Mata ka Aanchal Summary

 

CBSE Class 10 Hindi Chapter 1 “Sanskriti”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Bhag 2 Book

माता का आँचल – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kritika Bhag 2 Chapter 1 Mata ka Aanchal Summary with detailed explanation of the lesson ‘Mata ka Aanchal’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए कृतिका भाग 2 के पाठ 1 माता का आँचल के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें।  चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 माता का आँचल पाठ के बारे में जानते हैं।

 

लेखक परिचय 

लेखक – शिवपूजन सहाय

 

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माता का आँचल पाठ प्रवेश – (Mata ka Aanchal Introduction)

“माता का आँचल” पाठ के लेखक शिवपूजन सहाय जी हैं।

इस कहानी में लेखक ने माता-पिता का बच्चों के प्रति अपार स्नेह, प्रेम, चिंता व् अपने बचपन तथा ग्रामीण जीवन में बच्चों द्वारा खेले जाने वाले अनेक प्रकार के खेलों का बड़े ही सुंदर तरीके से वर्णन किया है। साथ में बच्चों के माध्यम से बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी में बड़े रोमांचक तरीके से प्रयोग किया गया है। यह कहानी भले ही शुरुआत से पिता-पुत्र प्रेम के इर्द-गिर्द घूमती हो परन्तु अंत में मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह कहानी हमें बताती है कि एक छोटे बच्चे को दुनिया की साडी खुशियां चाहे पिता दें परन्तु सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ माँ के आंचल में ही मिलती है।

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माता का आँचल पाठ सार (Mata ka Aanchal Summary)

 

शिवपूजन सहाय के बचपन का नाम “तारकेश्वरनाथ” था मगर घर में उन्हें उनके पिता जी “भोलानाथ” कहकर पुकारा करते थे। भोलानाथ भी अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहा करते थे। बचपन में भोलानाथ का ज्यादातर समय अपने मित्रों के साथ मस्ती में व् अपने पिता के सानिध्य में ही गुजरता था। बाबूजी लेखक को अपने साथ ही सुलाते, अपने साथ ही जल्दी सुबह उठाकर स्नान करते और अपने साथ ही भगवान की पूजा अर्चना कराते थे। 

जब लेखक के बाबूजी उनको तिलक लगाने लगते तो लेखक उन्हें बहुत परेशान करते थे परन्तु जब थोड़ा प्यार और डाँट से बाबूजी तिलक लगा देते तो लेखक पुरे बम-भोला लगते थे जिस कारण बाबूजी लेखक को भोलानाथ पुकारते थे। जब भी भोलानाथ के बाबूजी रामायण का पाठ करते , तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती तो , वो थोड़ा शर्माकर और  मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके बाबूजी भी मुस्कुरा उठते थे।

पूजा अर्चना करने के बाद भोलानाथ के बाबूजी एक मोती कॉपी पर हज़ार बार राम-नाम लिखते थे। फिर पाँच-सौ बार छोटे-छोटे कागजों पर राम नाम लिख कागज उन पर्चियों में छोटी -छोटी आटे की गोलियां रखकर गंगा जी में मछलियों को खिलाने जाते थे। लेखक भी अपने बाबूजी के कंधे में बैठकर गंगा जी के पास जाते और फिर उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।

उसके बाद वो अपने बाबूजी के रास्ते में खूब सारी मस्ती कर साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की माँ जिद्द करके उन्हें अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार करती , तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती। उस वक्त भोलानाथ बहुत छोटे थे। इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। इस पर बाबूजी भोलानाथ की माँ से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की माँ उनके बालों को अच्छे से बना कर , उनकी गुँत बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और साथ में भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना देती थी जिससे लेखक  “कन्हैया” जैसे दिखाई देते थे।

भोलानाथ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ तरह-तरह के नाटक करते थे। कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन जाता तो, कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती।और उसी रंगमंच पर सरकंडे के खंभों पर कागज की चादर बनाकर उनमें मिट्टी या अन्य चीजों से बनी मिठाइयों की दुकान लग जाती जिसमें लड्डू , बताशे , जलेबियां आदि सजा दिये जाते थे। और फिर जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने पैसों से बच्चे आपस में भी खरीदार और दुकानदार बन कर उन मिठाइयों को खरीदने व् बेचने का नाटक करते थे। भोलानाथ के बाबूजी भी कभी-कभी वहां से असली के पैसों से खरीदारी कर लेते थे।

ऐसे ही नाटक में कभी घरोंदा बना दिया जाता था जिसमें घर के सामान सजा कर रख दिए जाते थे। तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर देख लेते तो , सब बच्चे शर्माकर हंसते हुए वहां से भाग जाते थे। बाबूजी भी बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। 

आम की फसल ले दौरान आँधी चलने से बहुत से आम गिर जाते थे। बच्चे उन आमों को उठाने भागा करते थे। एक दिन सारे बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से आंधी आई। बादलों से पूरा आकाश ढक गया और देखते ही देखते खूब जम कर बारिश होने लगी। काफी देर बाद बारिश बंद हुई तो बाग के आसपास बिच्छू निकल आए जिन्हें देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे। संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से भगा दिया और सीधे उनकी शिकायत करने पाठशाला चले गए।  पाठशाला में लेखक और लेखक के साथियों की शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़ लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को भी जमकर मार पड़ी। जब बाबूजी को इस बात की  खबर पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला आए। जैसे ही भोलानाथ ने अपने बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का कंधा अपने आंसुओं से भिगा दिया। गुरूजी की विनती कर बाबूजी भोलानाथ को घर ले आये।

भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे लेकिन जैसे ही रास्ते में उन्होंने अपनी  मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल होने की जिद्द करने लगे। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की कोशिश कर रही थी। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी। पर उन्होंने एक चूहे के बिल में पानी डालना शुरू कर दिया। उस बिल से चूहा तो नहीं निकला लेकिन सांप जरूर निकल आया। सांप को देखते ही सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे और गिरते-पड़ते जैसे-तैसे घर पहुंचे। लहूलुहान शरीर लिए जैसे ही घर में घुसे सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। उन्होंने भोलानाथ को आवाज लगाई परन्तु आज भोलानाथ सीधे अंदर अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए। भोलानाथ को ऐसा डरा हुआ देखकर माँ का भी रोना निकल गया। उन्होंने भोलानाथ के जख्मों की पट्टी की और उससे उसके डर का कारण पूछने लगी। बाबूजी ने भोलानाथ को अपनी गोद में लेना चाहा लेखिन डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता के मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी माँ का आंचल ज्यादा सुरक्षित व  महफूज लगने लगा। 

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माता का आँचल पाठ व्याख्या – (Mata ka Aanchal Lesson Explanation)

पाठ –
जहाँ लड़कों का संग , तहाँ बाजे मृदंग
जहाँ बुड्ढों तहाँ खरचे का तंग
हमारे पिता तड़के उठकर , निबट – नहाकर पूजा करने बैठ जाते थे। हम बचपन से ही उनके अंग लग गए थे। माता से केवल दूध् पीने तक का नाता था। इसलिए पिता के साथ ही हम भी बाहर की बैठक में ही सोया करते। वह अपने साथ ही हमें भी उठाते और साथ ही नहला – धुलाकर पूजा पर बिठा लेते। हम भभूत का तिलक लगा देने के लिए उनको दिक करने लगते थे। कुछ हँसकर , कुछ झुँझलाकर और कुछ डाँटकर वह हमारे चौड़े लिलार में त्रिपुंड कर देते थे। हमारे लिलार में भभूत खूब खुलती थी। सिर में लंबी – लंबी जटाएँ थीं। भभूत रमाने से हम खासे ‘ बम – भोला ’ बन जाते थे।

शब्दार्थ –
संग – साथ , मिलन , मिलने की क्रिया
मृदंग – एक तरह का वाद्य यंत्र
बुड्ढों – वृद्ध , बुजुर्ग का संग , अधिक उम्र का
तंग – जिसमें उचित व आवश्यक विस्तार का अभाव हो
तड़के – सुबह के समय , सवेरे – सवेरे , भोर मे
निबट – समाधान , समायोजन , निर्णय
बैठक – सभा , बैठने का कमरा , चौपाल , उठने और बैठने की कसरत
भभूत – वह भस्म जिसको शिव भक्त शरीर पर लगाते हैं , यज्ञ कुंड या धूनी की भस्म
दिक – जिसे कष्ट पहुँचा हो , परेशान , हैरान , पीड़ित , तंग आया हुआ , अस्वस्थ , बीमार
झुँझलाकर – क्रुद्ध या व्यथित होकर कोई बात कहना , खीजना , चिड़चिड़ाना , चिढ़ना , बिगड़ना
लिलार – ललाट , माथा , मस्तक ,भाल
त्रिपुंड – एक प्रकार का तिलक जिसमें ललाट पर तीन आड़ी या अर्धचंद्राकार रेखाएँ बनाई जाती है
जटाएँ – सिर के बहुत लंबे , उलझे , आपस में चिपके या गुथे हुए बाल
रमाने – लगाना

व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जहाँ लड़कों का साथ या मिलन होता है वहाँ ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई मृदंग नामक वाद्य यंत्र बज रहा हो और जहाँ कहीं बुजुर्ग का संग हो वहां खरचे का अभाव हो जाता है। लेखक अपने पिता के बारे में बताते हैं कि उनके पिता सुबह के समय जल्दी उठकर, सुबह का अपना नित्य कर्म कर – नहाकर पूजा करने बैठ जाते थे। लेखक बचपन से ही अपने पिता के साथ ही रहते थे। माता से केवल उनका नाता दूध् पीने तक का ही था। इसलिए लेखक पिता के साथ ही घर के बाहर बैठने के कमरे में ही सोया करते थे। लेखक के पिता जब सुबह स्वयं उठते तो लेखक को भी अपने साथ ही उठाते और साथ ही नहला – धुलाकर पूजा करने बिठा लेते। लेखक यज्ञ कुंड या धूनी की भस्म का तिलक लगा देने के लिए पिता जी को परेशानकरने लगते थे। तब पिता जी लेखक को कुछ हँसकर , कुछ क्रुद्ध और कुछ डाँटकर लेखक के चौड़े मस्तक में तीन आड़ी या अर्धचंद्राकार रेखाएँ बनाकर तिलक कर देते थे। लेखक बताते हैं कि उनके मस्तक पर वह तिलक खूब अच्छा लगता था। लेखक छोटे थे इसलिए उनके सिर में लंबी – लंबी जटाएँ थीं। तिलक लगाने से लेखक अच्छे खासे ‘ बम – भोला ’ बन जाते थे।

पाठ –
पिता जी हमें बड़े प्यार से ‘ भोलानाथ ’ कहकर पुकारा करते। पर असल में हमारा नाम था ‘ तारकेश्वरनाथ ’। हम भी उनको ‘ बाबू जी ’ कहकर पुकारा करते और माता को ‘ मइयाँ ’।
जब बाबू जी रामायण का पाठ करते तब हम उनकी बगल में बैठे – बैठे आइने में अपना मुँह निहारा करते थे। जब वह हमारी ओर देखते तब हम कुछ लजाकर और मुसकराकर आइना नीचे रख देते थे। वह भी मुसकरा पड़ते थे।
पूजा – पाठ कर चुकने के बाद वह राम – राम लिखने लगते। अपनी एक ‘ रामनामा बही ’ पर हज़ार राम – नाम लिखकर वह उसे पाठ करने की पोथी के साथ बाँधकर रख देते। फिर पाँच सौ बार कागज़ के छोटे – छोटे टुकड़ों पर राम – नाम लिखकर आटे की गोलियों में लपेटते और उन गोलियों को लेकर गंगा जी की ओर चल पड़ते थे।
उस समय भी हम उनके कंधे पर विराजमान रहते थे। जब वह गंगा में एक – एक आटे की गोलियाँ फेंककर मछलियों को खिलाने लगते तब भी हम उनके कंधे पर ही बैठे – बैठे हँसा करते थे। जब वह मछलियों को चारा देकर घर की ओर लौटने लगते तब बीच रास्ते में झुके हुए पेड़ों की डालों पर हमें बिठाकर झूला झुलाते थे।

शब्दार्थ –
निहारा – देखा
लजाकर – शर्माकर
रामनामा बही – सिली हुई मोटी कॉपी जो हिसाब लिखने के काम आती है
पोथी – बड़ी पुस्तक , कागज़ों की गड्डी
विराजमान – बैठा हुआ , आसीन , विराजित

व्याख्या – लेखक बताते हैं कि तिलक लगाने से वे बम-भोला लगते थे इसी कारण उनके पिता जी उन्हें बड़े प्यार से ‘ भोलानाथ ’ कहकर पुकारा करते थे। पर असल में लेखक का नाम ‘ तारकेश्वरनाथ ’ था। लेखक भी पिता जी को ‘ बाबू जी ’ कहकर पुकारा करते थे और अपनी माता को ‘ मइयाँ ’। लेखक बताते हैं कि जब उनके बाबू जी रामायण का पाठ करते थे तब लेखक उनकी बगल में बैठे – बैठे आइने में अपना मुँह देखा करते थे। जब वे लेखक को ऐसा करते हुए देखते तब लेखक कुछ शर्माकर और मुसकराकर आइना नीचे रख देते थे। बाबूजी भी लेखक की इस हरकत पर मुसकरा पड़ते थे। लेखक अपने पिता के बारे में बताते हैं कि पूजा-पाठ करने के बाद बाबूजी राम-राम लिखने लगते थे। वे अपनी एक ‘ रामनामा बही ’ जो सिली हुई मोटी कॉपी जो हिसाब लिखने के काम आती है, उस पर हज़ार बार राम – नाम लिखकर, उसे पाठ करने की बड़ी पुस्तक के साथ बाँधकर रख देते थे। फिर पाँच सौ बार कागज़ के छोटे – छोटे टुकड़ों पर राम – नाम लिखकर आटे की गोलियों में लपेटते और उन गोलियों को लेकर गंगा जी की ओर चल पड़ते थे। लेखक बाटते हैं कि उस समय वे भी बाबूजी के कंधे पर बैठे रहते थे। जब वह गंगा में एक – एक आटे की गोलियाँ फेंककर मछलियों को खिलाने लगते तब भी लेखक उनके कंधे पर ही बैठे – बैठे हँसा करते थे। जब वह मछलियों को खाना खिलाकर घर की ओर लौटने लगते तब बीच रास्ते में झुके हुए पेड़ों की डालों पर लेखक को बिठाकर झूला झुलाते थे।

पाठ –
कभी – कभी बाबू जी हमसे कुश्ती भी लड़ते। वह शिथिल होकर हमारे बल को बढ़ावा देते और हम उनको पछाड़ देते थे।
यह उतान पड़ जाते और हम उनकी छाती पर चढ़ जाते थे। जब हम उनकी लंबी – लंबी मूँछें उखाड़ने लगते तब वह हँसते – हँसते हमारे हाथों को मूँछों से छुड़ाकर उन्हें चूम लेते थे। फिर जब हमसे खट्टा और मीठा चुम्मा माँगते तब हम बारी – बारी कर अपना बायाँ और दाहिना गाल उनके मुँह की ओर फेर देते थे। बाएँ का खट्टा चुम्मा लेकर जब वह दाहिने का मीठा चुम्मा लेने लगते तब अपनी दाढ़ी या मूँछ हमारे कोमल गालों पर गड़ा देते थे। हम झुँझलाकर फिर उनकी मूँछें नोचने लग जाते थे। इस पर वह बनावटी रोना रोने लगते और हम अलग खड़े – खड़े खिल – खिलाकर हँसने लग जाते थे।
उनके साथ हँसते – हँसते जब हम घर आते तब उनके साथ ही हम भी चौके पर खाने बैठते थे। वह हमें अपने ही हाथ से , फूल के एक कटोरे में गोरस और भात सानकर खिलाते थे। जब हम खाकर अफर जाते तब मइयाँ थोड़ा और खिलाने के लिए हठ करती थी। वह बाबू जी से कहने लगती – आप तो चार – चार दाने के कौर बच्चे के मुँह में देते जाते हैं ; इससे वह थोड़ा खाने पर भी समझ लेता है कि हम बहुत खा गए ; आप खिलाने का ढंग नहीं जानते – बच्चे को भर – मुँह कौर खिलाना चाहिए।
जब खाएगा बड़े – बड़े कौर , तब पाएगा दुनिया में ठौर।

शब्दार्थ –
शिथिल – जो अच्छी तरह बँधा , कसा या जकड़ा हुआ न हो , ढीला , कमज़ोर , निर्बल , थका हुआ , सुस्त , धीमा , जिसमें तेज़ी या फुरती न हो , असावधान
पछाड़ – कुश्ती का एक दाँव , किसी शोक के कारण बेसुध होकर ज़मीन पर गिर पड़ना , मूर्छित होना
उतान – पीठ के बल लेटना
बायाँ – उल्टा
दाहिना – सीधा
बनावटी – जिसमें तथ्य एवं वास्तविकता न हो , ऊपरी , बाहरी , दिखाऊ , नकली , कृत्रिम
चौके – पत्थर का चौकोर टुकड़ा , चौकोर ज़मीन , चौकोर कटा हुआ कोई ठोस या भारी टुकड़ा , वह स्थान जहाँ भोजन तैयार किया जाता है
सानकर – मिलाना , लपेटना , गूँधना
अफर – भर पेट से अधिक खा लेना
हठ – किसी बात के लिए अड़ना , ज़िद , किसी बात पर अड़े रहने की प्रवृत्ति
कौर – रोटी का एक टुकड़ा , ग्रास , निवाला
ठौर – स्थान , अवसर

व्याख्या – लेखक बताते हैं कि कभी – कभी बाबू जी उनके साथ कुश्ती भी लड़ते थे। बाबूजी जानबूझकर थका जाते ताकि लेखक के बल को बढ़ावा मिले और लेखक भी बाबू जी को कुश्ती के एक दाँव की तरह ज़मीन पर गिरा देते थे। बाबू जी पीठ के बल लेट जाते और लेखक उनकी छाती पर चढ़ जाते थे। जब लेखक उनकी लंबी – लंबी मूँछें उखाड़ने लगते तब बाबू जी हँसते – हँसते लेखक के हाथों को मूँछों से छुड़ाकर उन्हें चूम लेते थे। फिर जब बाबू जी लेखक से खट्टा और मीठा चुम्मा माँगते तब लेखक भी बारी – बारी कर अपना बायाँ और दाहिना गाल उनके मुँह की ओर फेर देते थे। बाएँ का खट्टा चुम्मा लेकर जैसे ही दाहिने का मीठा चुम्मा लेने लगते तब बाबू जी अपनी दाढ़ी या मूँछ लेखक के कोमल गालों पर गड़ा देते थे। लेखक झुँझलाकर फिर उनकी मूँछें नोचने लग जाते थे। इस पर बाबू जी नकली व् कृत्रिम रोना रोने लगते और लेखक अलग खड़े – खड़े खिल – खिलाकर हँसने लग जाते थे। इसी तरह हँसी-मज़ाक करते हुए जब दोनों घर आते तब बाबू जी के साथ ही लेखक भी चौके पर खाने बैठते थे। बाबूजी लेखक को अपने ही हाथ से , फूल के एक कटोरे में गोरस और भात मिलाकर खिलाते थे। जब लेखक भर पेट से अधिक खा लेते तब मइयाँ थोड़ा और खिलाने के लिए ज़िद करती थी। वह बाबू जी से कहने लगती – आप तो चार – चार दाने के निवाले बच्चे के मुँह में देते जाते हैं, इससे वह थोड़ा खाने पर भी समझ लेता है कि बहुत खा चुके,आप खिलाने का ढंग नहीं जानते – बच्चे को भर – मुँह कौर खिलाना चाहिए। और कहती – जब खाएगा बड़े – बड़े कौर , तब पाएगा दुनिया में ठौर अर्थात स्थान व् अवसर।

पाठ –
देखिए , मैं खिलाती हूँं। मरदुए क्या जाने कि बच्चों को कैसे खिलाना चाहिए , और महतारी के हाथ से खाने पर बच्चों का पेट भी भरता है। यह कह वह थाली में दही – भात सानती और अलग – अलग तोता , मैना , कबूतर , हंस , मोर आदि के बनावटी नाम से कौर बनाकर यह कहते हुए खिलाती जाती कि जल्दी खा लो , नहीं तो उड़ जाएँगे ; पर हम उन्हें इतनी जल्दी उड़ा जाते थे कि उड़ने का मौका ही नहीं मिलता था।
जब हम सब बनावटी चिड़ियों को चट कर जाते थे तब बाबू जी कहने लगते – अच्छा , अब तुम ‘ राजा ’ हो , जाओ खेलो।
बस , हम उठकर उछलने – कूदने लगते थे। फिर रस्सी में बँधा हुआ काठ का घोड़ा लेकर नंग – धड़ंग बाहर गली में निकल जाते थे।
जब कभी मइयाँ हमें अचानक पकड़ पाती तब हमारे लाख छटपटाने पर भी एक चुल्लू कड़वा तेल हमारे सिर पर डाल ही देती थी। हम रोने लगते और बाबू जी उस पर बिगड़ खड़े होते ; पर वह हमारे सिर में तेल बोथकर हमें उबटकर ही छोड़ती थी। फिर हमारी नाभी और लिलार में काजल की बिंदी लगाकर चोटी गूँथती और उसमें फूलदार लट्टू बाँधकर रंगीन कुरता – टोपी पहना देती थी। हम खासे ‘ कन्हैया ’ बनकर बाबू जी की गोद में सिसकते – सिसकते बाहर आते थे।

शब्दार्थ –
मरदुए – नर , पुरुष
महतारी – माता
काठ – वृक्ष का कोई स्थूल अंग जो कटकर सूख गया हो , लकड़ी , काष्ठ , जलाने की लकड़ी , ईंधन , लकड़ी की बेड़ी , कलंदरा
चुल्लू कड़वा तेल – सरसों का तेल
बोथकर – सराबोर कर लेना
उबटकर – बुरा , विकट
गूँथती – बनाना

व्याख्या – लेखक की माता लेखक के पिता से कहती हैं कि पुरुष क्या जाने कि बच्चों को कैसे खाना खिलाना चाहिए , और माता के हाथ से खाने पर बच्चों का पेट भी भरता है। यह कह वह थाली में दही – भात मिलाकर और अलग – अलग तोता , मैना , कबूतर , हंस , मोर आदि के बनावटी नाम से निवाला बनाकर यह कहते हुए खिलाती जाती कि जल्दी खा लो , नहीं तो उड़ जाएँगे , पर लेखक भी उन्हें इतनी जल्दी उड़ा जाते थे कि उड़ने का मौका ही नहीं मिलता था। अर्थात लेखक भी अपनी माता के कहे अनुसार जल्दी-जल्दी सारा खाना खा लेते थे। जब लेखक माँ के द्वारा बनाई गई सब बनावटी चिड़ियों को चट कर जाते थे तब बाबू जी कहते – अच्छा , अब तुम ‘ राजा ’ हो , जाओ खेलो। इतना सुनते ही लेखक उठकर उछलने – कूदने लगते थे। फिर रस्सी में बँधा हुआ काठ अर्थात वृक्ष का कोई स्थूल अंग जो कटकर सूख गया हो, उसका घोड़ा लेकर नंग – धड़ंग बाहर गली में निकल जाते थे। केखक कहते हैं कि कभी कबार मइयाँ अचानक उन्हें पकड़ लेती थी और तब लेखगक के लाख छटपटाने पर भी सरसों का तेल लेखक के सिर पर डाल ही देती थी। इससे लेखक रोने लगते और बाबू जी इस बात को लेकर मइया से झगड़ पड़ते थे कि वह लेखक के सिर में तेल सराबोर कर उन्हें बुरा बनाकर ही छोड़ती थी। फिर लेखक की मैईया उनकी नाभी और माथे में काजल की बिंदी लगाकर लेखक के बालों की चोटी बनाकर और उसमें फूलदार लट्टू बाँधकर रंगीन कुरता – टोपी पहना देती थी। इससे लेखक अच्छे-खासे ‘ कन्हैया ’ बनकर बाबू जी की गोद में सिसकते – सिसकते बाहर आते थे।

पाठ –
बाहर आते ही हमारी बाट जोहनेवाला बालकों का एक झुंड मिल जाता था। हम उन खेल के साथियों को देखते ही, सिसकना भूलकर, बाबू जी की गोद से उतर पड़ते और अपने हमजोलियों के दल में मिलकर तमाशे करने लग जाते थे।
तमाशे भी ऐसे-वैसे नहीं, तरह-तरह के नाटक! चबूतरे का एक कोना ही नाटक-घर बनता था। बाबू जी जिस छोटी चौकी पर बैठकर नहाते थे, वही रंगमंच बनती। उसी पर सरकंडे के खंभों पर कागज़ का चँदोआ तानकर, मिठाइयों की दुकान लगाई जाती। उसमें चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पत्तों की पूरी-कचौरियाँ, गीली मिट्टी की जलेबियाँ, फूटे घड़े के टुकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जातीं। ठीकरों के बटखरे और जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के पैसे बनते। हमीं लोग खरीदार और हमीं लोग दुकानदार। बाबू जी भी दो-चार गोरखपुरिए पैसे खरीद लेते थे।
थोड़ी देर में मिठाई की दुकान बढ़ाकर हम लोग घरौंदा बनाते थे। धूल की मेड़ दीवार बनती और तिनकों का छप्पर। दातून के खंभे, दियासलाई की पेटियों के किवाड़ , घड़े के मुँहड़े की चूल्हा-चक्की, दीए की कड़ाही और बाबू जी की पूजा वाली आचमनी कलछी बनती थी। पानी के घी, धूल के पिसान और बालू की चीनी से हम लोग ज्योनार तैयार करते थे। हमीं लोग ज्योनार करते और हमीं लोगों की ज्योनार बैठती थी। जब पंगत बैठ जाती थी तब बाबू जी भी धीरे-से आकर, पाँत के अंत में, जीमने के लिए बैठ जाते थे। उनको बैठते देखते ही हम लोग हँसकर और घरौंदा बिगाड़कर भाग चलते थे। वह भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते और कहने लगते-फिर कब भोज होगा भोलानाथ?

शब्दार्थ –
बाट – रास्ता
जोहनेवाला – देखने वाला
हमजोलियों – जो प्रायः साथ रहते हों, साथी, सखा
तमाशे – कर्तब
सरकंडे – एक पौधा जिसके तने में गाँठें होती हैं
चँदोआ – छोटा शामियाना
ठीकरों – मिट्टी के टूटे-फूटे बरतन का टुकड़ा
बटखरे – तौलने के लिए कुछ निश्चित मान या तौल का पत्थर आदि का टुकड़ा ; बाट
जस्ते – एक नरम धातु जो मटमैले रंग की होती है
किवाड़ – दरवाजे
मुँहड़े – ऊपरी हिस्सा
कड़ाही – लोहे, पीतल आदि धातु का छोटे आकार का कड़ाहा
आचमनी – आचमन करने का एक छोटा चम्मच
ज्योनार – भोज, दावत
पंगत – पाँत, पंक्ति, कता
पाँत – पंक्ति
जीमने – भोजन करना

व्याख्या – जब लेखक बाहर आता तो बहार आते ही हमारी लेखक का रास्ता देखने वाले बालकों का एक झुंड मिल जाता था। और लेखक उन खेल के साथियों को देखते ही,अपना सिसकना भूलकर, बाबू जी की गोद से उतर पड़ते और अपने साथ खेलने वाले साथियों के दल में मिलकर कर्तब करने लग जाते थे। अर्थात अपने खेल खेलने में मस्त हो जाते थे। अपने द्वारा किए जाने वाले करतबों का वर्णन करते हुए लेखक कहते हैं कि वे कोई आम खेल नहीं खेलते थे। वे तो तरह-तरह के नाटक करते थे। चबूतरे का एक कोना ही नाटक-घर बनता था। लेखक के बाबू जी जिस छोटी चौकी पर बैठकर नहाते थे, वही लेखक और उनके साथियों की रंगमंच बनती। उसी पर सरकंडे के खंभों पर कागज़ का छोटा शामियाना तानकर, मिठाइयों की दुकान लगाई जाती थी। उसमें चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पत्तों की पूरी-कचौरियाँ, गीली मिट्टी की जलेबियाँ, फूटे घड़े के टुकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जातीं। मिट्टी के टूटे-फूटे बरतन का टुकड़ा उनको तौलने के लिए और कुछ निश्चित मान या तौल का पत्थर उन मिठाइयों को तौलने के लिए और जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के पैसे बनते थे। लेखक और उनके साथी ही खरीदार होते और वे लोग ही दुकानदार भी बनते थे। लेखक के बाबू जी भी बच्चों के इस खेल में शामिल हो जाते। थोड़ी देर में जब लेखक और उनके साथी मिठाई की दुकानों से खेल कर थक जाते तो वे लोग घरौंदा बनाते थे। धूल की मेड़ दीवार बनती और तिनकों का छप्पर। दातून के खंभे, दियासलाई की पेटियों के दरवाजे , घड़े का ऊपरी हिस्सा चूल्हा-चक्की, दीए से छोटे आकार का कड़ाहा और बाबू जी की पूजा वाली आचमन करने का एक छोटा चम्मच, कलछी बनती थी। पानी के घी, धूल के पिसान और बालू की चीनी से लेखक और उनके साथी भोज, दावत तैयार करते थे। लेखक और उनके साथी ही भोज बनाते और लेखक और उनके साथी ही भोज खाते। जब भोजन करने के लिए पंक्ति बैठ जाती थी तब बाबू जी भी धीरे-से आकर, पंक्ति के अंत में, भोजन करने के लिए बैठ जाते थे। उनको बैठते देखते ही लेखक और उनके साथी हँसकर और घरौंदा बिगाड़कर भाग चलते थे। बाबूजी भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते और कहने लगते-फिर कब भोज होगा भोलानाथ?

पाठ –
कभी-कभी हम लोग बरात का भी जुलूस निकालते थे। कनस्तर (टीन का बना हुआ चौकोर आकार का एक पात्र जिसमें घी, तेल, आटा आदि रखा जाता है; पीपा) का तंबूरा (सितार की तरह का तीन तारों वाला एक बाजा जो स्वर में संगति देने के लिए बजाया जाता है; तानपूरा) बजता, अमोले (आम का उगता हुआ पौधा) को घिसकर शहनाई बजायी जाती, टूटी चूहेदानी की पालकी बनती, हम समधी बनकर बकरे पर चढ़ लेते और चबूतरे के एक कोने से चलकर बरात दूसरे कोने में जाकर दरवाजे लगती थी। वहाँ काठ की पटरियों से घिरे, गोबर से लिपे, आम और केले की टहनियों से सजाए हुए छोटे आँगन में कुल्हिए (छोटा पुरवा, छोटा कुल्हड़ ) का कलसा ( पानी रखने का बड़ा घड़ा; जो मिट्टी या धातु का बना होता है ) रखा रहता था। वहीं पहुँचकर बरात फिर लौट आती थी। लौटने के समय, खटोली (छोटी चारपाई या खाट) पर लाल ओहार (परदे के लिए डाला हुआ कपड़ा) डालकर, उसमें दुलहिन को चढ़ा लिया जाता था। लौट आने पर बाबू जी ज्यों ही ओहार उघारकर (ढकने या रोकने वाली वस्तु हटाना) दुलहिन का मुख निरखने लगते, त्यों ही हम लोग हँसकर भाग जाते।
थोड़ी देर बाद फिर लड़कों की मंडली जुट जाती थी। इकट्ठा होते ही राय जमती कि खेती की जाए। बस, चबूतरे के छोर पर घिरनी (चरखी; गराड़ी, चक्कर; फेरा, लट्टू नामक खिलौना) गड़ जाती और उसके नीचे की गली कुआँ बन जाती थी। मूँज की बटी हुई पतली रस्सी में एक चुक्कड़ (कुल्हड़; पुरवा; मिट्टी का पकाया गया छोटा बरतन जिसमें चाय, पानी आदि पिया जाता है) बाँध् गराड़ी पर चढ़ाकर लटका दिया जाता और दो लड़के बैल बनकर ‘मोट’ खींचने लग जाते। चबूतरा खेत बनता, कंकड़ बीज और ठेंगा (अँगूठा) हल-जुआठा (गाय, बैल, भैंस आदि के मुँह पर बाँधी जाने वाली जाली)। बड़ी मेहनत से खेत जोते-बोए और पटाए जाते। फसल तैयार होते देर न लगती और हम हाथोंहाथ फसल काट लेते थे। काटते समय गाते थे-
ऊंच नीच में बई कियारी, जो उपजी सो भई हमारी।
फसल को एक जगह रखकर उसे पैरों से रौंद डालते थे। कसोरे (मिट्टी से बना छिछला कटोरा) का सूप बनाकर ओसाते और मिट्टी की दीए के तराजू पर तौलकर राशि तैयार कर देते थे। इसी बीच बाबू जी आकर पूछ बैठते थे – इस साल की खेती कैसी रही भोलानाथ?

शब्दार्थ –
कनस्तर – टीन का बना हुआ चौकोर आकार का एक पात्र जिसमें घी, तेल, आटा आदि रखा जाता है, पीपा
तंबूरा – सितार की तरह का तीन तारों वाला एक बाजा जो स्वर में संगति देने के लिए बजाया जाता है, तानपूरा
अमोले – आम का उगता हुआ पौधा
कुल्हिए – छोटा पुरवा, छोटा कुल्हड़
कलसा – पानी रखने का बड़ा घड़ा, जो मिट्टी या धातु का बना होता है
खटोली – छोटी चारपाई या खाट
ओहार – परदे के लिए डाला हुआ कपड़ा
उघारकर – ढकने या रोकने वाली वस्तु हटाना
घिरनी – चरखी, गराड़ी, चक्कर, फेरा, लट्टू नामक खिलौना
चुक्कड़ – कुल्हड़, पुरवा, मिट्टी का पकाया गया छोटा बरतन जिसमें चाय, पानी आदि पिया जाता है
ठेंगा – अँगूठा
जुआठा – गाय, बैल, भैंस आदि के मुँह पर बाँधी जाने वाली जाली
कसोरे – मिट्टी से बना छिछला कटोरा

व्याख्या – लेखक और उनके साथी कभी-कभी बरात का भी जुलूस निकालते थे। टीन का बना हुआ चौकोर आकार का एक पात्र जिसमें घी, तेल, आटा आदि रखा जाता है, उसका तानपूरा बजता, आम के उगते हुए पौधे को घिसकर शहनाई बजायी जाती, टूटी चूहेदानी की पालकी बनती, लेखक और उनके साथी समधी बनकर बकरे पर चढ़ लेते और चबूतरे के एक कोने से चलकर बरात दूसरे कोने में जाकर दरवाजे लगती थी। वहाँ काठ की पटरियों से घिरे, गोबर से लिपे, आम और केले की टहनियों से सजाए हुए छोटे आँगन में छोटा कुल्हड़ का पानी रखने का बड़ा घड़ा रखा रहता था। वहीं पहुँचकर बरात फिर लौट आती थी। लौटने के समय, छोटी चारपाई पर लाल परदे के लिए डाला हुआ कपड़ा डालकर, उसमें दुलहिन को चढ़ा लिया जाता था। लौट आने पर बाबू जी ज्यों ही परदे के लिए डाले हुए कपड़े को हटाकर दुलहिन का मुख निरखने लगते, त्यों ही लेखक और उनके साथी हँसकर भाग जाते। थोड़ी देर बाद फिर लड़कों की मंडली जुट जाती थी। इकट्ठा होते ही अब खेती का कल खेलनी की बात की जाती। बस, चबूतरे के छोर पर चरखी गड़ जाती और उसके नीचे की गली कुआँ बन जाती थी। मूँज की बटी हुई पतली रस्सी में एक मिट्टी का पकाया गया छोटा बरतन जिसमें चाय, पानी आदि पिया जाता है, बाँध् कर गराड़ी पर चढ़ाकर लटका दिया जाता और दो लड़के बैल बनकर ‘मोट’ खींचने लग जाते। चबूतरा खेत बनता, कंकड़ बीज और अँगूठा हल। बड़ी ही मेहनत से खेत जोते जाते और बीज बोए जाते और पटाए जाते। फसल तैयार होते देर न लगती और लेखक और उनके साथी हाथोंहाथ फसल काट भी लेते थे। काटते समय अक्सर गाँव में गाय जाने वाला गीत गाते थे-
ऊंच नीच में बई कियारी, जो उपजी सो भई हमारी।
लेखक और उनके साथी अपने बड़ों की नकल करते हुए फसल को एक जगह रखकर उसे पैरों से रौंद डालते थे। मिट्टी से बना छिछला कटोरे का सूप बनाकर ओसाते और मिट्टी की दीए के तराजू पर तौलकर राशि तैयार कर देते थे। इसी बीच बाबू जी आकर पूछ बैठते थे – इस साल की खेती कैसी रही भोलानाथ?

पाठ –
बस, फिर क्या, हम लोग ज्यों-का-त्यों खेत-खलिहान छोड़कर हँसते हुए भाग जाते थे। कैसी मौज की खेती थी।
ऐसे-ऐसे नाटक हम लोग बराबर खेला करते थे। बटोही भी कुछ देर ठिठककर हम लोगों के तमाशे देख लेते थे।
जब कभी हम लोग ददरी के मेले में जाने वाले आदमियों का झुंड देख पाते तब कूद-कूदकर चिल्लाने लगते थे –
चलो भाइयो ददरी, सतू पिसान की मोटरी।
अगर किसी दूल्हे के आगे-आगे जाती हुई ओहारदार पालकी देख पाते, तब खूब जोर से चिल्लाने लगते थे –
रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी।
इसी पर एक बार बूढ़े वर ने हम लोगों को बड़ी दूर तक खदेड़कर ढेलों से मारा था।
उस खसूट-खब्बीस की सूरत आज तक हमें याद है। न जाने किस ससुर ने वैसा जमाई ढूँढ़ निकाला था। वैसा घोड़ मुँहा आदमी हमने कभी नहीं देखा।
आम की फसल में कभी-कभी खूब आँधी आती है। आँधी के कुछ दूर निकल जाने पर हम लोग बाग की ओर दौड़ पड़ते थे। वहाँ चुन-चुनकर घुले-घुले ‘गोपी’ आम चाबते थे।
एक दिन की बात है, आँधी आई और पट पड़ गयी। आकाश काले बादलों से ढक गया। मेघ गरजने लगे। बिजली कौंध्ने और ठंडी हवा सनसनाने लगी। पेड़ झूमने और ज़मीन चूमने लगे। हम लोग चिल्ला उठे-
एक पइसा की लाई, बाजार में छितराई, बरखा उध्रे बिलाई।
लेकिन बरखा न रुकी! और भी मूसलाधर पानी होने लगा। हम लोग पेड़ों की जड़ से धड़ से सट गए, जैसे कुत्ते के कान में अँठई चिपक जाती है। मगर बरखा जमी नहीं, थम गई।
बरखा बंद होते ही बाग में बहुत-से बिच्छू नज़र आए। हम लोग डरकर भाग चले।
हम लोगों में बैजू बड़ा ढीठ था। संयोग की बात, बीच में मूसन तिवारी मिल गए। बेचारे बूढ़े आदमी को सूझता कम था। बैजू उनको चिढ़ाकर बोला-
बुढ़वा बेईमान माँगे करैला का चोखा।
हम लोगों ने भी, बैजू के सुर-में-सुर मिलाकर यही चिल्लाना शुरू किया। मूसन तिवारी ने बेतहाशा खदेड़ा। हम लोग तो बस अपने-अपने घर की ओर आँधीहो चले।

शब्दार्थ –
रहरी – अरहर
मेहरी – पत्नी, जोरू
खसूट-खब्बीस – क्रूर-गंदा
बरखा – बारिश
अँठई – छोटे छोटे कीड़े जो प्राय: कुत्तों के बदन में चिपटे रहते है

व्याख्या – लेखक के बाबूजी द्वारा जैसे ही फसल के बारे में पूछा जाते वैसे ही लेखक और उनके साथी ज्यों-का-त्यों खेत-खलिहान छोड़कर हँसते हुए भाग जाते थे। लेखक आज भी उस मौज की खेती को याद करते हैं। इसी तरह के कई नाटक लेखक और उनके साथी हमेशा खेला करते थे। आने जाने वाले लोग भी कुछ देर रूककर लेखक और उनके साथियों के तमाशे देख लेते थे। जब कभी लेखक और उनके साथी ददरी के मेले में जाने वाले आदमियों का झुंड देख पाते तब कूद-कूदकर चिल्लाने लगते थे –
चलो भाइयो ददरी, सतू पिसान की मोटरी।
अगर किसी दूल्हे के आगे-आगे जाती हुई ओहारदार पालकी देख पाते, तब खूब जोर से चिल्लाने लगते थे –
रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी।
ऐसा करते हुए एक बार किसी बूढ़े वर ने लेखक और उनके साथियों को बहुत दूर तक खदेड़कर मिट्टी के ठेलों से मारा था। उस बूढ़े वर की सूरत आज तक लेखक को याद है। उसे देखकर लेखक आज भी सोचते है कि न जाने किस ससुर ने वैसा जमाई ढूँढ़ निकाला था। वैसा घोड़ मुँहा आदमी लेखक ने कभी नहीं देखा था।
लेखक बताते हैं कि आम की फसल में कभी-कभी खूब आँधी आती है। जब आँधी कुछ दूर निकल जाती थी तब लेखक और उनके साथी बाग की ओर दौड़ पड़ते थे। वहाँ चुन-चुनकर घुले-घुले ‘गोपी’ आम चाबते थे। लेखक एक दिन की बात बताते है कि आँधी आई और पट पड़ गयी। आकाश काले बादलों से ढक गया था। मेघ गरजने लगे था। बिजली कौंध्ने और ठंडी हवा सनसनाने लगी थी। पेड़ झूमने और ज़मीन चूमने लगे थे। लेखक और उनके साथी चिल्ला उठे-
एक पइसा की लाई, बाजार में छितराई, बरखा उध्रे बिलाई।
लेकिन बारिश न रुकी! और भी मूसलाधर पानी होने लगा।लेखक और उनके साथी पेड़ों की जड़ से धड़ से सट गए, जैसे कुत्ते के कान में छोटे छोटे कीड़े चिपटे रहते है। थोड़ी देर में बारिश रुक गई। बारिश के बंद होते ही बाग में बहुत-से बिच्छू नज़र आए। लेखक और उनके साथी डरकर भाग चले। लेखक और उनके साथियों में बैजू बड़ा ढीठ था। संयोग की बात, भागते हुए बीच में मूसन तिवारी मिल गए। बेचारे बूढ़े आदमी को सूझता कम था। बैजू उनको चिढ़ाकर बोला-
बुढ़वा बेईमान माँगे करैला का चोखा।
लेखक और उनके साथियों ने भी, बैजू के सुर-में-सुर मिलाकर यही चिल्लाना शुरू किया। मूसन तिवारी ने लेखक और उनके साथियों को खूब दौड़ाया। लेखक और उनके साथी तो बीएस अपने घरों की और भाग चले जैसे आँधी भागती है।

पाठ –
जब हम लोग न मिल सके तब तिवारी जी सीधे पाठशाला में चले गए। वहाँ से हमको और बैजू को पकड़ लाने के लिए चार लड़के ‘गिरफतारी वारंट’ लेकर छूटे। इध्र ज्यों ही हम लोग घर पहुँचे, त्यों ही गुरु जी के सिपाही हम लोगों पर टूट पड़े। बैजू तो नौ-दो ग्यारह हो गया! हम पकडे़ गए। फिर तो गुरु जी ने हमारी खूब खबर ली।
बाबू जी ने यह हाल सुना। वह दौड़े हुए पाठशाला में आए। गोद में उठाकर हमें पुचकारने और फुसलाने लगे। पर हम दुलारने से चुप होनेवाले लड़के नहीं थे। रोते-रोते उनका कंध आँसुओं से तर कर दिया। वह गुरु जी की चिरौरी करके हमें घर ले चले।
रास्ते में फिर हमारे साथी लड़कों का झुंड मिला। वे जोर से नाचते और गाते थे-
माई पकाई गरर-गरर पूआ, हम खाइब पूआ, ना खेलब जुआ।
फिर क्या था, हमारा रोना-धेना भूल गया। हम हठ करके बाबू जी की गोद से उतर पड़े और लड़कों की मंडली में मिलकर लगे वही तान-सुर अलापने। तब तक सब लड़के सामनेवाले मकई के खेत में दौड़ पड़े। उसमें चिड़ियों का झुंड चर रहा था। वे दौड़-दौड़कर उन्हें पकड़ने लगे, पर एक भी हाथ न आई। हम खेत से अलग ही खड़े होकर गा रहे थे-
राम जी की चिरई, राम जी का खेत, खा लो चिरई, भर-भर पेट।
हमसे कुछ दूर बाबू जी और हमारे गाँव के कई आदमी खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और यही कहकर हँसते थे कि ‘चिड़िया की जान जाए, लड़कों का खिलौना’। सचमुच ‘लड़के और बंदर पराई पीर नहीं समझते।’
एक टीले पर जाकर हम लोग चूहों के बिल से पानी उलीचने लगे। नीचे से ऊपर पानी फेंकना था। हम सब थक गए। तब तक गणेश जी के चूहे की रक्षा के लिए शिव जी का साँप निकल आया। रोते-चिल्लाते हम लोग बेतहाशा भाग चले!
कोई औंध गिरा, कोई अंटाचिट। किसी का सिर फूटा, किसी के दाँत टूटे। सभी गिरते-पड़ते भागे। हमारी सारी देह लहूलुहान हो गई। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए।
हम एक सुर से दौड़े हुए आए और घर में घुस गए। उस समय बाबू जी बैठक के ओसारे में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने हमें बहुत पुकारा पर उनकी अनसुनी करके हम दौड़ते हुए मइयाँ के पास ही चले गए। जाकर उसी की गोद में शरण ली।
‘मइयाँ’ चावल अमनिया कर रही थी। हम उसी के आँचल में छिप गए। हमें डर से काँपते देखकर वह जोर से रो पड़ी और सब काम छोड़ बैठी। अधीर होकर हमारे भय का कारण पूछने लगी। कभी हमें अंग भरकर दबाती और कभी हमारे अंगों को अपने आँचल से पोंछकर हमें चूम लेती। बड़े संकट में पड़ गई।
झटपट हल्दी पीसकर हमारे घावों पर थोपी गई। घर में कुहराम मच गया। हम केवल धीमे सुर से फ्साँ…स…साँय् कहते हुए मइयाँ के आँचल में लुके चले जाते थे। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था। रोंगटे खड़े हो गए थे। हम आँखें खोलना चाहते थे! पर वे खुलती न थीं। हमारे काँपते हुए ओंठों को मइयाँ बार-बार निहारकर रोती और बड़े लाड़ से हमें गले लगा लेती थी।
इसी समय बाबू जी दौड़े आए। आकर झट हमें मइयाँ की गोद से अपनी गोद में लेने लगे। पर हमने मइयाँ के आँचल की-प्रेम और शांति के चँदोवे की-छाया न छोड़ी…।

शब्दार्थ –
चिरौरी – दीनतापूर्वक की जाने वाली प्रार्थना, विनती
मकई – मक्की
ओसारे – मकानों में निर्मित बरामदा जो आँगन में या घर के बाहर खुलता हो, दालान
अमनिया – शुद्ध,साफ

व्याख्या – लेखक और उनके साथियों को जब तिवारी जी न ढूँढ सके तो वे सीधे पाठशाला में चले गए। वहाँ से लेखक और उनके साथियों और बैजू को पकड़ लाने के लिए चार लड़के ‘गिरफतारी वारंट’ लेकर छूटे। जैसे ही लेखक और उनके साथी घर पहुँचे, वैसे ही गुरु जी के सिपाही लेखक और उनके साथियों पर टूट पड़े। बैजू तो नौ-दो ग्यारह हो गया! लेकिन बाकि पकडे़ गए। फिर तो गुरु जी ने उनकी खूब खबर ली। लेखक के बाबू जी ने जैसे ही पूरा हाल सुना। वह दौड़े हुए पाठशाला में आए। गोद में उठाकर लेखक को पुचकारने और फुसलाने लगे। पर लेखक दुलारने से चुप होने वाले लड़के नहीं थे। रोते-रोते बाबूजी का कन्धा आँसुओं से गिला कर दिया। बाबूजी गुरु जी की विनती करके लेखक को घर की ओर ले चले। रास्ते में फिर लेखक को उनके साथियों का झुंड मिला। वे जोर से नाचते और गाते थे-
माई पकाई गरर-गरर पूआ, हम खाइब पूआ, ना खेलब जुआ।
फिर क्या था, लेखक उनको देखकर अपना रोना-धेना भूल गया। लेखक भी हठ करके बाबू जी की गोद से उतर पड़े और लड़कों की मंडली में मिलकर उनके साथ गाना गुनगुनाने लगे। तब तक सब लड़के सामने वाले मक्की के खेत में दौड़ पड़े। उसमें चिड़ियों का झुंड दाना चर रहा था। वे दौड़-दौड़कर उन्हें पकड़ने लगे, पर एक भी हाथ न आई। लेखक और उनके साथी खेत से अलग ही खड़े होकर गा रहे थे-
राम जी की चिरई, राम जी का खेत, खा लो चिरई, भर-भर पेट।
हमसे कुछ दूर बाबू जी और हमारे गाँव के कई आदमी खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और यही कहकर हँसते थे कि ‘चिड़िया की जान जाए, लड़कों का खिलौना’। सचमुच ‘लड़के और बंदर पराई पीर नहीं समझते।’
एक टीले पर जाकर लेखक और उनके साथी अब चूहों के बिल से पानी खाली करने लगे। नीचे से ऊपर पानी फेंकना था। लेखक और उनके साथी थक गए। तब तक गणेश जी के चूहे की रक्षा के लिए शिव जी का साँप निकल आया। रोते-चिल्लाते लेखक और उनके साथी बेतहाशा भाग चले!
कोई औंध गिरा, कोई अंटाचिट। किसी का सिर फूटा, किसी के दाँत टूटे। सभी गिरते-पड़ते भागे। लेखक का सारा शरीर लहूलुहान हो गया। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए। लेखक एक सुर से दौड़े हुए आए और घर में घुस गए। उस समय लेखक के बाबू जी बैठक के बरामदे में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने लेखक को बहुत पुकारा पर उनकी अनसुनी करके लेखक दौड़ते हुए मइयाँ के पास ही चले गए। जाकर उसी की गोद में शरण ली। उस समय ‘मइयाँ’ चावल साफ कर रही थी। लेखक उसी के आँचल में छिप गए। लेखक को डर से काँपते देखकर लेखक की माँ भी जोर से रो पड़ी और सब काम छोड़ बैठी। अधीर होकर लेखक से लेखक के भय का कारण पूछने लगी। कभी लेखक के अंग भरकर दबाती और कभी लेखक के अंगों को अपने आँचल से पोंछकर चूम लेती। लेखक को दर्द में देख वह भी दर्द से सहर गई। झटपट हल्दी पीसकर लेखक के घावों पर थोपी गई। घर में कुहराम मच गया। लेखक केवल धीमे सुर से फ्साँ…स…साँय् कहते हुए मइयाँ के आँचल में लुके चले जाते थे। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था। रोंगटे खड़े हो गए थे। लेखक आँखें खोलना चाहते थे! पर वे खुलती न थीं। लेखक के डर से काँपते हुए ओंठों को मइयाँ बार-बार देखकर रोती और बड़े लाड़ से लेखक को गले लगा लेती थी। इसी समय बाबू जी दौड़े आए। बाबूजी आकर झट से लेखक को मइयाँ की गोद से अपनी गोद में लेना चाहते थे। पर लेखक ने मइयाँ के आँचल की-प्रेम और शांति के अनुभव की-छाया न छोड़ी…।

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