CBSE Class 10 Hindi Chapter 7 “Netaji ka Chashma”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
नेताजी का चश्मा – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 7 Netaji ka Chashma Summary with detailed explanation of the lesson ‘Netaji ka Chashma’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 7 नेताजी का चश्मा के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 नेताजी का चश्मा पाठ के बारे में जानते हैं।
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“ नेता जी का चश्मा ”
लेखक परिचय –
लेखक – स्वयं प्रकाश
नेता जी का चश्मा पाठ प्रवेश (Netaji ka Chashma – Introduction to the chapter)
केवल ऐसा भूभाग जो चारों ओर से सीमाओं से घिरा हुआ हो , उस भूभाग को देश का नाम नहीं दिया जा सकता। क्योंकि देश केवल भूभाग से नहीं बनता। देश बनता है उसमें रहने वाले सभी नागरिकों , नदियों , पहाड़ों , पेड़ – पौधों , वनस्पतियों , पशु – पक्षियों से। अर्थात सीमाएँ तो केवल किसी देश के विभाजन में सहायक होती हैं , देश को असल में परिभाषित करते हैं उस स्थान की प्रकृति , लोग और पशु – पक्षी। और इन सबसे प्रेम करने तथा इनकी समृद्धि के लिए , इनके विकास के लिए प्रयास करने का नाम देशभक्ति है। प्रस्तुत पाठ ” नेताजी का चश्मा ” कहानी भी देशभक्ति से जुड़ी हुई है जिसमें कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के उन करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित किया गया है जो इस देश के निर्माण में अपने – अपने तरीके से सहयोग करते हैं। और इस कहानी की सबसे ख़ास बात यह है कि यह कहानी कहती है कि देशभक्ति की लौ को अपने अंदर जलाए रखने में बड़े ही नहीं बल्कि बच्चे भी इसमें शामिल हैं।
नेता जी का चश्मा पाठ सार (Netaji ka Chashma Summary)
प्रस्तुत पाठ ” नेताजी का चश्मा ” कहानी देशभक्ति से जुड़ी हुई है जिसमें कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के उन करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित किया गया है जो इस देश के निर्माण में अपने – अपने तरीके से सहयोग करते हैं। लेखक बताते हैं कि हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन उस कस्बे से गुजरना पड़ता था क्योंकि हर पंद्रहवें दिन कंपनी को कोई न कोई ऐसा काम होता था जिसके कारण हर पंद्रहवें दिन हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते थे। कस्बा उतना अधिक बड़ा नहीं था , उस कस्बे में वैसे कुछ ही मकान थे जिन्हें पक्का मकान कहा जा सकता है और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा वहाँ पर केवल एक ही बाजार था। उस कस्बे में दो स्कूल , एक सीमेंट का छोटा – सा कारखाना , दो ओपन एयर सिनेमाघर , एक दो नगरपालिकाऐं भी थी। अब जहाँ नगरपालिका होती है वहाँ पर कुछ – न – कुछ काम भी करती रहती हैं। कभी वहाँ कोई सड़क पक्की करवा दी जा रही होती थी , कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए जाते थे , कभी कबूतरों के लिए घर बनवा देते थे तो कभी कवि सभाएँ करवा दी जाती थी। अब लेखक बताते हैं कि कस्बे की उसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘ शहर ’ के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की मूर्ति लगवा दी थी। जो कहानी लेखक हमें सूना रहे हैं वह कहानी भी उसी मूर्ति के बारे में है , बल्कि उसके भी एक छोटे – से हिस्से के बारे में है। लेखक को पूरी बात तो पता नहीं है , लेकिन उनको यह लगता है कि जो सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कमी रह गई है उसके बहुत से कारण हो सकते हैं जैसे – जिसने भी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति बनवाई है उसको देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होगी या फिर अच्छी मूर्ति बनाने के लिए जो खर्चा लगता है और जो उन्हें मूर्ति बनाने के लिए खर्च दिया गया होगा उस से कहीं बहुत ज्यादा खर्च होने के कारण सही मूर्तिकार को उपलब्ध नहीं करवा पाए होंगे। या हो सकता है कि काफी समय भाग- दौड़ और लिखा – पत्री में बरबाद कर दिया होगा और बोर्ड के शासन करने का समय समाप्त होने की घड़ियाँ नजदीक आ गई हों और मूर्ति का निर्माण उससे पहले करवाना हो जिस कारण किसी स्थानीय कलाकार को ही मौक़ा देने का निश्चय कर लिया गया होगा, और अंत में उस कस्बे के एक मात्र हाई स्कूल के एक मात्र ड्राइंग मास्टर को ही यह काम सौंप दिया गया होगा ( यहाँ लेखक उन ड्रॉइंग मास्टर का नाम मोतीलाल जी मानते हैं क्योंकि मूर्ति के निचे जिस मूर्तिकार का नाम लिखा गया है वह मोतीलाल है और लेखक ने उस मूर्तिकार को हाई स्कूल का ड्राइंग मास्टर इसलिए माना है क्योंकि कोई भी मूर्तिकार किसी महान व्यक्ति की मूर्ति बनाते हुए कोई गलती नहीं करेगा ) और लेखक मानते है कि उन मास्टर जी को यह काम इसलिए सौंपा गया होगा क्योंकि उन्होंने महीने – भर में मूर्ति बनाकर ‘ पटक देने ’ का विश्वास दिलाया होगा। वह मूर्ति बहुत सुंदर थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस बहुत सुंदर लग रहे थे। वे बिलकुल बच्चों की तरह निश्छल और कम उम्र वाले लग रहे थे। उनकी वह मूर्ति फ़ौजी वर्दी में बनाई गई थी। जब भी कोई मूर्ति को देखता था था तो मूर्ति को देखते ही उसे नेता जी सुभाष चंद्र जी के प्रसिद्ध नारे ‘ दिल्ली चलो ’ और ‘ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ’ आदि याद आने लगते थे। इन सभी चीजों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार ने जिस प्रकार मूर्ति बनाई है उसकी कोशिश सफल और प्रशंसा के काबिल है। परन्तु उस मूर्ति में केवल एक चीज़ की कमी थी जो उस मूर्ति को देखते ही अटपटी लगती थी। और वह कमी थी – सुभाष चंद्र बोस जी की आँखों पर चश्मा नहीं था। ( यह इसलिए कमी थी क्योंकि नेता जी सुभाष चंद्र बोस हमेशा चश्मा लगाए रहते थे और उनकी मूर्ति बिना चश्मे के बहुत अटपटी लग रही थी ) सुभाष चंद्र बोस जी की मूर्ति पर चश्मा तो था , लेकिन संगमरमर का नहीं था। क्योंकि जब मूर्ति संगमरमर की है तो चश्मा भी उसी का होना चाहिए था लेकिन उस मूर्ति पर एक मामूली सा बिना किसी विशेषता वाला और असल के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से आगे बड़ रहे थे और चौराहे पर पान खाने रुके थे तभी उन्होंने इस चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था और यह देख कर उनके चेहरे पर एक हँसी – मज़ाक भरी मुसकान फैल गई थी। यह सब देख कर उन्होंने कहा था कि वाह भई ! यह तरीका भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की , लेकिन चश्मा असलियत का ! मूर्ति पर असली चश्में को पहनाने पर हवालदार साहब नागरिकों की देश – भक्ति की सराहना कर रहे हैं क्योंकि वह मूर्ति कोई आम मूर्ति नहीं थी बल्कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की थी और उस पर एक बहुत ही बड़ी कमी थी कि उस मूर्ति पर मूर्तिकार चश्मा बनाना भूल गया था जो कहीं न कहीं नेता जी का अपमान स्वरूप देखा जा सकता है क्योंकि नेता जी ने आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व त्याग दिया था और उनकी छवि को उनके ही सादृश्य प्रस्तुत करना हर देशवासी का कर्तव्य है और कस्बे के नागरिकों ने भी अपने इसी कर्तव्य का निर्वाह करने की कोशिश की थी अतः हवलदार साहब इस घटना को देश भक्ति से जोड़ कर देख रहे हैं। दूसरी बार जब हालदार साहब को किसी काम से कस्बे से गुज़रना था तो उन्हें नेता जी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कुछ अलग दिखाई दिया। जब पहली बार उन्होंने मूर्ति को देखा था तब मूर्ति पर मोटे फ्रेम वाला चार कोनों वाला चश्मा था , अब तार के फ्रेम वाला गोल चश्मा था। यह सब देख कर हालदार साहब की जिज्ञासा और भी अधिक बड़ गई और इस बार वे उस पान वाले से बोले जिसकी दूकान पर वे पान खाया करते थे , कि वाह भई ! क्या तरीका है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों – ही – आँखों में हँसा। प्रश्न का उत्तर देने के लिए उसने पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे अपने मुँह में भरे हुए पान को थूका और पान खाने के कारण हुई लाल – काली बत्तीसी दिखाकर बोला कि यह सब कैप्टन चश्मे वाला करता है। हालदार साहब उसके उत्तर को समझ नहीं पाए और फिर से पूछने लगे कि क्या करता है ? पानवाले ने हवलदार साहब को समझाया कि चश्मा चेंज कर देता है। हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए कि पान वाला क्या कहना चाहता है और वे फिर से पूछ बैठते हैं कि क्या मतलब ? क्यों चेंज कर देता है ? पान वाला फिर समझाते हुए कहता है कि ऐसा समझ लो कि उसके पास कोई ग्राहक आ गया होगा जिस को चौडे़ चौखट वाला चश्मा चाहिए होगा। तो कैप्टन कहाँ से लाएगा ? क्योंकि वह तो उसने मूर्ति पर रख दिया होगा। तो उस चौडे़ चौखट वाले चश्मे को मूर्ति से निकाल कर उस ग्राहक को दे दिया और मूर्ति पर कोई दूसरा चश्मा बिठा दिया। हवलदार साहब को पान वाले की सारी बातें समझ में आ गई थी लेकिन एक बात अभी भी उसकी समझ में नहीं आई कि अगर कैप्टन चश्मे वाला मूर्ति पर असली चश्मे लगाता है तो नेताजी का वास्तविक चश्मा कहाँ गया ? पीछे मुड़कर पान वाले ने पान की पीक नीचे थूकी और मुसकराता हुआ बोला , कि नेता जी का वास्तविक अर्थात संगमरमर का चश्मा मास्टर यानी मूर्तिकार बनाना भूल गया। पानवाले के लिए यह एक दिलचस्प बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए बहुत ही हैरान और परेशान करने वाली बात थी कि कोई कैसे इतनी महत्वपूर्ण चीज़ को भूल सकता है। अब हवालदार साहब को अपनी सोची हुई बात सही लग रही थी कि मूर्ति के नीचे लिखा ‘ मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल ’ सच में ही उस कस्बे का अध्यापक था। अपने खयालों में खोए – खोए वे पान वाले को उसके पान के पैसे चुकाकर , चश्मेवाले की देश – भक्ति के सामने आदर से सर झुकाते हुए जीप की तरफ चले लेकिन कुछ सोच कर रुक गए और पीछे मुडे़ और पानवाले के पास वापिस जाकर पूछा , क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है ? या आजाद हिन्द फौज का कोई सेवानिवृत सिपाही ? ( ऐसा हवलदार साहब ने इसलिए पूछा क्योंकि हवलदार साहब के मुताबिक़ आज के समय में नेता जी का इतना ख़याल या इतनी देश – भक्ति तो किसी ऐसे व्यक्ति की ही हो सकती है जो या तो नेता जी से जुड़ा हुआ हो या आजादी की लड़ाई का कोई सिपाही हो ) अब तक पानवाला नया पान खाने जा रहा था। अपने हाथ में पान पकड़े हुए पान को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को बड़े ध्यान से देखा क्योंकि हवलदार साहब बहुत जिज्ञासा से कैप्टन चश्में वाले के बारे में पूछ रहे थे , फिर उसने वही अपनी लाल – काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर हवलदार साहब से बोला – नहीं साहब ! वो लँगड़ा फौज में क्या जाएगा। वह तो एक दम पागल है पागल ! फिर इशारा करके दिखते हुए बोला कि वो देखो , वो आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। उसकी फोटो – वोटो छपवा दो कहीं , जिससे उसका कोई नाम हो जाए या जिससे लोग उसे पहचानने लगे। हालदार साहब को पानवाले के द्वारा किसी देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। परन्तु जब वे मुड़े तो यह देखकर एकदम हैरान रह गए कि एक हद से ज्यादा बूढ़ा कमजोर – सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी – सा लकड़ी का संदूक और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत – से चश्मे लिए अभी – अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। उसे देख कर हवलदार साहब को बहुत बुरा लगा और वे सोचने लगे कि इस बेचारे की दुकान भी नहीं है ! फेरी लगाता है ! हालदार साहब अब और भी ज्यादा सोच में पड़ गए। वे बहुत कुछ और पूछना चाहते थे ,जैसे इसे कैप्टन क्यों कहते हैं ? क्या यही इसका वास्तविक नाम है ? लेकिन पानवाले ने पहले ही साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। क्योंकि पानवाले ने कैप्टन की ओर इशारा करके हवलदार साहब को बता दिया था कि वो कैप्टन है और अब जो कुछ भी हवलदार साहब को पूछना है वह उसी से जा कर पूछ ले। इसी कारण अब हवलदार पानवाले से भी कुछ नहीं पूछ सकते थे। हालदार साहब बिना कैप्टन से मिले या कोई प्रश्न किए ही जीप में बैठकर चले गए। अगले दो सालों तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। अचानक फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी , कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं। जिस कारण हवलदार साहब इसका कारण नहीं जान पाए। उसके अगली बार भी जब हवलदार साहब उस कस्बे से गुजरे तब भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। किन्तु आज पान की दूकान खुली हुई थी जिस कारण हालदार साहब ने पान पहले तो पान खाया और फिर धीरे से पानवाले से पूछा – क्यों भई , क्या बात है ? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं है ? पानवाला हवलदार साहब की बात सुनकर उदास हो गया। अपनी धोती के सिरे से अपनी आँखों में आए आँसुओं को पोंछता हुआ बोला कि साहब ! कैप्टन मर गया। जब हवालदार साहब को कैप्टन के मर जाने के बाद बिना चश्मे की नेता जी की मूर्ति देखने को मिलती तो वे बार – बार सोचते , कि क्या होगा उस राष्ट्र का जो अपने देश की खातिर अपना सब कुछ घर – गृहस्थी – जवानी – ज़िदगी दाव पर लगा देते हैं और आज की पीढ़ी उन पर हँसती है और वे इसी मौके को ढूँढ़ती है कि कब उनका किसी तरह फायदा हो। सोच – सोच कर हवालदार साहब दुखी हो गए थे। पंद्रह दिन बाद जब फिर से अपने काम के सिलसिले में उसी कस्बे से गुज़रे। तब कस्बे में घुसने से पहले ही उन्हें खयाल आया कि कस्बे के बीचों बिच में नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति अवश्य ही विद्यमान होगी , लेकिन उन की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। क्योंकि जब मास्टर ने मूर्ति बनाई तब वह बनाना भूल गया। और उसकी इस कमी को कैप्टन पूरी करता था लेकिन अब तो कैप्टन भी मर गया। अब हवलदार साहब ने सोच लिया था कि आज वे वहाँ रुकेंगे ही नहीं , पान भी नहीं खाएँगे , यहाँ तक की मूर्ति की तरफ तो देखेंगे भी नहीं , सीधे निकल जाएँगे। उन्होंने अपने ड्राइवर से भी कह दिया था कि चौराहे पर रुकना नहीं है क्योंकि आज बहुत काम है और पान भी कहीं आगे खा लेंगे। लेकिन हर बार की आदत के कारण आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ उठ गईं। लेकिन इस बार हवलदार साहब ने कुछ ऐसा देखा कि एक दम से चीखे , रोको ! जीप अपनी तेजी में थी , ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। जिस कारण रास्ता चलते लोग उन्हें देखने लगे। अभी जीप सही से रुकी भी नहीं थी कि हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़ – तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ चल पड़े और उसके ठीक सामने जाकर सावधान अवस्था में खड़े हो गए। मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा – सा चश्मा रखा हुआ था , जैसा बच्चे अक्सर खेल – खेल में बना लेते हैं। यह देख कर हालदार साहब भावुक हो गए। इतनी – छोटी सी बात पर उनकी आँखें भर आईं थी। (यहाँ अंत में सरकंडे से बने चश्मे को नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आंखों पर देख कर हवलदार साहब का भावुक होना यह दर्शाता है कि देश – भक्ति उम्र की मोहताज नहीं होती। हवलदार साहब को लगा था कि कैप्टन के जाने के बाद शायद ही कोई नेता जी के चश्मे का मूल्य जान पाए लेकिन जब बच्चों ने नेता जी के चश्मे का मूल्य जाना तो हवालदार साहब भावुक हो गए क्योंकि अभी इस पीढ़ी में भी देश भक्ति जिन्दा है और हमें भी अपनी आने वाली पीढ़ी को आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व त्यागने वाले वीरों की गाथाएँ सुनानी चाहिए और उनका सम्मान करना भी सिखाना चाहिए। )
See Video Explanation of नेता जी का चश्मा
नेता जी का चश्मा पाठ व्याख्या (Netaji ka Chashma Lesson Explanation)
पाठ – हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा एक ही बाजार था। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल , एक लड़कियों का स्कूल , एक सीमेंट का छोटा – सा कारखाना , दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी। नगरपालिका थी तो कुछ – न – कुछ करती भी रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दी , कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए , कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया। इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘ शहर ’ के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है , बल्कि उसके भी एक छोटे – से हिस्से के बारे में।
शब्दार्थ
हालदार – हवलदार
कस्बा – छोटा शहर या नगर , नगर से छोटी और गाँव से बड़ी बस्ती
ओपन एयर – खुला हवादार
ठो – दो
पेशाबघर – पेशाबख़ाना , पेशाब करने के लिए बनाया गया स्थान
सम्मेलन – किसी विशेष उद्देश्य या विषय पर विचार करने हेतु एकत्र होने वाले व्यक्तियों का समूह ( कॉन्फ़्रेंस ) , समारोह , अधिवेशन , सभा
उत्साही – उत्साहयुक्त , आनंद तथा तत्परता के साथ काम में लगने वाला , हौसले वाला , उमंगवाला
चौराहा – वह स्थान जहाँ चार रास्ते मिलते हों , चौरास्ता , चौमुहानी
प्रतिमा – किसी की वास्तविक अथवा कल्पित आकृति के अनुसार बनाई हुई मूर्ति या चित्र
नोट – इस गद्यांश में लेखक एक हवलदार साहब के बारे में बता रहे हैं जिन्हें किसी जरुरी काम से रोज एक कस्बे से गुजरना पड़ता था। लेखक यहाँ उसी कस्बे की एक झलक दिखा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन उस कस्बे से गुजरना पड़ता था क्योंकि हर पंद्रहवें दिन कंपनी को कोई न कोई ऐसा काम होता था जिसके कारण हर पंद्रहवें दिन हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते थे। कस्बा उतना अधिक बड़ा नहीं था , जितने अक्सर कस्बे हुआ करते हैं। उस कस्बे में वैसे कुछ ही मकान थे जिन्हें पक्का मकान कहा जा सकता है और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा वहाँ पर केवल एक ही बाजार था। उस कस्बे में दो स्कूल थे।
जिनमें से एक लड़कों का स्कूल था और दूसरा लड़कियों का स्कूल था। उस कस्बे में एक सीमेंट का छोटा – सा कारखाना भी था , वहाँ दो ओपन एयर सिनेमाघर भी थे और एक दो नगरपालिकाऐं भी थी। अब जहाँ नगरपालिका होती है वहाँ पर कुछ – न – कुछ काम भी करती रहती हैं। उस कस्बे में भी कोई – न – कोई काम चला ही रहता था। कभी वहाँ कोई सड़क पक्की करवा दी जा रही होती थी , कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए जाते थे , कभी कबूतरों के लिए घर बनवा देते थे तो कभी कवि सभाएँ करवा दी जाती थी। अब लेखक बताते हैं कि कस्बे की उसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘ शहर ’ के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की मूर्ति लगवा दी थी। जो कहानी लेखक हमें सूना रहे हैं वह कहानी भी उसी मूर्ति के बारे में है , बल्कि उसके भी एक छोटे – से हिस्से के बारे में है।
पाठ – पूरी बात तो अब पता नहीं , लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्यादा होने के कारण काफी समय उफहापोह और चिठ्ठी – पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर – मान लीजिए मोतीलाल जी – को ही यह काम सौंप दिया गया होगा , जो महीने – भर में मूर्ति बनाकर ‘ पटक देने ’ का विश्वास दिला रहे थे।
शब्दार्थ
मूर्तिकार – मूर्तियाँ बनाने वाला
लागत – किसी वस्तु , मकान आदि को बनाने में होने वाला ख़र्च , व्यय
अनुमान – अंदाज़ा , अटकल
बजट – आय-व्यय का लेखा
उफहापोह – भाग – दौड़
शासनावधि – शासन करने का समय
स्थानीय – स्थान विशेष से संबंध रखने वाला , ग्राम – नगर आदि के लोगों का , ( लोकल )
अवसर – मौका
निर्णय – संकल्प , निश्चय , ( डिसीज़न )
इकलौते – एक मात्र
नोट – इस गद्यांश में लेखक सुभाष चंद्र जी की बनाई गई मूर्ति में कुछ कमी देखने पर इसका कारण मूर्तिकार की अज्ञानता या सही मूर्तिकार को काम न देना मान रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि उनको पूरी बात तो पता नहीं है , लेकिन उनको यह लगता है कि जो सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कमी रह गई है उसके बहुत से कारण हो सकते हैं जैसे – जिसने भी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति बनवाई है उसको देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होगी या फिर अच्छी मूर्ति बनाने के लिए जो खर्चा लगता है और जो उन्हें मूर्ति बनाने के लिए खर्च दिया गया होगा उस से कहीं बहुत ज्यादा खर्च होने के कारण सही मूर्तिकार को उपलब्ध नहीं करवा पाए होंगे। या हो सकता है कि काफी समय भाग- दौड़ और लिखा – पत्री में बरबाद कर दिया होगा और बोर्ड के शासन करने का समय समाप्त होने की घड़ियाँ नजदीक आ गई हों और मूर्ति का निर्माण उससे पहले करवाना हो जिस कारण किसी स्थानीय कलाकार को ही मौक़ा देने का निश्चय कर लिया गया होगा, और अंत में उस कस्बे के एक मात्र हाई स्कूल के एक मात्र ड्राइंग मास्टर को ही यह काम सौंप दिया गया होगा (यहाँ लेखक उन ड्रॉइंग मास्टर का नाम मोतीलाल जी मानते हैं क्योंकि मूर्ति के निचे जिस मूर्तिकार का नाम लिखा गया है वह मोतीलाल है और लेखक ने उस मूर्तिकार को हाई स्कूल का ड्राइंग मास्टर इसलिए माना है क्योंकि कोई भी मूर्तिकार किसी महान व्यक्ति की मूर्ति बनाते हुए कोई गलती नहीं करेगा ) और लेखक मानते है कि उन मास्टर जी को यह काम इसलिए सौंपा गया होगा क्योंकि उन्होंने महीने – भर में मूर्ति बनाकर ‘ पटक देने ’ का विश्वास दिलाया होगा।
पाठ – जैसा कि कहा जा चुका है , मूर्ति संगमरमर की थी। टोपी की नोक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊँची। जिसे कहते हैं बस्ट। और सुंदर थी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ – कुछ मासूम और कमसिन। फ़ौजी वर्दी में। मूर्ति को देखते ही ‘ दिल्ली चलो ’ और ‘ तुम मुझे खून दो … ’ वगैरह याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था। केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं था।
शब्दार्थ
संगमरमर – एक प्रकार का चिकना पत्थर , सफ़ेद रंग का एक प्रसिद्ध मुलायम पत्थर
बस्ट – एक व्यक्ति के सिर , कंधे और छाती की मूर्ति
मासूम – निश्छल , भोला , निरपराध , बेगुनाह
कमसिन – अवयस्क , नाबालिग , सुकुमार , कम आयुवाला , अल्पवयस्क
वगैरह – आदि , इत्यादि
सराहनीय – प्रशंसा के योग्य , तारीफ़ के लायक , प्रशंसनीय
प्रयास – कोशिश , प्रयत्न , मेहनत , परिश्रम
कसर – त्रुटि , कमी , अभाव
खटकना – गड़बड़ी या अनहोनी
नोट – इस गद्यांश में लेखक नेता जी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में रही कमी को उजागर कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जैसा कि वे हमें बता चुके हैं कि वह चौक पर लगी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति सफ़ेद रंग के एक प्रसिद्ध मुलायम पत्थर की बनी हुई थी। टोपी की नोक से कोट के दूसरे बटन तक उस मूर्ति की लम्बाई लगभग दो फुट होगी। ऐसी मूर्तियाँ जो किसी व्यक्ति के सिर , कंधे और छाती तक बनाई जाती हैं – बस्ट कहलाती हैं। वह मूर्ति बहुत सुंदर थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस बहुत सुंदर लग रहे थे। वे बिलकुल बच्चों की तरह निश्छल और कम उम्र वाले लग रहे थे। उनकी वह मूर्ति फ़ौजी वर्दी में बनाई गई थी। जब भी कोई मूर्ति को देखता था था तो मूर्ति को देखते ही उसे नेता जी सुभाष चंद्र जी के प्रसिद्ध नारे ‘ दिल्ली चलो ’ और ‘ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा ’ आदि याद आने लगते थे। इन सभी चीजों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार ने जिस प्रकार मूर्ति बनाई है उसकी कोशिश सफल और प्रशंसा के काबिल है। परन्तु उस मूर्ति में केवल एक चीज़ की कमी थी जो उस मूर्ति को देखते ही अटपटी लगती थी। और वह कमी थी – सुभाष चंद्र बोस जी की आँखों पर चश्मा नहीं था। (यह इसलिए कमी थी क्योंकि नेता जी सुभाष चंद्र बोस हमेशा चश्मा लगाए रहते थे और उनकी मूर्ति बिना चश्मे के बहुत अटपटी लग रही थी )
पाठ – यानी चश्मा तो था , लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुज़रे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई। वाह भई ! यह आइडिया भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की , लेकिन चश्मा रियल ! जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे , और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्त्व मूर्ति के रंग – रूप या कद का नहीं , उस भावना का है वरना तो देश – भक्ति भी आजकल मजाक की चीज़ होती जा रही है।
शब्दार्थ
सामान्य – साधारण , मामूली , आम , जिसमें कोई विशेषता न हो
सचमुच – वास्तव में , यथार्थत
फ्रेम – चश्मे आदि का बाहरी ढाँचा
गुज़रना – किसी जगह से आगे बढ़ना
लक्षित – देखा हुआ , ध्यान में आया हुआ , अनुमान से जाना या समझा हुआ
कौतुक – कुतूहल , आश्चर्य , अचंभा , विनोद , हँसी – मज़ाक , उत्सुकता , जिज्ञासा
आइडिया – विचार , कल्पना
रियल – असली
निष्कर्ष – सारांश , निचोड़ या सिद्धांत , नतीजा , परिणाम
भावना – ध्यान , चिंतन , कामना , इच्छा , चाह
नोट – इस गद्यांश में लेखक बता रहे हैं कि किस तरह नेता जी की मूर्ति पर किसी ने असली का चश्मा रख दिया था और हवलदार साहब किस तरह इसे देश – भक्ति से जोड़ कर देखते हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि सुभाष चंद्र बोस जी की मूर्ति पर चश्मा तो था , लेकिन संगमरमर का नहीं था। क्योंकि जब मूर्ति संगमरमर की है तो चश्मा भी उसी का होना चाहिए था लेकिन उस मूर्ति पर एक मामूली सा बिना किसी विशेषता वाला और असल के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से आगे बड़ रहे थे और चौराहे पर पान खाने रुके थे तभी उन्होंने इस चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था और यह देख कर उनके चेहरे पर एक हँसी – मज़ाक भरी मुसकान फैल गई थी। यह सब देख कर उन्होंने कहा था कि वाह भई ! यह तरीका भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की , लेकिन चश्मा असलियत का ! पान खा लेने के बाद जब हवलदार साहब अपने काम के लिए निकले और उनकी जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते जा रहे थे , और अंत में वे इस परिणाम पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों की यह कोशिश प्रशंसा करने के काबिल कही जानी चाहिए। क्योंकि महत्त्व मूर्ति के रंग – रूप या कद का नहीं है , उस चाहत का है जो इन कस्बे के नागरिकों ने दिखाई है वरना तो देश – भक्ति भी आजकल मजाक की चीज़ होती जा रही है। (यहाँ मूर्ति पर असली चश्में को पहनाने पर हवालदार साहब नागरिकों की देश – भक्ति की सराहना कर रहे हैं क्योंकि वह मूर्ति कोई आम मूर्ति नहीं थी बल्कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की थी और उस पर एक बहुत ही बड़ी कमी थी कि उस मूर्ति पर मूर्तिकार चश्मा बनाना भूल गया था जो कहीं न कहीं नेता जी का अपमान स्वरूप देखा जा सकता है क्योंकि नेता जी ने आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व त्याग दिया था और उनकी छवि को उनके ही सादृश्य प्रस्तुत करना हर देशवासी का कर्तव्य है और कस्बे के नागरिकों ने भी अपने इसी कर्तव्य का निर्वाह करने की कोशिश की थी अतः हवलदार साहब इस घटना को देश भक्ति से जोड़ कर देख रहे हैं )
पाठ – दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ्रेमवाला चौकोर चश्मा था , अब तार के फ्रेमवाला गोल चश्मा है। हालदार साहब का कौतुक और बढ़ा। वाह भई ! क्या आइडिया है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है। पानवाले के खुद के मुँह में पान ठुँसा हुआ था। वह एक काला मोटा और खुशमिज़ाज़ आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों – ही – आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल – काली बत्तीसी दिखाकर बोला , कैप्टन चश्मेवाला करता है।
क्या करता है ? हालदार साहब कुछ समझ नहीं पाए।
चश्मा चेंज कर देता है। पानवाले ने समझाया।
क्या मतलब ? क्यों चेंज कर देता है ? हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए।
कोई गिराक आ गया समझो। उसको चौडे़ चौखट चाहिए। तो कैप्टन किदर से लाएगा ? तो उसको मूर्तिवाला दे दिया। उदर दूसरा बिठा दिया।
शब्दार्थ
अंतर – फ़र्क , भिन्नता , भेदभाव
चौकोर – जिसके चारों कोने या पार्श्व बराबर हों , चौखूँटा , चौकोना
कौतुक – जिज्ञासा
ठुँसा – मुँह को पूरी तरह भरना
खुशमिज़ाज़ – हमेशा खुश दिखने वाला या हमेशा खुश रहने वाला
आँखों – ही – आँखों में हँसना – मन में हंसना , अंदरूनी हंसना
तोंद थिरकी – पेट का हिलना
चेंज – बदलना
गिराक – ग्राहक
चौखट – देहली , देहरी , सीमा
किदर – किधर
उदर – उधर
नोट – इस गद्यांश में उस समय का वर्णन किया गया है जब हवलदार साहब को दूसरी बार कस्बे से गुजरते हुए मूर्ति का चश्मा बदला हुआ दिखता है तो वे पान वाले से इस बारे में पूछ रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि दूसरी बार जब हालदार साहब को किसी काम से कस्बे से गुज़रना था तो उन्हें नेता जी सुभाष चंद्र जी की मूर्ति में कुछ अलग दिखाई दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि हवलदार साहब को दूसरी बार में नेता जी की मूर्ति में कुछ परिवर्तन लगा। जब हवलदार साहब ने मूर्ति को ध्यान से देखा तो उन्होंने पाया कि आज मूर्ति पर लगा चश्मा दूसरा था। जब पहली बार उन्होंने मूर्ति को देखा था तब मूर्ति पर मोटे फ्रेम वाला चार कोनों वाला चश्मा था , अब तार के फ्रेम वाला गोल चश्मा था। यह सब देख कर हालदार साहब की जिज्ञासा और भी अधिक बड़ गई और इस बार वे उस पान वाले से बोले जिसकी दूकान पर वे पान खाया करते थे , कि वाह भई ! क्या तरीका है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मूर्ति संगमरमर की है इसलिए कपडे नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो असल का है इसलिए उसे तो बदला ही जा सकता है। जिस पान की दूकान पर हवलदार साहब पान खाया करते थे उस पान वाले के खुद के मुँह में भी पान भरा हुआ था। वह एक काला मोटा और हमेशा खुश दिखने वाला आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों – ही – आँखों में हँसा। क्योंकि वह मुँह में पान भरे हुआ था इस कारण वह अंदर – ही – अंदर हंसा जिस कारण उसका मोटा पेट भी हिलने लगा था। हवलदार साहब के प्रश्न का उत्तर देने के लिए उसने पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे अपने मुँह में भरे हुए पान को थूका और पान खाने के कारण हुई लाल – काली बत्तीसी दिखाकर बोला कि यह सब कैप्टन चश्मे वाला करता है। हालदार साहब उसके उत्तर को समझ नहीं पाए और फिर से पूछने लगे कि क्या करता है ? पानवाले ने हवलदार साहब को समझाया कि चश्मा चेंज कर देता है। हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए कि पान वाला क्या कहना चाहता है और वे फिर से पूछ बैठते हैं कि क्या मतलब ? क्यों चेंज कर देता है ? पान वाला फिर समझाते हुए कहता है कि ऐसा समझ लो कि उसके पास कोई ग्राहक आ गया होगा जिस को चौडे़ चौखट वाला चश्मा चाहिए होगा। तो कैप्टन कहाँ से लाएगा ? क्योंकि वह तो उसने मूर्ति पर रख दिया होगा। तो उस चौडे़ चौखट वाले चश्मे को मूर्ति से निकाल कर उस ग्राहक को दे दिया और मूर्ति पर कोई दूसरा चश्मा बिठा दिया।
पाठ – अब हालदार साहब को बात कुछ – कुछ समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। बल्कि आहत करती है , मानो चश्मे के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी – सी दुकान में उपलब्ध गिने – चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है।
लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम – संभवतः नेताजी से क्षमा माँगते हुए – लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वाह ! भई खूब ! क्या आइडिया है।
शब्दार्थ
बगैर – बिना , रहित , सिवा
आहत – चोट खाया हुआ , घायल , ज़ख़्मी
असुविधा – कठिनाई , परेशानी , दिक्कत
उपलब्ध – सुलभ , जो मिल सकता हो , मिला हुआ
गिने – चुने – थोड़े – बहुत
दरकार – आवश्यक , ज़रूरी , अपेक्षित , अभिलाषित , आवश्यकता
संभवतः – हो सकता है , संभव है , संभावना है , मुमकिन है
नोट – इस गद्यांश में लेखक वर्णन कर रहे कि हवलदार साहब को पान वाले की बात समझ में आ जाती है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि पान वाले के अच्छी तरह समझाने पर अब हालदार साहब को सारी बात कुछ – कुछ समझ में आ गई कि एक चश्मे वाला है जिसका नाम कैप्टन है। जब नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी की संगमरमर की मूर्ति बन गई और उस पर मूर्तिकार चश्मा बनाना भूल गया और कैप्टन को नेताजी की बिना चश्मे वाली मूर्ति बुरी लगती है। आप कह सकते हैं कि नेता जी की बिना चश्मे वाली मूर्ति कैप्टन के दिल को चोट पहुँचती है , उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो चश्मे के बिना नेताजी को कोई परेशानी हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी – सी दुकान में मौजूद थोड़े – बहुत फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है।
लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की आवश्यकता होती है जैसा कैप्टन ने मूर्ति पर लगा है और कैप्टेन के पास उसी तरह का कोई दूसरा चश्मा नहीं है तो कैप्टन चश्मे वाला मूर्ति पर लगा फ्रेम लाकर ग्राहक को दे देता है। और हवलदार साहव को यह भी लगता है कि संभव है कि जब कैप्टन नेता जी की मूर्ति पर से चश्मा हटाता है तो तो वह नेताजी से क्षमा जरूर मांगता होगा। (ऐसा हवलदार साहब को इसलिए लगता है क्योंकि जब वह नेता जी की मूर्ति पर चश्मा लगा सकता है तो वहाँ से चश्मा हटाते हुए उसे बुरा भी अवश्य लगता होगा) लेकिन बाद में कैप्टन नेता जी की मूर्ति को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। यह सब सोचते हुए हवलदार साहब के मुख से एक ही वाक्य निकलता है कि वाह ! भई खूब ! क्या आइडिया है।
पाठ – लेकिन भाई ! एक बात अभी भी समझ में नहीं आई। हालदार साहब ने पानवाले से फिर पूछा , नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहाँ गया ?
पानवाला दूसरा पान मुँह में ठूँस चुका था। दोपहर का समय था , ‘ दुकान ’ पर भीड़ – भाड़ अधिक नहीं थी। वह फिर आँखों – ही – आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। कत्थे की डंडी फ़ेंक , पीछे मुड़कर उसने नीचे पीक थूकी और मुसकराता हुआ बोला , मास्टर बनाना भूल गया। पानवाले के लिए यह एक मज़ेदार बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा ‘ मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल ’ वाकई कस्बे का अध्यापक था। बेचारे ने महीने – भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए – काँचवाला – यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते – बनाते ‘ कुछ और बारीकी ’ के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ …!
शब्दार्थ
ओरिजिनल – वास्तविक
कत्था – खैर की लकड़ियों को उबालकर निकाला हुआ गाढ़ा और सुखाया गया अर्क या सार जो पान में खाया जाता है
मज़ेदार – बढ़िया , सुखदायी , जिसमें आनंद आता हो , दिलचस्प , रोचक , मनोरंजक
चकित – विस्मित , अचंभित , आश्चर्यचकित , भौंचक , हैरान
द्रवित – प्रवाही
वाकई – वास्तव में , सचमुच , वस्तुतः
पारदर्शी – इस पार से उस पार तक दिखने वाला , जैसे – काँच , हवा , झीना वस्त्र
असफल – जो सफल न हो , विफल , नाकामयाब
नोट – इस गद्यांश में लेखक वर्णन कर रहे हैं कि हवलदार साहब किस तरह मूर्तिकार द्वारा नेता जी की मूर्ति पर चश्मा न बनाए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि हवलदार साहब को पान वाले की सारी बातें समझ में आ गई थी लेकिन एक बात अभी भी उसकी समझ में नहीं आई कि अगर कैप्टन चश्मे वाला मूर्ति पर असली चश्मे लगाता है तो नेताजी का वास्तविक चश्मा कहाँ गया ? अर्थात अगर मूर्ति संगमरमर की है तो चश्मा भी संगमरमर का होना चाहिए तो फिर वह चश्मा कहाँ गया ? यही प्रश्न हवलदार साहब पान वाले से पूछते हैं। अब तक पान वाला दूसरा पान अपने मुँह में ठूँस चुका था। दोपहर का समय था , ‘ दुकान ’ पर भीड़ – भाड़ अधिक नहीं थी। इसी वजह से हवलदार साहब के प्रश्नों के उत्तर वह पानवाला दे रहा था। पहले की ही तरह वह पानवाला मुँह में पान होने के कारण फिर से अंदर – ही – अंदर हँसा। उसका मोटा पेट फिर से हिलने लगा। इस बार भी उसने कत्थे की डंडी फ़ेंक , पीछे मुड़कर उसने पान की पीक नीचे थूकी और मुसकराता हुआ बोला , कि नेता जी का वास्तविक अर्थात संगमरमर का चश्मा मास्टर यानी मूर्तिकार बनाना भूल गया। पानवाले के लिए यह एक दिलचस्प बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए बहुत ही हैरान और परेशान करने वाली बात थी कि कोई कैसे इतनी महत्वपूर्ण चीज़ को भूल सकता है। अब हवालदार साहब को अपनी सोची हुई बात सही लग रही थी कि मूर्ति के नीचे लिखा ‘ मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल ’ सच में ही उस कस्बे का अध्यापक था। यह सोचते ही अब हवलदार साहब उस मास्टर मोतीलाल के चश्मा न बनाने के कारण सोचने लगे कि क्या कारण हो सकते हैं कि वह नेता जी का चश्मा नहीं बना पाया। हो सकता है बेचारे ने महीने – भर में मूर्ति बनाकर तैयार कर देने का वादा कर दिया होगा। और शायद बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में आर – पार देखे जाने वाला चश्मा कैसे बनाया जाए या काँचवाला ही बनाया जाए – यह तय नहीं कर पाया होगा। या हो सकता है कोशिश की होगी और नाकामयाब रहा होगा। या फिर बनाते – बनाते ‘ कुछ और बारीकी ’ के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या उसने पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह कहीं निकल गया होगा। हवलदार साहब यह सब सोचते – सोचते परेशान हो जाते हैं।
पाठ – हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था। इन्हीं खयालों में खोए – खोए पान के पैसे चुकाकर , चश्मेवाले की देश – भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ चले , फिर रुके , पीछे मुडे़ और पानवाले के पास जाकर पूछा , क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है ? या आजाद हिन्द फौज का भूतपूर्व सिपाही ? पानवाला नया पान खा रहा था। पान पकड़े अपने हाथ को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को ध्यान से देखा , फिर अपनी लाल – काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला – नहीं साब ! वो लँगड़ा क्या जाएगा फौज में। पागल है पागल ! वो देखो , वो आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। फोटो – वोटो छपवा दो उसका कहीं।
हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक रह गए। एक बेहद बूढ़ा मरियल – सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी – सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत – से चश्मे लिए अभी – अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है ! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे , इसे कैप्टन क्यों कहते हैं ? क्या यही इसका वास्तविक नाम है ? लेकिन पानवाले ने साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं।
शब्दार्थ
विचित्र – अनूठा , विलक्षण , अजीब , असाधारण , कौतूहल उत्पन्न करने वाला ,
चकित – विस्मित , अचंभित , आश्चर्यचकित , भौंचक , हैरान
विस्मित – जिसे विस्मय या आश्चर्य हुआ हो , चकित , अचंभित
समक्ष – आँखों के सामने , सम्मुख , प्रत्यक्ष , सामने
नतमस्तक – ( किसी के सम्मान में ) सिर झुकाने वाला , नम्र या विनीत
भूतपूर्व – जो बीत चुका हो , पहले वाला , प्राचीन , पूर्ववर्ती , सेवानिवृत्त
अवाक – विस्मित , स्तब्ध , चकित , चकित या हक्का-बक्का हो जाना
बेहद – जिसकी हद या सीमा न हो , असीम , अपार , बहुत अधिक
मरियल – अत्यंत दुर्बल , बहुत दुर्बल या दुबला और कमज़ोर , बे-दम
संदूकची – छोटा संदूक , छोटा लकड़ी का डिब्बा
नोट – इस गद्यांश में उस अंश का वर्णन किया गया है जहाँ हवलदार साहब पहली बार कैप्टन चश्में वाले को देखते हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि हालदार साहब को पान वाले की बातें और किसी मूर्तिकार का इस तरह मूर्ति बनाते हुए कुछ भूल जाना , यह सब कुछ बड़ा अनोखा और जिज्ञासा से भरा लग रहा था। अर्थात अब वे सारी कहानी जानने के लिए बहुत जिज्ञासु हो रहे थे। इन्हीं खयालों में खोए – खोए वे पान वाले को उसके पान के पैसे चुकाकर , चश्मेवाले की देश – भक्ति के सामने आदर से सर झुकाते हुए जीप की तरफ चले लेकिन कुछ सोच कर रुक गए और पीछे मुडे़ और पानवाले के पास वापिस जाकर पूछा , क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है ? या आजाद हिन्द फौज का कोई सेवानिवृत सिपाही ? ( ऐसा हवलदार साहब ने इसलिए पूछा क्योंकि हवलदार साहब के मुताबिक़ आज के समय में नेता जी का इतना ख़याल या इतनी देश – भक्ति तो किसी ऐसे व्यक्ति की ही हो सकती है जो या तो नेता जी से जुड़ा हुआ हो या आजादी की लड़ाई का कोई सिपाही हो ) अब तक पानवाला नया पान खाने जा रहा था। अपने हाथ में पान पकड़े हुए पान को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को बड़े ध्यान से देखा क्योंकि हवलदार साहब बहुत जिज्ञासा से कैप्टन चश्में वाले के बारे में पूछ रहे थे , फिर उसने वही अपनी लाल – काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर हवलदार साहब से बोला – नहीं साहब ! वो लँगड़ा फौज में क्या जाएगा। वह तो एक दम पागल है पागल ! फिर इशारा करके दिखते हुए बोला कि वो देखो , वो आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। उसकी फोटो – वोटो छपवा दो कहीं , जिससे उसका कोई नाम हो जाए या जिससे लोग उसे पहचानने लगे। हालदार साहब को पानवाले के द्वारा किसी देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। परन्तु जब वे मुड़े तो यह देखकर एकदम हैरान रह गए कि एक हद से ज्यादा बूढ़ा कमजोर – सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी – सा लकड़ी का संदूक और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत – से चश्मे लिए अभी – अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। उसे देख कर हवलदार साहब को बहुत बुरा लगा और वे सोचने लगे कि इस बेचारे की दुकान भी नहीं है ! फेरी लगाता है ! हालदार साहब अब और भी ज्यादा सोच में पड़ गए। वे बहुत कुछ और पूछना चाहते थे ,जैसे इसे कैप्टन क्यों कहते हैं ? क्या यही इसका वास्तविक नाम है ? लेकिन पानवाले ने पहले ही साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। क्योंकि पानवाले ने कैप्टन की ओर इशारा करके हवलदार साहब को बता दिया था कि वो कैप्टन है और अब जो कुछ भी हवलदार साहब को पूछना है वह उसी से जा कर पूछ ले। इसी कारण अब हवलदार पानवाले से भी कुछ नहीं पूछ सकते थे।
पाठ – ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था। काम भी था। हालदार साहब जीप में बैठकर चले गए। दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। कभी गोल चश्मा होता , तो कभी चौकोर , कभी लाल , कभी काला , कभी धूप का चश्मा , कभी बड़े काँचों वाला गोगो चश्मा , .. पर कोई – न – कोई चश्मा होता ज़रूर … उस धूलभरी यात्रा में हालदार साहब स को कौतुक और प्रफुल्ल्ता के कुछ क्षण देने के लिए। फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी , कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं। अगली बार भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से पूछा – क्यों भई , क्या बात है ? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं है ? पानवाला उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुँह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से आँखें पोंछता हुआ बोला – साहब ! कैप्टन मर गया।
और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब। कुछ पल चुपचाप खड़े रहे , फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और रवाना हो गए।
शब्दार्थ
बेचैन – व्याकुल , जिसे चैन न मिलता हो
प्रफुल्ल्ता – ख़ुशी
रवाना – जो एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए चल पड़ा हो , प्रस्थित , चला हुआ
नोट – इस गद्यांश में उस अंश का वर्णन किया गया है जहाँ कैप्टन के मर जाने के बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी की मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं दिखा।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि हवलदार साहब का ड्राइवर भी परेशान हो रहा था। क्योंकि हवलदार साहब मुड़ – मुड़ कर वापिस पान वाले के पास जा रहे थे। उन्हें काम भी था। इस कारण हालदार साहब बिना कैप्टन से मिले या कोई प्रश्न किए ही जीप में बैठकर चले गए। अगले दो सालों तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। वे चश्मे हमेशा ही बदले रहते थे जैसे कभी गोल चश्मा होता , तो कभी चौकोर , कभी लाल , कभी काला , कभी धूप का चश्मा , कभी बड़े काँचों वाला गोगो चश्मा , .. पर कोई – न – कोई चश्मा होता ज़रूर … कभी भी नेता जी की मूर्ति बिना चश्में के नहीं दिखती थी। वह दृश्य हालदार साहब को उनकी धूलभरी यात्रा में भी जिज्ञासा और खुशी के कुछ क्षण देने के लिए काफी थे। सब कुछ ऐसे ही चल रहा था कि अचानक फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी , कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं। जिस कारण हवलदार साहब इसका कारण नहीं जान पाए। उसके अगली बार भी जब हवलदार साहब उस कस्बे से गुजरे तब भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। किन्तु आज पान की दूकान खुली हुई थी जिस कारन हालदार साहब ने पान पहले तो पान खाया और फिर धीरे से पानवाले से पूछा – क्यों भई , क्या बात है ? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं है ? पानवाला हवलदार साहब की बात सुनकर उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुँह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से अपनी आँखों में आए आँसुओं को पोंछता हुआ बोला कि साहब ! कैप्टन मर गया।
और अब इससे ज्यादा हालदार साहब कुछ नहीं पूछ पाए क्योंकि अब उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे। कुछ पल तो वे चुपचाप खड़े रहे , फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और वहाँ से अपनी मंजिल की और चले गए।
पाठ – बार – बार सोचते , क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर – गृहस्थी – जवानी – ज़िदगी सब कुछ होम देनेवालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है। दुखी हो गए। पंद्रह दिन बाद फिर उसी कस्बे से गुज़रे। कस्बे में घुसने से पहले ही खयाल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी , लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। … क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया। … और कैप्टन मर गया। सोचा , आज वहाँ रुकेंगे नहीं , पान भी नहीं खाएँगे , मूर्ति की तरफ देखेंगे भी नहीं , सीधे निकल जाएँगे। ड्राइवर से कह दिया , चौराहे पर रुकना नहीं , आज बहुत काम है , पान आगे कहीं खा लेंगे। लेकिन आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीखे , रोको ! जीप स्पीड में थी , ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते – न – रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़ – तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए।
मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा – सा चश्मा रखा हुआ था , जैसा बच्चे बना लेते हैं।
हालदार साहब भावुक हैं। इतनी – सी बात पर उनकी आँखें भर आईं।
शब्दार्थ
कौम – जाति , बिरादरी , वंश , नस्ल , राष्ट्र , ( नेशन )
होम – कुर्बान
हृदयस्थली – हृदय की ज़मीन
प्रतिष्ठापित – जिसका प्रतिष्ठापन किया गया हो या हुआ हो
अटेंशन – सावधान
सरकंडा – एक पौधा जिसके तने में गाँठें होती हैं , गाँठदार सरपत , मूँज , सरई
भावुक – दयालु , जज़्बाती , संवेदनशील
नोट – इस अंतिम अंश में वर्णन किया गया है कि जब कैप्टन मर गया तो हवलदार साहब का मन नहीं था कि वे कस्बे में रुकें लेकिन जब देखा कि नेता जी की मूर्ति पर सरकंडे से बना छोटा सा चश्मा है तो वे भावुक हो गए।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जब हवालदार साहब को कैप्टन के मर जाने के बाद बिना चश्मे की नेता जी की मूर्ति देखने को मिलती तो वे बार – बार सोचते , कि क्या होगा उस राष्ट्र का जो अपने देश की खातिर अपना सब कुछ घर – गृहस्थी – जवानी – ज़िदगी दाव पर लगा देते हैं और आज की पीढ़ी उन पर हँसती है और वे इसी मौके को ढूँढ़ती है कि कब उनका किसी तरह फायदा हो। सोच – सोच कर हवालदार साहब दुखी हो गए थे। पंद्रह दिन बाद जब फिर से अपने काम के सिलसिले में उसी कस्बे से गुज़रे। तब कस्बे में घुसने से पहले ही उन्हें खयाल आया कि कस्बे के बीचों बिच में नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति अवश्य ही विद्यमान होगी , लेकिन उन की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। क्योंकि जब मास्टर ने मूर्ति बनाई तब वह बनाना भूल गया। और उसकी इस कमी को कैप्टन पूरी करता था लेकिन अब तो कैप्टन भी मर गया। अब हवलदार साहब ने सोच लिया था कि आज वे वहाँ रुकेंगे ही नहीं , पान भी नहीं खाएँगे , यहाँ तक की मूर्ति की तरफ तो देखेंगे भी नहीं , सीधे निकल जाएँगे। उन्होंने अपने ड्राइवर से भी कह दिया था कि चौराहे पर रुकना नहीं है क्योंकि आज बहुत काम है और पान भी कहीं आगे खा लेंगे। लेकिन हर बार की आदत के कारण आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ उठ गईं। लेकिन इस बार हवलदार साहब ने कुछ ऐसा देखा कि एक दम से चीखे , रोको ! जीप अपनी तेजी में थी , ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। जिस कारण रास्ता चलते लोग उन्हें देखने लगे। अभी जीप सही से रुकी भी नहीं थी कि हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़ – तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ चल पड़े और उसके ठीक सामने जाकर सावधान अवस्था में खड़े हो गए। मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा – सा चश्मा रखा हुआ था , जैसा बच्चे अक्सर खेल – खेल में बना लेते हैं। यह देख कर हालदार साहब भावुक हो गए। इतनी – छोटी सी बात पर उनकी आँखें भर आईं थी। (यहाँ अंत में सरकंडे से बने चश्मे को नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आंखों पर देख कर हवलदार साहब का भावुक होना यह दर्शाता है कि देश – भक्ति उम्र की मोहताज नहीं होती। हवलदार साहब को लगा था कि कैप्टन के जाने के बाद शायद ही कोई नेता जी के चश्मे का मूल्य जान पाए लेकिन जब बच्चों ने नेता जी के चश्मे का मूल्य जाना तो हवालदार साहब भावुक हो गए क्योंकि अभी इस पीढ़ी में भी देश भक्ति जिन्दा है और हमें भी अपनी आने वाली पीढ़ी को आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व त्यागने वाले वीरों की गाथाएँ सुनानी चाहिए और उनका सम्मान करना भी सिखाना चाहिए। )
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