CBSE Class 10 Hindi Chapter Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Summary, Explanation from Kshitij Bhag 2
Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Class 10 – Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Summary of CBSE Class 10 Hindi (Course A) Kshitij Bhag-2 Chapter detailed explanation of the lesson along with meanings of difficult words. Here is the complete explanation of the lesson, along with all the exercises, Questions and Answers given at the back of the lesson.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ मानवीय करुणा की दिव्य चमक के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या , कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ के बारे में जानते हैं।
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- मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ प्रवेश
- मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ सार
- मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ व्याख्या
- मानवीय करुणा की दिव्य चमक प्रश्न – अभ्यास
“ मानवीय करुणा की दिव्य चमक ”
लेखक परिचय
लेखक – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ प्रवेश (Maanviy Karuna Ki Divy Chamak – Introduction to the chapter)
संस्मरण को यादों के सहारे बनाया जाता है और यादों जितनी अधिक विश्वसनीय होगी संस्मरण को वह उतना ही महत्त्वपूर्ण बनाती है। फादर कामिल बुल्के पर लिखा सर्वेश्वर जी का यह संस्मरण इस कसौटी पर खरा उतरता है। अपने को भारतीय कहने वाले फादर बुल्के का जन्म तो बेल्जियम जो यूरोप में है , वहाँ के रैम्सचैपल शहर में जो गिरजों , पादरियों , धर्मगुरुओं और संतों की भूमि कही जाती है , वहाँ पर हुआ था। परंतु उन्होंने अपनी कर्मभूमि भारत को बनाया। फादर बुल्के एक संन्यासी थे परंतु पारंपरिक अर्थ में नहीं। क्योंकि एक सन्यासी सभी भौतिक चीज़ों का मोह त्याग देता है और किसी से भी कोई सम्बन्ध नहीं रखता परन्तु सर्वेश्वर जी का फादर बुल्के से अंतरंग संबंध था जिसकी झलक हमें इस संस्मरण में मिलती है। लेखक का मानना है कि जब तक रामकथा है , इस विदेशी भारतीय साधु अर्थात फादर कामिल बुल्के को याद किया जाएगा तथा उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों के अगाध प्रेम का उदाहरण माना जाएगा।
मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ सार (Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Summary)
लेखक फ़ादर कामिल बुल्के की मृत्यु के कारण को बताते हुए कहते हैं कि फ़ादर कामिल बुल्के को किसी भी बहुत ज़हरीला फोड़े की वजह से नहीं मरना चाहिए था। क्योंकि जिसकी रगों में दूसरों के लिए हमेशा मिठास भरे अमृत के अलावा और कुछ नहीं था उसके लिए इस तरह ज़हर के कारण मृत्यु की व्यवस्था क्यों हो ? लेखक को यह समझ नहीं आ रहा था कि यह सवाल वह किस ईश्वर से पूछें ? क्योंकि प्रभु में ही जिसका धार्मिक विश्वास उसका वजूद था। उसका वह शरीर इस तरह के शारीरिक व् मानसिक कष्ट की परीक्षा अपनी उम्र की आखिरी दहलीज़ पर क्यों दे ? जब भी वे फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते है तो एक लंबी , पादरी के सफेद घुटनों तक लंबे एक ढीले – ढाले पहनावे से ढकी बनावट उनके सामने प्रदर्शित हो जाती है – गोरा रंग , सफेद झाँईं मारती भूरी दाढ़ी , नीली आँखें – और हमेशा बाँहें खोल कर सबको अपने गले से लगाने के लिए पूरी तरह से उत्सुक। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के के बारे में कहते है कि वे उत्तम आचरण तथा उत्तम प्रकृति वाले ऐसे पुरुष थे जिनके मन में हमेशा अपने हर प्रिय व्यक्ति के लिए ममता और अपनत्व उमड़ता ही रहता था। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को पैंतीस सालों से जानते थे। आज भी लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते हैं। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को याद करना किसी एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा बताते हैं। क्योंकि उनका स्वभाव भी शांत और किसी संगीत की तरह है और अब वे इस दुनियाँ में नहीं हैं इसलिए लेखक ने उदास शांत संगीत कहा है। लेखक बताते हैं कि जब फ़ादर कामिल बुल्के को देखते थे तो उनको देखना ऐसा लगता था जैसे दया के स्वच्छ जल में स्नान करना क्योंकि वे कभी किसी का बुरा नहीं सोचते थे। और जब लेखक उनसे बात करते तो लेखक को उनसे बात करना अपने आप को दृढ़निश्चय से भरना था। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को अपने परिवार का मुख्य व्यक्ति मानते थे। लेखक और उनकी मंडली के हँसी – मज़ाक में फ़ादर कामिल बुल्के बिना किसी हिचकिचाहट के शामिल रहते थे , जब लेखक और उनके सहयोगियों की सभाएँ होती तो उनमें भी फ़ादर कामिल बुल्के ऐसा वाद – विवाद करते जिसका निवारण करना मुश्किल होता और फ़ादर कामिल बुल्के लेखक की रचनाओं पर भी बिना किसी कठिनाई या बनावट के अपने सुझाव देते थे और जब भी लेखक के घर में कोई भी या किसी भी प्रकार का त्यौहार और संस्कार होता तो फ़ादर कामिल बुल्के उस त्यौहार और संस्कार में लेखक के बड़े भाई या पुरोहित जैसे खड़े हो जाते थे और सभी को अपनी मंगल कामना से भर देते थे। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे और उनके साथ से लेखक अपने और अपने परिवार को उसी तरह सुरक्षित महसूस करते थे जैसे धूप में किसी पेड़ की छाया में। लेखक बताते हैं कि उन्होंने फ़ादर कामिल बुल्के को कभी भी गुस्से में नहीं देखा था , हमेशा ही उत्साह में देखा है और स्नेह तथा प्यार में पूर्णतः भरा हुआ , छलकता महसूस किया है। लेखक को अधिकतर उन्हें देखकर लगता कि बेल्ज़ियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँचकर उनके मन में त्यागी पुरुष बनने की इच्छा कैसे जाग गई होगी क्योंकि लेखक बताते हैं कि उनका घर भरा – पूरा था अर्थात उनके दो भाई , एक बहिन , माँ , पिता , उनके परिवार में सभी थे। तो लेखक को उनके मन में त्यागी पुरुष बनने की इच्छा का जागना कुछ समझ नहीं आया। लेखक फादर कामिल बुल्के से पूछते हैं कि क्या उनको अपने देश की याद नहीं आती है ? तो इस पर फादर कामिल बुल्के भारत को ही अपना देश बताते है। तो लेखक उनसे उनकी जन्मभूमि के बारे में पूछता है कि क्या उनको उनकी जन्मभूमि की याद नहीं आती है ? फादर कामिल बुल्के हाँ में उत्तर देते हुए कहते हैं कि उनकी जन्मभूमि बहुत सुंदर है और वे अपनी जन्मभूमि का नाम रेम्सचैपल बताते हैं। लेखक फादर कामिल बुल्के से पूछते हैं कि उनको घर में किसी की याद आती है ? फादर कामिल बुल्के बताते हैं कि उनको माँ की बहुत याद आती है। भारत में बस जाने के बाद केवल दो या तीन बार ही फादर कामिल बुल्के अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्ज़ियम गए थे। फादर कामिल बुल्के अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं कि वे तो संन्यासी हैं। लेखक उनसे अपना सब कुछ छोड़कर भारत चले आने का कारण पूछते हैं ? इस का उत्तर देते हुए फादर कामिल बुल्के प्रभु की इच्छा को कारण बताते हैं। और लेखक बताते हैं कि यह सब बताते हुए उनके चेहरे पर छोटे बच्चों की तरह सरल मुस्कराहट होती और वे कहते कि उनकी माँ ने बचपन में ही यह जानकारी दे दी थी कि लड़का हाथ से गया। और सचमुच इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ फ़ादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म गुरु के पास गए और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ तथा एक शर्त रखी कि मैं भारत जाऊँगा। जब फादर कामिल बुल्के ने भारत आने की शर्त रही तो उनकी यह शर्त मान ली गई और वह भारत आ गए। पहले ‘ जिसेट संघ ’ में दो साल पादरियों के बीच रह कर उन्होंने धर्म के प्रचार या आचरण की पढ़ाई की। फिर 9 – 10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। कलकत्ता ( कोलकाता ) से बी.ए. किया और फिर इलाहाबाद से एम.ए.। जब फादर कामिल बुल्के अपनी पढ़ाई कर रहे थे उन दिनों डॉ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विभाग के मुख्य अधिकारी थे। विश्वविद्यालय से शोध – उपाधि प्राप्त करने के लिए लिखा गया शोधपूर्ण ग्रंथ प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहकर 1950 में पूरा किया – ‘ रामकथा : उत्पत्ति और विकास। ’ लेखक और उनके सहकर्मियों की सभा में उसके अध्याय पढ़े गए थे। फ़ादर ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ ब्लू बर्ड ’ का ट्रांसफॉरमेशन भी किया है और रूपांतरित नाम रखा ‘ नीलपंछी ’। बाद में वह सेंट जेवियर्स कॉलिज , राँची में हिंदी तथा संस्कृत खंड के विभाग मुख्य अधिकारी हो गए और यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी – हिंदी शब्द – कोष तैयार किया और यहीं पर ही बाइबिल को भी दूसरी भाषाओँ में रूपांतरित किया और वहीं पर बीमार पड़ गए , जिसके बाद पटना आ गए। फिर दिल्ली आए और यही से चले गए अर्थात 47 वर्ष देश में रहकर और 73 वर्ष की ज़िदगी जीकर मृत्यु को गले लगा दिया। फ़ादर बुल्के प्रतिज्ञा लेकर संन्यासी बने थे। परन्तु कभी – कभी ऐसा लगता था कि वह मन से संन्यासी नहीं थे। इसका कारण लेखक बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के जब किसी से कोई रिश्ता बनाते थे तो उसे कभी तोड़ते नहीं थे। दस साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। अर्थात वे सभी के मन में अपनी छाप छोड़ते थे। लेखक बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के जब भी दिल्ली आते थे उनसे ज़रूर मिलते थे। चाहे लेखक का पता खोज निकालना पड़े , चाहे व्यस्त होते हुए भी समय निकालना पड़े , चाहे गर्मी हो , चाहे सर्दी हो , यहाँ तक की बरसात झेलकर भी वे लेखक से मिलने आते ही थे। चाहे वे दो मिनट के लिए ही आएं वे आते जरूर थे। यह सब कौन सा संन्यासी करता है ? तभी लेखक ने कहा कि फादर कामिल बुल्के मन से संन्यासी नहीं थे। फादर कामिल बुल्के की चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वे हर भाषण स्थल से अपनी इस तकलीफ का वर्णन करते रहते थे , इसके लिए वे ऐसे तर्क देते जिनका तोड़ कोई नहीं कर सकता था। लेखक बताते हैं कि बस इसी एक सवाल पर उन्हें क्रुद्ध या व्यथित होकर बात करते देखा था , बाकि वे हमेशा शांत ही रहते थे। और लेखक ने फादर कामिल बुल्के को हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते पाया है। लेखक फादर कामिल बुल्के के स्वभाव के बारे में कहते हैं कि हर किसी से उनके घर – परिवार के बारे में , निजी दुख – तकलीफ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से आश्वासन के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था , जो किसी गहरी तपस्या से ही प्राप्त की जा सकती है। ‘ हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह। ’ इस पंक्ति से लेखक को अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और साथ ही साथ फ़ादर के शब्दों से झड़ती ऐसी अनोखी शांति भी।लेखक बताते हैं कि आज फादर कामिल बुल्के हमारे बीच नहीं हैं। वे दिल्ली में बीमार रहे और उनके जाने का पता नहीं चला। बाँहें खोलकर इस बार उन्होंने गले नहीं लगाया। अर्थात जब भी वे दिल्ली आते थे तो लेखक से जरूर मिलते थे लेकिन इस बार वे बिना मिले ही चले गए और वो भी हमेशा के लिए। जब लेखक ने उन्हें देखा तब वे बाँहें दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को आपस में फसाए मृत शरीर को रहने वाले संदूक में अपने शरीर पर पड़ी हुई थीं। अर्थात अब उनकी बाहें लेखक को गले लगाने के लिए नहीं उठने वाली थी। जो शांति बरसती थी वह अब चेहरे पर एक जगह ठहरी हुई थी। उनकी चंचलता कहीं जम सी गई थी। लेखक फादर कामिल बुल्के की अंतिम यात्रा के समय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह 18 अगस्त 1982 की सुबह दस बजे का समय था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन के समाधि स्थल में उनके मृत शरीर संदूक एक छोटी – सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी , रघुवंश जी का बेटा और उनके करीबी राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे। फिर उसे उठाकर एक लंबी तंग , उदास पेड़ों की घनी छाया वाली सड़क से कब्रिस्तान के आखिरी कोने तक ले जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए , वह गड्ढा जिसको शव को गाड़ने के लिए खोदा गया था , वह चुप – चाप मुँह खोले लेटा था। ऊपर एक प्रकार की काँटेदार झाड़ी की घनी छाया थी और चारों ओर कब्रें और तेज़ धूप के गोल घेरे बने हुए थे। जैनेंद्र कुमार , विजयेंद्र स्नातक , अजित कुमार , डॉ. निर्मला जैन और ईसाई समुदाय के लोग , पादरी लोग , उनके बीच में गेरूए रंग के कपड़े पहने इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान – शिक्षक डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ. रघुवंश भी जो अकेले उस तंग सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से चुप – चाप दुख की किन्ही बिना जान – पहचान की हिलने – डुलने से होने वाली हलकी ध्वनि से दबे हुए थे और कब्र के चारों तरफ़ इकट्ठे हो गए थे। फ़ादर की देह पहले कब्र के ऊपर लिटाई गई। ईसाई धर्म के व्यवस्थित नियमों से अंतिम संस्कार शुरू हुआ। राँची के फ़ादर पास्कल तोयना के द्वारा उनका अंतिम संस्कार हिंदी में ईसाई धर्म के व्यवस्थित नियमों से प्रार्थना कर के किया गया और फिर सेंट जेवियर्स के रेक्टर फ़ादर पास्कल ने फ़ादर बुल्के के जीवन और कर्म पर अंजली में फूल आदि भरकर श्रद्धा से फादर कामिल बुल्के की याद में आदरपूर्ण बातें करते हुए कहा कि फ़ादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों। डॉ. सत्यप्रकाश ने भी फ़ादर बुल्के के जीवन और कर्म पर अंजली में फूल आदि भरकर श्रद्धा से फादर कामिल बुल्के की याद में उनके नकल करने योग्य जीवन को प्रणाम किया। फिर फादर कामिल बुल्के के शरीर को कब्र में उतार दिया गया। लेखक को नहीं पता कि फादर कामिल बुल्के ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। लेखक यहाँ तक कह देते हैं कि नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है। अर्थात अगर वे फादर कामिल बुल्के की याद में रोने वालों के नाम लिखने लगे तो उनकी स्याही ख़त्म हो जाएंगी अर्थात रोने वालों की संख्या बहुत अधिक थी। लेखक कहते हैं कि इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल – फूल गंध से भरा और सबसे अलग , सबका होकर , सबसे ऊँचाई पर , मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी यादें हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह जीवन के अंत तक बनी रहेगी। लेखक भी उस पवित्र ज्योति की याद में आदर पूर्वक अपना मस्तक झुकाता है।
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मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ व्याख्या (Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Lesson Explanation)
पाठ – फ़ादर को ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों हो ? यह सवाल किस ईश्वर से पूछें ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दे ? एक लंबी , पादरी के सफेद चोगे से ढकी आकृति सामने है – गोरा रंग , सफेद झाँईं मारती भूरी दाढ़ी , नीली आँखें – बाँहें खोल गले लगाने को आतुर। इतनी ममता , इतना अपनत्व इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था। मैं पैंतीस साल से इसका साक्षी था। तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे। आज उन बाँहों का दबाब मैं अपनी छाती पर महसूस करता हूँ।
शब्दार्थ
फ़ादर – गिरजाघर का पुजारी , ईसाई पादरी
ज़हरबाद – बहुत ज़हरीला फोड़ा
मिठास – मीठे होने की स्थिति या भाव , मीठापन , माधुर्य
विधान – किसी प्रकार का आयोजन और उसकी व्यवस्था , प्रबंध , निर्माण , रचना , नियम , कायदा , उपाय , तरकीब
आस्था – धार्मिक विश्वास , निष्ठा , धारणा , आलंबन , श्रद्धा , मूल्य , आशा
अस्तित्व – वजूद , होने का भाव , हस्ती , हैसियत , सत्ता , विद्यमानता , मौजूदगी , उपस्थिति
देह – शरीर , काया , तन
यातना – बहुत अधिक शारीरिक या मानसिक कष्ट , तकलीफ़ , पीड़ा , व्यथा
देहरी – द्वार की चौखट के नीचे वाली लकड़ी या पत्थर जो ज़मीन पर रहती है , देहली , दहलीज़ , ड्योढ़ी , चौखट , घर के मुख्य-द्वार का बाहरी भाग
चोगा – घुटनों तक लंबा एक ढीला – ढाला पहनावा , लबादा
आकृति – ढाँचा , शक्ल , बनावट
झाँईं – छाया
आतुर – पूरी तरह उत्सुक , उतावला , व्याकुल , अधीर
ममता – बच्चे के प्रति माँ का प्रेम या स्नेह
अपनत्व – अपनापन , आत्मीयता , स्वजन भावना
साधु – उत्तम आचरण तथा उत्तम प्रकृति वाला पुरुष , सदाचारी , संत , महात्मा , सज्जन व भला पुरुष , विरक्त , धार्मिक , सदाचारी
प्रियजन – प्रिय लोग
उमड़ना – उठकर फैलना , छाना , घेरना
साक्षी – किसी बात को प्रमाणित करने के लिए दी जाने वाली गवाही , जिसने घटना आदि को घटते हुए अपनी आँखों से देखा हो , प्रत्यक्षदर्शी , चश्मदीद
महसूस – इंद्रियों के द्वारा जिसका अनुभव किया जाए , अनुभूत , मालूम , ज्ञात , प्रकट , स्पष्ट
नोट – इस गद्यांश में लेखक फ़ादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक फ़ादर कामिल बुल्के की मृत्यु के कारण को बताते हुए कहते हैं कि फ़ादर कामिल बुल्के को किसी भी बहुत ज़हरीला फोड़े की वजह से नहीं मरना चाहिए था। इसका कारण बताते हुए लेखक कहते हैं कि जिसकी रगों में दूसरों के लिए हमेशा मिठास भरे अमृत के अलावा और कुछ नहीं था उसके लिए इस तरह ज़हर के कारण मृत्यु की व्यवस्था क्यों हो ? लेखक को यह समझ नहीं आ रहा था कि यह सवाल वह किस ईश्वर से पूछें ? क्योंकि प्रभु में ही जिसका धार्मिक विश्वास उसका वजूद था। उसका वह शरीर इस तरह के शारीरिक व् मानसिक कष्ट की परीक्षा अपनी उम्र की आखिरी दहलीज़ पर क्यों दे ? ऐसे प्रश्न लेखक इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि लेखक के अनुसार जिस व्यक्ति ने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा और हमेशा प्रभु पर विश्वास रखा , उस व्यक्ति को प्रभु क्यों शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने देगा , वो भी जब व्यक्ति अपने जीवन के आखरी क्षणों में हो। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब भी वे फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते है तो एक लंबी , पादरी के सफेद घुटनों तक लंबे एक ढीले – ढाले पहनावे से ढकी बनावट उनके सामने प्रदर्शित हो जाती है – गोरा रंग , सफेद झाँईं मारती भूरी दाढ़ी , नीली आँखें – और हमेशा बाँहें खोल कर सबको अपने गले से लगाने के लिए पूरी तरह से उत्सुक। लेखक फ़ादर कामिल बुल्के के बारे में कहते है कि वे उत्तम आचरण तथा उत्तम प्रकृति वाले ऐसे पुरुष थे जिनके मन में हमेशा अपने हर प्रिय व्यक्ति के लिए ममता और अपनत्व उमड़ता ही रहता था। लेखक बताते हैं कि वे पैंतीस साल से इस बात के चश्मदीद रहे हैं। अर्थात लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को पैंतीस सालों से जानते थे। और लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को तब भी जानते थे जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे। आज जब फ़ादर कामिल बुल्के इस दुनिया में नहीं हैं तब लेखक उनकी बाँहों का दबाब अपनी छाती पर महसूस करते हैं। अर्थात आज भी लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते हैं।
पाठ – फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘ परिमल ’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। हमारे हँसी – मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते , हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते , हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फ़ादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी – जैसे किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों।
शब्दार्थ
करुणा – मन में उत्पन्न वह भाव जो दूसरों का कष्ट देखकर उसे दूर करने हेतु उत्पन्न होता है , दया , अनुकंपा , रहम
निर्मल – जिसमें मैल या मलीनता न हो , स्वच्छ , साफ़ , जिसमें किसी प्रकार का दोष न हो , शुद्ध , निर्दोष , पवित्र , पापरहित
संकल्प – दृढ़ निश्चय , प्रतिज्ञा , इरादा , विचार , कोई कार्य करने की दृढ इच्छा या निश्चय , प्रयोजन , उद्देश्य , नीयत
परिमल – कुमकुम – चंदन आदि के मर्दन से उत्पन्न सुगंधि , कुमकुम – चंदन आदि को मलना , सुगंध , सुवास , विद्वद्मंडल , पंडितसभा
पारिवारिक – परिवार संबंधी – परिवार का
निर्लिप्त – जो किसी में लिप्त या आसक्त न हो , जिसका किसी से लगाव न हो , सांसारिक माया – मोह , राग – द्वेष आदि से रहित
गोष्ठि – सभा
गंभीर – जिसको समझना कठिन हो , जटिल , दुरूह , गूढ़ , गहरा , घना , गहन , जिसका निराकरण या समाधान करना मुश्किल हो , कठिन
बहस – वाद – विवाद , ज़िरह
बेबाक – स्पष्टभाषी , मुँहफट , बिना किसी बाधा या कठिनाई के बोलने वाला , निर्लज्ज , बेशर्म
राय – सुझाव , सलाह , मत , विचार , तदवीर
उत्सव – त्योहार , पर्व , आनंद और उत्साह के साथ मनाया जाने वाला शुभ मंगल कार्य
संस्कार – जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले वे सोलह कृत्य जो धर्मशास्त्र के अनुसार द्विजातियों के लिए ज़रूरी हैं , जैसे – मुंडन , यज्ञोपवीत , विवाह आदि
पुरोहित – किसी भी जाति या धर्म का वह व्यक्ति जो धार्मिक कृत्य कराता हो
आशीष – किसी के कल्याण , सफलता आदि के लिए कामना करना , आशीर्वाद , मंगल कामना
वात्सल्य – प्रेम , स्नेह , विशेषतः माता – पिता के हृदय में होने वाला अपने बच्चों के प्रति नैसर्गिक प्रेम
देवदारु – एक प्रकार का पहाड़ी वृक्ष
नोट – इस गद्यांश में लेखक फ़ादर कामिल बुल्के का अपने परिवार के साथ सम्बन्ध स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को याद करना किसी एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा बताते हैं। क्योंकि उनका स्वभाव भी शांत और किसी संगीत की तरह है और अब वे इस दुनियाँ में नहीं हैं इसलिए लेखक ने उदास शांत संगीत कहा है। लेखक बताते हैं कि जब फ़ादर कामिल बुल्के को देखते थे तो उनको देखना ऐसा लगता था जैसे दया के स्वच्छ जल में स्नान करना क्योंकि वे कभी किसी का बुरा नहीं सोचते थे। और जब लेखक उनसे बात करते तो लेखक को उनसे बात करना अपने आप को दृढ़निश्चय से भरना था। लेखक को फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते हुए विद्वद्मंडल के वे दिन याद आते हैं जब लेखक और उनके करीबी लोग सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। अर्थात लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को अपने परिवार का मुख्य व्यक्ति मानते थे। लेखक और उनकी मंडली के हँसी – मज़ाक में फ़ादर कामिल बुल्के बिना किसी हिचकिचाहट के शामिल रहते थे , जब लेखक और उनके सहयोगियों की सभाएँ होती तो उनमें भी फ़ादर कामिल बुल्के ऐसा वाद – विवाद करते जिसका निवारण करना मुश्किल होता और फ़ादर कामिल बुल्के लेखक की रचनाओं पर भी बिना किसी कठिनाई या बनावट के अपने सुझाव देते थे और जब भी लेखक के घर में कोई भी या किसी भी प्रकार का त्यौहार और संस्कार होता तो फ़ादर कामिल बुल्के उस त्यौहार और संस्कार में लेखक के बड़े भाई या पुरोहित जैसे खड़े हो जाते थे और सभी को अपनी मंगल कामना से भर देते थे। लेखक को अपने बच्चे और फ़ादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की वह चमक भी जिसमें सभी के लिए स्नेह तैरता रहता था और ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे सभी किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे और उनके साथ से लेखक अपने और अपने परिवार को उसी तरह सुरक्षित महसूस करते थे जैसे धूप में किसी पेड़ की छाया में।
पाठ – कहाँ से शुरू करें ! इलाहाबाद की सड़कों पर फ़ादर की साइकिल चलती दीख रही है। वह हमारे पास आकर रुकती है , मुसकराते हुए उतरते हैं , ‘ देखिए – देखिए मैंने उसे पढ़ लिया है और मैं कहना चाहता हूँ … ’ उनको क्रोध में कभी नहीं देखा , आवेश में देखा है और ममता तथा प्यार में लबालब छलकता महसूस किया है। अकसर उन्हें देखकर लगता कि बेल्ज़ियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँचकर उनके मन में संन्यासी बनने की इच्छा कैसे जाग गई जबकि घर भरा – पूरा था – दो भाई , एक बहिन , माँ , पिता सभी थे।
शब्दार्थ
क्रोध – कोई अनुचित या प्रतिकूल कार्य होने पर मन में उत्पन्न उग्र या तीक्ष्ण मनोविकार , गुस्सा , कोप , रोष
आवेश – जोश , तैश , आक्रोश , उद्दीप्त मनोवेग , अभिनिवेश , झोंक , अंतःप्रेरणा
लबालब – मुँह या किनारे तक भरा हुआ , पूर्णतः भरा हुआ , लबरेज़
छलकना – मुँह तक भरा होने के कारण पानी या किसी तरल पदार्थ का बरतन से बाहर गिरना या उछलना , पूरी तरह भर जाने या भरपूर होने के कारण उमड़ना , किसी तरल पदार्थ का हिलने – डुलने के कारण किसी पात्र से उछलकर बाहर गिरना
महसूस – इंद्रियों के द्वारा जिसका अनुभव किया जाए , अनुभूत , मालूम , ज्ञात , प्रकट , स्पष्ट
अकसर – प्रायः , अधिकतर , बहुधा , अमूमन , बारंबार
संन्यासी – वह जो संन्यास ले चुका हो , संन्यास आश्रम का पालन करने वाला व्यक्ति , त्यागी पुरुष
नोट – इस गद्यांश में लेखक फ़ादर कामिल बुल्के को याद करते हुए उनके स्वभाव के बारे में और उनके सन्यासी बनने की शुरुआत का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक हमें फ़ादर कामिल बुल्के के बारे में बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वे कहाँ से शुरू करें ! लेखक याद करते हुए बताते हैं कि इलाहाबाद की सड़कों पर जब फ़ादर की साइकिल चलती हुई दीख जाती थी और वे लेखक के पास आकर साईकिल को रुक देते थे , वे मुसकराते हुए उतरते थे और लेखक से कहना शुरू करते थे कि उन्होंने लेखक की रचनाओं को पढ़ लिया है और वे उस पर अपनी राय देना शुरू कर देते थे। लेखक बताते हैं कि उन्होंने फ़ादर कामिल बुल्के को कभी भी गुस्से में नहीं देखा था , हमेशा ही उत्साह में देखा है और स्नेह तथा प्यार में पूर्णतः भरा हुआ , छलकता महसूस किया है। लेखक को अधिकतर उन्हें देखकर लगता कि बेल्ज़ियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँचकर उनके मन में त्यागी पुरुष बनने की इच्छा कैसे जाग गई होगी क्योंकि लेखक बताते हैं कि उनका घर भरा – पूरा था अर्थात उनके दो भाई , एक बहिन , माँ , पिता , उनके परिवार में सभी थे। तो लेखक को उनके मन में त्यागी पुरुष बनने की इच्छा का जागना कुछ समझ नहीं आया।
पाठ – ” आपको अपने देश की याद आती है ? “
” मेरा देश तो अब भारत है। “
” मैं जन्मभूमि की पूछ रहा हूँ ? “
” हाँ आती है। बहुत सुंदर है मेरी जन्मभूमि – रेम्सचैपल। “
” घर में किसी की याद ? “
” माँ की याद आती है – बहुत याद आती है। “
फिर अकसर माँ की स्मृति में डूब जाते देखा है। उनकी माँ की चिठ्ठियाँ अकसर उनके पास आती थीं। अपने अभिन्न मित्र डॉ. रघुवंश को वह उन चिठ्ठियों को दिखाते थे। पिता और भाइयों के लिए बहुत लगाव मन में नहीं था। पिता व्यवसायी थे। एक भाई वहीं पादरी हो गया है। एक भाई काम करता है , उसका परिवार है। बहन सख्त और ज़िद्दी थी। बहुत देर से उसने शादी की। फ़ादर को एकाध बार उसकी शादी की चिंता व्यक्त करते उन दिनों देखा था। भारत में बस जाने के बाद दो या तीन बार अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्ज़ियम गए थे।
” लेकिन मैं तो संन्यासी हूँ। “
” आप सब छोड़कर क्यों चले आए ? “
” प्रभु की इच्छा थी। ” वह बालकों की सी सरलता से मुसकराकर कहते , ” माँ ने बचपन में ही घोषित कर दिया था कि लड़का हाथ से गया। और सचमुच इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ फ़ादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म गुरु के पास गए और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ तथा एक शर्त रखी ( संन्यास लेते समय संन्यास चाहने वाला शर्त रख सकता है ) कि मैं भारत जाऊँगा। “
” भारत जाने की बात क्यों उठी ? “
” नहीं जानता , बस मन में यह था। “
शब्दार्थ
जन्मभूमि – वह स्थान , प्रदेश या देश जहाँ किसी का जन्म हुआ हो , जन्मस्थान
स्मृति – बुद्धि का वह प्रकार जो अतीत की घटनाओं को याद रखता है , स्मरणशक्ति , याददाश्त , अनुस्मरण , ( मेमोरी )
अभिन्न – जो अलग न किया जा सके , जुड़ा हुआ , एक में मिला हुआ , संबद्ध , एकीकृत , आत्मीय , अंतरंग , अधिकाधिक निकट , घनिष्ठ
लगाव – किसी के साथ लगे होने की अवस्था या भाव , अपनापन , जुड़ने का भाव , मोह , संबंध , वास्ता , खिंचाव , आकर्षण
व्यवसायी – व्यापार करने वाला , व्यापारी
सख्त – कठोर
ज़िद्दी – ज़िद करने वाला , हठी , आग्रही , जिसने ठान लिया हो , स्वेच्छाचारी , दुराग्रही , अड़ियल , दृढ़
व्यक्त – जो प्रकट किया या सामने लाया गया हो , स्पष्ट , अभिव्यक्त
सरलता – सरल होने की अवस्था , गुण या भाव , स्वभाव या व्यवहार आदि का सीधापन , सिधाई , भोलापन , सुगमता , आसानी
घोषित – जिसकी घोषणा की गई हो , जो जानकारी में हो
धर्म गुरु – धर्म की शिक्षा देने वाला
शर्त – अपनी बात मनवाने के लिए किया जाने वाला करार , प्रतिज्ञा , बाज़ी , उपबंध , पाबंदी
नोट – इस गद्यांश में लेखक उनके और फादर कामिल बुल्के के बीच में हुई एक वार्तालाप का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक फादर कामिल बुल्के से पूछते हैं कि क्या उनको अपने देश की याद नहीं आती है ? तो इस पर फादर कामिल बुल्के भारत को ही अपना देश बताते है। तो लेखक उनसे उनकी जन्मभूमि के बारे में पूछता है कि क्या उनको उनकी जन्मभूमि की याद नहीं आती है ? फादर कामिल बुल्के हाँ में उत्तर देते हुए कहते हैं कि उनकी जन्मभूमि बहुत सुंदर है और वे अपनी जन्मभूमि का नाम रेम्सचैपल बताते हैं। लेखक फादर कामिल बुल्के से पूछते हैं कि उनको घर में किसी की याद आती है ? फादर कामिल बुल्के बताते हैं कि उनको माँ की बहुत याद आती है। लेखक बताते हैं कि कई बार उन्होंने फादर कामिल बुल्के अपनी माँ की यादों में डूब जाते देखा है। लेखक बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के की माँ की चिठ्ठियाँ कई बार उनके पास आती थीं। उन चिठ्ठियों को फादर कामिल बुल्के अपने सबसे घनिष्ट मित्र डॉ. रघुवंश को दिखाते थे। अपने पिता और भाइयों के लिए उनके मन में कोई ख़ास अपनापन नहीं था। उनके पिता पेशे से एक व्यापारी थे। उनका एक भाई तो वहीं उनके जन्मस्थान पर पादरी बन गया था। और एक भाई काम करता है , उसका अपना परिवार है। लेखक फादर कामिल बुल्के की बहन के स्वभाव के बारे में बताते हैं कि वह स्वभाव से कठोर और ज़िद्द करने वाली थी। उनकी बहन ने शादी भी बहुत देर से की थी। लेखक ने फादर कामिल बुल्के को एकाध बार उसकी शादी की चिंता व्यक्त करते उन दिनों देखा था। लेखक बताते हैं कि भारत में बस जाने के बाद केवल दो या तीन बार ही फादर कामिल बुल्के अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्ज़ियम गए थे। फादर कामिल बुल्के अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं कि वे तो संन्यासी हैं। लेखक उनसे अपना सब कुछ छोड़कर भारत चले आने का कारण पूछते हैं ? इस का उत्तर देते हुए फादर कामिल बुल्के प्रभु की इच्छा को कारण बताते हैं। और लेखक बताते हैं कि यह सब बताते हुए उनके चेहरे पर छोटे बच्चों की तरह सरल मुस्कराहट होती और वे कहते कि उनकी माँ ने बचपन में ही यह जानकारी दे दी थी कि लड़का हाथ से गया। और सचमुच इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ फ़ादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म गुरु के पास गए और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ तथा एक शर्त रखी कि मैं भारत जाऊँगा। संन्यास लेते समय संन्यास चाहने वाला कोई एक शर्त रख सकता है और शर्त के तौर पर फादर कामिल बुल्के ने भारत आने की शर्त रखी। लेखक फादर कामिल बुल्के से भारत ही जाने की बात क्यों कही ? फादर कामिल बुल्के इस पर कहते हैं कि उन्हें नहीं पता , बस उनके मन में यह था। इसलिए वे भारत आ गए।
पाठ – उनकी शर्त मान ली गई और वह भारत आ गए। पहले ‘ जिसेट संघ ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की पढ़ाई की। फिर 9 – 10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। कलकत्ता ( कोलकाता ) से बी.ए. किया और फिर इलाहाबाद से एम.ए.। उन दिनों डॉ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। शोधप्रबंध प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहकर 1950 में पूरा किया – ‘ रामकथा : उत्पत्ति और विकास। ’ ‘ परिमल ’ में उसके अध्याय पढ़े गए थे। फ़ादर ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ ब्लू बर्ड ’ का रूपांतर भी किया है ‘ नीलपंछी ’ के नाम से। बाद में वह सेंट जेवियर्स कॉलिज , राँची में हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष हो गए और यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी – हिंदी कोश तैयार किया और बाइबिल का अनुवाद भी … और वहीं बीमार पड़े , पटना आए। दिल्ली आए और चले गए – 47 वर्ष देश में रहकर और 73 वर्ष की ज़िदगी जीकर।
फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी – कभी लगता है वह मन से संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते ज़रूर मिलते – खोजकर , समय निकालकर , गर्मी , सर्दी , बरसात झेलकर मिलते , चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है ? उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ बयान करते , इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुँझलाते देखा है और हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर – परिवार के बारे में , निजी दुख – तकलीफ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। ‘ हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह। ’ मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फ़ादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी।
शब्दार्थ
धर्माचार – धर्म का आचरण की शिक्षा
विभाग – भागों में बँटा हुआ , बँटवारा , बाँट , अंश , खंड , कार्यक्षेत्र , महकमा
अध्यक्ष – संस्था , सभा आदि का प्रधान या मुखिया , ( चेयरपर्सन ) , मुख्य अधिकारी , नियामक , स्वामी
शोधप्रबंध – विश्वविद्यालय से शोध – उपाधि प्राप्त करने के लिए लिखा गया शोधपूर्ण ग्रंथ , शोधग्रंथ , अनुसंधानपरक ग्रंथ , ( थिसिस)
रूपांतर – रूप में परिवर्तन , किसी वस्तु का बदला रूप , ( ट्रांसफॉरमेशन )
विभागाध्यक्ष – किसी विभाग का प्रधान अधिकारी
कोश – भंडार , ख़जाना , निधि , डिब्बा , वह ग्रंथ जिसमें एक विशेष क्रम से शब्द और उनके अर्थ आदि दिए जाते हैं ( शब्दकोश )
अनुवाद – भाषांतर , रूपांतर , पुनः कथन , दुहराव , पुनरुक्ति , एक भाषा में लिखी हुई बात को दूसरी भाषा में लिखने का कार्य
दसियों – दस साल
मंच – ऊँचा बना हुआ स्थान , चबूतरा , भाषण स्थल , रंगमंच
बयान – अभियुक्त या साक्षी द्वारा कही गई बात , कथन , वृत्तांत , वर्णन , ज़िक्र
अकाट्य – जो काटा न जा सके , जिसकी कोई काट न हो , अत्यंत दृढ़ , मज़बूत , कठोर , जिसका तर्क या तथ्य से खंडन न किया जा सके , अखंडनीय , अटूट
तर्क – किसी कथन को पुष्ट करने हेतु दिया जाने वाला साक्ष्य , दलील , कारण , ( आर्ग्यूमेंट )
झुँझलाना – क्रुद्ध या व्यथित होकर कोई बात कहना , खिजलाना , खीजना , चिड़चिड़ाना , चिढ़ना , उकताना , बिगड़ना
निजी – व्यक्तिगत , ( पर्सनल ) , अपना , निज , किसी समूह के कुछ विशेष लोगों से संबंधित , आपसी , गैर – सरकारी , ( प्राइवेट )
स्वभाव – आदत , जीवन जीने या कार्य करने का ढंग , प्रवृत्ति , ( हैबिट ) , मानसिकता
सांत्वना – दुखी और शोकाकुल व्यक्ति को समझाने – बुझाने और ढाढ़स देने की क्रिया , तसल्ली , आश्वासन , तुष्ट करने वाले शब्द और कथन
जनमती – जन्म लेना
झरती – झड़ती
विरल – दुर्लभ , जो घना न हो , शून्य , रिक्त , ख़ाली , पतला , अल्प , थोड़ा , कम , निर्जन , एकांत
नोट – इस गद्यांश में लेखक फ़ादर कामिल बुल्के की उपलब्धियों और व्यक्तित्व का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जब फादर कामिल बुल्के ने भारत आने की शर्त रही तो उनकी यह शर्त मान ली गई और वह भारत आ गए। पहले ‘ जिसेट संघ ’ में दो साल पादरियों के बीच रह कर उन्होंने धर्म के प्रचार या आचरण की पढ़ाई की। फिर 9 – 10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। कलकत्ता ( कोलकाता ) से बी.ए. किया और फिर इलाहाबाद से एम.ए.। जब फादर कामिल बुल्के अपनी पढ़ाई कर रहे थे उन दिनों डॉ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विभाग के मुख्य अधिकारी थे। विश्वविद्यालय से शोध – उपाधि प्राप्त करने के लिए लिखा गया शोधपूर्ण ग्रंथ प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहकर 1950 में पूरा किया – ‘ रामकथा : उत्पत्ति और विकास। ’ लेखक और उनके सहकर्मियों की सभा में उसके अध्याय पढ़े गए थे। फ़ादर ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ ब्लू बर्ड ’ का ट्रांसफॉरमेशन भी किया है और रूपांतरित नाम रखा ‘ नीलपंछी ’। बाद में वह सेंट जेवियर्स कॉलिज , राँची में हिंदी तथा संस्कृत खंड के विभाग मुख्य अधिकारी हो गए और यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी – हिंदी शब्द – कोष तैयार किया और यहीं पर ही बाइबिल को भी दूसरी भाषाओँ में रूपांतरित किया और वहीं पर बीमार पड़ गए , जिसके बाद पटना आ गए। फिर दिल्ली आए और यही से चले गए अर्थात 47 वर्ष देश में रहकर और 73 वर्ष की ज़िदगी जीकर मृत्यु को गले लगा दिया। लेखक बताते हैं कि फ़ादर बुल्के प्रतिज्ञा लेकर संन्यासी बहे थे। परन्तु कभी – कभी ऐसा लगता था कि वह मन से संन्यासी नहीं थे। इसका कारण लेखक बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के जब किसी से कोई रिश्ता बनाते थे तो उसे कभी तोड़ते नहीं थे। दस साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। अर्थात वे सभी के मन में अपनी छाप छोड़ते थे। लेखक बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के जब भी दिल्ली आते थे उनसे ज़रूर मिलते थे। चाहे लेखक का पता खोज निकालना पड़े , चाहे व्यस्त होते हुए भी समय निकालना पड़े , चाहे गर्मी हो , चाहे सर्दी हो , यहाँ तक की बरसात झेलकर भी वे लेखक से मिलने आते ही थे। चाहे वे दो मिनट के लिए ही आएं वे आते जरूर थे। यह सब कौन सा संन्यासी करता है ? तभी लेखक ने कहा कि फादर कामिल बुल्के मन से संन्यासी नहीं थे। फादर कामिल बुल्के की चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वे हर भाषण स्थल से अपनी इस तकलीफ का वर्णन करते रहते थे , इसके लिए वे ऐसे तर्क देते जिनका तोड़ कोई नहीं कर सकता था। लेखक बताते हैं कि बस इसी एक सवाल पर उन्हें क्रुद्ध या व्यथित होकर बात करते देखा था , बाकि वे हमेशा शांत ही रहते थे। और लेखक ने फादर कामिल बुल्के को हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते पाया है। लेखक फादर कामिल बुल्के के स्वभाव के बारे में कहते हैं कि हर किसी से उनके घर – परिवार के बारे में , निजी दुख – तकलीफ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से आश्वासन के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था , जो किसी गहरी तपस्या से ही प्राप्त की जा सकती है। ‘ हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह। ’ इस पंक्ति से लेखक को अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और साथ ही साथ फ़ादर के शब्दों से झड़ती ऐसी अनोखी शांति भी।
पाठ – आज वह नहीं है। दिल्ली में बीमार रहे और पता नहीं चला। बाँहें खोलकर इस बार उन्होंने गले नहीं लगाया। जब देखा तब वे बाँहें दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को उलझाए ताबूत में जिस्म पर पड़ी थीं। जो शांति बरसती थी वह चेहरे पर थिर थी। तरलता जम गई थी। वह 18 अगस्त 1982 की सुबह दस बजे का समय था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी – सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी , रघुवंश जी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे। फिर उसे उठाकर एक लंबी सँकरी , उदास पेड़ों की घनी छाँह वाली सड़क से कब्रगाह के आखिरी छोर तक ले जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए कब्र अवाक मुँह खोले लेटी थी। ऊपर करील की घनी छाँह थी और चारों ओर कब्रें और तेज़ धूप के वृत्त। जैनेंद्र कुमार , विजयेंद्र स्नातक , अजित कुमार , डॉ. निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग , पादरीगण , उनके बीच में गैरिक वसन पहने इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान – शिक्षक डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ. रघुवंश भी जो अकेले उस सँकरी सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से खामोश दुख की किन्ही अपरिचित आहटों से दबे हुए थे , सिमट आए थे कब्र के चारों तरफ़। फ़ादर की देह पहले कब्र के ऊपर लिटाई गई। मसीही विधि से अंतिम संस्कार शुरू हुआ। राँची के फ़ादर पास्कल तोयना के द्वारा। उन्होंने हिंदी में मसीही विधि से प्रार्थना की फिर सेंट जेवियर्स के रेक्टर फ़ादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा , ‘ फ़ादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों। ’ डॉ. सत्यप्रकाश ने भी अपनी श्रद्धांजलि में उनके अनुकरणीय जीवन को नमन किया। फिर देह कब्र में उतार दी गई … ।
मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। ( नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है। )
इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल – फूल गंध से भरा और सबसे अलग , सबका होकर , सबसे ऊँचाई पर , मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ।
शब्दार्थ –
उलझाना – फँसाना , लगाए रखना
ताबूत – मृत शरीर रखने का संदूक
जिस्म – देह , शरीर , काया , बदन
थिर – जो स्थिर हो , जो हिलता – डुलता न हो , जो चलता न हो , अचल , ठहरा हुआ , जिसमें चंचलता न हो , धीर , शांत
तरलता – तरल होने का भाव या अवस्था , द्रवता , पतलापन , विरलता , चपलता , चंचलता
परिजन – परिवार के सदस्य , जैसे – पत्नी , पुत्र आदि , भरण – पोषण के लिए आश्रित लोग , साथ रहने वाले लोग , अनुगामी और अनुचर वर्ग
सँकरा – पतला और तंग , जिसकी चौड़ाई कम हो , कसा हुआ , संकीर्ण
छाँह – छाया
कब्रगाह – वह स्थान जहाँ शव गाड़े जाते हैं , कब्रिस्तान , समाधि स्थल
छोर – किसी चीज़ का अंतिम सिरा , किनारा , साहिल , किसी वस्तु का भाग या विस्तार , सीमा , कोना , नोक
कब्र – वह गड्ढा जो शव को गाड़ने के लिए खोदा जाता है
अवाक – विस्मित , स्तब्ध , चकित , मौन , चुप
करील – एक प्रकार की काँटेदार झाड़ी
वृत्त – गोल , वर्तुल
गैरिक – गेरू , गेरुआ , सोना , गेरू रंग में रँगा हुआ , गेरूए रंग का
वसन – वस्त्र , कपड़ा , आच्छादन , आवरण
अपरिचित – जिसकी जानकारी न हो , जिससे परिचय न हो , अजनबी , जिसे जानकारी न हो , नावाकिफ़
आहट – पैरों से चलने की धमक या पदचाप , हिलने – डुलने से होने वाली हलकी ध्वनि
सिमटना – संकुचित होना , सिकुड़ना , पास आना , करीब आनामसीही – ईसाई , ईसा को मानने वाला व्यक्ति , ईसा मसीह से संबंधित , ईसाई धर्म का
विधि – व्यवस्था आदि का तरीका या प्रणाली , व्यवस्था द्वारा नागरिकों के निमित्त निर्मित कानून , ( लॉ )
श्रद्धांजलि – अंजली में फूल आदि भरकर श्रद्धा से किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति को चढ़ाना , किसी मृत व्यक्ति की स्मृति में आदरपूर्ण कथन , ( होमेज )
अर्पित – अर्पण किया हुआ , श्रद्धा के साथ अपने अभीष्ट को न्योछावर किया हुआ , दिया हुआ , चढ़ाया हुआ , समर्पित
अनुकरणीय – अनुकरण करने योग्य , नकल करने योग्य , पीछे चलने योग्य , अनुगमनीय
नमन – झुकने की क्रिया या भाव , नमस्कार , प्रणाम
आजीवन – जीवन पर्यंत , जीवनभर , जीवित रहने तक
ज्योति – प्रकाश , उजाला , रोशनी , द्युति
श्रद्धानत – आदर में झुका हुआ
नोट – इस गद्यांश में लेखक फ़ादर कामिल बुल्के की अंतिम यात्रा का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि आज फादर कामिल बुल्के हमारे बीच नहीं हैं। वे दिल्ली में बीमार रहे और उनके जाने का पता नहीं चला। बाँहें खोलकर इस बार उन्होंने गले नहीं लगाया। अर्थात जब भी वे दिल्ली आते थे तो लेखक से जरूर मिलते थे लेकिन इस बार वे बिना मिले ही चले गए और वो भी हमेशा के लिए। जब लेखक ने उन्हें देखा तब वे बाँहें दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को आपस में फसाए मृत शरीर को रहने वाले संदूक में अपने शरीर पर पड़ी हुई थीं। अर्थात अब उनकी बाहें लेखक को गले लगाने के लिए नहीं उठने वाली थी। जो शांति बरसती थी वह अब चेहरे पर एक जगह ठहरी हुई थी। उनकी चंचलता कहीं जम सी गई थी। लेखक फादर कामिल बुल्के की अंतिम यात्रा के समय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह 18 अगस्त 1982 की सुबह दस बजे का समय था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन के समाधि स्थल में उनके मृत शरीर संदूक एक छोटी – सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी , रघुवंश जी का बेटा और उनके करीबी राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे। फिर उसे उठाकर एक लंबी तंग , उदास पेड़ों की घनी छाया वाली सड़क से कब्रिस्तान के आखिरी कोने तक ले जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए , वह गड्ढा जिसको शव को गाड़ने के लिए खोदा गया था , वह चुप – चाप मुँह खोले लेटा था। ऊपर एक प्रकार की काँटेदार झाड़ी की घनी छाया थी और चारों ओर कब्रें और तेज़ धूप के गोल घेरे बने हुए थे। जैनेंद्र कुमार , विजयेंद्र स्नातक , अजित कुमार , डॉ. निर्मला जैन और ईसाई समुदाय के लोग , पादरी लोग , उनके बीच में गेरूए रंग के कपड़े पहने इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान – शिक्षक डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ. रघुवंश भी जो अकेले उस तंग सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से चुप – चाप दुख की किन्ही बिना जान – पहचान की हिलने – डुलने से होने वाली हलकी ध्वनि से दबे हुए थे और कब्र के चारों तरफ़ इकट्ठे हो गए थे। फ़ादर की देह पहले कब्र के ऊपर लिटाई गई। ईसाई धर्म के व्यवस्थित नियमों से अंतिम संस्कार शुरू हुआ। राँची के फ़ादर पास्कल तोयना के द्वारा उनका अंतिम संस्कार हिंदी में ईसाई धर्म के व्यवस्थित नियमों से प्रार्थना कर के किया गया और फिर सेंट जेवियर्स के रेक्टर फ़ादर पास्कल ने फ़ादर बुल्के के जीवन और कर्म पर अंजली में फूल आदि भरकर श्रद्धा से फादर कामिल बुल्के की याद में आदरपूर्ण बातें करते हुए कहा कि फ़ादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों। डॉ. सत्यप्रकाश ने भी फ़ादर बुल्के के जीवन और कर्म पर अंजली में फूल आदि भरकर श्रद्धा से फादर कामिल बुल्के की याद में उनके नकल करने योग्य जीवन को प्रणाम किया। फिर फादर कामिल बुल्के के शरीर को कब्र में उतार दिया गया। लेखक को नहीं पता कि फादर कामिल बुल्के ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। लेखक यहाँ तक कह देते हैं कि नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है। अर्थात अगर वे फादर कामिल बुल्के की याद में रोने वालों के नाम लिखने लगे तो उनकी स्याही ख़त्म हो जाएंगी अर्थात रोने वालों की संख्या बहुत अधिक थी। लेखक कहते हैं कि इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल – फूल गंध से भरा और सबसे अलग , सबका होकर , सबसे ऊँचाई पर , मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी यादें हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह जीवन के अंत तक बनी रहेगी। लेखक भी उस पवित्र ज्योति की याद में आदर पूर्वक अपना मस्तक झुकाता है।
मानवीय करुणा की दिव्य चमक प्रश्न – अभ्यास (Maanviy Karuna Ki Divy Chamak Question Answers)
प्रश्न 1 – फ़ादर की उपस्थिति देवदार की छाया जैसी क्यों लगती थी ?
उत्तर – फ़ादर ‘ परिमल ’ के सदस्यों से अत्यंत घनिष्ठ एवं पारिवारिक संबंध रखते थे। वे उम्र में बड़े होने के कारण सभी को आशीष भरे वचन कहते , दुखी मन को सांत्वना देते जिससे मन को उसी तरह की शांति और सुकून मिलता जैसे थके हारे यात्री को देवदार की शीतल छाया में मिलता है। इसलिए उनकी उपस्थिति देवदार की छाया – सी लगती है।
प्रश्न 2 – फ़ादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग हैं , किस आधार पर ऐसा कहा गया है ?
उत्तर – फ़ादर बुल्के भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बन चुके थे। उन्होंने भारत में रहकर अपने देश घर – परिवार आदि को पूरी तरह से भुला दिया था। 47 वर्षों तक भारत में रहने वाले फ़ादर केवल तीन बार ही अपने परिवार से मिलने बेल्जियम गए। वे भारत को ही अपना देश समझने लगे थे। वे भारत की मिट्टी और यहाँ की संस्कृति में रच बस गए थे। पहले तो उन्होंने यहाँ रहकर पढ़ाई की , फिर डॉ. धीरेंद्र वर्मा के सान्निध्य में ‘ रामकथा ; उत्पत्ति और विकास ‘ पर अपना शोध प्रबंध पूरा किया। उन्होंने प्रसिद्ध अंग्रेजी – हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया। इस तरह वे भारतीय संस्कृति के होकर रह गए थे।
प्रश्न 3 – पाठ में आए उन प्रसंगों का उल्लेख कीजिए जिनसे फ़ादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट होता है ?
उत्तर – फ़ादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट करने वाले प्रसंग निम्नलिखित हैं –
- फ़ादर बुल्के ने कोलकाता से बी०ए० करने के बाद हिंदी में एम०ए० इलाहाबाद से किया।
- उन्होंने प्रामाणिक अंग्रेज़ी – हिंदी शब्दकोश तैयार किया।
- मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ ब्लू बर्ड ’ का हिंदी में ‘ नील पंछी ’ नाम से रूपांतरण किया।
- इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘ रामकथा – उत्पत्ति एवं विकास ’ पर शोध प्रबंध लिखा।
- ‘ परिमल ‘ नामक हिंदी साहित्यिक संस्था के सदस्य बने।
- वे हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलवाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।
प्रश्न 4 – इस पाठ के आधार पर फ़ादर कामिल बुल्के की जो छवि उभरती है उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – फ़ादर कामिल बुल्के की छवि संकल्प से संन्यासी जैसे व्यक्ति की उभरती है। उनका लंबा शरीर एक लंबी , पादरी के सफेद घुटनों तक लंबे एक ढीले – ढाले पहनावे से ढकी – गोरा रंग , सफेद झाँईं मारती भूरी दाढ़ी , नीली आँखें – और हमेशा बाँहें खोल कर सबको अपने गले से लगाने के लिए पूरी तरह से उत्सुक। वे इतने मिलनसार थे कि एक बार संबंध बन जाने पर सालों – साल निभाया करते थे। वे पारिवारिक जलसों में पुरोहित या बड़े भाई की तरह उपस्थित होकर आशीर्वादों से भर देते थे , जिससे मन को अद्भुत शांति मिलती थी। उस समय उनकी छवि देवदार के विशाल वृक्ष जैसी होती थी।
प्रश्न 5 – लेखक ने फ़ादर बुल्के को ‘ मानवीय करुणा की दिव्य चमक ’ क्यों कहा है ?
उत्तर – लेखक ने फ़ादर कामिल बुल्के को ‘ मानवीय करुणा की दिव्य चमक ‘ इसलिए कहा है क्योंकि फ़ादर नेक दिल वाले वह व्यक्ति थे जिनकी रगों में दूसरों के लिए प्यार , अपनत्व और ममता भरी थी। वह लोभ , क्रोध कटुभाषिता से कोसों दूर थे। वे अपने परिचितों के लिए स्नेह और ममता रखते थे। वे दूसरों के दुख में सदैव शामिल होते थे और अपने सांत्वना भरे शब्दों से उसका दुख हर लेते थे। लेखक को अपनी पत्नी और बच्चे की मृत्यु पर फ़ादर के सांत्वना भरे शब्दों से शांति मिली थी। वे अपने प्रेम और वत्सलता के लिए जाने जाते थे।
प्रश्न 6 – फ़ादर बुल्के ने संन्यासी की परंपरागत छवि से अलग एक नई छवि प्रस्तुत की है , कैसे ?
उत्तर – परंपरागत रूप से संन्यासी एक अलग छवि लेकर जीते हैं। उनका विशेष पहनावा होता है। वे सांसारिकता से दूर होकर एकांत में जीवन बिताते हैं। उन्हें मानवीय संबंधों और मोह – माया से कुछ लेना – देना नहीं होता है। वे लोगों के सुख – दुख से तटस्थ रहते हैं और ईश वंदना में समय बिताते हैं।
फ़ादर बुल्के प्रतिज्ञा लेकर संन्यासी बहे थे। परन्तु कभी – कभी ऐसा लगता था कि वह मन से संन्यासी नहीं थे। इसका कारण – फादर कामिल बुल्के जब किसी से कोई रिश्ता बनाते थे तो उसे कभी तोड़ते नहीं थे। दस साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वे लोगों से अत्यंत आत्मीयता से मिलते थे। वे अपने परिचितों के दुख – सुख में शामिल होते थे और देवदारु वृक्ष की सी शीतलता से भर देते थे। इस तरह उन्होंने परंपरागत संन्यासी से हटकर अलग छवि प्रस्तुत की।
प्रश्न 7 – आशय स्पष्ट कीजिए –
( क ) नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।
उत्तर – नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है इसका आशय यह है कि फ़ादर की मृत्यु पर अनेक साहित्यकार , हिंदी प्रेमी , ईसाई धर्मानुयायी एवं अन्य लोग इतनी संख्या में उपस्थित होकर शोक संवेदना प्रकट कर रहे थे कि उनकी गणना करना कठिन एवं उनके बारे में लिखना स्याही बर्बाद करने जैसा था अर्थात् उनकी संख्या अनगिनत थी।
( ख ) फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है।
उत्तर – फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है इसका आशय यह है कि फ़ादर को याद करते ही उनका करुणामय , शांत एवं गंभीर व्यक्तित्व हमारे सामने आ जाता है। उनकी याद हमारे उदास मन को विचित्र – सी उदासी एवं शांति से भर देती है। ऐसा लगता है जैसे हम एक उदास सा संगीत सुन रहे हैं।
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