराधीनता
भागीदार – भाग या हिस्सा प्राप्त करने वाला व्यक्ति , हिस्सेदार , साझेदार , हकदार
महत्वाकांक्षाएँ – उन्नति को प्राप्त करने की इच्छा , बड़ा बनने की आकांक्षा , सपन , तमन्ना , अरमान , कामना )
हाशिए – अंतिम किनारा , आख़िरी छोर , कोर
सरकना – खिसकना , रेंगना , ज़मीन से सटे हुए आगे बढ़ना , धँसना , फिसलना , हट जाना
यातना – बहुत अधिक शारीरिक या मानसिक कष्ट , तकलीफ़ , पीड़ा , व्यथा
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने पिता जी के कार्य और स्वभाव के बारे में वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि जो भी उन्होंने अपने पिता के दोहरे स्वभाव के बारे में बताया है वह सब तो उन्होंने केवल लोगों से सुना था। लेखिका ने जिस पिता को देखा था , वे तो , जो गुण लोग उनके बताते थे , उन गुणों के केवल मालवों को ढोते एक व्यक्ति थे। अर्थात लेखिका ने अपने पिता को अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ उठाते देखा था। लेखिका के पिता जी को उनके काम में बहुत अधिक नुक्सान हो गया था , इस आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे , जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल – बूते और हौसले से विषय पर आधारित अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। उस समय यह अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। लेखिका बताती हैं कि इस शब्दकोश ने उनके पिता जी को नाम और सम्मान तो बहुत दिया , परन्तु इससे उनको कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली और लेखिका इसी गिरती आर्थिक स्थिति को कारण बताती हुई कहती हैं कि इसी गिरती आर्थिक स्थिति ने ही लेखिका के पिता जी के व्यक्तित्व के जितने भी सारे सकारात्मक पहलु थे उनको निचोड़ना शुरू कर दिया। अर्थात धीरे – धीरे लेखिका के पिता जी अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान हो कर अपने स्वभाव के सभी उपयोगी पहलु खोते जा रहे थे। लेखिका बताती हैं कि लगातार कम होती आर्थिक – स्थिति के कारण और अपने अधिक फैले हुए उनके पिता जी का घमंड उन्हें इस बात तक की इजाज़त नहीं देता था कि वे कम – से – कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक कठिनाइयों को बता कर उन कठिनाइयों का मिलकर सामना करने में उन्हें हिस्सेदार बनाएँ। लेखिका यह भी बताती हैं कि उनके पिता जी की आदतें किसी नवाब से कम नहीं थी , और उन्नति को प्राप्त करने की इच्छा के अधूरे रह जाने के कारण और साथ ही साथ हमेशा ऊँचाई पर रहने के बाद आख़िरी छोर पर खिसकते चले जाने की पीड़ा , क्रोध बनकर हमेशा लेखिका की माँ को कँपाती – थरथराती रहती थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका के पिता जी को हमेशा उन्नति के शिखर पर रहने की इच्छा थी परन्तु अपनी गिरती आर्थिक स्थिति के कारण और सफलता से असफलता की ओर खिसकने के कारण आए ग़ुस्से को वे अपनी पत्नी अर्थात लेखिका की माँ पर निकाला करते थे।
पाठ – अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब – तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते। पर यह पितृ – गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव – गान करना है , बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन – सी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने – बाने में गुँथी हुई हैं या कि अनजाने – अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का ज़िक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने – गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन – भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती … सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना – भन्ना जाती थी , आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है … बहुत ‘ अपनों ’ के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी – न – किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही , वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं … कहीं कुंठाओं के रूप में , कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है ! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए … स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे , हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता !
शब्दार्थ –
विश्वासघात – छल , धोखा , विश्वास को तोड़ना , किसी के विश्वास के विरुद्ध किया गया काम , दगाबाज़ी
आँख मूँदकर – आँख बंद करके
शक्की – शक करने वाला , शंकाशील , संदेह करने वाला
चपेट – लपेट , घेरा , धक्का , झोंका , प्रहार , आघात , टक्कर , कठिनाई या संकट की स्थिति
पितृ – गाथा – पिता की प्रशंसा
गौरव – सम्मान , आदर , इज़्ज़त , प्रतिष्ठा , मर्यादा , महिमा , गरिमा , महानता , बड़प्पन
खूबी – अच्छाई , अच्छापन , विशेषता
खामियाँ – कमियाँ , बुराइयाँ
ग्रंथि – शरीर में गाँठ के रूप में होने वाला वह अवयव जो शरीर के लिए उपयोगी रस उत्पन्न करता है
लेखकीय – लेखक संबंधी
उपलब्धि – उपलब्धता , प्राप्ति , महत्वपूर्ण सफलता , अनुभव , प्रत्यक्ष ज्ञान
संकोच – झिझक , हिचकिचाहट , असमंजस , भय या लज्जा का भाव
अचेतन – बेहोश , बेसुध , निर्जीव , अज्ञानी , चेतना – रहित
खंडित – जिसे तोड़ा गया हो , जो कई जगह से टूटा हुआ हो
व्यथा – मानसिक या शारीरिक क्लेश , पीड़ा , वेदना , चिंता , कष्ट
झलक – आकृति का आभास या प्रतिबिंब
उपजा – उत्पन्न , पैदा
शक – संदेह , संशय , शंका , भ्रांति होना या पड़ना
कुंठा – निराशाजन्य अतृप्त भावना , ( फ़्रस्ट्रेशन )
प्रतिक्रिया – किसी कार्य या घटना के परिणाम – स्वरूप होने वाला कार्य , ( रिएक्शन )
प्रतिच्छाया – चित्र , तस्वीर , प्रतिरूप , परछाईं , प्रतिबिंब , प्रतिमा
परंपरा – प्राचीन समय से चली आ रही रीति , परिपाटी , ( ट्रैडिशन )
आसन्न – निकट या नज़दीक आया हुआ , समीपस्थ , उपस्थित
प्रवाह – बहाव , बहने की क्रिया या भाव , धार , धारा
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने पिता के शक्की स्वभाव का कारण बता रही हैं और साथ ही साथ यह भी वर्णन कर रही हैं कि उनके अंदर उनके पिता जी के कौन – कौन से गुण विद्यमान हैं।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उनके पिता जी को किन्ही परायों ने नहीं बल्कि उनके अपनों ने ही धोखा दिया था और लेखिका अंदाजा लगाते हुए कहती हैं कि अपनों के हाथों धोखा खाने की न जाने कैसी गहरी चोटें होंगी , जिन्होंने आँख बंद करके सबका विश्वास करने वाले उनके पिता जी को बाद के दिनों में इतना संदेह करने वाला बना दिया था कि कभी – कभी लेखिका और उनके भाई – बहन और माँ भी उसकी चपेट में आते ही रहते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका के पिता पहले सभी पर विश्वास करते थे परन्तु अपनों से धोखा खाने के बाद कभी – कभी लेखिका के पिता कुछ बातों पर अपने ही परिवार के लोगों पर भी संदेह करने लग गए थे। लेखिका बताती हैं कि वे हमारे समक्ष अपने पिता की प्रशंसा इसलिए नहीं कर रही हैं कि उन्हें अपने पिता जी की महानता या बड़प्पन का गान गाना है , बल्कि लेखिका तो यह देखना चाहती हैं कि उनके व्यक्तित्व की कौन – सी अच्छाई या विशेषता और कौन – सी कमियाँ या बुराइयाँ लेखिका के व्यक्तित्व के ताने – बाने में गुँथी हुई हैं या फिर अनजाने – अनचाहे किए उनके पिता जी के व्यवहार ने लेखिका के भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक अपने पिता जी के बारे में इसलिए बता रही हैं ताकि वे यह समझ सकें कि उनके पिता जी की कौन – कौन से अच्छाइयाँ और बुराइयाँ लेखिका के अंदर भी आ गई हैं। लेखिका बताती हैं कि आज भी जब कोई उनका परिचय करवाते समय जब कुछ विशेषता लगाकर लेखिका की लेखक संबंधी महत्वपूर्ण सफलताओं का ज़िक्र करने लगता है तो लेखिका झिझक और हिचकिचाहट से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने – गड़ने को हो जाती हैं। अर्थात लेखिका अपनी सफलताओं का जिक्र सुनते समय झिझक जाती हैं। इसका कारण बताते हुए लेखिका कहती हैं कि शायद अचेतन मन में किसी पर्त के नीचे अब भी कोई हीन – भावना दबी हुई है जिसके चलते लेखिका को अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं हो पता है। सब कुछ लेखिका को ऐसा लगता है जैसे सब कुछ लेखिका को किस्मत मिल गया है। लेखिका कहती हैं कि अपने पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर वे कभी भन्ना – भन्ना जाती थी , आज एकाएक अपने तोड़े गए विश्वासों की मानसिक या शारीरिक पीड़ा के नीचे लेखिका को अपने पिता जी के शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है। अर्थात आज जब लेखिका को भी उनके कुछ अपनों के द्वारा धोखा दिया गया है तब उन्हें भी अपने पिता जी के उस शक्की स्वभाव की झलक अपने अंदर अनुभव हो रही हैं। जो बहुत ‘ अपनों ’ के हाथों विश्वासघात की गहरी पीड़ा से उतपन्न हुआ है। लेखिका कहती हैं कि होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी – न – किसी बात पर हमेशा लेखिका की टक्कर ही चलती रही , वे तो न जाने कितने रूपों में लेखिका में हैं। वे कहीं लेखिका की फ़्रस्ट्रेशन के रूप में लेखिका के अंदर विद्यमान है , कहीं किसी कार्य या घटना के परिणाम – स्वरूप होने वाले रिएक्शन के रूप में तो कहीं परछाईं या प्रतिबिंब के रूप में। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका अपने अंदर अपने पिता जी के कई स्वभावों को अनुभव करती हैं। लेखिका कहती हैं कि केवल बाहर से अलग होने के आधार पर अपने प्राचीन समय से चली आ रही रीति या ट्रैडिशन और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका निकट या नज़दीक आया हुआ अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है ! अर्थात लेखिका यह समझाना चाहती हैं कि हम चाहे कितना भी नकार लें हमारा अतीत हमारे साथ ही रहता है। समय का बहाव भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए , स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे , परन्तु समय भी हमें पूरी तरह से हमारे अतीत से मुक्त तो नहीं ही कर सकता ! कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे अतीत की झलक हमारे साथ किसी न किसी रूप में साथ रहती ही है।
पाठ – पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बेपढ़ी – लिखी माँ। धरती से कुछ श्यादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिता जी की हर ज़्यादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित – अनुचित फ़रमाइश और ज़िद को अपना फर्ज समझकर बडे़ सहज भाव से स्वीकार करती थीं वे। उन्होंने ज़िदगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं , चाहा नहीं … केवल दिया ही दिया। हम भाई – बहिनों का सारा लगाव माँ के साथ था लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका … न उनका त्याग , न उनकी सहिष्णुता। खैर , जो भी हो , अब यह पैतृक – पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ।
शब्दार्थ
विपरीत – जैसा होना चाहिए उससे उलटा , विरुद्ध , प्रतिकूल , ख़िलाफ़ , विपरीत क्रम , भिन्न
धैर्य – शांति , सब्र
सहनशक्ति – सहने की शक्ति या सामर्थ्य
ज़्यादती – ज़ुल्म , ज़बरदस्ती , अत्याचार , कठोर व्यवहार
प्राप्य – जो कहीं से या किसी से प्राप्त हो सकता हो , प्राप्त करने के योग्य , जो मिल सके , मिलने के योग्य
फ़रमाइश – किसी बात या काम को करने का आग्रह , निवेदन , आज्ञा के रूप में कुछ माँगना , ( ऑर्डर ) , अनुरोध के साथ की गई माँग
ज़िद – किसी बात पर अड़े रहने का भाव , हठ , किसी अनुचित बात के लिए किया जाने वाला दुराग्रह , अड़ , दृढ़ता
सहज – सरल , सुगम , स्वाभाविक , सामान्य , साधारण
लगाव – शायद सहानुभूति से उपजा
निहायत – अत्यंत , बहुत अधिक , ज़्यादा , हद , सीमा
असहाय – जिसकी कोई सहायता करने वाला न हो , मजबूर , निराश्रय , अनाथ
सहिष्णुता – सहिष्णु होने की अवस्था , गुण या भाव , सहनशीलता , क्षमाशीलता
पैतृक – पिता संबंधी , पुरखों का , पुश्तैनी
पुराण – प्राचीन घटना या उसका वृत्तांत , बहुत पुराना होने के कारण जीर्ण – शीर्ण
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपनी माँ के बारे में वर्णन कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका अपनी माँ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि उनकी माँ उनके पिता के ठीक विपरीत थीं अर्थात लेखिका के पिता जी का जैसा स्वाभाव था लेखिका की माँ का स्वभाव उसका बिलकुल उल्टा था। अपनी माँ के धैर्य , शांति और सब्र की तुलना लेखिका धरती से करती हैं और कहती हैं कि उनकी माँ में धरती से भी ज्यादा सहनशक्ति थी। कहने का तात्पर्य यह है कि धरती को सबसे ज्यादा सहनशील माना जाता है और लेखिका की माँ में भी सहनशक्ति बहुत ज्यादा थी। लेखिका बताती हैं कि उनकी माँ उनके पिता जी के हर अत्याचार और कठोर व्यवहार को इस तरह स्वीकार करती थी जैसे वे उनके इस तरह के व्यवहार को प्राप्त करने के योग्य हो और लेखिका की माँ अपने बच्चों की हर फ़रमाइश और ज़िद को चाहे वो फ़रमाइश सही हो या नहीं , अपना फर्ज समझकर बडे़ सरल और साधारण भाव से स्वीकार करती थीं। लेखिका कहती है कि उनकी माँ ने अपनी पूरी ज़िदगी में अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा , कुछ नहीं चाहा केवल सबको दिया ही दिया। अर्थात लेखिका की माँ हमेशा सबकी इच्छाओं को पूरा करने में लगी रहती थी कभी अपनी इच्छाओं पर ध्यान नहीं देती थी। भले ही लेखिका और उनके भाई – बहिनों का सारा लगाव उनकी माँ के साथ था लेकिन बहुत अधिक मजबूर और निराश्रय अर्थात मजबूरी में लिपटा उनका त्याग कभी लेखिका के लिए आदर्श नहीं बन सका। कहने का तात्पर्य यह है कि उनका त्याग , उनकी सहनशीलता और क्षमाशीलता लेखिका अपने व्यवहार में शामिल नहीं कर सकीं। लेखिका अब अपने पिता संबंधी अथवा पुश्तैनी प्राचीन घटना या उसका वृत्तांत यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हैं। अर्थात लेखिका अब अपने बारे में बताना चाहती हैं।
पाठ – पाँच भाई – बहिनों में सबसे छोटी मैं। सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी एक धुँधली – सी याद ही मेरे मन में है , लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले – सतोलिया , लँगड़ी – टाँग , पकड़म – पकड़ाई , काली – टीलो … तो कमरों में गुड्डे – गुड़ियों के ब्याह भी रचाए , पास – पड़ोस की सहेलियों के साथ। यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली – डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने , काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया , लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर। हाँ , इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी , बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िदगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ़्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत ‘ पड़ोस – कल्चर ’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित , असहाय और असुरक्षित बना दिया है।
शब्दार्थ
धुँधली – अँधेरा , अस्पष्ट , नज़र की कमी या दोष
आँगन – मकान की सीमा में आने वाला वह खुला स्थान जिसे घर के कामों के लिए उपयोग में लाया जाता है
सतोलिया – सतोलिया खेल को खेलने के लिए सात चपटे पत्थर ढूँढ़ने पड़ते हैं जिन्हें एक के ऊपर एक जमाया जाता है। सबसे बड़ा पत्थर नीचे और फिर ऊपर की तरफ छोटे होते हुए पत्थर लगाये जाते हैं
दायरा – अधिकार या कर्म का क्षेत्र
पाबंदी – पाबंद होने की क्रिया , भाव या अवस्था , किसी नियम , वचन , सिद्धांत आदि का पूर्ण रूप से पालन करने की विवशता या लाचारी , किसी के अधीन होकर काम करने का भाव
शिद्दत – प्रबलता , तीव्रता , लगन , तीव्र भावना , गरमजोशी
आधुनिक – वर्तमान समय या युग का , समकालीन , सांप्रतिक , हाल का
परंपरागत – परंपरा से प्राप्त होने वाला , परंपरा से संबद्ध , पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाला
विच्छिन्न – जिसका विच्छेद हुआ हो , काटकर या छेदकर अलग किया हुआ , पृथक , विभाजित , छिन्न – भिन्न , समाप्त
संकुचित – संकीर्ण , तंग , सँकरा , अनुदार
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने बारे में तथा अपने बचपन के बारे में और जहाँ लेखिका रहती थी उस मोहल्ले का वर्णन कर रही हैं और उस समय के ‘ पड़ोस – कल्चर ’ का वर्णन कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका अपने बारे में बताती हुई कहती हैं कि वे पाँच भाई – बहिनों में सबसे छोटी थी। जब लेखिका की सबसे बड़ी बहन की शादी हुई उस समय लेखिका की उम्र सात साल की थी और उसकी एक याद ही लेखिका के मन में है और वह याद अस्पष्ट – सी ही थी , लेकिन लेखिका से दो साल बड़ी बहन सुशीला और लेखिका ने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले थे। इन खेलों में सतोलिया अर्थात इस खेल को खेलने के लिए सात चपटे पत्थर ढूँढ़ने पड़ते हैं जिन्हें एक के ऊपर एक जमाया जाता है। सबसे बड़ा पत्थर नीचे और फिर ऊपर की तरफ छोटे होते हुए पत्थर लगाये जाते हैं। और दूसरे खेल जैसे – लँगड़ी – टाँग , पकड़म – पकड़ाई , काली – टीलो और पास – पड़ोस की सहेलियों के साथ कमरों में गुड्डे – गुड़ियों के ब्याह रचाना आदि। लेखिका कहती हैं कि वैसे तो खेलने को लेखिका और उनकी बहन ने भाइयों के साथ गिल्ली – डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने , काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया , लेकिन जहाँ लेखिका के भाइयों के खेल की गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और लेखिका और उनकी बहन के खेल की गतिविधियों की सीमा घर के अंदर तक ही थी। लेखिका बताती कि भले ही उस ज़माने में लड़कियों को उतनी अधिक आज़ादी नहीं थी परन्तु उस जमाने की एक अच्छी बात यह थी कि उस ज़माने में एक घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी , बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। कहने का तात्पर्य यह है कि इस बात का फायदा उठा कर लेखिका और उनकी बहन घर से बाहर निकले बिना पुरे मोहल्ले में सकती थी और इस बात पर कोई उन्हें रोकता भी नहीं था। लेखिका आज के वर्तमान समय की बात करते हुए कहती हैं कि आज तो लेखिका को बड़ी प्रबलता के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िदगी खुद जीने के इस वर्तमान समय या युग में दबाव ने महानगरों के फ़्लैट में रहने वालों को हमारे इस पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाले ‘ पड़ोस – कल्चर ’ से बिलकुल अलग करके हम सभी को कितना संकीर्ण ,असहाय और असुरक्षित बना दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका पुराने समय के ‘ पड़ोस – कल्चर ’ को आज के फ़्लैट सिस्टम से बहुत अधिक अच्छा और सुरक्षित मानती हैं।
पाठ – मेरी कम – से – कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक – दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते – सुनते , इनके बीच ही मैं बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी , इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव – भंगिमा , भाषा , किसी को भी धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बडे़ सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही ‘ महाभोज ’ में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे , यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था … एक सुखद आश्चर्य का।
शब्दार्थ –
आरंभिक – शुरुआती , शुरू का , आरंभ का , प्रारंभिक
पात्र – उपन्यास , कहानी , नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा – वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया – कलाप या चरित्र से कथावस्तु की सृष्टि और उसका परिपाक होता है , अभिनेता
किशोरावस्था – बारह से अठारह वर्ष तक की आयु
युवावस्था – जवानी , यौवन , तरुण अवस्था
अहसास – अनुभव , प्रतीति , संवेदन , ध्यान , ख़याल
अंतराल – फ़ासला , दूरी , लंबाई , विस्तार
भाव – भंगिमा – कला पूर्ण शारीरिक मुद्रा , स्त्रियों के हाव – भाव या कोमल चेष्टाएँ , कुटिलता , वक्रता
व्यक्तित्व – अलग सत्ता , पृथक अस्तित्व , निजी विशेषता , वैयक्तिकता
अभिव्यक्ति – प्रकटीकरण , स्पष्टीकरण , परोक्ष और सूक्ष्म कारणों का प्रत्यक्ष कार्य के रूप में सामने आना , जैसे – बीज से अंकुर का प्रस्फुटन
आश्चर्य – विस्मय , अद्भुत रस का स्थायी भाव , अचरज , अचंभा , हैरानी
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने बचपन के निवास स्थल और वहाँ के लोगों का उनके मन पर पड़ी गहरी छाप का वर्णन कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उनकी कम – से – कम एक दर्जन शुरुआती कहानियों के पात्र , जो कथा – वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया – कलाप या चरित्र से कथावस्तु की सृष्टि और उसका परिपाक होता है , उसी मोहल्ले के हैं जहाँ लेखिका ने अपनी बारह से अठारह वर्ष तक की आयु गुज़ार कर अपनी यौवन अर्थात तरुण अवस्था का आरंभ किया था। एक – दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र लेखिका के परिवार का नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका ने अपने द्वारा लिखी कहानियों में जिन भी किरदारों को लिया वो सभी किरदार लेखिका के आस – पास के लोगों से ही प्रेरित थे। बस इन सभी लोगों को देखते – सुनते , इनके बीच ही लेखिका बड़ी हुई थी लेकिन इनकी छाप लेखिका के मन पर कितनी गहरी थी , इस बात का अनुभव या ख़याल तो लेखिका को कहानियाँ लिखते समय हुआ। अर्थात जब लेखिका अपनी कहानियों में अपने आस – पास के लोगों से प्रेरित हो कर किरदार लिखती तब लेखिका को अनुभव होता कि उनके आस – पास के लोगों का उन पर कितना अधिक प्रभाव पड़ा है। इस बात का एहसास लेखिका को और एक घटना से हुआ जब बहुत वर्ष बीत जाने के बाद या उनके अपनी जन्मभूमि से दूर होने के बाद भी उन सभी लोगों की भाव – भंगिमा , भाषा , किसी को भी समय ने धुँधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बडे़ सहज भाव से वे लेखिका की कहानियों में उतरते चले गए थे। अर्थात लेखिका बहुत आसानी से उन लोगों के व्यक्तित्व को आज भी अपनी कहानियों में लिख पाती थी। उसी समय के अर्थात लेखिका के बचपन के समय के दा साहब अपने निजी विशेषता की अभिव्यक्ति स्पष्टीकरण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही ‘ महाभोज ’ में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे , यह लेखिका के अपने लिए भी हैरानी का विषय था और वह हैरानी एक सुखद हैरानी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जब लेखिका अपनी कृति ‘ महाभोज ’ को लिख रही थीं तब उनके पात्र के लिए जो किरदार वो लिखना चाह रही थी वह पात्र लेखिका के बचपन के मोहल्ले में रहने वाले दा साहब से हूबहू मेल खा रहा था या कहा जा सकता है कि दा साहब को ध्यान में रख कर ही ‘ महाभोज ’ के किरदार का वर्णन लेखिका ने किया होगा।
पाठ – उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी – उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक। सन् ’ 44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्र – छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वज़ूद का एहसास हुआ। पिता जी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केंद्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ – साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक – शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे , पिता जी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ। रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था।
शब्दार्थ
अनिवार्य – जिसके बिना काम न चल सके , नितांत आवश्यक , ( कंपल्सरी ) , अवश्यंभावी
योग्यता – गुण , क्षमता , औकात , बुद्धिमानी , प्रतिष्ठा
मैट्रिक – हाईस्कूल , दसवीं , प्रवेशिका
छत्र – छाया – सुरक्षा , पनाह , शरण
वज़ूद – सत्ता , अस्तित्व
एहसास – अनुभव , संवेदन , प्रतीति , भावना
केंद्रित – केंद्र में स्थित , केंद्र में लाया हुआ , किसी निश्चित स्थान में एकत्रित
सुघड़ – ठीक ढंग से गढ़ा हुआ , सुडौल , सुंदर , किसी कार्य में कुशल , निपुण , हुनरमंद , सलीकेदार
गृहिणी – घर पर रहने वाली विवाहित स्त्री , घर की कर्ता – धर्ता स्त्री , गृहस्वामिनी , पत्नी , भार्या
कुशल – जो किसी काम को करने में दक्ष हो , जो किसी काम को श्रेष्ठ तरीके से करता हो , प्रशिक्षित , योग्य
पाक – शास्त्री – खाना बनाने की कला में निपुण
नुस्खे – उपाय
आग्रह – अनुरोध , निवेदन , किसी बात पर बार – बार ज़ोर देना , किसी बात पर अड़े रहना , हठ
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने जमाने में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता का वर्णन कर रही हैं और साथ ही साथ लेखिका के लिए उनके पिता जी की सोच को भी उजागर करने का प्रयास कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि लेखिका के बचपन के समय तक लिखिका के परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य नितांत आवश्यक अर्थात कंपल्सरी योग्यता जो थी, वह थी लड़की की उम्र सोलह वर्ष हो जानी चाहिए और शिक्षा में उसने दसवीं पास कर ली हो। सन् ’ 44 में लेखिका से बड़ी बहन सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त कर ली थी और उनकी शादी कर दी गई और वह शादी करके कोलकाता चली गई। लेखिका के दोनों बड़े भाई भी अपनी आगे पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर चले गए। अपने भाई – बहनों के चले जाने और उनकी शरण के हटते ही पहली बार लेखिका को नए सिरे से अपने अस्तित्व का अनुभव हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक लेखिका अपने भाई – बहनों के साथ थी तब तक वे उनके साथ ही अपने आप को हर कार्य में अनुभव करती थीं लेकिन जैसे ही लेखिका की बहनों की शादी हो गई और लेखिका के भाई भी पढ़ाई करने के लिए लेखिका से दूर हो गए वैसे ही लेखिका ने अपने आप को एक प्रकार से स्वतंत्र अनुभव किया और यह लेखिका के लिए बिलकुल नया था। सभी बच्चों के दूर चले जाने के बाद लेखिका के पिता जी का ध्यान भी पहली बार लेखिका पर केंद्रित हुआ। लेखिका बताती हैं कि लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ – साथ सलीकेदार गृहिणी और हर काम को श्रेष्ठ तरीके से ने में योग्य , खाना बनाने की कला में निपुण बनाने के उपाय सिखाए जाते थे , लेखिका के पिता जी इस बात पर बार – बार ज़ोर देते रहते थे , कि लेखिका रसोई से दूर ही रहे। क्योंकि रसोई को लेखिका के पिता जी भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। अर्थात लेखिका के पिता जी का मानना था कि अगर लडकियां केवल रसोई में ही रहेंगी तो भले ही वे अच्छी गृहणी के हर कार्य में निपुण हो जाएँ पर उनके अंदर के सभी गुण और योग्यताएँ समाप्त हो जाती हैं और वे एक छोटे से दायरे तक ही सिमित रह जाती हैं।
पाठ – घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे और जमकर बहसें होती थीं। बहस करना पिता जी का प्रिय शगल था। चाय – पानी या नाश्ता देने जाती तो पिता जी मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठूँ , सुनूँ और जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। देश में हो भी तो कितना कुछ रहा था। सन् ’ 42 के आंदोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था , लेकिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ , उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो मुझे दूर – दूर तक कोई समझ नहीं थी। हाँ , क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण , उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रांत रहता था। सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी खास समझ के घर में होने वाली बहसें सुनती थी और बिना चुनाव किए , बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन् ’ 45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं ‘ फर्स्ट इयर ’ में आई , हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल … जहाँ मैंने ककहरा सीखा , एक साल पहले ही कॉलिज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं , उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया।
शब्दार्थ
विभिन्न – भिन्न – भिन्न , विविध प्रकार का , कई तरह का
जमावड़ा – एक स्थान पर इकट्ठा हुए लोगों का समूह , भीड़ , मजमा , एकत्रीकरण
बहस – वाद – विवाद , ज़िरह
शगल – शौक , मनबहलाव का कोई काम
नाश्ता – सुबह का अल्पाहार , जलपान , कलेवा , ( ब्रेकफास्ट )
विरोध – अवरोध , रुकावट , बाधा , आपसी अनबन या बिगाड़ , लड़ाई , झगड़ा , संघर्ष
मतभेद – राय न मिलना , मत की भिन्नता , मतांतर , पारस्परिक मतभेद
रोमानी – रोमांटिक , जो रूह को अच्छा लगे
आकर्षण – विशेष प्रकार का खिंचाव , लगाव
आक्रांत – वशीभूत , अभिभूत , ग्रस्त , सताया हुआ , व्याप्त
आलम – हालत , दशा
अहमियत – महत्व , गंभीरता , वजनदारी
परिचित – जिसका परिचय प्राप्त हो , जिसे जानते हों , जाना – पहचाना हुआ , समझा हुआ , ज्ञात , जिससे जान – पहचान या मेलजोल हो
प्राध्यापिका – महिला प्राध्यापक
ककहरा – हिंदी वर्णमाला में ‘ क ‘ से ‘ ह ‘ तक के वर्णों का समूह , वर्णमाला , किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान
नियुक्त – किसी काम पर लगाया हुआ , तैनात या मुकर्रर किया हुआ , जो किसी पद पर रखा गया हो , नियोजित
बाकायदा – विधिपूर्वक , कायदे से , नियम से , भली – भाँति
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने घर के महौल का वर्णन कर रही हैं और साथ – ही – साथ साहित्य की दुनिया में उनका कैसे प्रवेश हुआ इसका वर्णन भी कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उनके घर में आए दिन विविध प्रकार की राजनैतिक पार्टियों के लिए लोगों के समूह इकट्ठे होते ही रहते थे और जमकर वाद – विवाद भी होते रहते थे। किसी भी बात पर वाद – विवाद करना लेखिका के पिता जी का सबसे मनपसंद शौक था। लेखिका बताती हैं कि जब लेखिका उन सभी लोगों को चाय – पानी या नाश्ता देने जाती थी तो उनके पिता जी उनको भी वहीं बैठने को कहते थे। वे चाहते थे कि लेखिका भी वहीं बैठे , वहाँ हो रहे वाद – विवादों को सुनें और यह जाने कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। और वह समय भी ऐसा ही था जब देश में भी हर जगह बहुत कुछ रहा था। कहने का तात्पर्य यह है कि वह समय देश को आजादी की राह पर चलाने के लिए चल रहे आंदोलनों का था , जिस कारण देश में हर जगह स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर था। लेखिका बताती हैं कि सन् 1942 के आंदोलन के बाद से तो सारे देश का जैसे आज़ादी की राह में खून खौल रहा था , लेकिन लेखिका को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ , उनके आपसी अनबन या बिगाड़ या मतभेदों की तो दूर – दूर तक कोई समझ ही नहीं थी। परन्तु लेखिका का क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण , उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन सताया हुआ रहता था। अर्थात लेखिका जब क्रांतिकारियों और देशभक्त शहीदों के बारे में सुनती थी तो उनका मन उदास हो जाता था। लेखिका कहती हैं कि दसवीं कक्षा तक हालत यह थी कि लेखिका बिना किसी खास समझ के घर में होने वाले वाद – विवादों को सुनती थी और बिना चुनाव किए , बिना लेखक के महत्व से समझते हुए किताबें पढ़ती थी। अर्थात लेखिका कोई भी किताब उठा कर पढ़ती रहती थी उनको लेखक और किताब की कोई समझ नहीं थी। लेकिन सन् 1945 में जैसे ही दसवीं पास करके लेखिका ‘ फर्स्ट इयर ’ में आई , तो हिंदी की महिला प्राध्यापक शीला अग्रवाल जी से उनका परिचय हुआ। लेखिका बताती हैं कि जहाँ उन्होंने हिंदी वर्णमाला में ‘ क ‘ से ‘ ह ‘ तक के वर्णों का समूह अथवा कहा जा सकता है कि किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान जो होता है वह सीखा , वह था सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल। वह कॉलिज लेखिका के वहाँ पढ़ने जाने के एक साल पहले ही बना था और शीला अग्रवाल जी को उसी साल उस कॉलिज में पद पर रखा गया था जब लेखिका वहाँ पढ़ने गई थी। शीला अग्रवाल जी ने विधिपूर्वक या नियम से लेखिका का साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया था। कहने का तात्पर्य यह था कि शीला अग्रवाल जी ने लेखिका को सही ढंग से साहित्य का ज्ञान दिया।
पाठ – मात्र पढ़ने को , चुनाव करके पढ़ने में बदला … खुद चुन – चुनकर किताबें दीं … पढ़ी हुई किताबों पर बहसें कीं तो दो साल बीतते – न – बीतते साहित्य की दुनिया शरत् – प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र , अज्ञेय , यशपाल , भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल – सहज वाक्यों वाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था। ‘ सुनीता ’ ( उपन्यास ) बहुत अच्छा लगा था , अज्ञेय जी का उपन्यास ‘ शेखर : एक जीवनी ’ पढ़ा ज़रूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था। कुछ सालों बाद ‘ नदी के द्वीप ’ पढ़ा तो उसने मन को इस कदर बाँधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई … इस बार कुछ समझ के साथ। यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था … पाप – पुण्य , नैतिक – अनैतिक , सही – गलत की बनी – बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिह्न ही नहीं लग रहे थे , उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी संदर्भ में जैनेंद्र का ‘ त्यागपत्र ’ , भगवती बाबू का ‘ चित्रालेखा ’ पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी – लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी , समझा।
शब्दार्थ –
आकृष्ट – आकर्षित , खींचा हुआ , मुग्ध
सीमित – जिसकी सीमाएँ हों , एक निश्चित विस्तार या सीमा तक
झोंक – नशा , मनोविकार , गति की ऐसी तीव्रता या वेग जो सहसा रुक न सकता हो
मंथन – किसी समस्या या सिद्धांत के लिए किया जाने वाला गंभीर विचार – विमर्श , चिंतन , गूढ़ तत्व की छानबीन
ध्वस्त – ढहा हुआ , नष्ट , पतित , गिरा हुआ
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने द्वारा पढ़ी गई कुछ पुस्तकों के बारे में वर्णन कर रही हैं।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि जहाँ पहले लेखिका बिना किसी समझ के केवल पढ़ती थी , शिला अग्रवाल जी से मिलने के बाद अब वह पुस्तकों को चुन कर के पढ़ने लगी। शिला अग्रवाल जी खुद चुन – चुनकर लेखिका को किताबें देती थी। और पढ़ी हुई किताबों पर वाद – विवाद भी करती थी जिससे दो साल बीतने से पहले ही लेखिका की साहित्य की दुनिया शरत् – प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र , अज्ञेय , यशपाल , भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फैलती ही चली गई। अर्थात जहाँ पहले लेखिका केवल कुछ गिने – चुने लेखकों के बारे में जानती थी अब उन लेखकों की संख्या काफी बड़ गई थी। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे – छोटे सरल – सहज वाक्यों वाली शैली ने लेखिका को बहुत आकर्षित किया था। उनका ‘ सुनीता ’ नाम का उपन्यास लेखिका को बहुत अच्छा लगा था , अज्ञेय जी का उपन्यास ‘ शेखर : एक जीवनी ’ लेखिका ने पढ़ा ज़रूर था परन्तु उस समय वह लेखिका की समझ की सीमा के दायरे में समा नहीं पाया था। अर्थात उस समय लेखिका को इतनी समझ नहीं थी कि वह अज्ञेय जी का उपन्यास ‘ शेखर : एक जीवनी ’ को समझ पाए। कुछ सालों बाद जब लेखिका ने अज्ञेय जी का उपन्यास ‘ नदी के द्वीप ’ पढ़ा तो उसने लेखिका मन को इस कदर बाँधा कि उसी गति की ऐसी तीव्रता या वेग जो सहसा रुक न सकता हो , लेखिका ने शेखर जी के उपन्यासों को फिर से पढ़ लिया। और इस बार उन्होंने कुछ समझ के साथ पढ़ा। यह शायद मूल्यों के सिद्धांत के लिए किया जाने वाला गंभीर विचार – विमर्श का युग था। जिसमें पाप – पुण्य , नैतिक – अनैतिक , सही – गलत की बनी – बनाई धारणाओं के आगे प्रश्नचिह्न भी लग रहे थे , उन्हें नष्ट भी किया जा रहा था। कहने का तात्पर्य यह है कि अब लेखिका को साहित्य की काफी समझ हो गई थी जिस कारण लेखिका किसी भी लेखक की कृति को पढ़ने पर उस कृति पर प्रश्न भी उठा पा रही थी। इसी संदर्भ में लेखिका ने जैनेंद्र का ‘ त्यागपत्र ’ , भगवती बाबू का ‘ चित्रालेखा ’ पढ़ा और शीला अग्रवाल जी के साथ लम्बे – लम्बे वाद – विवाद करते हुए उस उम्र में जितना लेखिका समझ सकती थी , उन्होंने समझने की कोशिश की।
पाठ – शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने – समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था , उन्होंने वहाँ से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। सन् ’ 46 – 47 के दिन … वे स्थितियाँ , उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना संभव था भला ? प्रभात – फेरियाँ , हड़तालें , जुलूस , भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमखम और जोश – खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था। स्थिति यह हुई कि एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में। पिता जी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूँ – बैठूँ , जानूँ – समझूँ। हाथ उठा – उठाकर नारे लगाती , हड़तालें करवाती , लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध , सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है , यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था , राजेंद्र से शादी की , तब तक वह चलता ही रहा।
शब्दार्थ –
दायरा – अधिकार या कर्म का क्षेत्र
सक्रिय – जो कोई क्रिया कर रहा हो , क्रियाशील , क्रियायुक्त , कर्मठ , जो क्रियात्मक रूप में हो , फुरतीला
संभव – होना , घटित होना , हेतु , कारण , मिलन , संयोग , कर सकने की योग्यता
प्रभात – भोर , सुबह , प्रातः काल
फेरियाँ – फिराना , घुमाना , चलाना , नाच और गाने में घूमना , बलाएँ लेना
दमखम – क्षमतापूर्णता , ताकत , शक्तिपूर्णता , समर्थता , सुदृढ़ता
उन्माद – अत्यधिक प्रेम ( अनुराग ) , पागलपन , सनक , एक संचारी भाव
जोशीली – जोश से भरा हुआ , जिसमें खूब जोश हो
बवंडर – तेज़ हवा की वह अवस्था जिसमें वह घेरा बाँधकर चक्र की तरह घूमती हुई ऊपर उठती हुई आगे बढती है , चक्रवात , अंधड़
निषेध – मनाही , प्रतिबंध , रोक , बाधा , अस्वीकृति , इनकार , ऐसा नियम या आज्ञा जिसमें किसी बात की मनाही हो
वर्जनाएँ – निषेध , मनाही , किसी कार्य या बात के वर्जित होने की अवस्था या भाव , प्रतिबंध
नोट – इस गद्यांश में लेखिका उस समय का वर्णन कर रही है जब वे स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनों में बड़ चढ़ कर भाग ले रहीं थी और इन आंदोलनों में भाग लेने के लिए उन्हें घर से बाहर सड़कों पर लड़कों के साथ नारे – बाज़ी करनी पड़ती थी और लेखिका के पिता को यह पसंद नहीं था जबकि एक और वे खुद ही लड़कियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि शीला अग्रवाल जी ने उनके साहित्य के दायरे को बढ़ाया ही था और साथ – ही – साथ लेखिका को घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों को जानने – समझने का जो सिलसिला पिता जी ने शुरू किया था , उस सिलसिले को शिला अग्रवाल जी ने घर की चारदीवारी से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका जहाँ केवल पहले अपने घर में होने वाले वाद – विवादों को सुनती थी अब सिला अग्रवाल जी की सलाहों से वे उन वाद – विवादों में हिस्सा भी लेने लगीं थीं। लेखिका बताती हैं कि सन 1946 – 1947 के दिनों में जो स्थितियाँ देश में बानी हुईं थी , उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना किसी के लिए भी संभव नहीं था। उन दिनों सुबह सवेरे – घुमाना , चलाना , हड़तालें , जुलूस , भाषण हर शहर का केवल यही चरित्र था और पूरे दमखम अर्थात ताकत और जोश – खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना उन दिनों हर युवा का एक प्रकार से अत्यधिक प्रेम बन चूका था। लेखिका अपने बारे में कहती हैं कि वे भी युवा थी और शीला अग्रवाल जी की जोश से भरी हुई बातों ने लेखिका की रगों में बहते खून को लावे में बदल दिया था। इन सभी बातों से स्थिति यह हुई कि एक तेज़ हवा की वह अवस्था जिसमें वह घेरा बाँधकर चक्र की तरह घूमती हुई ऊपर उठती हुई आगे बढती है अर्थात चक्रवात शहर में मचा हुआ था और एक वैसी ही स्थिति अर्थात चक्रवात लेखिका के घर में। लेखिका बताती हैं कि लेखिका के पिता जी ने जो आज़ादी लेखिका को दी थी , उस आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में लेखिका घर में आए लोगों के बीच उठे – बैठे , स्थितियों को जाने – समझें। लेकिन हाथ उठा – उठाकर नारे लगाती , हड़तालें करवाती , लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो अपने पिता जी द्वारा दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना लेखिका के लिए। लेखिका बताती हैं कि जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे नियम या आज्ञा जिसमें किसी बात की मनाही हो , सारी कार्य या बात के वर्जित होने की अवस्था या प्रतिबंध और सारा भय कैसे नष्ट हो जाता है , यह लेखिका ने तभी जाना। क्योंकि ये वो समय था जब लेखिका अपने पिता जी की आज्ञा न मान कर आंदोलन में बड़ चढ़ कर भाग ले रही थीं। अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला लेखिका का उस समय शुरू हुआ था वह लेखिका की राजेंद्र से शादी होने तक चलता ही रहा।
पाठ – यश – कामना बल्कि कहूँ कि यश – लिप्सा , पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए … कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो , सम्मान हो , प्रतिष्ठा हो , वर्चस्व हो। इसके चलते ही मैं दो – एक बार उनके कोप से बच गई थी। एक बार कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए ?पत्र पढ़ते ही पिता जी आग – बबूला। ” यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी … पता नहीं क्या – क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर ! चार बच्चे पहले भी पढ़े , किसी ने ये दिन नहीं दिखाया। ” गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरपा होगा , इसका अनुमान था , सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए , तब बुलाना। लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं , चली चल , तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही , लेकिन डरते – डरते। ” सारे कॉलिज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा … सारा कॉलिज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है ? प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार – बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ , क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा – धमकाकर , डाँट – डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए। ” कहाँ तो जाते समय पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है … इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद गद्गद स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक। मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था , न अपने कानों पर। पर यह हकीकत थी।
शब्दार्थ
यश – कामना – प्रशंसा की इच्छा , बड़ाई की इच्छा , कीर्ति , नाम , सुख्याति
यश – लिप्सा – किसी चीज़ को किसी भी प्रकार पाने की अनियंत्रित इच्छा या चाहत , प्राप्ति की प्रबल कामना
दुर्बलता – कमज़ोरी , दुबलापन
धुरी – अक्ष , चूल
सिद्धांत – पर्याप्त तर्क – वितर्क के पश्चात निश्चित किया गया मत , उसूल , ( प्रिंसिपल )
विशिष्ट – असाधारण , अद्भुत , विलक्षण , प्रसिद्ध , यशस्वी
प्रतिष्ठा – मान – मर्यादा , सम्मान , इज़्ज़त
वर्चस्व – तेज , दीप्ति , कांति , प्राबल्य , आधिपत्य
कोप – क्रोध , गुस्सा
गतिविधि – रहने – सहने का ढंग , आचरण , चाल – ढाल , चेष्टा , क्रिया – कलाप
भन्ना – क्रोध और हताशा
कहर – आफ़त , विपत्ति , आपत्ति , संकट , प्रकोप
बरपा – बरसना
गुबार – मन में दबा हुआ दुर्भाव या क्रोध , शिकायत , मैल , मन में भरी बातें कह डालना
रौब – रोब , रुआब , दबदबा
आग्रह – अनुरोध , निवेदन , किसी वस्तु को ग्रहण करना , नैतिक बल , किसी बात पर बार – बार ज़ोर देना , किसी बात पर अड़े रहना , हठ
गद्गद – ख़ुशी से भाव – विभोर हो जाने पर जब गला भर जाता है
अवाक – विस्मित , स्तब्ध , चकित , मौन , चुप
हकीकत – वास्तविकता , यथार्थता , सच्चाई , सत्यता , असलियत
नोट – इस गद्यांश में लेखिका अपने कॉलेज की एक घटना का वर्णन कर रहीं हैं जहाँ लेखिका के पिता जी को कॉलेज बुलाया गया था और उस घटना के बाद लेखिका के पिता जी का उनकी और वर्ताव थोड़ा कोमल हो गया था।
व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि प्रशंसा की इच्छा अथवा बड़ाई की इच्छा बल्कि यदि कहा जाए कि किसी चीज़ को किसी भी प्रकार पाने की अनियंत्रित इच्छा या चाहत अथवा किसी चीज़ की प्राप्ति की प्रबल इच्छा , लेखिका के पिता जी की सबसे बड़ी कमज़ोरी थी और लेखिका के पिता जी के जीवन का अक्ष यह उसूल अथवा प्रिंसिपल था कि व्यक्ति को कुछ असाधारण या अद्भुत बन कर जीना चाहिए और कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो , सम्मान हो , प्रतिष्ठा या इज़्ज़त हो , वर्चस्व या आधिपत्य हो। लेखिका बताती हैं कि इन सिद्धांतों के कारण ही लेखिका एक – दो बार अपने पिता जी के क्रोध से बच गई थी। क्योंकि लेखिका भले ही उनकी बातों को न मान कर आंदोलनों में हिस्सा ले रहीं थी परन्तु इससे लेखिका का मान समाज में बड़ रहा था। एक बार लेखिका के कॉलिज के प्रिंसिपल का पत्र आया कि लेखिका के पिता जी उनसे आकर मिलें और बताएँ कि लेखिका के रहने – सहने का ढंग अथवा क्रिया – कलापों के कारण लेखिका के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए ? कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका का रवैया जिस तरह का था उनके कॉलिज के प्रिंसिपल के अनुसार वह अनुशासनात्मक बिलकुल नहीं था। और लेखिका को कोई सज़ा क्यों नहीं देनी चाहिए इसका कारण बताने के लिए लेखिका के पिता जी को कॉलेज बुलाया गया था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि लेखिका के कॉलेज के प्रिंसिपल ने लेखिका की शिकायत करने के लिए लेखिका के पिता जी को कॉलेज बुलाया था। पत्र पढ़ते ही लेखिका के पिता जी आग – बबूला हो गए। और लेखिका को कहने लगे कि यह लड़की उन्हें कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी। पता नहीं क्या – क्या सुनना पड़ेगा कॉलेज जाकर ! लेखिका से पहले भी उनके चार भाई – बहन पढ़े थे , किसी ने ये दिन नहीं दिखाया कि उनकी शिकायत सुनने के लिए कॉलेज जाना पड़े। लेखिका बताती हैं कि उनके पिता जी गुस्से से हताशा हुए ही कॉलेज गए थे। लेखिका को यह अंदाजा था कि जब लेखिका के पिता जी घर लौटकर आएँगे तो उनका कैसे प्रकोप लेखिका पर बरसना था , इसी लिए लेखिका अपने पिता जी के आने से पहले ही पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। लेखिका ने अपनी माँ को कह दिया था कि जब पिता जी लौटकर आएँ और उनके मन में दबा हुआ क्रोध अथवा शिकायत कुछ निकल जाए , तब लेखिका को बुलाना। लेकिन जब लेखिका की माँ ने आकर लेखिका से कहा कि लेखिका के पिता जी कॉलेज से आकर तो खुश ही हैं , वह घर चल सकती है , यह सुन कर लेखिका को तो विश्वास नहीं हुआ। लेखिका थोड़े संदेह में घर गई तो सही , लेकिन डरते – डरते। लेखिका के पिता जी ने लेखिका को आते देख कहना शुरू किया कि सारे कॉलिज की लड़कियों पर लेखिका का दबदबा है। सारा कॉलिज लेखिका और उनकी तीन साथियों के इशारे पर चल रहा है ? प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार – बार निवेदन कर रही थी कि लेखिका के पिता लेखिका को घर बिठा लें , क्योंकि अध्यापक लोग किसी तरह डरा – धमकाकर , डाँट – डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और अगर लेखिका और उनकी साथी एक इशारा कर दें कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। लेखिका और उनकी तीन साथियों के कारण अध्यापकों के लिए कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है। लेखिका कहती हैं कि कहाँ तो जाते समय उनके पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ प्रिंसिपल को बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है। इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला ? जब लेखिका के पिता जी बहुत ही भावुक स्वर में यह सब लेखिका और उनकी माँ को सुना रहे थे , उस समय लेखिका बहुत हैरान , परेशान सब सुन रही थी। लेखिका को न तो अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था , न अपने कानों पर। पर यह असलियत थी। कहने का तात्पर्य यह है कि कहाँ तो लेखिका को लग रहा था कि उनके पिता जी घर आकर उन पर गुस्सा करेंगे परन्तु सब कुछ लेखिका के अंदाजे से उल्टा ही हुआ जिस कारण लेखिका को सब कुछ स्वीकार करने में हिचकिचाहट हो रही थी।
पाठ – एक घटना और। आज़ाद हिन्द फौज के मुकदमे का सिलसिला था। सभी कॉलिजों , स्कूलों , दुकानों के लिए हड़ताल का आह्नान था। जो – जो नहीं कर रहे थे , छात्रों का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ जा – जाकर हड़ताल करवा रहा था। शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी – वर्ग चौपड़ ( मुख्य बाजार का चौराहा ) पर इकट्ठा हुआ और फिर हुई भाषणबाज़ी। इस बीच पिता जी के एक निहायत दकियानूसी ( जो रुढ़िवादी हो , पुराने ख़याल या विचारों का , संकीर्ण सोचवाला , अंधविश्वास से युक्त , नवीनता का विरोधी ) मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी , ” अरे उस मन्नू की तो मत मारी गई है पर भंडारी जी आपको क्या हुआ ? ठीक है , आपने लड़कियों को आज़ादी दी , पर देखते आप , जाने कैसे – कैसे उलटे – सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती , हुड़दंग मचाती फिर रही है वह। हमारे – आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब ? कोई मान – मर्यादा , इज़्ज़त – आबरू का खयाल भी रह गया है आपको या नहीं ? ” वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते ( तेज़ी से जल उठना , भड़कना , उबलना , दहकना ) रहे , ” बस , अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू – थू करके चले जाएँ। बंद करो अब इस मन्नू का घर से बाहर निकलना। ” इस सबसे बेखबर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के एक बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं , अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालाल जी बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया , आओ , आओ मन्नू। मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया। ‘ आई एम रिअली प्राउड ऑफ यू ’ … क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी … घर से निकला भी करो। ‘ यू हैव मिस्ड समथिंग ’ , और वे धुआँधार ( घोर , भीषण , मूसलाधार , लगातार वेग से , बहुत तेज़ी से ) तारीफ करने लगे – वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे – धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात बताई तो मैंने राहत की साँस ली। आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा ! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। पर पिता जी ! कितनी तरह के अंतर्विरोधों ( किसी कार्य या बात में एक ही समय में परस्पर विरोधी स्वर या स्थितियाँ ) के बीच जीते थे वे ! एक ओर ‘ विशिष्ट ’ बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता। पर क्या यह संभव है ? क्या पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है ? सन् ’47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने नोटिस थमा दिया – लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में। इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे , इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके हम दो – तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया।
हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा। जीत की खुशी , पर सामने खड़ी बहुत – बहुत बड़ी चिर प्रतीक्षित खुशी के सामने यह खुशी बिला गई।
शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि … 15 अगस्त 1947
शब्दार्थ
चौपड़ – मुख्य बाजार का चौराहा
निहायत – अत्यंत , बहुत अधिक , ज़्यादा
दकियानूसी – जो रुढ़िवादी हो , पुराने ख़याल या विचारों का , संकीर्ण सोचवाला , अंधविश्वास से युक्त , नवीनता का विरोधी
भभकना – तेज़ी से जल उठना , भड़कना , उबलना , दहकना
बेखबर – जिसे कोई खबर न हो , जिसे कोई बात पता न हो
धुआँधार – घोर , भीषण , मूसलाधार , लगातार वेग से , बहुत तेज़ी से
संतोष – ऐसी मानसिक अवस्था जिसमें प्रदत्त वस्तु या स्थिति ही यथेष्ट हो , तृप्ति का भाव , सब्र , संतुष्टि , आनंद , हर्ष , धैर्य
राहत – आराम , चैन , सुख , छूट , बचाव
अंतर्विरोधों – किसी कार्य या बात में एक ही समय में परस्पर विरोधी स्वर या स्थितियाँ
प्रबल – शक्तिशाली , बलवान , जिसमें बहुत अधिक बल हो , प्रचंड , उग्र , तेज़ , बहुत ज़ोरों का , घोर , भारी
लालसा – किसी चीज़ को पाने की उत्कट इच्छा या अभिलाषा , लिप्सा
छवि – आभामंडल , प्रभाव , स्वरूप ( व्यक्तित्व ) , सौंदर्य – चित्र , सुंदरता , शोभा , आकर्षक रूप , प्रभा , कांति , चमक
सजगता – सावधानी , सतर्कता , होशियारी , चौकन्नापन , चालाकी
निषिद्ध – जिसका निषेध किया गया हो , मना किया हुआ , वर्जित , जिसपर सरकार द्वारा रोक लगाई गई हो , जिसके आयात – निर्यात की मनाही हो
चिर – जो बहुत दिनों से हो , बहुत दिनों तक चलता रहे , चिरायु , सदा , हमेशा
प्रतीक्षित – जिसकी प्रतीक्षा की गई हो अथवा की जा रही हो , जिसका यथेष्ट ध्यान रखा गया हो
बिला – बिना , बगैर , रहित , सिवा
नोट – इस गद्यांश में लेखिका उस घटना का वर्णन कर रहीं हैं जिससे उनके पिता जी को उन पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि लेखिका उनके सिद्धांतों पर खरी उतरेगी। इसके साथ – ही – साथ लेखिका का अपने आंदोलनों के प्रति दृढ़विश्वास और कुछ भी कर गुजरने की हिम्मत दिखाई देती हैं।
व्याख्या – लेखिका अपनी एक और घटना का वर्णन करते हुए कहती हैं कि उस समय आज़ाद हिन्द फौज के मुकदमे का सिलसिला था। सभी कॉलिजों , स्कूलों , दुकानों को हड़ताल का हिस्सा बनाने के लिए बंद करने का अनुरोध किया गया था। जो – जो नहीं कर रहे थे , छात्रों का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ जा – जाकर हड़ताल करवा रहा था और सभी कॉलिजों , स्कूलों , दुकानों को बंद करवा रहे थे। एक शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी – वर्ग मुख्य बाजार के चौराहे पर इकट्ठा हुआ और फिर वहाँ पर भाषणबाज़ी शुरू हुई। लेखिका बताती हैं कि जब वे मुख्य बाजार के चौराहे पर भाषण दे रहीं थी तब लेखिका के पिता जी के इस बहुत ही रुढ़िवादी या पुराने ख़याल या विचारों के एक मित्र ने लेखिका को भाषण देते हुए देख लिया और लेखिका के पिता जी के उन मित्र ने लेखिका के घर आकर अच्छी तरह से लेखिका के पिता जी की लू उतारी अर्थात लेखिका के पिता जी लेखिका पर विश्वास करने लगे थे , इसी विश्वास को तोड़ने का काम लेखिका के पिता जी के उन मित्र ने लेखिका के घर आ कर लेखिका के पिता जी से लेखिका की शिकायत करते हुए कहा कि लेखिका अर्थात मन्नू की तो मत मारी गई है पर लेखिका के पिता जी अर्थात भंडारी जी को क्या हुआ है ? यह सब तो ठीक है कि लेखिका के पिता जी ने अपनी लड़कियों को आज़ादी दी है , लेकिन लेखिका के पिता जी के मित्र लेखिका के पिता जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि लेखिका न जाने कैसे – कैसे उलटे – सीधे लड़कों के साथ हड़तालें करवाती , हुड़दंग मचाती फिर रही है। क्या उनके और लेखिका के पिता जी के घरों की लड़कियों को यह सब शोभा देता है ? कोई मान – मर्यादा , इज़्ज़त – आबरू का खयाल भी रह गया है लेखिका के पिता जी को या नहीं ? कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका के पिता जी के मित्र लेखिका के प्रति नकारात्मक बातों से लेखिका के पिता जी मन भर गए थे और वे तो आग लगाकर चले गए थे और लेखिका के पिता जी सारे दिन भड़कते रहे कि बस , अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू – थू करके चले जाएँ। अब इन सारी बातों का लेखिका के पिता जी के ऊपर इतना असर हो गया था कि वे अब मन्नू अर्थात लेखिका का घर से बाहर निकलना भी बंद करना चाहते थे। लेखिका को इन सारी बातों की कोई ख़बर ही नहीं थी कि उनके घर पर दिन में क्या – क्या हुआ है। रात होने पर लेखिका जब घर लौटी तो लेखिका ने देखा कि उस समय घर पर डॉ. अंबालाल जी बैठे थे , जो लेखिका के पिता जी के एक बहुत ही अंतरंग और अभिन्न मित्र के साथ – साथ अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति भी थे। लेखिका को देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से लेखिका का स्वागत किया और कहा कि वे तो चौपड़ पर लेखिका का भाषण सुनते ही सीधा लेखिका के पिता जी भंडारी जी को बधाई देने चले आए। उन्होंने कहा कि उन्हें लेखिका पर गर्व है। क्या वे केवल घर में घुसे रहते हैं , घर से निकला भी करो। वे बहुत कुछ खो रहे हैं और वे लगातार बहुत तेज़ी से लेखिका की तारीफ करने लगे – वे बोलते जा रहे थे और लेखिका के पिता जी के चेहरे का आनंद और हर्ष धीरे – धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। जब लेखिका घर के भीतर गई तो लेखिका की माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात लेखिका को बताई तो लेखिका ने राहत की साँस ली। क्योंकि अगर डॉ. अंबालाल जी आज लेखिका के घर नहीं आते तो लेखिका के पिता जी लेखिका का घर से बाहर निकलना बंद करवा देते। लेखिका कहती हैं कि आज जब वे अपने भूतकाल में पीछे मुड़कर देखती हैं तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय लेखिका की उम्र थी और क्या ही उनका भाषण रहा होगा ! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के इस तरह लगातार तेज़ी से बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका को ऐसा लगता है कि उस समय डॉक्टर साहब ने जो इतनी प्रशंसा की थी शायद लेखिका उस लायक नहीं थी। परन्तु लेखिका अपने पिता जी के बारे में बताती हैं कि उनके पिता जी कितनी तरह के एक ही समय में परस्पर विरोधी स्थितियाँ के बीच जीते थे। एक ओर अपने आप को सबसे अलग बनने और दूसरों को भी सबसे अलग बनाने की प्रबल इच्छा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सावधानी। पर क्या यह दोनों चीज़ें संभव है ? क्या लेखिका के पिता जी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है ? लेखिका कहती हैं कि सन् 1947 के मई महीने में शीला अग्रवाल जी को कॉलिज वालों ने लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में नोटिस थमा दिया। इस बात को लेकर कोई हुड़दंग न मचे , इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके लेखिका और उनकी साथी छात्राओं का कॉलेज में प्रवेश करना बंद कर दिया। परन्तु लेखिका और उनकी साथियों ने हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा। लेखिका और बाकी साथियों को जीत की खुशी तो थी , पर उनके सामने इससे भी खड़ी बहुत – बहुत बड़ी खुशी थी जिसके के सामने यह खुशी कम पड़ गई। और वह ख़ुशी थी शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि 15 अगस्त 1947 अर्थात आज़ादी की खुशी।
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