CBSE Class 10 Hindi Chapter 2 “Ram Lakshman Parshuram Samvad”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद– Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 2 Ram Lakshman Parshuram Samvad Summary with detailed explanation of the lesson ‘Ram Lakshman Parshuram Samvad’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 2 राम लक्ष्मण परशुराम संवाद के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ के बारे में जानते हैं।
- राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ प्रवेश
- See Video Explanation of राम लक्ष्मण परशुराम संवाद
- राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ सार
- राम – लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ व्याख्या
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Ram Lakshman Parshuram Samvad Question Answers (Important)
कवि परिचय
कवि – तुलसीदास
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ प्रवेश (Ram Lakshman Parshuram Samvad – Introduction to the chapter)
रामभक्ति परंपरा में तुलसीदास जी की तुलना किसी से करना असंभव हैं। रामचरितमानस तुलसीदास जी की अनन्य रामभक्ति और उनके सृजनात्मक कौशल का अत्यधिक सुंदर उदाहरण है। तुलसीदास जी की रचनाओं में श्री राम मानवीय मर्यादाओं और आदर्शों के प्रतीक हैं। जिनके माध्यम से तुलसीदास जी ने नीति , स्नेह , शील , विनय , त्याग जैसे अत्यधिक उन्नत आदर्शों को समाज में स्थापित किया है। रामचरितमानस का मुख्य छंद चौपाई है तथा बीच – बीच में दोहे , सोरठे , हरिगीतिका तथा अन्य छंद भी पिरोए गए हैं।
प्रस्तुत पाठ में दी गई चौपाइयाँ रामचरितमानस के बाल कांड से लिए गए अंश हैं। जिनमें वर्णन किया गया है कि जब सीता स्वयंवर में श्री राम द्वारा शिव – धनुष के तोड़े जाने के बाद मुनि परशुराम जी को यह समाचार मिला तो वे क्रोधित होकर वहाँ आते हैं। शिव – धनुष को टुटा हुआ देखकर परशुराम जी अपने आपे से बाहर हो जाते हैं। अर्थात वे अत्यधिक क्रोधित हो जाते हैं। श्री राम के प्रेमपूर्वक समझाने और विश्वामित्र के द्वारा समझाने पर और साथ – ही – साथ श्री राम की शक्ति की परीक्षा लेकर अंत में उनका गुस्सा शांत होता है। इस पूरे वाक्य के बीच श्री राम , लक्ष्मण जी और परशुराम जी के बीच जो संवाद अर्थात वार्तालाप हुआ उस प्रसंग को यहाँ प्रस्तुत किया गया है। परशुराम जी के क्रोध भरे वाक्यों का उत्तर लक्ष्मण जी किस तरह व्यंग्य वचनों से देते हैं , प्रस्तुत चौपाइयों में अत्यंत सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रसंग की विशेषता यह है कि इसमें लक्ष्मण जी की वीरता , व्यंग्योक्तियाँ और व्यंजना शैली की सरस अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। साथ ही परशुराम जी के क्रोधित स्वभाव और श्री राम जी के साहसी व शक्तिशाली होने के साथ ही विनम्र होने का भी ज्ञान होता है।
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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ सार (Ram Lakshman Parshuram Samvad Summary)
प्रस्तुत पाठ में दी गई चौपाइयाँ रामचरितमानस के बाल कांड से लिए गए अंश हैं। इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इन चौपाइयों में वर्णन किया गया है कि श्री राम जी के द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने के कारण जब परशुराम जी क्रोधित हो जाते हैं तब उन के क्रोध को देखकर जब जनक के दरबार में सभी लोग भयभीत हो गए तो श्री राम ने आगे बढ़कर परशुराम जी से कहा कि भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाला उनका ही कोई एक दास होगा। श्री राम के वचन सुनकर क्रोधित परशुराम जी उनसे बोले कि सेवक वह कहलाता है , जो सेवा का कार्य करता है। शत्रुता का काम करके तो लड़ाई ही मोल ली जाती है। जिसने भगवान शिव जी के इस धनुष को तोड़ा है , वह सहस्रबाहु के समान उनका शत्रु है। फिर वे राजसभा की तरफ देखते हुए कहते हैं कि जिसने भी शिव धनुष तोड़ा है वह व्यक्ति खुद बखुद इस समाज से अलग हो जाए , नहीं तो सभा में उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम जी के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराए और परशुराम जी का अपमान करते हुए बोले कि बचपन में उन्होंने ऐसे छोटे – छोटे बहुत से धनुष तोड़ डाले थे , किंतु ऐसा क्रोध तो कभी किसी ने नहीं किया। लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातें सुनकर परशुराम जी क्रोधित स्वर में बोले कि मृत्यु के वश में होने से तुझे यह भी होश नहीं कि तू क्या बोल रहा है ?समस्त विश्व में विख्यात भगवान शिव का यह धनुष क्या तुझे बचपन में तोड़े हुए धनुषों के समान ही दिखाई देता है ? लक्ष्मण श्रीराम की ओर देखकर बोले कि इस धनुष के टूटने से क्या लाभ है तथा क्या हानि , यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। श्री राम जी ने तो इसे केवल छुआ था , लेकिन यह धनुष तो छूते ही टूट गया । फिर इसमें श्री राम जी का क्या दोष है ? लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परशुराम जी का क्रोध और बढ़ गया और वह अपने फरसे की ओर देखकर बोले कि क्या लक्ष्मण जी उनके स्वभाव के विषय में नहीं जानते ? मैं केवल बालक समझकर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। वे पूरे विश्व में क्षत्रिय कुल के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका फरसा बहुत भयंकर है। कहने का तात्पर्य यह है कि परशुराम जी लक्ष्मण जी को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें जब क्रोध आता है तो वे किसी बालक को भी मारने से नहीं हिचकिचाते। परशुराम जी के क्रोध से भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी बहुत ही अधिक कोमल वाणी में हँसकर उनसे बोले कि आप तो अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं और बार – बार मुझे अपना फरसा दिखाते हैं। जनेऊ से तो वे एक भृगुवंशी ब्राह्मण जान पड़ते हैं और इन्हें देखकर ही , जो कुछ भी उन्होंने कहा उसे लक्ष्मण जी सहन कर अपने क्रोध को रोक रहे हैं। साथ ही लक्ष्मण जी परशुराम जी के एक – एक वचन को करोड़ों वज्रों के समान कठोर बताते है। और कहते हैं कि उन्होंने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष – बाण धारण किया हुआ है। लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परशुराम जी को और क्रोध आ गया और वह विश्वामित्र से बोले कि हे विश्वामित्र ! यह बालक ( लक्ष्मण ) बहुत कुबुद्धि और कुटिल लगता है। और यह काल (मृत्यु ) के वश में होकर अपने ही कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशी बालक चंद्रमा पर लगे हुए कलंक के समान है। अभी यह क्षणभर में काल का ग्रास हो जाएगा अर्थात् मैं क्षणभर में इसे मार डालूँगा। मैं अभी से यह बात कह रहा हूँ , बाद में मुझे दोष मत दीजिएगा। यदि तुम इस बालक को बचाना चाहते हो तो , इसे मेरे प्रताप , बल और क्रोध के बारे में बता कर अधिक बोलने से मना कर दीजिए। लक्ष्मण इतने पर भी नहीं माने और परशुराम को क्रोध दिलाते हुए बोले कि आपका सुयश आपके रहते हुए दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आप तो अपने ही मुँह से अपनी करनी और अपने विषय में अनेक बार अनेक प्रकार से वर्णन कर चुके हैं। यदि इतना सब कुछ कहने के बाद भी आपको संतोष नहीं हुआ हो , तो कुछ और कह दीजिए।
जो शूरवीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते , बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर भी अपने प्रताप की व्यर्थ बातें करने वाला कायर ही हो सकता है। लक्ष्मण जी परशुराम जी के वचनों को सुनकर उन से बोले कि ऐसा लग रहा है मानो आप तो काल ( यमराज ) को आवाज लगाकर बार-बार मेरे लिए बुला रहे हो। लक्ष्मण जी के ऐसे कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने अपने भयानक फरसे को घुमाकर अपने हाथ में ले लिया और बोले अब उनको कोई दोष नहीं देगा। इतने कड़वे वचन बोलने वाला यह बालक मारे जाने योग्य है। परशुराम जी को क्रोधित होते देखकर विश्वामित्र जी उन्हें शांत कराते हुए बोले कि आप इसके अपराध को क्षमा कर दीजिए क्योंकि साधु लोग तो बालकों के गुण और दोष की गिनती नहीं करते हैं। तब परशुराम जी ने क्रोधित होते हुए कहा कि वे स्वयं दयारहित और क्रोधी हैं। फिर भी वे इसे बिना मारे छोड़ रहे हैं सिर्फ विश्वामित्र के प्रेम के कारण। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु के ऋण से मुक्त हो जाते। परशुराम जी के वचन सुनकर विश्वामित्र जी ने मन ही मन में हँसकर सोचा कि मुनि परशुराम जी को हरा – ही – हरा सूझ रहा है अर्थात् चारों ओर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। परशुराम जी अभी भी इनकी साहस , वीरता व क्षमता से अनभिज्ञ हैं। परशुराम जी के क्रोध से पूर्ण वचनों को सुन कर लक्ष्मण जी ने परशुराम जी से कहा कि उनके पराक्रम को कौन नहीं जानता। वह सारे संसार में प्रसिद्ध है। लक्ष्मण जी के कडुवे वचन सुनकर परशुराम जी ने अपना फरसा उठाया और लक्ष्मण पर आघात करने को दौड़ पड़े। सारी सभा हाय – हाय पुकारने लगी। इस पर लक्ष्मण जी बोले कि वे बार बार उन्हें फरसा दिखा रहे हैं। लगता है उनको कभी युद्ध के मैदान में वीर योद्धा नहीं मिले हैं। इसलिए वे अत्यधिक खुश हो रहे हैं। लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग यह अनुचित है , यह अनुचित है ‘ कहकर पुकारने लगे। यह देखकर श्री राम जी ने लक्ष्मण जी को आँखों के इशारे से रोक दिया। लक्ष्मण जी के उत्तर परशुराम जी की क्रोधाग्नि में आहुति के सदृश कार्य कर रहे थे । इस क्रोधाग्नि को बढ़ते देख रघुवंशी सूर्य राम , लक्ष्मण के वचनों के विपरीत , जल के समान शांत करने वाले वचनों का प्रयोग करते हुए परशुराम जी से लक्ष्मण को क्षमा करने की विनती करने लगे। श्रीराम ने अपने मीठे वचनों से परशुराम का क्रोध शांत करने का प्रयास किया।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ व्याख्या (Ram Lakshman Parshuram Samvad Lesson Explanation)
चौपाई 1
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरिकरनी करि करिअ लराई ।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अवमाने ।
बहु धनुही तोरी लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।
दोहा
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार ।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ||
शब्दार्थ
संभु – शंभु अथवा शिव
धनु – धनुष
भंजनिहारा – भंग करने वाला , तोड़ने वाला , नष्ट करने वाला
होइहि – ही होगा
केउ – कोई
आयेसु – आज्ञा
काह – क्या
कहिअ – कहते
किन – क्यों नहीं
मोही – मुझे
रिसाइ – क्रोध करना
कोही – क्रोधी
अरिकरनी – शत्रु का काम
लराई – लड़ाई
जेहि – जिसने
तोरा – तोड़ा
सहसबाहु – सहस्त्रबाहु , हजार भुजाओं वाला
सम – समान
सो – वह
रिपु – शत्रु
बिलगाउ – अलग होना
बिहाइ – छोड़कर
जैहहिं – जाएँगे
अवमाने – अपमान करना
लरिकाईं – बचपन में
कबहुँ – कभी
असि – ऐसा
रिस – क्रोध
कीन्हि – किया
गोसाईं – स्वामी / महाराज
येहि – इस
भृगुकुलकेतू – भृगुकुल की पताका अर्थात् परशुराम
नृपबालक – राजपुत्र / राजा का बेटा
त्रिपुरारि – शिव जी
बिदित – जानता है
सकल – सारा
नोट – इस काव्यांश में तुलसीदास जी ने उस वाक्य का वर्णन किया है जहाँ श्री राम के द्वारा शिव धनुष को तोड़ देने पर परशुराम जी क्रोधित हो जाते हैं। परशुराम जी इतने क्रोधित हो जाते हैं कि धनुष तोड़ने वाले को अपना शत्रु तक मान लेते हैं। परशुराम जी को इतना अधिक क्रोध करता देख कर अनजाने में ही लक्ष्मण जी उनका उपहास करने लगते हैं। जिस पर परशुराम जी और अधिक क्रोधित हो जाते हैं।
व्याख्या – श्री राम जी के द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने के कारण जब परशुराम जी क्रोधित हो जाते हैं तब उन के क्रोध को देखकर जब जनक के दरबार में सभी लोग भयभीत हो गए तो श्री राम ने आगे बढ़कर परशुराम जी से कहा कि हे नाथ ! भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। आप की क्या आज्ञा है , आप मुझसे क्यों नहीं कहते ? राम के वचन सुनकर क्रोधित परशुराम जी बोले – सेवक वह कहलाता है , जो सेवा का कार्य करता है। शत्रुता का काम करके तो लड़ाई ही मोल ली जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आप किसी को कष्ट दे कर उसको खुशी नहीं दे सकते।
हे राम ! मेरी बात सुनो , जिसने भगवान शिव जी के इस धनुष को तोड़ा है , वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। अर्थात जिसने भी भगवान् शिव के धनुष को तोड़ा है , उसकी चाहे हज़ार भुजाएँ हों वह फिर भी मेरा शत्रु है। फिर वो राजसभा की तरफ देखते हुए कहते हैं कि जिसने भी शिव धनुष तोड़ा है वह व्यक्ति खुद बखुद इस समाज से अलग हो जाए , नहीं तो यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम जी के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराए और परशुराम जी का अपमान करते हुए बोले – हे गोसाईं ( संत ) ! बचपन में हमने ऐसे छोटे – छोटे बहुत से धनुष तोड़ डाले थे , किंतु ऐसा क्रोध तो कभी किसी ने नहीं किया , जिस प्रकार आप कर रहे हैं। इसी धनुष पर आपकी इतनी ममता क्यों है ?
लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातें सुनकर परशुराम जी क्रोधित स्वर में बोले – अरे राजा के पुत्र ! मृत्यु के वश में होने से तुझे यह भी होश नहीं कि तू क्या बोल रहा है ? तू सँभल कर नहीं बोल पा रहा है । समस्त विश्व में विख्यात भगवान शिव का यह धनुष क्या तुझे बचपन में तोड़े हुए धनुषों के समान ही दिखाई देता है ?
भावार्थ – इस चौपाई में परशुराम जी के क्रोध को दिखाया गया है। जो अपने आराध्य भगवान् शिव के धनुष के टूटने से अत्यंत दुखी हैं और धनुष को तोड़ने वाले को अपने शत्रु की तरह देख रहे हैं।
चौपाई 2
लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।
का छति लाभु जून धनु तोरें । देखा राम नयन के भोरें ।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।।
बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही । ।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ।।
दोहा
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।
शब्दार्थ
हसि – हँसकर
हमरे – मेरे
सुनहु – सुनो
छति – क्षति / नुकसान
जून – पुराना
तोरें – तोड़ने में
भोरें – धोखे में
छुअत टूट – छूते ही टूट गया
रघुपतिहु – राम का
दोसू – दोष / गलती
बिनु – बिना
काज – कारण
रोसु – क्रोध
चितै – देखकर
परसु – फरसा
सठ – दुष्ट
सुनेहि – सुना है
सुभाउ – स्वभाव
बधौं – वध करता हूँ
तोही – तुझे
अति कोही – बहुत अधिक क्रोधित
बिस्वबिदित – दुनिया में प्रसिद्ध
द्रोही – घोर क्षत्रु
भुजबल – भुजाओं के बल से
कीन्ही – कई बार
भूप – राजा
बिपुल – बहुत
महिदेवन्ह – ब्राह्मणों को
छेदनिहारा – काट डाला
बिलोकु – देखकर
महीपकुमारा – राजकुमार
गर्भन्ह – गर्भ के
अर्भक – बच्चा
दलन – कुचलने वाला
अति घोर – अत्यधिक भयंकर
नोट – इस काव्यांश में तुलसीदास वर्णन कर रहे हैं कि जब परशुराम जी को अत्यधिक क्रोध करता देख लक्ष्मण जी उनका और ज्यादा मजाक बनाने लगते हैं जिस कारण परशुराम जी इतने अधिक क्रोधित हो जाते हैं कि वे अपना परिचय अत्यधिक क्रोधी स्वभाव वाले व्यक्ति के रूप में देते हैं और बताते हैं कि वे पूरे विश्व में क्षत्रिय कुल के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हैं।
व्याख्या – परशुराम जी का शिव धनुष की ओर इतना प्रेम देख कर और उसके टूट जाने पर अत्यधिक क्रोधित होता हुआ देख कर लक्ष्मण जी हँसकर परशुराम जी से बोले कि हे देव ! सुनिए , मेरी समझ के अनुसार तो सभी धनुष एक समान ही होते हैं ।
लक्ष्मण श्रीराम की ओर देखकर बोले कि इस धनुष के टूटने से क्या लाभ है तथा क्या हानि , यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। श्री राम जी ने तो इसे केवल छुआ था , लेकिन यह धनुष तो छूते ही टूट गया । फिर इसमें श्री राम जी का क्या दोष है ? मुनिवर ! आप तो बिना किसी कारण के क्रोध कर रहे हैं ? कहने का तात्पर्य यह है कि लक्ष्मण जी परशुराम जी के क्रोध को बेमतलब का मान रहे थे क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि उस धनुष के साथ परशुराम जी के क्या भाव जुड़े थे।
लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परशुराम जी का क्रोध और बढ़ गया और वह अपने फरसे की ओर देखकर बोले कि अरे दुष्ट ! क्या तूने मेरे स्वभाव के विषय में नहीं सुना है ? मैं केवल बालक समझकर तुम्हारा वध नहीं कर रहा हूँ। अरे मूर्ख ! क्या तू मुझे केवल एक मुनि समझता है ? मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति हूँ ।मैं पूरे विश्व में क्षत्रिय कुल के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
मैंने अपनी इन्हीं भुजाओं के बल से पृथ्वी को कई बार राजाओं से रहित करके उसे ब्राह्मणों को दान में दे दिया था। हे राजकुमार ! मेरे इस फरसे को देख , जिससे मैंने सहस्रबाहु अर्थात हजारों लोगों की भुजाओं को काट डाला था ।
अरे राजा के बालक लक्ष्मण ! तू मुझसे भिड़कर अपने माता – पिता को चिंता में मत डाल अर्थात अपनी मौत को न बुला । मेरा फरसा बहुत भयंकर है । यह गर्भ में पल रहे बच्चों का भी नाश कर डालता है अर्थात मेरे फरसे की गर्जना सुनकर गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परशुराम जी लक्ष्मण जी को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें जब क्रोध आता है तो वे किसी बालक को भी मारने से नहीं हिचकिचाते।
भावार्थ – इस चौपाई में परशुराम जी लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर अत्यधिक क्रोधित हो जाते हैं। किन्तु वे लक्ष्मण जी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते थे जिस कारण वे लक्ष्मण जी को अपने क्रोध का परिचय देते हुए कहते हैं कि उनका फरसा बहुत भयंकर है , जो गर्भ में पल रहे बच्चों का भी नाश कर डालता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परशुराम जी केवल उस व्यक्ति को सजा देना चाहते थे जिसने उनके आराध्य शिव जी के धनुष को तोड़ा था। वे लक्ष्मण जी को बालक समझ कर केवल अपने क्रोध का परिचय देते हैं।
चौपाई 3
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ।।
इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी ।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाईं । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।
बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।।
दोहा
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर ।।
शब्दार्थ
बिहसि – हँसकर
मृदु – कोमल
बानी – बोली , वाणी
मुनीसु – महामुनि
महाभट – महान् योद्धा
मानी – मानना
पुनि पुनि – बार बार
कुठारु – फरसा / कुल्हाड़ा
पहारू – पहाड़
इहाँ – यहाँ
कुम्हड़बतिआ – सीताफल / कुम्हड़ा का छोटा फल
तरजनी – अँगूठे के पास की अँगुली
सरासन – धनुष
बाना – बाण
भृगुसुत – भृगुवंशी
सहौं – सहन करना
सुर – देवता
महिसुर – ब्राह्मण
हरिजन – ईश्वर भक्त
अरु – और
गाईं – गाय
सुराई – वीरता दिखाना
बधें – वध करने से , मारने से
अपकीरति – अपयश
मारतहू – मार दो
पा – पैर
परिअ – पड़ना
कोटि – करोड़
कुलिस – वज्र / कठोर
कहेउँ – कह दिया हो
छमहु – क्षमा करना
धीर – धैर्यवान
सरोष – क्रोध में भरकर
गिरा – वाणी
नोट – इस काव्यांश में परशुराम जी के क्रोधित वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी द्वारा अत्यंत कोमल वाणी में हँसकर उनको प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि वे उनको भृगुवंशी समझकर और आपके कंधे पर जनेऊ देखकर अपने क्रोध को सहन कर रहे हैं। उनका तो एक – एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान कठोर है। उन्होंने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष धारण किया हुआ है। इन वचनों को सुनकर परशुराम जी और अधिक क्रोधित हो जाते हैं।
व्याख्या – परशुराम जी के क्रोध से भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी बहुत ही अधिक कोमल वाणी में हँसकर उनसे बोले कि हे मुनिवर ! आप तो अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं और बार – बार मुझे अपना फरसा दिखाते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आप फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं , परंतु हे मुनिवर ! यहाँ पर कोई भी सीता फल अर्थात कुम्हड़े के छोटे फल के समान नहीं हैं , जो तर्जनी उँगली को देखते ही मर जाएँ। ( यहाँ लक्षमण जी ने , तर्जनी उँगली को देखते ही मर जाएँ , ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि परशुराम जी ने क्रोध में अपनी तर्जनी उँगली दिखा कर कहा था कि अगर वह व्यक्ति सभा से अलग नहीं हो जाता अर्थात उनके सामने नहीं आ जाता जिसने उनके आराध्य शिव जी का धनुष तोड़ा है तो वे वहाँ सभा में उपस्थित सभी राजाओं का वध कर देंगे )
मुनि जी ! मैंने आपके हाथ में फरसा और धनुष – बाण देखकर ही अभिमानपूर्वक आपसे कुछ कहा था। कहने का तात्पर्य यह है कि एक क्षत्रिय ही दूसरे क्षत्रिय से अभिमान पूर्वक कुछ कह सकता है। जनेऊ से तो आप एक भृगुवंशी ब्राह्मण जान पड़ते हैं इन्हें देखकर ही , जो कुछ भी आपने कहा उसे सहन कर अपने क्रोध को रोक रहा हूँ। हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता , ब्राह्मण , भगवान के भक्त और गाय , इन सभी पर वीरता नहीं दिखाया करते , क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति अथवा अपयश ( बदनामी ) होता है । इसीलिए आप मारें तो भी , हमें आपके पैर पकड़ने चाहिए। हे महामुनि ! आपका तो एक – एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान कठोर है। आपने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष – बाण धारण किया हुआ है।
आपके धनुष बाण और कुठार (फरसे) को देखकर अगर मैंने कुछ अनुचित कह दिया हो तो हे मुनिवर ! आप मुझे क्षमा कीजिए। लक्ष्मण के यह व्यंग्य – वचन सुनकर भृगुवंशी परशुराम क्रोध में आकर गंभीर स्वर में बोलने लगे।
भावार्थ – परशुराम जी को अत्यधिक क्रोधित हो कर अपने क्रोधित व्यवहार के बारे में बताते हुए देख कर लक्ष्मण जी इनका और अधिक अपमान करने लगे और उनके बताए तर्कों का खंडन करने लगे। लक्ष्मण जी के ऐसा करने के कारण परशुराम जी और अधिक क्रोधित हो गए।
चौपाई 4
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु | कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।
भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।
कालकवलु होइहि छन माहीं । कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ।।
दोहा
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ।।
शब्दार्थ
कौसिक – विश्वामित्र
सुनहु – सुनिए
मंद – मुर्ख , कुबुद्धि
येहु – यह
कुटिलु – दुष्ट
कालबस – मृत्यु के वशीभूत
घालकु – घातक
भानुबंस – सूर्यवंशी
राकेस कलंकू – चंद्रमा का कलंक
निपट – पूरी तरह
निरंकुसु – जिस पर किसी का वश न चले
अबुधु – नासमझ
असंकू – शंकारहित
कालकवलु – काल का ग्रसित / मृत
छन माहीं – क्षण भर में
खोरि – दोष
हटकहु – रोको
उबारा – बचाना
सुजसु – सुयश / सुकीर्ति
अछत – आपके रहते हुए
बरनै – वर्णन
पारा – दुसरा
करनी – काम
बरनी – वर्णन किया
दुसह – असह्य
बीरब्रती – वीरता का व्रत धारण करने वाला
अछोभा – क्षोभरहित
गारी – गाली
सूर – शूरवीर
समर – युद्ध
रन – युद्ध
कथहिं प्रतापु – प्रताप की डींग मारना
नोट – इन चौपाइयों में लक्ष्मण जी की व्यंग भरी बातों को सुन कर परशुराम जी विश्वामित्र जी को उन्हें समझाने को कहते है और साथ – ही – साथ यह भी कहते हैं कि अगर लक्ष्मण जी चुप नहीं हुए तो इसके परिणाम का दोष उन्हें न दिया जाए। परन्तु लक्ष्मण जी इसके बावजूद भी परशुराम जी पर व्यंग्य कसते जाते हैं।
व्याख्या – लक्ष्मण जी की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परशुराम जी को और क्रोध आ गया और वह विश्वामित्र से बोले कि हे विश्वामित्र ! यह बालक ( लक्ष्मण ) बहुत कुबुद्धि और कुटिल लगता है। और यह काल (मृत्यु ) के वश में होकर अपने ही कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशी बालक चंद्रमा पर लगे हुए कलंक के समान है। यह बालक मूर्ख , उदंण्ड , निडर है और इसे भविष्य का भान तक नहीं है।
अभी यह क्षणभर में काल का ग्रास हो जाएगा अर्थात् मैं क्षणभर में इसे मार डालूँगा। मैं अभी से यह बात कह रहा हूँ , बाद में मुझे दोष मत दीजिएगा। यदि तुम इस बालक को बचाना चाहते हो तो , इसे मेरे प्रताप , बल और क्रोध के बारे में बता कर अधिक बोलने से मना कर दीजिए।
लक्ष्मण जी इतने पर भी नहीं माने और परशुराम को क्रोध दिलाते हुए बोले कि हे मुनिवर ! आपका सुयश आपके रहते हुए दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आप तो अपने ही मुँह से अपनी करनी और अपने विषय में अनेक बार अनेक प्रकार से वर्णन कर चुके हैं।
यदि इतना सब कुछ कहने के बाद भी आपको संतोष नहीं हुआ हो , तो कुछ और कह दीजिए। अपने क्रोध को रोककर असह्य दुःख को सहन मत कीजिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले , धैर्यवान और क्षोभरहित हैं , आपको गाली देना शोभा नहीं देता।
जो शूरवीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते , बल्कि युद्ध भूमि में अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर भी अपने प्रताप की व्यर्थ बातें करने वाला कायर ही हो सकता है। अर्थात युद्ध में अपने शत्रु को सामने देखकर अपनी झूठी प्रशंसा तो कायर करते हैं।
भावार्थ – लक्ष्मण जी जब परशुराम जी का अपमान किए जा रहे थे तब परशुराम जी ने लक्ष्मण जी को शांत करवाने के लिए विश्वामित्र जी को कहा , क्योंकि परशुराम जी नहीं चाहते थे कि वे क्रोध में कुछ अनर्थ कर दें। किन्तु लक्ष्मण जी परशुराम जी पर व्यंग्य करते जा रहे थे। इस चौपाई से हमें यह भी ज्ञात होता है कि परशुराम जी का क्रोधित व्यवहार सम्पूर्ण संसार में विख्यात था किन्तु लक्ष्मण जी इससे अनजान थे और वे अनजाने में ही परशुराम जी के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे थे।
चौपाई 5
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ।।
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेड कर घोरा ।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब येहु मरनिहार भा साँचा ।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।।
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ।।
न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ।।
दोहा
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ।।
शब्दार्थ
कालु – काल / मृत्यु
हाँक – आवाज़ लगाना
जनु – जैसे
लावा – लगाना
सुधारि – सुधारकर
कर – हाथ
देइ – देना
दोसु – दोष
कटुबादी – कड़वे वचन बोलने वाला
बधजोगू – मारने योग्य , वध के योग्य
बाँचा – बचाया
मरनिहार – मरने वाला
साँचा – सच में ही
छमिअ – क्षमा करना
गनहिं – गिनना
खर – दुष्ट
अकरुन – जिसमें दया और करुणा न हो
कोही – क्रोधी
गुरहि – गुरु के
उरिन – ॠण से मुक्त
श्रमथोरे – थोड़े परिश्रम से
गाधिसूनु – गाधि के पुत्र अर्थात् विश्वामित्र
हरियरे – हरा ही हरा
अयमय – लोहे की बनी हुई
खाँड़ – तलवार
ऊखमय – गन्ने से बनी हुई
अजहुँ – अब भी
नोट – इस चौपाई में तुलसीदास जी वर्णन कर रहे हैं कि जब लक्ष्मण जी परशुराम जी के क्रोध से नहीं डर रहे थे तो परशुराम जी सभी से कहते हैं कि अभी तक वे लक्ष्मण जी को बालक समझ कर माफ कर रहे थे , परन्तु अब वे और सहन नहीं कर सकते। अब कोई उन्हें दोष न दें। परशुराम जी के ऐसे वचन सुनकर विश्वामित्र जी मन ही मन परशुराम जी का अज्ञानियों की तरह व्यवहार देख कर हँसने लगे।
व्याख्या – लक्ष्मण जी परशुराम जी के वचनों को सुनकर उन से बोले कि ऐसा लग रहा है मानो आप तो काल ( यमराज ) को आवाज लगाकर बार-बार मेरे लिए बुला रहे हो। लक्ष्मण जी के ऐसे कठोर वचन सुनते ही परशुराम जी का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने अपने भयानक फरसे को घुमाकर अपने हाथ में ले लिया और बोले अब मुझे कोई दोष नहीं देना। इतने कड़वे वचन बोलने वाला यह बालक मारे जाने योग्य है। बालक देखकर इसे मैंने बहुत बचाया , लेकिन लगता है कि अब इसकी मृत्यु निकट आ गई है।
परशुराम जी को क्रोधित होते देखकर विश्वामित्र जी बोले हे मुनिवर ! आप इसके अपराध को क्षमा कर दीजिए क्योंकि साधु लोग तो बालकों के गुण और दोष की गिनती नहीं करते हैं। तब परशुराम जी ने क्रोधित होते हुए कहा मै दयारहित और क्रोधी हूँ कि ये मेरा दुष्ट फरसा है , मैं स्वयं दयारहित और क्रोधी हूँ , उस पर यह गुरुद्रोही मेरे सामने …….
उत्तर दे रहा हैं फिर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। हे विश्वामित्र ! सिर्फ तुम्हारे प्रेम के कारण। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता।
परशुराम जी के वचन सुनकर विश्वामित्र जी ने मन ही मन में हँसकर सोचा कि मुनि परशुराम जी को हरा – ही – हरा सूझ रहा है अर्थात् चारों ओर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। मुनि अब भी नहीं समझ रहे हैं कि ये दोनों बालक लोहे की बनी हुई तलवार हैं , गन्ने के रस की नहीं , जो मुँह में लेते ही गल जाएँ अर्थात् राम – लक्ष्मण सामान्य वीर न होकर बहुत पराक्रमी योद्धा हैं। परशुराम जी अभी भी इनकी साहस , वीरता व क्षमता से अनभिज्ञ हैं।
भावार्थ – इस चौपाई से हमें पता चलता है कि लक्ष्मण जी निडर स्वभाव के हैं और परशुराम जी जो आज तक सभी क्षत्रियों पर विजयी रहे हैं , वे राम – लक्ष्मण को भी एक साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। जिस कारण विश्वामित्र जी उनकी अज्ञानता पर मन ही मन हँस रहे हैं।
चौपाई 6
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ।।
माता पितहि उरिन भये नीकें । गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा । दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा ।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही । बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े । द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे । रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।।
दोहा
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु ।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ||
शब्दार्थ
सीलु – शील स्वभाव
बिदित – पता है
उरिन – ऋणमुक्त
भये – हो गए
नीकें – भली प्रकार
गुररिनु – गुरु का ऋण
हमरेहि – मेरे ही
ब्यवहरिआ – हिसाब लगाने वाले को
बिप्र – ब्राह्मण
सुभट – बड़े – बड़े योद्धा
द्विजदेवता – ब्राह्मण
सयनहि – आँख के इशारे से
नेवारे – मना किया
कृसानु – अग्नि
रघुकुलभानु – रघुवंश के सूर्य श्रीरामचंद्र
नोट – इस चौपाई में तुलसीदास जी वर्णन कर रहे हैं कि जब लक्ष्मण जी किसी भी तरह परशुराम जी के अपमान करने से पीछे नहीं हट रहे थे और परशुराम जी को अत्यधिक क्रोध आ रहा था तब श्री राम जी ने लक्ष्मण जी के वचनों के विपरीत शांत वचनों से परशुराम जी से लक्ष्मण जी को क्षमा करने की विनती करने लगे।
व्याख्या – परशुराम जी के क्रोध से पूर्ण वचनों को सुन कर लक्ष्मण जी ने परशुराम जी से कहा कि हे मुनिश्रेष्ठ ! आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता। वह सारे संसार में प्रसिद्ध है। आपने अपने माता पिता का ऋण तो चुका ही दिया हैं और अब अपने गुरु का ऋण चुकाने की सोच रहे हैं। जिसका आपके जी पर बड़ा बोझ है। और अब आप ये बात भी मेरे माथे डालना चाहते हैं। बहुत दिन बीत गये। इसीलिए उस ऋण में ब्याज बहुत बढ़ गया होगा। बेहतर है कि आप किसी हिसाब करने वाले को बुला लीजिए। मैं आपका ऋण चुकाने के लिए तुरंत थैली खोल दूंगा। लक्ष्मण जी के कडुवे वचन सुनकर परशुराम जी ने अपना फरसा उठाया और लक्ष्मण जी पर आघात करने को दौड़ पड़े । सारी सभा हाय – हाय पुकारने लगी। इस पर लक्ष्मण जी बोले हे मुनिश्रेष्ठ ! आप मुझे बार बार फरसा दिखा रहे हैं। हे क्षत्रिय राजाओं के शत्रु ! मैं आपको ब्राह्मण समझ कर बार – बार बचा रहा हूँ। मुझे लगता है आपको कभी युद्ध के मैदान में वीर योद्धा नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर में ही अपनी वीरता के कारण फूले – फूले फिर रहे हैं अर्थात् अत्यधिक खुश हो रहे हैं। लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग यह अनुचित है , यह अनुचित है ‘ कहकर पुकारने लगे। यह देखकर श्री राम जी ने लक्ष्मण जी को आँखों के इशारे से रोक दिया।
लक्ष्मण जी के उत्तर परशुराम जी की क्रोधाग्नि में आहुति के सदृश कार्य कर रहे थे। इस क्रोधाग्नि को बढ़ते देख रघुवंशी सूर्य राम , लक्ष्मण जी के वचनों के विपरीत , जल के समान शांत करने वाले वचनों का प्रयोग करते हुए परशुराम जी से लक्ष्मण को क्षमा करने की विनती करने लगे। लक्ष्मण जी के उत्तरों ने , परशुराम जी के क्रोध रूपी अग्नि में आहुति का काम किया। जिससे उनका क्रोध अत्यधिक बढ़ गया। जब श्री राम ने देखा कि परशुराम जी का क्रोध अत्यधिक बढ़ चुका है। अग्नि को शांत करने के लिए जैसे जल की आवश्यकता होती हैं। वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने के लिए मीठे वचनों की आवश्यकता होती हैं। श्री राम ने भी वही किया। श्री राम ने अपने मीठे वचनों से परशुराम जी का क्रोध शांत करने का प्रयास किया।
भावार्थ – लक्ष्मण जी के प्रत्येक उत्तर परशुराम जी की क्रोधाग्नि में आहुति के कार्य कर रहे थे। जब श्री राम जी ने ये सब देखा कि परशुराम जी का क्रोध अत्यधिक बढ़ चुका है। तब अग्नि को शांत करने के लिए जैसे जल की आवश्यकता होती हैं। वैसे ही परशुराम जी की क्रोध रूपी अग्नि को शांत करने के लिए श्री राम जी ने मीठे वचनों से परशुराम जी का क्रोध शांत करने का प्रयास किया। भाव यह है कि जितने क्रोधित स्वभाव के लक्ष्मण जी थे उसके बिलकुल विपरीत श्री राम का स्वभाव अत्यंत शांत था।
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