CBSE Class 10 Hindi Chapter 11 “Naubatkhane Mein Ibadat”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
नौबतखाने में इबादत – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 11 Naubatkhane Mein Ibadat Summary with detailed explanation of the lesson ‘Naubatkhane Mein Ibadat’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 11 नौबतखाने में इबादत के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 नौबतखाने में इबादत पाठ के बारे में जानते हैं।
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- नौबतखाने में इबादत पाठ प्रवेश
- नौबतखाने में इबादत पाठ सार
- नौबतखाने में इबादत पाठ व्याख्या
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नौबतखाने में इबादत
लेखक परिचय
लेखक – यतींद्र मिश्र
नौबतखाने में इबादत पाठ प्रवेश (Naubatkhane Mein Ibadat – Introduction to the chapter)
” नौबतखाने में इबादत ” प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर मनोरंजक अथवा दिलचस्प शैली में लिखा गया व्यक्ति – चित्र है। अर्थात ” नौबतखाने में इबादत ” में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है। लेखक यतींद्र मिश्र जी ने बिस्मिल्ला खाँ का परिचय तो दिया ही है , साथ ही उनकी रुचियों अर्थात पसंद , उनके मन की भीतरी बुनावट , संगीत के प्रति उनकी साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया गया है कि संगीत एक आराधना है। इसका विधि – विधन है। इसका शास्त्र है , इस शास्त्र से परिचय आवश्यक है , सिर्फ परिचय ही नहीं उसका अभ्यास ज़रूरी है और अभ्यास के लिए गुरु – शिष्य परंपरा ज़रूरी है , पूर्ण तन्मयता ज़रूरी है , धैर्य ज़रूरी है , मंथन ज़रूरी है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस पाठ में संगीत के लिए जरुरी सभी तत्वों का वर्णन किया गया है। संगीत के लिए जिस लगन और धैर्य की आवश्यकता है वह लगन और धैर्य बिस्मिल्ला खाँ में रहा है। तभी 80 वर्ष की उम्र में भी उनकी साधना चलती रही है। यतींद्र मिश्र संगीत की शास्त्रीय परंपरा के गहरे जानकार हैं , इस पाठ में इसकी कई अनुगूँजें हैं जो पाठ को बार – बार पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं। भाषा सहज , प्रवाहमयी तथा प्रसंगों और संदर्भों से भरी हुई है।
नौबतखाने में इबादत पाठ सार (Naubatkhane Mein Ibadat Summary)
लेखक सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि काशी का एक प्रसिद्ध घाट जो मान्यतानुसार पाँच नदियों का संगमस्थान है जिसे पंचगंगा भी कहा जाता है , उसके घाट पर बालाजी मंदिर स्थित है। उस मंदिर ने एक बहुत बड़ा दरवाज़ा या फाटक है। उस दरवाज़े के पास वह स्थान है जहाँ नक्कारे या नगाड़े बजते हैं और उस स्थान से हर समय मंगलध्वनि अर्थात मांगलिक अवसरों या उत्सव आदि में होने वाली ध्वनि या मंगलगीत सुनाई पड़ते रहते हैं। अमीरुद्दीन अभी सिर्फ छः साल का है और उसका बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का है। अमीरुद्दीन भले ही इस उम्र में संगीत के बारे में कुछ नहीं जानते परन्तु उनके मामा आदि संगीत की अच्छी समझ रखते हैं। वे बहुत ही अच्छी शहनाई बजाते हैं और देश भर में प्रसिद्ध हैं। उनकी आजीविका के लिए बाला जी मंदिर उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। हर दिन की शुरुआत उसी मंदिर की दहलीज़ पर होती है। अमीरुद्दीन के अब्बाजान अर्थात पिता भी यहीं मंदिर के दरवाज़े पर शहनाई बजाते रहते हैं।अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के एक गाँव डुमराँव में हुआ था , और अमीरुद्दीन का परिवार एक संगीत प्रेमी परिवार था। अमीरुद्दीन 5 – 6 वर्ष तक तो डुमराँव में ही रहे परन्तु उसके बाद वह नाना के घर अर्थात ननिहाल , जो की काशी में था , वहाँ आ गए थे। शहनाई और डुमराँव एक – दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड , नरकट जो की एक घास है जिसके पौधे का तना खोखला गाँठ वाला होता है , उससे बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। इसलिए इस समय डुमराँव की इतनी ही उपयोगिता है , जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। बिस्मिल्ला खाँ के परिवार में उनके परदादा के समय से सभी उस्ताद रहे हैं। लेखक उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब अमीरुद्दीन अर्थात बिस्मिल्ला खाँ की उम्र 14 साल की थी। काशी भी वही है जो उस समय थी। वही पुराना बालाजी का मंदिर हैं जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने अपने संगीत के अभ्यास के लिए जाना पड़ता था। मगर बालाजी मंदिर तक जाने का एक रास्ता था , यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर के पास से होकर जाता था। इस रास्ते से अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता था। रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर से भी हमेशा कोई न कोई संगीत सुनाई पड़ता रहता था और रसूलन और बतूलन जब गाती थी तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती थी। अमीरुद्दीन अथवा बिस्मिल्ला खाँ के अनुसार रसूलनबाई और बतूलनबाई के द्वारा ही उन्हें संगीत का आरंभिक ज्ञान प्राप्त हुआ है। लेखक बताते हैं कि वैदिक अर्थात वेद संबंधी इतिहास में शहनाई का कोई वर्णन नहीं मिलता है। इसे संगीत शास्त्रों के अनुसार ‘ सुषिर – वाद्यों ’ अर्थात संगीत में वह यंत्र जो वायु के जोर से बजता है , में गिना जाता है। अरब देश में फूँककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें नाड़ी अर्थात नरकट या रीड होती है , को ‘ नय ’ बोलते हैं और शहनाई को ‘ शाहेनय ’ अर्थात् ‘ सुषिर वाद्यों में शाह की उपाधि् दी गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि शहनाई को वायु के जोर से बजने वाले सभी यंत्रों में बादशाह या सुलतान कहा गया है। अवध के पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार – बार मिलता है। कल्याण और शुभ -आनंद का वातावरण या माहौल की स्थापना करने वाला यह वाद्य अवध के पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में भी मांगलिक विधि् – विधनों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है। शहनाई को केवल शुभ कार्य या कल्याण अवसरों पर ही बजाय जाता है। बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी वर्ष के होने पर भी यह मानते हैं कि उनको अभी भी संगीत की पूर्ण जानकारी नहीं है। वे ईश्वर से अपने संगीत की समृद्धि के लिए वरदान मांगते रहते थे। बिस्मिल्ला खाँ को यह भरोसा है कि कभी न कभी ईश्वर उन पर यूँ ही दयालु व् दयावान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर बिस्मिल्ला खाँ की ओर उछालेगा , और फिर कहेगा कि ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी इच्छा को पूरी। बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस एक मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है , वह है मुहर्रम। मुहर्रम के बारे में बताते हुए लेखक कहते हैं कि मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अपना शोक दर्शाते हैं। यह शोक कोई एक दिन का नहीं होता बल्कि पूरे दस दिनों का शोक होता है। बिस्मिल्ला खाँ बताते हैं कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता है , न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शामिल भी होता है। आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए , मृतक के लिए शोक मनाते हुए जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग – रागिनियों को अदा करना या बजाने का इस दिन निषेध् होता है। सभी शिया मुसलमानों की आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों के शहीद होने पर नम रहती हैं। इन दस दिनों में मातम या शोक मनाया जाता है। हज़ारों आँखें नम होती है। हज़ार वर्ष की परंपरा फिर से जीवित होती है। मुहर्रम समाप्त होता है। एक बड़े कलाकार का साधारण मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ जैसे बड़े कलाकार भी अपने रीती – रिवाजों को शिदद्त से निभाते हैं। मुहर्रम के दुखी व् गमगीन वातावरण से अलग , कभी – कभी आराम व् शान्ति के पलों में बिस्मिल्ला खाँ अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं। वे अपने संगीत के रियाज़ को कम , बचपन के उन दिनों के अपने पागलपन या लगन अधिक याद करते हैं। वे अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम , बल्कि उनसे कहीं अधिक पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं। अमीरुद्दीन जब सिर्फ चार साल का रहा होगा तब वह छुपकर अपने नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था , रियाज़ के बाद जब उसके नाना अपनी जगह से उठकर चले जाते थे तब अमीरुद्दीन नाना की जगह पर जाकर उनकी ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता अर्थात जिस शहनाई को उसके नाना बजा रहे थे , अमीरुद्दीन उसी शहनाई को खोजता था और उन ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से एक – एक शहनाई को बजाता और फ़ेंक कर खारिज़ करता जाता था , क्योंकि उसे कोई भी शहनाई उस तरह बजती हुई प्रतीत नहीं होती थी जैसे उसके नाना बजाते थे और वह सोचता था कि लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं। फिल्में देखने का शौक अमीरुद्दीन को बचपन से था। उस समय थर्ड क्लास के लिए छः पैसे का टिकट मिलता था। अमीरुद्दीन दो पैसे मामू से , दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट को लिया करता था। जैसे ही सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म सिनेमाहाल में आती थी , वैसे ही अमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर फ़िल्म देखने चल पड़ता था। वह कमाई उसे बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से होती थी। और उसकी कमाई थी – एक अठन्नी पारिश्रमिक अथवा मज़दूरी। इतनी कम कमाई होने पर भी अमीरुद्दीन को यह ज़बरदस्त शौक चढ़ा हुआ था कि सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म नहीं छूटनी चाहिए और कुलसुम की देशी घी वाली दुकान भी अमीरुद्दीन की पसंदीदा जगह थी। वहाँ की संगीतमय कचौड़ी उसकी पसंदीदा थी। संगीतमय कचौड़ी इस लिए कहा गया है क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी , उस समय छन्न से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सारे उतार – चढ़ाव दिख जाते थे। लेखक कहते हैं कि राम जाने , कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना जरूर है कि अपने बिस्मिल्ला खाँ साहब रियाशी और स्वादी दोनों रहे हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ लग चुकी है। लेखक बताते हैं कि काशी एक ऐसा शहर है जहाँ संगीत कार्यक्रमों की एक प्राचीन एवं अद्धभुत परंपरा है। अपने मजहब के प्रति सबसे अधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अनंत अथवा बहुत अधिक है। इसका परिचय इस घटना से मिल जाता है कि वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही , मगर विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता था अर्थात वे अपना रोज का रियाज़ विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके ही करते थे। और उनके अंदर की आस्था रीड के माध्यम से बजती थी। बिस्मिल्ला खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती है तब वे दूसरी रीड का इस्तेमाल कर लिया करते थे। बिस्मिल्ला खाँ साहब का काशी से दिल का रिश्ता था जो उनके अनुसार जीते – जी कभी समाप्त नहीं हो सकता था। उनके लिए काशी किसी स्वर्ग से कम नहीं थी। लेखक कहते हैं कि काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में काशी आनंदकानन के नाम से सम्मानित है। लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ की दृष्टि से कशी को सबसे अलग दर्शाया है। लेखक कहते हैं कि आप काशी में संगीत को भक्ति से , भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से , कजरी को चैती से , विश्वनाथ को विशालाक्षी से , बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते। प्रायः या अधिकतर कार्यक्रमों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है कि ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ कहने से उनका मतलब होता है – बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई से उनका का तात्पर्य होता है – बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। और हाथ से उनका अभिप्राय केवल इतना भर होता है कि बिस्मिल्ला खाँ की फूँक और शहनाई की जादुई आवाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ ने अपनी मेहनत और लगन से शहनाई को सभी के मध्य प्रसिद्ध किया। एक दिन बिस्मिल्ला खाँ के एक शिष्य ने डरते – डरते बिस्मिल्ला खाँ साहब को टोका कि बाबा ! आप यह क्या करते हैं , इतनी प्रतिष्ठा है आपकी , कितना मान – सम्मान है। अब तो आपको भारत सरकार का सर्वोच्च सम्मान अर्थात भारतरत्न भी मिल चुका है , यह फटी धोती न पहना करें। अच्छा नहीं लगता , जब भी कोई आता है आप इसी फटी धोती में सबसे मिलते हैं। ” उस शिष्य की बात सुनकर बिस्मिल्ला खाँ साहब मुसकराए। दुलार व् वात्सल्य से भरकर उस शिष्य से बोले कि ये जो भारतरत्न उनको मिला है न यह शहनाई पर मिला है , उनकी लंगोटी पर नहीं। अगर वे भी सब लोगों की तरह बनावटी शृंगार देखते रहते , तो पूरी उमर ही बीत जाती , और शहनाई की तो फिर बात ही छोड़ो। तब क्या वे खाक रियाज़ कर पाते। परन्तु वे बाद में अपनी शिष्या की बात मानते हुए उससे कहते हैं कि ठीक है बिटिया , आगे से वे फटी हुई लंगोट नहीं पहनेंगे , मगर वे साथ – ही – साथ यह भी कहते हैं कि वे मालिक अर्थात ईश्वर से यही दुआ करते है कि ईश्वर उन्हें कभी फटा सुर न बख्शें। लंगोटी का क्या है , आज फटी है , तो कल सी जाएगी। लेखक सन् 2000 की बात करते है कि पक्का महाल जो की काशी विश्वनाथ से लगा हुआ अधिकतम इलाका है , वहाँ से मलाई बरफ बेचने वाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी कमी खलती है। क्योंकि उन्हें वह मलाई बरफ बहुत पसंद थी। और अब के देशी घी में उन्हें वह पहले जैसे बात भी नहीं लगती और अब कचौड़ी – जलेबी में भी वह पहले जैसा स्वाद नहीं मिलता। खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से इन सब की कमी खलती है। अब के समय में संगीत के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। खाँ साहब इस बात पर अफसोस जताते थे। उनके समय में कई – कई घंटों संगीत का अभ्यास किया जाता था परन्तु अब घंटों रियाज़ को कौन पूछता है ? बिस्मिल्ला खाँ यह सब देख कर हैरान थे। वे यही सोचते रहते थे की कहाँ वह कजली , चैती और अदब का जमाना ? कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब का ज़माना अब बदल गया था और यह बदलाव उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था , वे अपने जमाने की चीजों को याद करते थे।लेखक बताते हैं कि काशी एक ऐसी जगह है जो सचमुच किसी को भी हैरान कर सकती है – पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ गायब हो गया , संगीत , साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ भी गायब हो गईं। अर्थात बहुत सी ऐसी चीज़े हैं जो प्राचीन काशी से आते – आते गायब हो गई हैं और एक सच्चे सुर के योगी अथवा तपस्वी और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी बहुत कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिला खाँ एक – दूसरे के पूरक रहे हैं , उसी तरह मुहर्रम – ताजिया और होली – अबीर , गुलाल की गंगा – जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। अर्थात काशी को आप किसी मजहब , रंग , खान – पान , त्योहारों आदि के आधार पर नहीं बाँट सकते। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी अब तक जो सिर्फ काशी में बचा हुआ है , वह है – काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती है और ढोलक , तबले , मृदंग आदि बजाते समय उस पर हथेली से किया जाने वाला आघात पर सोती है। अर्थात संगीत से ही काशी की सुबह होती है और संगीत से ही काशी की शाम ढलती है। काशी में मृत्यु को भी शुभ माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात यह है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला कीमती हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है। लेखक बताते हैं कि भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मान या प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली उपाधियों से सम्मानित व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं , बल्कि अपनी कभी न समाप्त होने वाली संगीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी – पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत प्रेमियों की हार्दिक सभा से विदा हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की अपनी इच्छा को अपने भीतर जिंदा रखा। अर्थात बिस्मिल्ला खाँ साहब अपने आखरी समय तक भी यही कहते थे कि उन्हें अभी संगीत की पूर्ण जानकारी नहीं है।
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नौबतखाने में इबादत पाठ व्याख्या (Naubatkhane Mein Ibadat Lesson Explanation)
पाठ – सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी। पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी। ड्योढ़ी का नौबतखाना और नौबतखाने से निकलने वाली मंगलध्वनि।
शब्दार्थ
पंचगंगा – काशी का एक प्रसिद्ध घाट जो मान्यतानुसार पाँच नदियों का संगमस्थान है
घाट – नदी , सरोवर या तालाब का वह किनारा जहाँ लोग पानी भरते , नहाते – धोते एवं नावों पर चढ़ते उतरते हैं , नदी , झील आदि का वह किनारा जहाँ पानी में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी होती हैं
ड्योढ़ी – दरवाज़ा , फाटक , दहलीज़ , द्वार या दरवाज़े के पास की ज़मीन , किसी घर में प्रवेश करने की जगह , चौखट
नौबतखाना – वह स्थान जहाँ नक्कारे या नगाड़े बजते हैं
मंगलध्वनि – मांगलिक अवसरों या उत्सव आदि में होने वाली ध्वनि , मंगलगीत
नोट – इस गद्यांश में लेखक 1916 से 1922 की काशी और वहाँ स्थित बाला जी मंदिर के नौबतखाने का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि काशी का एक प्रसिद्ध घाट जो मान्यतानुसार पाँच नदियों का संगमस्थान है जिसे पंचगंगा भी कहा जाता है , उसके घाट पर बालाजी मंदिर स्थित है। उस मंदिर ने एक बहुत बड़ा दरवाज़ा या फाटक है। उस दरवाज़े के पास वह स्थान है जहाँ नक्कारे या नगाड़े बजते हैं और उस स्थान से हर समय मंगलध्वनि अर्थात मांगलिक अवसरों या उत्सव आदि में होने वाली ध्वनि या मंगलगीत सुनाई पड़ते रहते हैं। अर्थात लेखक यहाँ 1916 से 1922 के आसपास की काशी का अद्धभुत वर्णन कर रहे हैं।
पाठ – अमीरुद्दीन अभी सिर्फ छः साल का है और बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का। अमीरुद्दीन को पता नहीं है कि राग किस चिड़िया को कहते हैं। और ये लोग हैं मामूजान वगैरह जो बात – बात पर भीमपलासी और मुलतानी कहते रहते हैं। क्या वाज़िब मतलब हो सकता है इन शब्दों का , इस लिहाज से अभी उम्र नहीं है अमीरुद्दीन की , जान सके इन भारी शब्दों का वजन कितना होगा। गोया , इतना ज़रूर है कि अमीरुद्दीन व शम्सुद्दीन के मामाद्वय सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने – माने शहनाई वादक हैं। विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने जाते रहते हैं। रोज़नामचे में बालाजी का मंदिर सबसे ऊपर आता है। हर दिन की शुरुआत वहीं ड्योढ़ी पर होती है। मंदिर के विग्रहों को पता नहीं कितनी समझ है , जो रोज़ बदल – बदलकर मुलतानी , कल्याण , ललित और कभी भैरव रागों को सुनते रहते हैं। ये खानदानी पेशा है अलीबख्श के घर का। उनके अब्बाजान भी यहीं ड्योढ़ी पर शहनाई बजाते रहते हैं।
शब्दार्थ
राग – किसी ख़ास धुन में बैठाये हुए स्वर का ढाँचा
भीमपलासी – दिन के रागों में अति मधुर और कर्णप्रिय राग है
मुलतानी – भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक राग
वाज़िब – सही
लिहाज – शील , संकोच आदि के विचार से रखा जाने वाला ध्यान
गोया – वक्ता , बोलने वाला , सदृश
मामाद्वय – दो मामा
वादक – वाद्ययंत्र को बजाने वाला
रियासतों – मिलकियत , संपत्ति , शासन , हुकूमत
रोज़नामचे – एक रोजनामचा एक विस्तृत खाता है जो किसी व्यवसाय के सभी वित्तीय लेनदेन को रिकॉर्ड करता है , जिसका उपयोग भविष्य के सामंजस्य के लिए किया जाता है
ड्योढ़ी – दहलीज़
खानदानी – ऊँचे वंश का , अच्छे कुल का , वश परपरागत , पैतृक , पुश्तैनी
पेशा – काम
नोट – इस गद्यांश में लेखक अमीरुद्दीन अर्थात बिस्मिल्ला खाँ के खानदानी काम का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक अमीरुद्दीन अर्थात बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अमीरुद्दीन अभी सिर्फ छः साल का है और उसका बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का है। इस उम्र में अमीरुद्दीन को पता नहीं है कि राग अर्थात किसी ख़ास धुन में बैठाये हुए स्वर का ढाँचा , किस चिड़िया को कहते हैं। अर्थात अमीरुद्दीन को अभी संगीत के बारे में कुछ भी पता नहीं है। और अमीरुद्दीन के मामूजान वगैरह हैं जो बात – बात पर भीमपलासी अर्थात दिन के रागों में अति मधुर और कर्णप्रिय राग , और मुलतानी अर्थात भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक राग , कहते रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अमीरुद्दीन भले ही इस उम्र में संगीत के बारे में कुछ नहीं जानते परन्तु उनके मामा आदि संगीत की अच्छी समझ रखते हैं। अभी अमीरुद्दीन की उम्र इतनी नहीं है कि वह सही से इन रागों का मतलब क्या है और न ही इन रागों में इस्तेमाल होने वाले भारी शब्दों का ज्ञान उन्हें है। परन्तु लेखक बताते हैं कि इतना ज़रूर है कि अमीरुद्दीन व शम्सुद्दीन के दोनों मामा सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने – माने शहनाई वादक हैं। अर्थात वे बहुत ही अच्छी शहनाई बजाते हैं और देश भर में प्रसिद्ध हैं। वे विभिन्न रियासतों अर्थात हुकूमत के दरबार में बजाने जाते रहते हैं। रोज़नामचे अर्थात उनके व्यवसाय के लेनदेन का रिकॉर्ड रखने और भविष्य के सामंजस्य के लिए बालाजी का मंदिर सबसे ऊपर आता है। अर्थात उनकी आजीविका के लिए बाला जी मंदिर उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। हर दिन की शुरुआत उसी मंदिर की दहलीज़ पर होती है। लेखक बताते हैं कि उस मंदिर के विग्रहों को पता नहीं संगीत की कितनी समझ है , जो रोज़ बदल – बदलकर मुलतानी , कल्याण , ललित और कभी भैरव रागों को सुनते रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अमीरुद्दीन के दोनों मामा उस मंदिर में हर रोज अलग – अलग राग सुनाते रहते हैं , इससे यह भी समझ आता है कि अमीरुद्दीन के दोनों मामा संगीत की बहुत अच्छी समझ रखते हैं। ये अलीबख्श के घर का अर्थात अमीरुद्दीन के मामा के घर का वश परपरागत या पैतृक काम है । अमीरुद्दीन के अब्बाजान अर्थात पिता भी यहीं मंदिर के दरवाज़े पर शहनाई बजाते रहते हैं।
पाठ – अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव , बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 – 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर , ननिहाल काशी में आ गया है। डुमराँव का इतिहास में कोई स्थान बनता हो , ऐसा नहीं लगा कभी भी। पर यह ज़रूर है कि शहनाई और डुमराँव एक – दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड , नरकट से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। इतनी ही महत्ता है इस समय डुमराँव की जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। फिर अमीरुद्दीन जो हम सबके प्रिय हैं , अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब हैं। उनका जन्म – स्थान भी डुमराँव ही है। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबरबख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे साहबजादे हैं।
शब्दार्थ
ननिहाल – नाना – नानी का घर , माता के माता – पिता का घर
रीड – रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है
नरकट – एक प्रकार की घास , नरकट एक घास है जिसके पौधे का तना खोखला गाँठ वाला होता है
महत्ता – महत्व , उपयोगिता , महिमा
उस्ताद – फ़ारसी और उर्दू में गुरु के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द , गायन – नृत्य आदि कलाओं की शिक्षा देने वाला
परदादा – प्रपितामह , पिता का दादा
साहबजादे – पुत्र
नोट – इस गद्यांश में लेखक अमीरुद्दीन का परिचय दे रहे हैं। शहनाई और डुमराँव का एक दूसरे से क्या रिश्ता है इसका भी वर्णन लेखक ने इस गद्यांश में किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के एक गाँव डुमराँव में हुआ था , और अमीरुद्दीन का परिवार एक संगीत प्रेमी परिवार था। अमीरुद्दीन 5 – 6 वर्ष तक तो डुमराँव में ही रहे परन्तु उसके बाद वह नाना के घर अर्थात ननिहाल , जो की काशी में था , वहाँ आ गए थे। लेखक बताते हैं कि जैसे किसी जगह का अपना कोई न कोई इतिहास होता है लेखक को ऐसा कभी भी नहीं लगा की डुमराँव का इतिहास में कोई स्थान बनता हो। पर यह ज़रूर है कि शहनाई और डुमराँव एक – दूसरे के लिए उपयोगी हैं। इसका कारण बताते हुए लेखक कहते हैं कि , शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड , नरकट जो की एक घास है जिसके पौधे का तना खोखला गाँठ वाला होता है , उससे बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। इसलिए इस समय डुमराँव की इतनी ही उपयोगिता है , जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। फिर लेखक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अमीरुद्दीन जो हम सबके प्रिय हैं , अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब हैं। उनका जन्म – स्थान भी डुमराँव ही है। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के ही निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबरबख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे पुत्र हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ के परिवार में उनके परदादा के समय से सभी उस्ताद रहे हैं।
पाठ – यहां अमीरुद्दीन की उम्र अभी 14 साल है। मसलन बिस्मिल्ला खाँ की उम्र अभी 14 साल है। वही काशी है। वही पुराना बालाजी का मंदिर जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने रियाज़ के लिए जाना पड़ता है। मगर एक रास्ता है बालाजी मंदिर तक जाने का। यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के यहाँ से होकर जाता है। इस रास्ते से अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता है। इस रास्ते न जाने कितने तरह के बोल – बनाव कभी ठुमरी , कभी टप्पे , कभी दादरा के मार्फत ड्योढ़ी तक पहुँचते रहते हैं। रसूलन और बतूलन जब गाती हैं तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती है। अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरंभिक दिनों में संगीत के प्रति आसक्ति इन्हीं गायिका बहिनों को सुनकर मिली है। एक प्रकार से उनकी अबोध् उम्र में अनुभव की स्लेट पर संगीत प्रेरणा की वर्णमाला रसूलनबाई और बतूलनबाई ने उकेरी है।
शब्दार्थ
मसलन – उदाहरणस्वरूप , उदाहरणार्थ
रियाज़ – अभ्यास , संगीत – नृत्य आदि कलाओं के अभ्यास में किया जाने वाला परिश्रम , मेहनत
मार्फत – द्वारा
ढेरों – बहुत सारे
साक्षात्कार – आँखों के सामने उपस्थित होना , सामने आना , भेंट , मुलाकात , मिलन
आसक्ति – आसक्त होने की अवस्था या भाव , अनुरक्ति , अनुराग , लगन
अबोध् – कच्ची , कम
अनुभव – प्रत्यक्ष ज्ञान , संवेदन , तज़ुर्बा , अहसास , ( एक्सपीरिएंस )
उकेरी – उकेरने या खोदकर बेलबूटे बनाने का कार्य , नक्काशी करने की क्रिया
नोट – इस गद्यांश में लेखक बिस्मिल्ला खाँ जी के अनुसार उनके आरंभिक संगीत प्रेरणा की वर्णमाला को उकेरने का योगदान रसूलनबाई और बतूलनबाई नामक दो बहनों को देने का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब अमीरुद्दीन अर्थात बिस्मिल्ला खाँ की उम्र 14 साल की थी। लेखक कहते हैं कि काशी भी वही है जो उस समय थी। वही पुराना बालाजी का मंदिर हैं जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने अपने संगीत के अभ्यास के लिए जाना पड़ता था। मगर बालाजी मंदिर तक जाने का एक रास्ता था , यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर के पास से होकर जाता था। इस रास्ते से अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता था। इसका कारण लेखक बताते हैं कि इस रास्ते से न जाने कितने तरह के बोल – बनाव कभी ठुमरी , कभी टप्पे , कभी दादरा के द्वारा मंदिर के दरवाजे तक पहुँचते रहते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर से भी हमेशा कोई न कोई संगीत सुनाई पड़ता रहता था और रसूलन और बतूलन जब गाती थी तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती थी। लेखक बताते हैं कि अपनी बहुत सारी भेंटों और मुलाकातों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने स्वीकार किया है कि अपने जीवन के शुरूआती दिनों में संगीत के प्रति जो अनुराग या लगन उनमें उत्पन्न हुआ था वह इन्हीं गायिका बहिनों को सुनकर हुआ था। एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि उनकी कच्ची या कम उम्र में जो प्रत्यक्ष ज्ञान या तज़ुर्बा या एक्सपीरिएंस की स्लेट पर संगीत प्रेरणा की वर्णमाला रसूलनबाई और बतूलनबाई ने ही नक्काशी करके बनाई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि अमीरुद्दीन अथवा बिस्मिल्ला खाँ के अनुसार रसूलनबाई और बतूलनबाई के द्वारा ही उन्हें संगीत का आरंभिक ज्ञान प्राप्त हुआ है।
पाठ – वैदिक इतिहास में शहनाई का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसे संगीत शास्त्रांतर्गत ‘ सुषिर – वाद्यों ’ में गिना जाता है। अरब देश में फूँककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें नाड़ी होती है , को ‘ नय ’ बोलते हैं। शहनाई को ‘ शाहेनय ’ अर्थात् ‘ सुषिर वाद्यों में शाह ’ की उपाधि् दी गई है। सोलहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में तानसेन के द्वारा रची बंदिश , जो संगीत राग कल्पद्रुम से प्राप्त होती है , में शहनाई , मुरली , वंशी , शृंगी एवं मुरछंग आदि का वर्णन आया है।
अवधी पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार – बार मिलता है। मंगल का परिवेश प्रतिष्ठित करने वाला यह वाद्य इन जगहों पर मांगलिक विधि् – विधनों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है। दक्षिण भारत के मंगल वाद्य ‘ नागस्वरम् ’ की तरह शहनाई , प्रभाती की मंगलध्वनि का संपूरक है।
शब्दार्थ
वैदिक – वेद संबंधी , वेद का , वेदों के अनुकूल
उल्लेख – वर्णन
शास्त्रांतर्गत – शास्त्रों के अनुसार
सुषिर – वाद्यों – संगीत में वह यंत्र जो वायु के जोर से बजता हो
नाड़ी – नरकट या रीड
शाह – बड़ा मुगल सम्राट , बादशाह , सुलतान
मंगल – कल्याण , भलाई , शुभ , आनंद , इच्छापूर्ति
परिवेश – वातावरण , माहौल
प्रतिष्ठित – सम्मानित , जिसकी स्थापना की गई हो , निश्चित , निर्धारित , प्रयुक्त
प्रभाती – एक प्रकार का गीत जो प्रातःकाल गाया जाता है
नोट – इस गद्यांश में लेखक शहनाई के इतिहास का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि वैदिक अर्थात वेद संबंधी इतिहास में शहनाई का कोई वर्णन नहीं मिलता है। इसे संगीत शास्त्रों के अनुसार ‘ सुषिर – वाद्यों ’ अर्थात संगीत में वह यंत्र जो वायु के जोर से बजता है , में गिना जाता है। अरब देश में फूँककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें नाड़ी अर्थात नरकट या रीड होती है , को ‘ नय ’ बोलते हैं और शहनाई को ‘ शाहेनय ’ अर्थात् ‘ सुषिर वाद्यों में शाह की उपाधि् दी गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि शहनाई को वायु के जोर से बजने वाले सभी यंत्रों में बादशाह या सुलतान कहा गया है। लेखक बताते हैं कि सोलहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में तानसेन के द्वारा रची बंदिश , जो संगीत राग कल्पद्रुम से प्राप्त होती है , में शहनाई , मुरली , वंशी , शृंगी एवं मुरछंग आदि का वर्णन आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सोलहवीं शताब्दी से पहले शहनाई का वर्णन कही भी नहीं आया है , तो यह कहा जा सकता है कि शहनाई का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में या उसके बाद ही किया गया होगा। लेखक बताते हैं कि अवध के पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार – बार मिलता है। कल्याण और शुभ -आनंद का वातावरण या माहौल की स्थापना करने वाला यह वाद्य अवध के पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में भी मांगलिक विधि् – विधनों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है। दक्षिण भारत के मंगल वाद्य ‘ नागस्वरम् ’ की तरह शहनाई , प्रभाती जो की एक प्रकार का गीत है जो प्रातःकाल गाया जाता है , की मंगलध्वनि का संपूरक है। कहने का तात्पर्य यह है कि शहनाई को केवल शुभ कार्य या कल्याण अवसरों पर ही बजाय जाता है।
पाठ – शहनाई के इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी बरस से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर की नेमत। अस्सी बरस की पाँचों वक्त वाली नमाज़ इसी सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती है। लाखों सज़दे , इसी एक सच्चे सुर की इबादत में खुदा के आगे झुकते हैं। वे नमाज़ के बाद सज़दे में गिड़गिड़ाते हैं – ‘ मेरे मालिक एक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ। ’ उनको यकीन है , कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उनकी ओर उछालेगा , फिर कहेगा , ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी मुराद पूरी।
अपने उफहापोहों से बचने के लिए हम स्वयं किसी शरण , किसी गुफा को खोजते हैं जहाँ अपनी दुश्चिंताओं , दुर्बलताओं को छोड़ सकें और वहाँ से फिर अपने लिए एक नया तिलिस्म गढ़ सकें। हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है। अस्सी बरस से बिस्मिल्ला खाँ यही सोचते आए हैं कि सातों सुरों को बरतने की तमीज़ उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई।
शब्दार्थ
नायक – लोगों को अपनी आज्ञा के अनुसार चलाने वाला व्यक्ति , नेता , राह दिखाने वाला , मार्गदर्शक , प्रधान , सरदार , अधिपति
बरस – वर्ष , साल
सुर – स्वर , आवाज़
नेमत – धन , पूँजी , संपत्ति , दौलत , समृद्धि ईश्वर की कृपा , ईश्वरीय देन , उपहार , वरदान
सज़दा – ईश्वर के लिए सर झुकाना , नतमस्तक होना , श्रद्धा या भक्ति में माथे को जमीन पर रखना , माथा टेकना
इबादत – बंदगी , आराधना , पूजा , उपासना , वंदना
तासीर – गुण , योग्यता , प्रकृति
मेहरबान – कृपालु , दयालु , अनुग्राहक , अनुग्राही , दयावान , दयावंत , दयाशील
मुराद – इच्छा , अभिलाषा , आकांक्षा , मनौती , मन्नत
शरण – आश्रय , पनाह
दुश्चिंता – बुरी चिंता
दुर्बलता – दुर्बल होने की अवस्था या भाव , कमज़ोरी , दुबलापन
तिलिस्म – जादू , भ्रम , कोई अद्भुत कार्य , चमत्कार , करामात , अलौकिक या अद्भुत प्रतीत होने वाला कार्य
गमक – महक , सुगंध , गंध
नोट – इस गद्यांश में लेखक बिस्मिल्ला खाँ का संगीत के प्रति प्रेम व् लगन का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि शहनाई की ध्वनि को कल्याण की ध्वनि कहा जाता है और शहनाई के इसी मंगलध्वनि के नायक अथवा प्रधान बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी वर्ष के हो जाने पर भी स्वर की माँग कर रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी वर्ष के होने पर भी यह मानते हैं कि उनको अभी भी संगीत की पूर्ण जानकारी नहीं है। वे ईश्वर से अपने संगीत की समृद्धि के लिए वरदान मांगते रहते थे। अस्सी वर्ष में भी पाँचों वक्त वाली नमाज़ इसी संगीत को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती थी। लाखों बार ईश्वर के समक्ष इसी प्रार्थना में झुकते थे , इसी एक सच्चे सुर की आराधना में ईश्वर के आगे झुकते रहते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ ने अपनी पूरी जिंदगी में ईश्वर से अपने संगीत की समृद्धि के अलावा कुछ नहीं माँगा। वे हमेशा नमाज़ के बाद सज़दे में गिड़गिड़ाते थे कि मेरे मालिक एक सुर बख्श दे। सुर में वह गुण व् योग्यता पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह लगातार आँसू निकल आएँ। बिस्मिल्ला खाँ को यह भरोसा है कि कभी न कभी ईश्वर उन पर यूँ ही दयालु व् दयावान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर बिस्मिल्ला खाँ की ओर उछालेगा , और फिर कहेगा कि ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी इच्छा को पूरी। लेखक हमें समझाते हुए कहते हैं कि अपनी मन की उलझनों से बचने के लिए हम स्वयं किसी न किसी आश्रय , किसी गुफा को खोजते हैं जहाँ अपनी बुरी चिंताओं , अपनी कमियों को छोड़ सकें और वहाँ से फिर अपने लिए एक नया चमत्कार अथवा अलौकिक या अद्भुत प्रतीत होने वाला कार्य गढ़ सकें। उदहारण के लिए लेखक उस हिरन के बारे में बताते हैं जो अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी महक व् सुगंध उसी में समाई होती है। यह उदहारण लेखक बिस्मिल्ला खाँ के लिए दे रहे हैं क्योंकि बिस्मिल्ला खाँ भी उसी हिरन की तरह हैं जो अस्सी वर्ष से यही सोचते आए हैं कि सातों सुरों को बरतने की तमीज़ उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई है। जबकि वे सुरों में उस्ताद हैं।
पाठ – बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस एक मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है , वह मुहर्रम है। मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अज़ादारी मनाते हैं। पूरे दस दिनों का शोक। वे बताते हैं कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता है , न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शिरकत ही करता है। आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए , नौहा बजाते जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग – रागिनियों की अदायगी का निषेध् है इस दिन।
उनकी आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत में नम रहती हैं। अज़ादारी होती है। हज़ारों आँखें नम। हज़ार बरस की परंपरा पुनर्जीवित। मुहर्रम संपन्न होता है। एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है।
शब्दार्थ
मुहर्रम – मुसलमानों का प्रमुख त्योहार , निषिद्ध किया हुआ , इस्लामी वर्ष का प्रथम महीना
अज़ादारी – शोक मनाना
शिरकत – एक साथ मिलकर कार्य में प्रवृत्त होना , साझेदारी , हिस्सेदारी
नौहा – मातम , स्यापा , मृतक के लिए रोना – पीटना , मातम के समय गाया जाने वाला गीत , शोकगीत
अदायगी – अदा करना या होना , भुगतान
निषेध् – मनाही
शहादत – शहीद होने का भाव , देश हित में प्राण देना
अज़ादारी – किसी के मरने पर मातम या शोक मनाना
परंपरा – प्राचीन समय से चली आ रही रीति , परिपाटी , ( ट्रैडिशन )
सहज – सरल , सुगम , स्वाभाविक , सामान्य , साधारण
नोट – इस गद्यांश में लेखक मुसलमानी पर्व मुहर्रम का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस एक मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है , वह है मुहर्रम। मुहर्रम के बारे में बताते हुए लेखक कहते हैं कि मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अपना शोक दर्शाते हैं। यह शोक कोई एक दिन का नहीं होता बल्कि पूरे दस दिनों का शोक होता है। बिस्मिल्ला खाँ बताते हैं कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता है , न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शामिल भी होता है। आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए , मृतक के लिए शोक मनाते हुए जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग – रागिनियों को अदा करना या बजाने का इस दिन निषेध् होता है। सभी शिया मुसलमानों की आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों के शहीद होने पर नम रहती हैं। इन दस दिनों में मातम या शोक मनाया जाता है। हज़ारों आँखें नम होती है। हज़ार वर्ष की परंपरा फिर से जीवित होती है। मुहर्रम समाप्त होता है। एक बड़े कलाकार का साधारण मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ जैसे बड़े कलाकार भी अपने रीती – रिवाजों को शिदद्त से निभाते हैं।
पाठ – मुहर्रम के गमज़दा माहौल से अलग , कभी – कभी सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं। वे अपने रियाज़ को कम , उन दिनों के अपने जुनून को अधिक याद करते हैं। अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम , पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं , बड़ी रहस्यमय मुस्कराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती है। खाँ साहब की अनुभवी आँखें और जल्दी ही खिस्स से हँस देने की ईश्वरीय कृपा आज भी बदस्तूर कायम है।
इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं। वे जब उनका जिक्र करते हैं तब फिर उसी नैसर्गिक आनंद में आँखें चमक उठती हैं। अमीरुद्दीन तब सिर्फ चार साल का रहा होगा। छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था , रियाज़ के बाद जब अपनी जगह से उठकर चले जाएँ तब जाकर ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता और एक – एक शहनाई को फ़ेंक कर खारिज़ करता जाता , सोचता – ‘ लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं। ’ जब मामू अलीबख्श खाँ ( जो उस्ताद भी थे ) शहनाई बजाते हुए सम पर आएँ , तब धड़ से एक पत्थर ज़मीन पर मारता था। सम पर आने की तमीज़ उन्हें बचपन में ही आ गई थी , मगर बच्चे को यह नहीं मालूम था कि दाद वाह करके दी जाती है , सिर हिलाकर दी जाती है , पत्थर पटक कर नहीं। और बचपन के समय फिल्मों के बुखार के बारे में तो पूछना ही क्या ? उस समय थर्ड क्लास के लिए छः पैसे का टिकट मिलता था। अमीरुद्दीन दो पैसे मामू से , दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट हासिल करता था।
इधर सुलोचना की नयी फ़िल्म सिनेमाहाल में आई और उधर अमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर चला फ़िल्म देखने जो बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से उसे मिलती थी। एक अठन्नी मेहनताना। उस पर यह शौक ज़बरदस्त कि सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म न छूटे और कुलसुम की देशी घी वाली दुकान। वहाँ की संगीतमय कचौड़ी। संगीतमय कचौड़ी इस तरह क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी , उस समय छन्न से उठने वाली आवाज़ में उन्हें सारे आरोह – अवरोह दिख जाते थे। राम जाने , कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना तय है कि अपने खाँ साहब रियाशी और स्वादी दोनों रहे हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ लग चुकी है।
शब्दार्थ
गमज़दा – दुखी , रंजीदा , गमगीन , शोकसंतप्त
माहौल – वातावरण , परिवेश , परिस्थिति
सुकून – आराम , इतमीनान , शांति , अमन , धैर्य , सब्र , संतोष
जुनून – पागलपन , उन्माद , विक्षिप्तता , नशा , लगन
रहस्यमय – रहस्य पूर्ण , रहस्य से भरा
बदस्तूर – नियमपूर्वक , जिस प्रकार पहले से होता आया हो , उसी प्रकार से , बिना किसी परिवर्तन या हेर – फेर के , यथापूर्व , यथावत
बालसुलभ – बच्चों की तरह , बच्चों का – सा , शिशुवत
नैसर्गिक – प्राकृतिक , स्वाभाविक
खारिज़ – नकारना
सम – सादृश्य , समानता
हासिल – जो कुछ हाथ लगा हो , लब्ध , प्राप्त
मेहनताना – पारिश्रमिक , मज़दूरी
संगीतमय – संगीत से भरा , लययुक्त
आरोह – अवरोह – उतार – चढ़ाव
नोट – इस गद्यांश में लेखक अमीरुद्दीन के बचपन की पसंदीदा चीजों का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि मुहर्रम के दुखी व् गमगीन वातावरण से अलग , कभी – कभी आराम व् शान्ति के पलों में बिस्मिल्ला खाँ अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं। वे अपने संगीत के रियाज़ को कम , बचपन के उन दिनों के अपने पागलपन या लगन अधिक याद करते हैं। वे अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम , बल्कि उनसे कहीं अधिक पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। लेखक बताते हैं कि सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं , और उनके सामने अगर सुलोचना का वर्णन किया जाए तो एक बड़ी रहस्य पूर्ण मुस्कराहट के साथ उनके गालों पर एक चमक आ जाती थी। लेखक बताते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ साहब की अनुभवी आँखें और जल्दी ही खिस्स से हँस देने की ईश्वरीय कृपा जिस प्रकार पहले थी , बिना किसी परिवर्तन या हेर – फेर के आज भी कायम है। बिस्मिल्ला खाँ की इसी बच्चों की तरह हँसी में कई यादें बंद हैं। और वे जब उनका जिक्र करते हैं तब फिर से उसी प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक आनंद में आँखें चमक उठती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि अमीरुद्दीन जब सिर्फ चार साल का रहा होगा तब वह छुपकर अपने नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था , रियाज़ के बाद जब उसके नाना अपनी जगह से उठकर चले जाते थे तब अमीरुद्दीन नाना की जगह पर जाकर उनकी ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता अर्थात जिस शहनाई को उसके नाना बजा रहे थे , अमीरुद्दीन उसी शहनाई को खोजता था और उन ढेरों छोटी – बड़ी शहनाइयों की भीड़ से एक – एक शहनाई को बजाता और फ़ेंक कर खारिज़ करता जाता था , क्योंकि उसे कोई भी शहनाई उस तरह बजती हुई प्रतीत नहीं होती थी जैसे उसके नाना बजाते थे और वह सोचता था कि लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बचपन में अमीरुद्दीन को लगता था कि शहनाई अपने आप मीठी बजती हैं। जब उनके मामू अलीबख्श खाँ ( जो उस्ताद भी थे ) शहनाई बजाते हुए उनके नाना के सादृश्य अथवा उनके नाना के समान शहनाई बजाने लगे , तब अमीरुद्दीन धड़ से एक पत्थर ज़मीन पर मारता था। सम पर आने की तमीज़ उन्हें बचपन में ही आ गई थी , मगर बच्चे को यह नहीं मालूम था कि दाद वाह करके दी जाती है , सिर हिलाकर दी जाती है , पत्थर पटक कर नहीं। और बचपन के समय फिल्मों के बुखार के बारे में तो पूछना ही क्या ? कहने का तात्पर्य यह है कि फिल्में देखने का शौक अमीरुद्दीन को बचपन से था। उस समय थर्ड क्लास के लिए छः पैसे का टिकट मिलता था। अमीरुद्दीन दो पैसे मामू से , दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट को लिया करता था। जैसे ही सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म सिनेमाहाल में आती थी , वैसे ही अमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर फ़िल्म देखने चल पड़ता था। वह कमाई उसे बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से होती थी। और उसकी कमाई थी – एक अठन्नी पारिश्रमिक अथवा मज़दूरी। इतनी कम कमाई होने पर भी अमीरुद्दीन को यह ज़बरदस्त शौक चढ़ा हुआ था कि सुलोचना की कोई नयी फ़िल्म नहीं छूटनी चाहिए और कुलसुम की देशी घी वाली दुकान भी अमीरुद्दीन की पसंदीदा जगह थी। वहाँ की संगीतमय कचौड़ी उसकी पसंदीदा थी। संगीतमय कचौड़ी इस लिए कहा गया है क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी , उस समय छन्न से उठने वाली आवाज़ में उन्हें संगीत के सारे उतार – चढ़ाव दिख जाते थे। लेखक कहते हैं कि राम जाने , कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना जरूर है कि अपने बिस्मिल्ला खाँ साहब रियाशी और स्वादी दोनों रहे हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ लग चुकी है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह बिस्मिल्ला खाँ साहब के दादा मीठी शहनाई बजाते थे उसी तरह लगातार रियाज़ करने के कारण बिस्मिल्ला खाँ साहब भी बहुत ही मीठी शहनाई बजाते हैं।
पाठ – काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्धभुत परंपरा है। यह आयोजन पिछले कई बरसों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन – वादन की उत्कृष्ट सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते हैं। अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार है। वे जब भी काशी से बाहर रहते हैं तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते हैं , थोड़ी देर ही सही , मगर उसी ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता है और भीतर की आस्था रीड के माध्यम से बजती है। खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती है तब वे दूसरी रीड का इस्तेमाल कर लिया करते हैं।
अक्सर कहते हैं – ‘ क्या करें मियाँ , ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ , गंगा मइया यहाँ , बाबा विश्वनाथ यहाँ , बालाजी का मंदिर यहाँ , यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है , हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाईवाश रह चुके हैं। अब हम क्या करें , मरते दम तक न यह शहनाई छूटेगी न काशी। जिस ज़मीन ने हमें तालीम दी , जहाँ से अदब पाई , वो कहाँ और मिलेगी ? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए। ’
काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य – विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हज़ारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं , विद्याधरी हैं , बड़े रामदास जी हैं , मौजुद्दीन खाँ हैं व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन – समूह है। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहज़ीब है , अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं , अपना गम। अपना सेहरा – बन्ना और अपना नौहा। आप यहाँ संगीत को भक्ति से , भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से , कजरी को चैती से , विश्वनाथ को विशालाक्षी से , बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते।
शब्दार्थ
आयोजन – समारोह , कार्यक्रम , प्रबंध , इंतज़ाम , बंदोबस्त , व्यवस्था
शास्त्रीय – शास्त्र संबंधी , शास्त्रानुमोदित , शास्त्रसम्मत , शास्त्रीय ज्ञान पर आश्रित
गायन – गाने की क्रिया या भाव , गाना
वादन – बोलना , वाद्ययंत्र को बजाना
उत्कृष्ट – श्रेष्ठ , उच्च कोटि का , उन्नत
अपार – अनंत , असीम , अथाह , बहुत अधिक
पुश्तों – पीढ़ी , वंश परंपरा में क्रम से बढ़ने वाला स्थान
प्रतिष्ठित – सम्मानित
तालीम – शिक्षा – दीक्षा , ज्ञान , उपदेश
अदब – शिष्टाचार , बड़ों का आदर – सम्मान , उनके प्रति विनीत व्यवहार , कायदा , नियम
रसिकों – जिसके हृदय में सौंदर्य – प्रेम – भक्ति – कला आदि के प्रति अनुराग हो
उपकृत – कृतज्ञ , अहसानमंद
अपार – जिसका पार न हो , अनंत , असीम , अथाह , बहुत अधिक , असंख्य , अतिशय
तहज़ीब – शिष्टाचार , भल – मनसाहत , सज्जनता
नोट – इस गद्यांश में लेखक बिस्मिल्ला खाँ का शहनाई और काशी के प्रति प्रेम दर्शा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि काशी एक ऐसा शहर है जहाँ संगीत कार्यक्रमों की एक प्राचीन एवं अद्धभुत परंपरा है। अर्थात काशी में संगीत कार्यक्रम चलते ही रहते हैं। यह कार्यक्रम पिछले कई बरसों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय ज्ञान पर आश्रित एवं उपशास्त्रीय गाना – वाद्ययंत्र को बजाने की उच्च कोटि की सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते थे। अपने मजहब के प्रति सबसे अधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अनंत अथवा बहुत अधिक है। इसका परिचय इस घटना से मिल जाता है कि वे जब भी काशी से बाहर रहते थे तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही , मगर विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता था अर्थात वे अपना रोज का रियाज़ विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके ही करते थे। और उनके अंदर की आस्था रीड के माध्यम से बजती थी। बिस्मिल्ला खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती है तब वे दूसरी रीड का इस्तेमाल कर लिया करते थे। वे अक्सर कहते थे कि ‘ क्या करें मियाँ , ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ , गंगा मइया यहाँ , बाबा विश्वनाथ यहाँ , बालाजी का मंदिर यहाँ , यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है , हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाईवाश रह चुके हैं। अब हम क्या करें , मरते दम तक न यह शहनाई छूटेगी न काशी। जिस ज़मीन ने हमें शिक्षा – दीक्षा , ज्ञान व् उपदेश दिया , जहाँ से अदब अर्थात शिष्टाचार , बड़ों का आदर – सम्मान , उनके प्रति विनीत व्यवहार का कायदा पाया , वो कहाँ और मिलेगी ? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए। ’ कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब का काशी से दिल का रिश्ता था जो उनके अनुसार जीते – जी कभी समाप्त नहीं हो सकता था। उनके लिए काशी किसी स्वर्ग से कम नहीं थी। लेखक कहते हैं कि काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में काशी आनंदकानन के नाम से सम्मानित है। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य – विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हज़ारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं , विद्याधरी हैं , बड़े रामदास जी हैं , मौजुद्दीन खाँ हैं व इन सब के जिनके हृदय में सौंदर्य – प्रेम – भक्ति – कला आदि के प्रति अनुराग है , उनसे कृतज्ञ अथवा अहसानमंद होने वाला अनगिनत जन – समूह है। यह एक अलग काशी है जिसका अपना अलग शिष्टाचार है , अपनी बोली और अपने विशेष व् प्रसिद्ध लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं , अपना गम है। अपना सेहरा – बन्ना और अपना नौहा। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ की दृष्टि से कशी को सबसे अलग दर्शाया है। लेखक कहते हैं कि आप काशी में संगीत को भक्ति से , भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से , कजरी को चैती से , विश्वनाथ को विशालाक्षी से , बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते। कहने का अभिप्राय यह है कि काशी हर तरह से अलग है , काशी की अपनी ही अलग पहचान है जिसको आप बदल कर नहीं देख सकते क्योंकि काशी की हर एक चीज़ किसी न किसी से जुड़ी हुई है।
पाठ – अकसर समारोहों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब – बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य – बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। हाथ से आशय इतना भर कि बिस्मिल्ला खाँ की फूँक और शहनाई की जादुई आवाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। शहनाई में सरगम भरा है। खाँ साहब को ताल मालूम है , राग मालूम है। ऐसा नहीं कि बेताले जाएँगे। शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़े । शहनाई में परवरदिगार , गंगा मइया , उस्ताद की नसीहत लेकर उतर पड़े। दुनिया कहती – सुबहान अल्लाह , तिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते हैं – अलहमदुलिल्लाह। छोटी – छोटी उपज से मिलकर एक बड़ा आकार बनता है। शहनाई का करतब शुरू होने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ का संसार सुरीला होना शुरू हुआ। फूँक में अजान की तासीर उतरती चली आई। देखते – देखते शहनाई डेढ़ सतक के साज से दो सतक का साज बन , साजों की कतार में सरताज हो गई। अमीरुद्दीन की शहनाई गूँज उठी। उस फकीर की दुआ लगी जिसने अमीरुद्दीन से कहा था – ” बजा , बजा। “
शब्दार्थ
अकसर – प्रायः , अधिकतर , बहुधा , अमूमन , बारंबार
आशय – तात्पर्य , अभिप्राय , मतलब
सरगम – सात सुरों का समूह , सातों सुरों के उतार – चढ़ाव , किसी गीत या ताल में लगने वाले स्वरों का उच्चारण
परवरदिगार – ईश्वर , भगवान
नसीहत – सदुपदेश , शिक्षा , सीख , राय , लाभप्रद सम्मति , अच्छी सलाह
करतब – कार्य , कर्म , काम , कमाल , कौशल , करामात
नोट – इस गद्यांश में लेखक बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई की मिठास का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि प्रायः या अधिकतर कार्यक्रमों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है कि ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ कहने से उनका मतलब होता है – बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई से उनका का तात्पर्य होता है – बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। और हाथ से उनका अभिप्राय केवल इतना भर होता है कि बिस्मिल्ला खाँ की फूँक और शहनाई की जादुई आवाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। कहने का अभिप्राय यह है कि बिस्मिल्ला खाँ का परिचय उनकी शहनाई से ही है। शहनाई में सात सुरों का समूह भरा है। बिस्मिल्ला खाँ साहब को शहनाई की ताल मालूम है , उनको राग मालूम है। ऐसा नहीं कि वे बिना ताल के ही शहनाई बजाने कहीं जाएँगे। वे अपनी शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़ते थे। वे अपनी शहनाई में ईश्वर अथवा भगवान , गंगा मइया , और अपने गुरु की शिक्षा व् सलाह लेकर उतर पड़ते थे। दुनिया बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई सुन कर कहती – सुबहान अल्लाह , जिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते – अलहमदुलिल्लाह। लेखक कहते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ ने जब शहनाई बजानी शुरू की तब उन्होंने थोड़ा – थोड़ा राग सीख कर शुरू किया। कभी कहते हैं कि छोटी – छोटी उपज से मिलकर एक बड़ा आकार बनता है। उसी तरह सीखते – सीखते शहनाई का कमाल शुरू होने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ का संसार सुरीला होना शुरू हुआ। फूँक में अजान की तासीर उतरती चली आई। देखते – देखते शहनाई डेढ़ सतक के साज से दो सतक का साज बन , साजों की कतार में सरताज हो गई। अमीरुद्दीन की शहनाई गूँज उठी। उस फकीर की दुआ लगी जिसने अमीरुद्दीन से कहा था – ” बजा , बजा। ” कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ ने अपनी मेहनत और लगन से शहनाई को सभी के मध्य प्रसिद्ध किया।
पाठ – किसी दिन एक शिष्य ने डरते – डरते खाँ साहब को टोका , ” बाबा ! आप यह क्या करते हैं , इतनी प्रतिष्ठा है आपकी। अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है , यह फटी तहमद न पहना करें। अच्छा नहीं लगता , जब भी कोई आता है आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं। ” खाँ साहब मुसकराए। लाड़ से भरकर बोले , ” धत ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है , लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते , तो उमर ही बीत जाती , हो चुकती शहनाई। ” तब क्या खाक रियाज़ हो पाता। ठीक है बिटिया , आगे से नहीं पहनेंगे , मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है , ” फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है , आज फटी है , तो कल सी जाएगी। “
सन् 2000 की बात है। पक्का महाल से मलाई बरफ बेचने वाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी कमी खलती है। अब देशी घी में वह बात कहाँ और कहाँ वह कचौड़ी – जलेबी। खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से कमी खलती है। अब संगतियों के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। खाँ साहब अफसोस जताते हैं। अब घंटों रियाज़ को कौन पूछता है ? हैरान हैं बिस्मिल्ला खाँ। कहाँ वह कजली , चैती और अदब का जमाना ?
शब्दार्थ
प्रतिष्ठा – मान – मर्यादा , सम्मान , इज़्ज़त
भारतरत्न – भारत सरकार का एक सर्वोच्च सम्मान या उपाधि जो उच्चकोटि के पांडित्य , अद्वितीय राष्ट्रसेवा , विश्वशांति के प्रयत्न आदि के लिए दिया जाता है
तहमद – धोती के स्थान पर कमर में लपेटने का छोटा टुकड़ा
लाड़ – दुलार , स्नेह , प्यार , वात्सल्य प्रेमपूर्ण व्यवहार
पक्का महाल – काशी विश्वनाथ से लगा हुआ अधिकतम इलाका
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ की सादगी का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि एक दिन बिस्मिल्ला खाँ के एक शिष्य ने डरते – डरते बिस्मिल्ला खाँ साहब को टोका कि बाबा ! आप यह क्या करते हैं , इतनी प्रतिष्ठा है आपकी , कितना मान – सम्मान है। अब तो आपको भारत सरकार का सर्वोच्च सम्मान अर्थात भारतरत्न भी मिल चुका है , यह फटी धोती न पहना करें। अच्छा नहीं लगता , जब भी कोई आता है आप इसी फटी धोती में सबसे मिलते हैं। ” उस शिष्य की बात सुनकर बिस्मिल्ला खाँ साहब मुसकराए। दुलार व् वात्सल्य से भरकर उस शिष्य से बोले कि ये जो भारतरत्न उनको मिला है न यह शहनाई पर मिला है , उनकी लंगोटी पर नहीं। अगर वे भी सब लोगों की तरह बनावटी शृंगार देखते रहते , तो पूरी उमर ही बीत जाती , और शहनाई की तो फिर बात ही छोड़ो। तब क्या वे खाक रियाज़ कर पाते। कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब बहुत ही सीधे – साढ़े व्यक्ति थे। वे कोई भी दिखावा करना सही नहीं समझते थे। वे केवल अपने रियाज़ को ही महत्वपूर्ण मानते थे। परन्तु वे बाद में अपनी शिष्या की बात मानते हुए उससे कहते हैं कि ठीक है बिटिया , आगे से वे फटी हुई लंगोट नहीं पहनेंगे , मगर वे साथ – ही – साथ यह भी कहते हैं कि वे मालिक अर्थात ईश्वर से यही दुआ करते है कि ईश्वर उन्हें कभी फटा सुर न बख्शें। लंगोटी का क्या है , आज फटी है , तो कल सी जाएगी। कहने का अभिप्राय यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब हमेशा ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहते थे कि जीवन में कोई भी परिस्थिति आ जाए परन्तु कभी उनकी शहनाई से सुर की जगह बेसुर न निकले। लेखक सन् 2000 की बात करते है कि पक्का महाल जो की काशी विश्वनाथ से लगा हुआ अधिकतम इलाका है , वहाँ से मलाई बरफ बेचने वाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी कमी खलती है। क्योंकि उन्हें वह मलाई बरफ बहुत पसंद थी। और अब के देशी घी में उन्हें वह पहले जैसे बात भी नहीं लगती और अब कचौड़ी – जलेबी में भी वह पहले जैसा स्वाद नहीं मिलता। खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से इन सब की कमी खलती है। अब के समय में संगीत के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। खाँ साहब इस बात पर अफसोस जताते थे। उनके समय में कई – कई घंटों संगीत का अभ्यास किया जाता था परन्तु अब घंटों रियाज़ को कौन पूछता है ? बिस्मिल्ला खाँ यह सब देख कर हैरान थे। वे यही सोचते रहते थे की कहाँ वह कजली , चैती और अदब का जमाना ? कहने का तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ साहब का ज़माना अब बदल गया था और यह बदलाव उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था , वे अपने जमाने की चीजों को याद करते थे।
पाठ – सचमुच हैरान करती है काशी – पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ गया , संगीत , साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ लुप्त हो गईं। एक सच्चे सुर साधक और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिला खाँ एक – दूसरे के पूरक रहे हैं , उसी तरह मुहर्रम – ताजिया और होली – अबीर , गुलाल की गंगा – जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी कुछ बचा है जो सिर्फ काशी में है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला नायाब हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।
भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं , बल्कि अपनी अजेय संगीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी – पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत रसिकों की हार्दिक सभा से विदा हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिंदा रखा।
शब्दार्थ
लुप्त – छिपा हुआ , जो छिप गया हो , अदृश्य , गायब
साधक – योगी , तपस्वी , साधन , ज़रिया , साधना करने वाला
थापों – ढोलक , तबले , मृदंग आदि बजाते समय उस पर हथेली से किया जाने वाला आघात
मरण – मृत्यु
नायाब – जो जल्दी न मिले , जो सरलता से न मिलता हो , अप्राप्य , दुर्लभ , बहुत बढ़िया
मानद – मान या प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला , किसी के सम्मान में दिया जाने वाला
अलंकृत – विभूषित , सम्मानित , सजाया – सँवारा हुआ
अजेय – जिसे जीता न जा सके , अतिशक्तिशाली , बाहुबली
संपूर्णता – पूर्णता , समग्रता , अंत , समाप्ति
जिजीविषा – जीने की इच्छा या उत्कट कामना , जीवटता , जीवन की चाह
नोट – इस गद्यांश में लेखक काशी की असली सुंदरता और बिस्मिल्ला खाँ साहब की उपलब्धियों का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि काशी एक ऐसी जगह है जो सचमुच किसी को भी हैरान कर सकती है – पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ गायब हो गया , संगीत , साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ भी गायब हो गईं। अर्थात बहुत सी ऐसी चीज़े हैं जो प्राचीन काशी से आते – आते गायब हो गई हैं और एक सच्चे सुर के योगी अथवा तपस्वी और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी बहुत कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिला खाँ एक – दूसरे के पूरक रहे हैं , उसी तरह मुहर्रम – ताजिया और होली – अबीर , गुलाल की गंगा – जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। अर्थात काशी को आप किसी मजहब , रंग , खान – पान , त्योहारों आदि के आधार पर नहीं बाँट सकते। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी अब तक जो सिर्फ काशी में बचा हुआ है , वह है – काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती है और ढोलक , तबले , मृदंग आदि बजाते समय उस पर हथेली से किया जाने वाला आघात पर सोती है। अर्थात संगीत से ही काशी की सुबह होती है और संगीत से ही काशी की शाम ढलती है। काशी में मृत्यु को भी शुभ माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात यह है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला कीमती हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है। लेखक बताते हैं कि भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मान या प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली उपाधियों से सम्मानित व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं , बल्कि अपनी कभी न समाप्त होने वाली संगीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी – पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत प्रेमियों की हार्दिक सभा से विदा हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की अपनी इच्छा को अपने भीतर जिंदा रखा। अर्थात बिस्मिल्ला खाँ साहब अपने आखरी समय तक भी यही कहते थे कि उन्हें अभी संगीत की पूर्ण जानकारी नहीं है।
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