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CBSE Class 10 Hindi Chapter 3 “Main Kyon Likhta Hun”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Bhag 2 Book
मैं क्यों लिखता हूँ – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kritika Bhag 2 Chapter 3 Main Kyon Likhta Hun Summary with detailed explanation of the lesson ‘Main Kyon Likhta Hun’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए कृतिका भाग 2 के पाठ 3 मैं क्यों लिखता हूँ के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 मैं क्यों लिखता हूँ पाठ के बारे में जानते हैं।
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लेखक परिचय
लेखक – अज्ञेय
मैं क्यों लिखता हूँ? पाठ प्रवेश – (Main Kyon Likhta Hun Introduction)
प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय जी ने इस पाठ के माध्यम से स्पष्ट किया है कि लिखने के लिए प्रेरणा कैसे और कहाँ से उत्पन्न होती है? इस निबंध में यह बताया गया है कि रचनाकार की भीतरी विवशता ही उसे लेखन के लिए मजबूर करती है और लेखक उसी के बारे में अच्छे से लिख पाता है जिसे वह स्वयं प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है। लेखक विज्ञान के छात्र थे और लेखक ने जापान के शहर हिरोशिमा में हुए रेडियोधर्मी विस्फोट के प्रभाव के बारे में केवल सुना था, जब वह जापान गए तो उन्होंने प्रभावित क्षेत्र को प्रत्यक्ष रूप से देखा और वहाँ एक पत्थर पर आदमी की शक्ल में काली छाया को देखा तो उस रेडियोधर्मी के विस्फोट का भयावह रूप उनकी आँखों के सामने प्रत्यक्ष रूप में मानो घटित होने लगा और लेखक ने भारत आकर रेल में बैठे-बैठे उस घटना को कविता के रूप में उतारा।
मैं क्यों लिखता हूँ? पाठ सार – (Main Kyon Likhta Hun Summary)
‘मैं क्यों लिखता हूँ?’ लेखक के अनुसार यह प्रश्न बहुत आसान लगता है, पर असल में यह बहुत कठिन भी है। इसका सच्चा तथा वास्तविक उत्तर लेखक के अपने आंतरिक जीवन से संबंध रखता है। उन सब का संक्षेप में कुछ वाक्यों में विस्तृत वर्णन करना आसान नहीं है और शायद संभव भी नहीं होगा। परन्तु जो सभी के लिए उपयोगी हो ऐसे कुछ वाक्यों का वर्णन लेखक कर सकता है।
लेखक के लिखने का कारण जानना चाहे तो उसका एक उत्तर तो प्रतीत होता है कि वह स्वयं यह जानना चाहता है कि वह किसलिए लिखता है। लेखक को बिना कुछ लिखे हुए इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता क्योंकि एक लेखक लिखकर ही आंतरिक प्रेरणा की लाचारी को पहचानता है , जिसके कारण उसने कुछ लिखा है। लेखक को लगता है कि वह उस आंतरिक लाचारी से मुक्ति पाने के लिए ही कुछ लिखता है। लेखक को ऐसा लगता है कि सभी लेखक रचनाकार नहीं होते तथा उनके द्वारा लिखे गए सभी लेखन भी रचना के दायरे में नहीं होते। एक कारण यह भी सही है कि कुछ लेखक प्रसिद्धि मिल जाने के बाद लोगों के द्वारा विवश करने पर भी लिखते हैं। बाहरी लाचारी संपादकों का आग्रह, प्रकाशक माँग, लेखक की स्वयं की आर्थिक आवश्यकता आदि के रूप में हो सकती है ।
लेखन में रचनाकार के स्वभाव और खुद के अनुशासन का बहुत महत्त्व है। कुछ लेखक इतने आलसी होते हैं कि बिना बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते, उदाहरण के लिए जैसे प्रातः काल नींद खुल जाने पर भी कोई बिस्तर पर तब तक पड़ा रहता है, जब तक घड़ी का अलार्म न बज जाए। कहने का अभिप्राय यह है कि कुछ लेखक लिखने की काबलियत होते हुए भी बिना किसी के दबाव बनाए लिखने में असमर्थ होते हैं। लेखक की भीतरी लाचारी का वर्णन करना बहुत कठिन है।
लेखक विज्ञान का विद्यार्थी रहा है और उसकी नियमित शिक्षा भी विज्ञान विषय में ही हुई है। अणु का सैद्धांतिक ज्ञान लेखक को पहले से ही था, परंतु जब हिरोशिमा में अणु बम गिरा, तब लेखक ने उससे संबंधित विस्तार पूर्वक दी गई खबरें पढ़ीं, साथ ही उसके परवर्ती प्रभावों का विवरण भी पढ़ा। विज्ञान के इस बेकार उपयोग के प्रति किसी की भी बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था। लेखक ने भी इसके बारे में लेख आदि में कुछ लिखा, पर अनुभव के स्तर पर जो लाचारी होती है, वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है। अर्थात लेखक ने केवल बौद्धिक पकड़ के स्तर पर लेख लिखा था पर अनुभव के स्तर पर लिखना अलग बात है।
एक बार लेखक को जापान जाने का अवसर मिला। वहाँ जाकर उसने हिरोशिमा और उस अस्पताल को भी देखा, जहाँ रेडियम पदार्थ से जख्मी लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार लेखक को प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। लेखक को लगा कि रचनाकार के लिए अनुभव से अनुभूति गहरी चीज़ होती है। यही कारण है कि हिरोशिमा में सब देखकर भी उन्होंने वही पर तुरंत कुछ नहीं लिखा। एक दिन लेखक ने सड़क पर घूमते हुए देखा कि एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है। उनकी समझ में आया कि विस्फोट के समय कोई व्यक्ति वहाँ खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए रेडियोधर्मी पदार्थ की किरणें उसमें रुक गई होंगी और उन किरणों ने उस व्यक्ति को भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इसी कारण पत्थर का वह छाया वाला अंश उस व्यक्ति के झुलसने से बन गया होगा । यह देखकर लेखक को लगा कि पूरी दुःखद घटना जैसे पत्थर पर लिखी गई है। उस छाया को देखकर लेखक को जैसे एक थप्पड़ सा लगा। उसी क्षण अणु विस्फोट जैसे लेखक के अनुभव में आ गया और वह स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट में पीड़ित एक व्यक्ति बन गया। लेखक ने भारत आकर रेलगाड़ी में बैठे-बैठे हिरोशिमा पर एक कविता लिखी। यह कविता अच्छी है या बुरी, इससे लेखक को कोई मतलब नहीं है। उसके लिए तो यह अनुभव महत्वपूर्ण है, जिससे वह यह जान पाया कि कोई रचनाकार रचना क्यों करता है।
मैं क्यों लिखता हूँ? पाठ व्याख्या – (Main Kyon Likhta Hun Lesson Explanation)
पाठ – मैं क्यों लिखता हूँ? यह प्रश्न बड़ा सरल जान पड़ता है पर बड़ा कठिन भी है। क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के आंतरिक जीवन के स्तरों से संबंध् रखता है। उन सबको संक्षेप में कुछ वाक्यों में बाँध् देना आसान तो नहीं ही है, न जाने सम्भव भी है या नहीं? इतना ही किया जा सकता है कि उनमें से कुछ का स्पर्श किया जाए – विशेष रूप से ऐसों का जिन्हें जानना दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है।
एक उत्तर तो यह है कि मैं इसीलिए लिखता हूँ कि स्वयं जानना चाहता हूँ कि क्यों लिखता हूँ-लिखे बिना इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता है। वास्तव में सच्चा उत्तर यही है। लिखकर ही लेखक उस आभ्यंतर विवशता को पहचानता है जिसके कारण उसने लिखा-और लिखकर ही वह उससे मुक्त हो जाता है। मैं भी उस आंतरिक विवशता से मुक्ति पाने के लिए, तटस्थ होकर उसे देखने और पहचान लेने के लिए लिखता हूँ। मेरा विश्वास है कि सभी कृतिकार-क्योंकि सभी लेखक कृतिकार नहीं होते; न उनका सब लेखन ही कृति होता है-सभी कृतिकार इसीलिए लिखते हैं। यह ठीक है कि कुछ ख्याति मिल जाने के बाद कुछ बाहर की विवशता से भी लिखा जाता है-संपादकों के आग्रह से, प्रकाशक के तकाजे से, आर्थिक आवश्यकता से। पर एक तो कृतिकार हमेशा अपने सम्मुख ईमानदारी से यह भेद बनाए रखता है कि कौन-सी कृति भीतरी प्रेरणा का फल है, कौन-सा लेखन बाहरी दबाव का, दूसरे यह भी होता है कि बाहर का दबाव वास्तव में दबाव नहीं रहता, वह मानो भीतरी उन्मेष का निमित्ति बन जाता है। यहाँ पर कृतिकार के स्वभाव और आत्मानुशासन का महत्त्व बहुत होता है। कुछ ऐसे आलसी जीव होते हैं कि बिना इस बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते-इसी के सहारे उनके भीतर की विवशता स्पष्ट होती है-यह कुछ वैसा ही है जैसे प्रातःकाल नींद खुल जाने पर कोई बिछौने पर तब तक पड़ा रहे जब तक घड़ी का एलार्म न बज जाए। इस प्रकार वास्तव में कृतिकार बाहर के दबाव के प्रति समर्पित नहीं हो जाता है, उसे केवल एक सहायक यंत्र की तरह काम में लाता है जिससे भौतिक यथार्थ के साथ उसका संबंध् बना रहे। मुझे इस सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन कभी उससे बाध भी नहीं होती। उठने वाली तुलना को बनाए रखूँ तो कहूँ कि सबेरे उठ जाता हूँ अपने आप ही, पर अलार्म भी बज जाए तो कोई हानि नहीं मानता।
शब्दार्थ –
आंतरिक – भीतरी, अंदरूनी, हार्दिक
आभ्यंतर – भीतर का, अंदरूनी
विवशता – लाचारी, पराधीनता
तटस्थ – जो किसी का पक्ष न लेता हो, निरपेक्ष, निष्पक्ष
कृतिकार – रचना करने वाला व्यक्ति, रचनाकार, लेखक
कृति – किसी लेखक आदि के द्वारा किया गया रचनात्मक कार्य, किसी रचनाकार की समस्त कृतियाँ, कारयित्री प्रतिभा, कारनामा
ख्याति – प्रसिद्धि, लोकप्रियता, प्रशंसा, यश, कीर्ति
संपादक – पुस्तक या सामयिक पत्र आदि को संशोधित कर प्रकाशन के योग्य बनाने वाला व्यक्ति
आग्रह – अनुरोध, निवेदन
प्रकाशक – वह जो पुस्तकें, समाचारपत्र आदि का प्रकाशन करता हो
तकाजा – माँग, तगादा, दावा
उन्मेष – प्रकाश,दीप्ति
निमित्ति -कारण
व्याख्या – लेखक यहाँ एक प्रश्न करता है कि – मैं क्यों लिखता हूँ? लेखक कहते हैं कि यह प्रश्न देखने में तो बड़ा सरल लगता है परन्तु यह बहुत कठिन भी है। क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के भीतरी जीवन के स्तरों से संबंध् रखता है। लेखक बताते हैं कि लेखक के सभी भीतरी स्तरों को चाहे संक्षेप में ही कुछ वाक्यों में प्रस्तुत करना चाहे, यह आसान तो नहीं है, और न जाने सम्भव भी है या नहीं? कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक के अंदर क्या-क्या स्तर होते हैं जिससे वह लिखने की प्रेरणा लेता है, इसे किसी के सामने व्यक्त करना बिलकुल भी आसान नहीं है। लेखक केवल उन में से जो विशेष रूप से दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है, उनमें से कुछ का उल्लेख मात्र कर सकते हैं।
अपने प्रश्न का उत्तर देते हुए लेखक कहते हैं कि इस प्रश्न का एक उत्तर तो यह है कि लेखक इसीलिए लिखता है कि वह खुद जानना चाहता हूँ कि लेखक क्यों लिखता है – क्योंकि लिखे बिना इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। लेखक को वास्तव में सच्चा उत्तर यही लगता है। लिखकर ही कोई लेखक उस अंदरूनी लाचारी को पहचानता है जिसके कारण उसने लिखा – और लिखकर ही वह उससे मुक्त हो जाता है। लेखक भी अपनी उस अंदरूनी लाचारी से मुक्ति पाने के लिए, निरपक्ष होकर उसे देखने और पहचान लेने के लिए लिखता है। लेखक का विश्वास है कि सभी लेखक – क्योंकि सभी लेखक, लेखक नहीं होते; न उनका सब लेखन ही रचनात्मक कार्य होता है-सभी लेखक इसीलिए लिखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक अपने कार्य को रचनात्मक बनाने के लिए लिखते हैं। लेखक यह भी मानते है कि कुछ प्रसिद्धि मिल जाने के बाद कुछ बाहर के दबावों से भी लिखा जाता है जैसे संपादकों के अनुरोध पर, प्रकाशक की माँग पर और अपनी आर्थिक आवश्यकता को पूरी करने के लिए। परन्तु एक तो लेखक हमेशा अपने सामने ईमानदारी से इस राज़ को बनाए रखता है कि उसकी कौन-सी रचना उसकी अपनी भीतरी प्रेरणा का फल है, कौन-सा लेखन उसने बाहरी दबाव के कारण किया है। और दूसरा यह भी होता है कि बाहर का दबाव असल में दबाव नहीं रहता, वह मानो लेखक के भीतरी प्रकाश का कारण बन जाता है। यहाँ पर रचनाकार के स्वभाव और आत्मानुशासन का महत्त्व बहुत होता है। क्योंकि कुछ ऐसे आलसी जीव होते हैं कि बिना इस बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते अर्थात कुछ लेखकों को बाहरी दबाव से ही प्रेरणा मिलती है – इसी के सहारे उनके भीतर की लाचारी स्पष्ट होती है-यह कुछ वैसा ही है जैसे प्रातःकाल नींद खुल जाने पर कोई बिस्तर पर तब तक पड़ा रहे जब तक घड़ी का एलार्म न बज जाए। इस प्रकार वास्तव में लेखक बाहर के दबाव के प्रति समर्पित नहीं हो जाता है, उसे केवल एक सहायक यंत्र की तरह काम में लाता है जिससे भौतिक यथार्थ के साथ उसका संबंध् बना रहे। लेखक को इस सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन कभी इस तरह के सहारों से मुश्किल भी नहीं होती। यदि लेखक अपने उठने वाली तुलना को बनाए रखें तो कहते हैं कि सबेरे वे अपने आप ही उठ जाते हैं, पर यदि अलार्म भी बज जाए तो उसमे वे कोई हानि नहीं मानते। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक अपने भीतर की प्रेरणा से ही कुछ लिखते हैं परन्तु अगर उन पर किसी लेख के लिए बाहरी दबाव भी हो तो भी वे इसे गलत नहीं समझते।
पाठ – यह भीतरी विवशता क्या होती है? इसे बखानना बड़ा कठिन है। क्या वह नहीं होती यह बताना शायद कम कठिन होता है। या उसका उदाहरण दिया जा सकता है-कदाचित् वही अधिक उपयोगी होगा। अपनी एक कविता की कुछ चर्चा करूँ जिससे मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी।
मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ, मेरी नियमित शिक्षा उसी विषय में हुई। अणु क्या होता है, कैसे हम रेडियम-धर्मी तत्वों का अध्ययन करते हुए विज्ञान की उस सीढ़ी तक पहुँचे जहाँ अणु का भेदन संभव हुआ, रेडियम-धर्मिता के क्या प्रभाव होते हैं-इन सबका पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान तो मुझे था। फिर जब वह हिरोशिमा में अणु-बम गिरा, तब उसके समाचार मैंने पढ़े; और उसके परवर्ती प्रभावों का भी विवरण पढ़ता रहा। इस प्रकार उसके प्रभावों का ऐतिहासिक प्रमाण भी सामने आ गया। विज्ञान के इस दुरुपयोग के प्रति बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था, मैंने लेख आदि में कुछ लिखा भी पर अनुभूति के स्तर पर जो विवशता होती है वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है और उसकी तर्क संगति भी अपनी अलग होती है। इसलिए कविता मैंने इस विषय में नहीं लिखी। यों युद्ध काल में भारत की पूर्वीय सीमा पर देखा था कि कैसे सैनिक ब्रह्मपुत्र में बम फ़ेंक कर हज़ारों मछलियाँ मार देते थे। जबकि उन्हें आवश्यकता थोड़ी-सी होती थी, और जीव के इस अपव्यय से जो व्यथा भीतर उमड़ी थी, उससे एक सीमा तक अणु-बम द्वारा व्यर्थ जीव-नाश का अनुभव तो कर ही सका था।
जापान जाने का अवसर मिला, तब हिरोशिमा भी गया और वह अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम-पदार्थ से आहत लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ-पर अनुभव से अनुभूति गहरी चीज़ है, कम-से-कम कृतिकार के लिए। अनुभव तो घटित का होता है, पर अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात् कर लेती है जो वास्तव में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। जो आँखों के सामने नहीं आया, जो घटित के अनुभव में नहीं आया, वही आत्मा के सामने ज्वलंत प्रकाश में आ जाता है, तब वह अनुभूति-प्रत्यक्ष हो जाता है।
शब्दार्थ –
बखानना – बड़ाई, प्रशंसा, तारीफ़, गुणगान
कदाचित् – शायद
नियमित – नियमों से बँधा हुआ, नियमबद्ध, निश्चित
परवर्ती – बाद के काल का, घटना क्रम के अनुसार बाद का
विवरण – विस्तृत वर्णन, लेखा-जोखा
अपव्यय – फ़िजूलख़र्ची, व्यर्थ का ख़र्चा
व्यथा – मानसिक या शारीरिक क्लेश, पीड़ा, वेदना
आहत – चोट खाया हुआ, घायल, ज़ख़्मी
अनुभूति – अहसास, संवेदना, अनुभव
संवेदना – अनुभूति, अनुभव
आत्मसात् – अपने अधिकार में लिया गया
ज्वलंत – चमकता हुआ, प्रकाशित, जलता हुआ
व्याख्या – अब लेखक, ‘अंदरूनी लचरता क्या होती है?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है कि अंदरूनी लचरता का वर्णन करना बड़ा कठिन है। क्या अंदरूनी लचरता नहीं होती यह बताना शायद कम कठिन होता है। या शायद यही कहना अधिक उपयोगी होगा कि उसका उदाहरण दिया जा सकता है। लेखक अपनी एक कविता के बारे में बता कर इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं।
लेखक बताते हैं कि वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, उनकी निश्चित शिक्षा इसी विषय में हुई है। अणु क्या होता है, कैसे हम रेडियम-धर्मी तत्वों का अध्ययन करते हुए विज्ञान की उस सीढ़ी तक पहुँचे जहाँ अणु को तोड़ना संभव हुआ, रेडियम-धर्मिता के क्या प्रभाव होते हैं-इन सभी प्रश्नो का पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान तो लेखक को था। फिर जब हिरोशिमा में अणु-बम गिरा, तब उसके समाचार लेखक ने पढ़े; और उस घटना के बाद वहन होने वाले परिवर्तनों का भी विस्तारपूर्वक वर्णन लेखक पढ़ता रहा। इस प्रकार उसके प्रभावों का ऐतिहासिक प्रमाण भी सामने आ गया। विज्ञान के इस बेकार उपयोग के प्रति किसी भी बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था, लेखक ने इस पर कुछ लेख आदि में कुछ लिखा भी पर अनुभव के स्तर पर जो लाचारी होती है वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है और उसकी तर्क संगति भी अपनी अलग होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि अनुभव के आधार पर दिए गए तर्क, केवल बौद्धिक स्तर पर दिए गए तर्क से अलग व् असरदार होते हैं। इसलिए बिना अनुभव के लेखक ने इस विषय पर कविता नहीं लिखी। लेखक ने युद्ध काल में भारत की पूर्वीय सीमा पर देखा था कि कैसे सैनिक ब्रह्मपुत्र में बम फ़ेंक कर हज़ारों मछलियाँ मार देते थे। जबकि उन्हें आवश्यकता केवल थोड़ी-सी मछलिओं की होती थी, और जीव के इस तरह बेकार के नुक्सान से जो पीड़ा लेखक के भीतर उमड़ी थी, उससे एक हद तक अणु-बम द्वारा बेकार में हुए जीव-नाश का अनुभव तो लेखक कर ही सका था। अर्थात लेखक के द्वारा देखे गए मछलियों के बेकार नाश के अनुभव से अणु-बम द्वारा बेकार में हुए जीव-नाश का अनुमान लेखक कर पा रहे थे।
जब लेखक को जापान जाने का अवसर मिला, तब वे हिरोशिमा भी गए और लेखक ने वह अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम-पदार्थ से घायल लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार लेखक को प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ-पर अनुभव से ऐहसास गहरी चीज़ है, कम-से-कम लेखक के लिए तो यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अनुभव तो घटित हुई घटना का होता है, पर एहसास संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात् कर लेती है जो वास्तव में लेखक या रचनाकार के साथ घटित नहीं हुआ है। जो आँखों के सामने नहीं आया, जो घटित के अनुभव में नहीं आया, वही आत्मा के सामने जब चमकते हुए प्रकाश में आ जाता है, तब वह अनुभूति-प्रत्यक्ष हो जाता है। अर्थात जब कोई ऐसी घटना जो आंखों के सामने न हुई हो, उस घटना का एहसास जब अनुभव रूप में हो जाता है तब अनुभव प्रत्यक्ष हो जाता है।
पाठ – तो हिरोशिमा में सब देखकर भी तत्काल कुछ लिखा नहीं, क्योंकि इसी अनुभूति प्रत्यक्ष की कसर थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए देखा कि एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है-विस्फोट के समय कोई वहाँ खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उसमें रुद्ध हो गई होंगी-जो आस-पास से आगे बढ़ गईं उन्होंने पत्थर को झुलसा दिया, जो उस व्यक्ति पर अटकीं उन्होंने उसे भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इस प्रकार समूची ट्रेजडी जैसे पत्थर पर लिखी गई।
उस छाया को देखकर जैसे एक थप्पड़-सा लगा। अवाक इतिहास जैसे भीतर कहीं सहसा एक जलते हुए सूर्य-सा उग आया और डूब गया। मैं कहूँ कि उस क्षण में अणु-विस्फोट मेरे अनुभूति-प्रत्यक्ष में आ गया-एक अर्थ में मैं स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया।
इसी में से वह विवशता जागी। भीतर की आकुलता बुद्धि के क्षेत्र से बढ़कर संवेदना के क्षेत्र में आ गई…फिर धीरे-धीरे मैं उससे अपने को अलग कर सका और अचानक एक दिन मैंने हिरोशिमा पर कविता लिखी-जापान में नहीं, भारत लौटकर, रेलगाड़ी में बैठे-बैठे।
यह कविता अच्छी है या बुरी; इससे मुझे मतलब नहीं है। मेरे निकट वह सच है, क्योंकि वह अनुभूति-प्रसूत है, यही मेरे निकट महत्त्व की बात है।
शब्दार्थ –
तत्काल – तुरंत, उसी वक्त
रुद्ध – बंद हो गई, फस गई
ट्रेजडी – दुखांत, दुखद घटना जिसमें किसी की मृत्यु तक हो जाए, विपत्ति
भोक्ता – भोगने वाला, उपभोक्ता, भक्षक
आकुलता – अकुलाहट, बेचैनी, विह्वलता, घबराहट
प्रसूत – उत्पन्न
व्याख्या – लेखक बताते है कि उन्होंने हिरोशिमा में सब देखकर भी तुरंत उसी समय कुछ नहीं लिखा, क्योंकि अभी उन्हें अपने सामने अनुभव की कमी थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए लेखक ने देखा कि एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है जिसे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे विस्फोट के समय कोई वहाँ खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उसमें बंद हो होंगी। वे रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें आस-पास से आगे बढ़ गईं होगी और उन्होंने पत्थर को झुलसा दिया होगा और जो व्यक्ति उस पत्थर के आगे था वे रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उस पर अटकीं होगी और उन्होंने उसे भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इस प्रकार यह पूरी दुखांत घटना जैसे उस पत्थर पर लिखी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक ने उस पत्थर पर पड़े किसी व्यक्ति के जलने के निशान से हिरोशिमामें में हुए रेडियम-धर्मी विस्फोट की पूरी दुखांत घटना का विवरण समझ लिया। लेखक का उस छाया को देखना किसी थप्पड़ के लगने के समान था। लेखक के भीतर अचानक जैसे मौन इतिहास एक जलते हुए सूर्य की तरह उग आया और डूब गया। लेखक कहता है कि उस क्षण में अणु-विस्फोट लेखक के प्रत्यक्ष अनुभव में आ गया। एक अर्थ में लेखक स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट को भोगने वाला बन गया। अर्थात सब कुछ अपनी आँखों से देखने पर लेखक को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह भी अणु-विस्फोट के शिकार हुए व्यक्तियों में से एक है। इसी अनुभव से लेखक में वह लाचारी जागी। लेखक के भीतर की बेचैनी बुद्धि के क्षेत्र से बढ़कर अब संवेदना के क्षेत्र में आ गई थी। फिर धीरे-धीरे लेखक उससे अपने को अलग कर सका और अचानक एक दिन लेखक ने हिरोशिमा पर कविता लिखी। यह कविता लेखक ने जापान में नहीं लिखी बल्कि जब वे भारत लौट आए थे तब रेलगाड़ी में बैठे-बैठे लिखी थी। लेखक कहते हैं कि उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है कि उनकी यह कविता अच्छी है या बुरी है। यह कविता लेखक के मन के बेहद निकट है, क्योंकि वह लेखक के अनुभव से उत्पन्न हुई है।
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