CBSE Class 10 Hindi Chapter 2 “Saana Saana Hath Jodi”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Bhag 2 Book
साना-साना हाथ जोड़ी – Here is the CBSE Class 10 Hindi Kritika Bhag 2 Chapter 2 Saana Saana Hath Jodi Summary with detailed explanation of the lesson ‘Saana Saana Hath Jodi’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए कृतिका भाग 2 के पाठ 2 साना-साना हाथ जोड़ी के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 साना-साना हाथ जोड़ी पाठ के बारे में जानते हैं।
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लेखक परिचय
लेखिका – मधु कांकरिया
साना-साना हाथ जोड़ी पाठ प्रवेश – (Saana Saana Hath Jodi Introduction)
“साना साना हाथ जोड़ि” की लेखिका मधु कांकरिया हैं। यह एक यात्रा वृतांत है। इस यात्रा का वर्णन करते हुए लेखिका ने सिक्किम के प्राकृतिक सौंदर्य व हिमालय के विराट व अद्धभुत रूप का खूबसूरती से वर्णन किया है। लेखिका पहली बार उच्च हिमालयी पहाड़ी क्षेत्रों, सफेद बर्फ वाले पर्वतों व प्राकृतिक दृश्यों को देख रही थी जिस कारण वह बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी। लेखिका के मन को इन पहाड़ों की खूबसूरती, कल-कल बहती नदियों, ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से गिरते जलप्रपातों, बर्फ से ढके पहाड़ों, टेढ़े मेढ़े संकरे रास्तों ने मोह लिया था। जहाँ एक ओर पहाड़ों की खूबसूरती थी, वही दूसरी ओर यहां रहने वाले स्थानीय लोगों के लिए कई बार यही पहाड़ मुसीबत खड़ी कर जाते हैं। उन्हें हर दिन इन टेढ़े मेढ़े संकरे रास्तों से होकर आना-जाना होता है। खेत-खलिहान भी घर से दूर होते हैं अतः रोज़ उन्हें इन पहाड़ों पर चढ़ाई करनी होती है। छोटे-छोटे बच्चों को स्कूलों तक पहुंचने के लिए लगभग तीन-चार किलोमीटर चढाई करनी पड़ती है। यहाँ के लोगों की रोज की दिनचर्या में जंगलों से जानवरों के लिए चारा लाना व जलाने के लिए लकड़ी लाना, खेती-बाड़ी के अनेक काम शामिल होते हैं। महानगरों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा इन पहाड़ों में रहने वाले लोगों की जिंदगी काफी कठिनाइयों से भरी होती है वो हर रोज नई चुनौतियों का सामना करते हैं।
साना-साना हाथ जोड़ी पाठ सार – (Saana Saana Hath Jodi Summary)
लेखिका के गैंगटॉक शहर में पहुंचने के बाद लेखिका के सुहावने सफ़र की शुरुआत होती है। लेखिका गैंगटॉक शहर को “मेहनतकश बादशाहों का शहर” कहती हैं। क्योंकि यहां के लोग बहुत अधिक कठिनाई व् मेहनत कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। जब लेखिका टिमटिमाते हजारों तारों से भरे आसमान को देखती हैं तो उन जादू भरे क्षणों में खो जाती हैं। वहाँ सुबह लेखिका ने एक नेपाली युवती द्वारा सिखाई गई प्रार्थना “साना साना हाथ जोड़ी , गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली” यानि “छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूं कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो” भी की। लेखिका यूमथांग की ओर चलने से पहले हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा को देखना चाहती थी इसलिए वह अपनी बालकनी में जाती है क्योंकि वहाँ से कंचनजंघा की चोटी दिखाई देती थी। परन्तु उस समय बादल और धुंध होने के कारण उन्हें कंचनजंघा की चोटी तो नहीं दिखाई देती है, लेकिन उनको सामने बगीचे में खिले हुए ढेर-सारे फूलों को देखकर उनको बहुत खुशी होती है। उसके बाद लेखिका गैंगटॉक शहर से 149 किलोमीटर दूर यूमथांग यानि घाटियों को देखने अपने गाइड जितेन नार्गे व सहेली मणि के साथ यात्रा शुरू करती है। रास्ते में लेखिका को बौद्ध धर्मावलंबियों द्वारा लगाई गई सफेद पताकाएं दिखी जिन पर मंत्र लिखे होते हैं। ये पताकाएं किसी ध्वज की तरह फहराती रहती हैं , जो शांति और अहिंसा का प्रतीक होती हैं। लेखिका ने जब इन पताकाओं के बारे अपने गाइड जितेन से पूछा तो उसने बताया कि जब भी किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी पवित्र स्थान पर 108 पताकाएं फहरा दी जाती है। नार्गे ने यह भी बताया कि किसी शुभ अवसर या नए कार्य की शुरुआत करने पर सफेद की जगह रंगीन पताकाएं फहरा दी जाती हैं। यहां से थोड़ी दूरी पर स्थित “कवी लोंग स्टॉक ” जगह के बारे में नार्गे ने बताया कि यहां “गाइड” फिल्म की शूटिंग हुई थी। आगे बढ़ते हुए जब लेखिका ने एक कुटिया के अंदर “प्रेयर व्हील यानि धर्म चक्र” को धूमते हुए देखा तो उसके बारे में जानने के लिए उत्सुक हुई और अपने गाइड से इसके बारे में पूछा। तब नार्गे ने बताया कि प्रेयर व्हील एक धर्म चक्र है। इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं। यह सुनकर लेखिका को एहसास हुआ कि चाहे पहाड़ हो या मैदान हो या कोई भी जगह हो , इस देश की आत्मा एक जैसी ही है।
जैसे-जैसे लेखिका अपनी यात्रा में आगे बढ़ रही थी पहाड़ की ऊंचाई भी बढ़ने लगी। ऊँचाई के कारण बाजार , लोग , बस्तियां सब पीछे छूटने लगे। अब लेखिका को हिमालय पल-पल बदलता हुआ नजर आ रहा था। क्योंकि लेखिका को अब हिमालय के खूबसूरत प्राकृतिक नजारे, आसमान छूते पर्वत शिखर, ऊंचाई से झर-झर गिरते जलप्रपात, नीचे पूरे वेग से बहती चांदी की तरह चमकती तीस्ता नदी को देखकर अंदर ही अंदर अत्यंत ख़ुशी महसूस हो रही थी।
आगे लेखिका की जीप “सेवेन सिस्टर्स वॉटरफॉल” पर रूक गई। उस पानी को अपनी अंजनी में भर कर लेखिका को ऐसा लग रहा था जैसे उसने संकल्प कर अपने अंदर की सारी बुराइयों व दुष्ट वासनायों को इस झरने के निर्मल धारा में बहा दिया हों। यह सब लेखिका के मन व आत्मा को शांति देने वाला था। लेखिका को पर्वत , झरने , घाटियों , वादियों के ऐसे दुर्लभ नजारे पहली बार देखने को मिल रहे थे और उन्हें सभी कुछ बेहद खूबसूरत लग रहा था।
जब लेखिका ने सफ़र के दौरान कुछ पहाड़ी औरतों को कुदाल और हथौड़ी से पत्थर तोड़ते हुए देखा तो लेखिका उन्हें देख कर अचंभित हो गई। कुछ महिलाओं की पीठ में बड़ी सी टोकरिया थी जिनमें उनके छोटे बच्चे बैठे थे। इस दृश्य में लेखिका ने मातृत्व साधना और श्रम साधना का एक मिश्रित रूप देखा। लेखिका को पता चला कि ये महिलाएं पहाड़ी रास्तों को चौड़ा करने का काम कर रही है और यह बहुत ही खतरनाक काम होता है क्योंकि कई बार इस काम में मजदूरों की मौत भी हो जाती हैं। यह सब देखकर लेखिका मन मन सोचने लगी कि “कितना कम लेकर ये लोग, समाज को कितना अधिक वापस कर देते हैं”।
थोड़ा सा और ऊंचाई पर चलने के बाद लेखिका ने देखा कि सात-आठ साल के बच्चे अपने स्कूल से घर लौट रहे हैं। ये बच्चे रोज 3 से 4 किलोमीटर टेढ़े- मेढ़े पहाड़ी रास्तों से पैदल चलकर अपने स्कूल पहुंचते हैं। और साथ-ही-साथ शाम को घर आकर अपनी मांओं के साथ मवेशियों को चराने जंगल जाते हैं और जंगल से भारी भारी लकड़ी के गट्ठर सिर पर लाद कर घर लाते हैं। शाम के समय लेखिका ने देखा कि कुछ पहाड़ी औरतें गायों को चरा कर वापस अपने घर लौट रही थी। जब लेखिका की जीप चाय के बागानों से गुजरने लगी तो लेखिका ने देखा कि कुछ सिक्किम परिधान पहने कुछ युवतियां बागानों से चाय की पत्तियां तोड रही थी। लायुंग में लोगों की आजीविका की तो उनके मुख्य साधन पहाड़ी आलू , धान की खेती और शराब ही है। असल में लेखिका यहां बर्फ देखने आई थी लेकिन उन्हें वहां कहीं भी बर्फ नहीं दिखाई दी। इसका कारण बताते हुए एक स्थानीय युवक ने लेखिका को बताया कि प्रदूषण के कारण अब यहां बर्फबारी बहुत कम होती है। लेखिका को अगर बर्फ देखनी है तो उन्हें कटाओ जाना पड़ेगा जिसे भारत का स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है। कटाओ में प्राकृतिक सौंदर्य अभी भी पूरी तरह से बरकरार था क्योंकि यह पर्यटक स्थल के रूप में अभी उतना विकसित नहीं हुआ था। कटाओ में लेखिका को बर्फ से ढके पहाड़ चांदी की तरह लग रहे थे। जिन्हें देखकर लेखिका बहुत ही आनंदित महसूस कर रही थी। जहाँ एक ओर कटाओ में लोग बर्फ के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। वहीँ दूसरी ओर लेखिका तो इस नजारे को अपनी आंखों में भर लेना चाहती थी।
थोड़ा आगे चलने पर लेखिका को कुछ फौजी छावनियों दिखी। जब लेखिका ने एक फौजी से पूछा कि “आप इस कड़कड़ाती ठंड में यहां कैसे रहते हैं। तब फौजी ने बड़े हंसते हुए जवाब दिया कि “आप चैन से इसीलिए सोते हैं क्योंकि हम यहाँ पहरा देते हैं”। उस फौजी की बात सुनकर लेखिका सोचने को मजबूर हो गई कि जब इस कड़कड़ाती ठंड में वे थोड़ी देर भी ठहर नहीं पा रहे हैं तो ये फौजी कैसे अपनी ड्यूटी निभाते होंगे। यह सोचकर लेखिका का सिर फौजियों के लिए सम्मान से झुक गया। चलते चलते लेखिका को चिप्स बेचती एक सिक्क्मी युवती दिखी। जब लेखिका ने उस युवती से पूछा कि क्या वह सिक्किमी है तो उस युवती ने जवाब दिया कि नहीं , वह इंडियन है। यह सुनकर लेखिका को बहुत अच्छा लगा। सिक्किम के लोग भारत का हिस्सा बनकर काफी खुश हैं। थोड़ा आगे चलने पर नार्गे ने लेखिका को गुरु नानक के फुटप्रिंट वाला पत्थर भी दिखाया। नार्गे ने बताया कि ऐसा माना जाता है कि इस जगह पर गुरु नानकजी की थाली से थोड़े से चावल छिटक कर गिर गए थे। और जहां-जहां वो चावल छिटक कर गिरे। वहां-वहां अब चावल की खेती होती है। वहाँ से करीब 3 किलोमीटर आगे चलने के बाद वो खेदुम पहुंचे। खेदुम लगभग 1 किलोमीटर का क्षेत्र था। नार्गे ने बताया कि इस स्थान पर देवी-देवताओं का निवास है। यहां कोई गंदगी नहीं फैलाता है। जो भी गंदगी फैलाता है वह मर जाता है। लेखिका के पूछने पर गाइड ने कारण बताया कि पहाड़ी लोग पहाड़ , नदी , झरने इन सब की पूजा करते हैं। वे इन्हें गंदा नहीं कर सकते। लेखिका के कहने पर कि “तभी गैंगटॉक शहर इतना सुंदर है”। नार्गे ने लेखिका को कहा “मैडम गैंगटॉक नहीं गंतोक कहिए। जिसका अर्थ होता है पहाड़”।
गाइड ने लेखिका को यह भी बताया कि सिक्किम के भारत में मिलने के कई वर्षों बाद भारतीय आर्मी के एक कप्तान शेखर दत्ता ने इसे पर्यटन स्थल ( टूरिस्ट स्पॉट) बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद से ही सिक्किम में पहाड़ों को काटकर रास्ते बनाए जा रहे हैं और नए-नए पर्यटन स्थलों की खोज जारी है। लेखिका ने मन ही मन सोचा कि इंसान की इसी असमाप्त खोज का नाम ही तो सौंदर्य है…..।
साना-साना हाथ जोड़ी पाठ व्याख्या – (Saana Saana Hath Jodi Lesson Explanation)
पाठ
मैने हैरान होकर देखा-आसमान जैसे उलटा पड़ा था और सारे तारे बिखरकर नीचे टिमटिमा रहे थे। दूर…ढलान लेती तराई पर सितारों के गुच्छे रोशनियों की एक झालर-सी बना रहे थे। क्या था वह? वह रात में जगमगाता गैंगटॉक शहर था-इतिहास और वर्तमान के संधि-स्थल पर खड़ा मेहनतकश बादशाहों का वह एक ऐसा शहर था जिसका सब कुछ सुंदर था-सुबह, शाम, रात।
और वह रहस्यमयी सितारों भरी रात मुझमें सम्मोहन जगा रही थी, कुछ इस कदर कि उन जादू भरे क्षणों में मेरा सब कुछ स्थगित था, अर्थहीन था…मैं, मेरी चेतना, मेरा आस-पास। मेरे भीतर-बाहर सिर्फ शून्य था और थी अतींद्रियता (इन्द्रियों से परे) में डूबी रोशनी की वह जादुई झालर।
धीरे-धीरे एक उजास (प्रकाश, उजाला) उस शून्य से फूटने लगा…एक प्रार्थना होठों को छूने लगी… साना-साना हाथ जोड़ि, गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली (छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो)। आज सुबह की प्रार्थना के ये बोल मैंने एक नेपाली युवती से सीखे थे।
शब्दार्थ –
तराई – पहाड़ के आस-पास का समतल मैदानी भू-भाग
गुच्छे – समूह
मेहनतकश – मेहनत करने वाला, कष्ट उठाने वाला
रहस्यम यी – रहस्य पूर्ण, रहस्य से भरा
सम्मोहन – मोहने या मुग्ध करने की क्रिया, वशीकरण
कदर – मान, सम्मान, आदर, प्रतिष्ठा
स्थगित – ठहराया या रोका हुआ
अर्थहीन – निरर्थक, व्यर्थ
चेतना – ज्ञान, बुद्धि, याद, स्मृति
अतींद्रियता – इन्द्रियों से परे
उजास – प्रकाश, उजाला
साना-साना हाथ जोड़ि, गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली – छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो
व्याख्या – लेखिका गैंगटॉक की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर बहुत हैरान थी उन्हें ऐसा लगा रहा था जैसे आसमान उलटा हो गया हो और सारे तारे बिखरकर नीचे टिमटिमा रहे हों। दूर पहाड़ के आस-पास के समतल मैदानी भू-भाग पर सितारों के गुच्छे रोशनियों की एक झालर-सी बना रहे थे। लेखिका को यह सब समझ में नहीं आ रहा था। लेखिका जो दृश्य देख रही थी वह रात में जगमगाता गैंगटॉक शहर था। लेखिका ने पाया कि इतिहास और वर्तमान के संधि-स्थल पर खड़ा परिश्रमी बादशाहों का वह एक ऐसा शहर था जिसका सब कुछ सुंदर था। चाहे वह वहां की सुबह हो , शाम हो या रात हो। और वह रहस्य से भरी हुई सितारों भरी रात लेखिका के मन को इस तरह मुग्ध कर रही थी, कि उन जादू भरे क्षणों में लेखिका को अपना सब कुछ ठहरा हुआ प्रतीत हो रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे लेखिका की बुद्धि, स्मृति और आस-पास का सब कुछ व्यर्थ है। लेखिका को अपने भीतर-बाहर सब कुछ शून्य सा प्रतीत हो रहा था और जो कुछ भी लेखिका को सही लग रहा था वह था लेखिका की इन्द्रियों से परे रोशनी में डूबी हुई वह जादुई झालर। धीरे-धीरे एक प्रकाश, उस शून्य से फूटने लगा और एक प्रार्थना लेखिका के होठों को छूने लगी – साना-साना हाथ जोड़ि, गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली अर्थात छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो। सुबह की प्रार्थना के ये बोल लेखिका ने प्रार्थना एक नेपाली युवती से सीखे थे।
पाठ
सुबह हमें यूमथांग के लिए निकल पड़ना था, पर आँख खुलते ही मैं बालकनी की तरफ भागी। यहाँ के लोगों ने बताया था कि यदि मौसम साफ हो तो बालकनी से भी कंचनजंघा दिखाई देती है। हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा! पर मौसम अच्छा होने के बावशूद आसमान हलके-हलके बादलों से ढका था, पिछले वर्ष की ही तरह इस बार भी बादलों के कपाट ठाकुर जी के कपाट की तरह बंद ही रहे। कंचनजंघा न दिखनी थी, न दिखी। पर सामने ही रकम-रकम- के रंग-बिरंगे इतने सारे फूल दिखाई पड़े कि लगा फूलों के बाग में आ गई हूँ।
बहरहाल…गैंगटॉक से 149 किलोमीटर की दूरी पर यूमथांग था। “यूमथांग यानी घाटियाँ…सारे रास्ते हिमालय की गहनतम घाटियाँ और फूलों से लदी वादियाँ मिलेंगी आपको” ड्राइवर-कम-गाइड जितेन नार्गे मुझे बता रहा था। “क्या वहाँ बर्फ मिलेगी?” मैं बचकाने उत्साह से पूछने लगती हूँ।
चलिए तो…।
जगह-जगह गदराए पाईन और धूपी के खूबसूरत नुकीले पेड़ों का जायजा लेते हुए हम पहाड़ी रास्तों पर आगे बढ़ने लगे कि एक जगह दिखाई दीं…एक कतार में लगी सफेद-सफेद बौद्ध पताकाएँ। किसी ध्वज की तरह लहराती…शांति और अहिंसा की प्रतीक ये पताकाएँ जिन पर मंत्र लिखे हुए थे। नार्गे ने बताया-यहाँ बुद्ध की बड़ी मान्यता है। जब भी किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है, उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी भी पवित्र स्थान पर एक सौ आठ श्वेत पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। नहीं, इन्हें उतारा नहीं जाता है, ये धीरे-धीरे अपने आप ही नष्ट हो जाती हैं। कई बार किसी नए कार्य की शुरुआत में भी ये पताकाएँ लगा दी जाती हैं पर वे रंगीन होती हैं। नार्गे बोलता जा रहा था और मेरी नज़र उसकी जीप में लगी दलाई लामा की तसवीर पर टिकी हुई थी। कई दुकानों पर भी मैंने दलाई लामा की ऐसी ही तसवीर देखी थी।
शब्दार्थ –
कंचनजंघा – हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी
कपाट – दरवाज़े
रकम-रकम – तरह-तरह
बहरहाल – प्रत्येक दशा में, हर हालत में
गहनतम – सबसे गहरा, सबसे घना
जायजा – निरीक्षण, परख
कतार – पंक्ति
पताका – झंडा, ध्वजा, फरहरा
श्वेत – सफेद
व्याख्या – लेखिका और उनकी टीम को सुबह यूमथांग के लिए निकलना था, पर सुबह जैसे ही लेखिका की आँख खुली वह बालकनी की तरफ भागी। क्योंकि यहाँ के लोगों ने लेखिका को बताया था कि यदि मौसम साफ हो तो बालकनी से भी हिमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी कंचनजंघा को देखा जा सकता है। परन्तु मौसम अच्छा होने के बावजूद भी आसमान हलके-हलके बादलों से ढका हुआ था और पिछले वर्ष की ही तरह इस बार भी बादलों के दरवाजे ठाकुर जी के दरवाजों की तरह बंद ही रहे। कंचनजंघा न दिखनी थी, न दिखी। परन्तु सामने ही तरह-तरह के रंग-बिरंगे इतने सारे फूल दिखाई पड़े कि लेखिका को लगा जैसे वह किसी फूलों के बाग में आ गई हो। गैंगटॉक से यूमथांग 149 किलोमीटर की दूरी पर था। ड्राइवर-कम-गाइड जितेन नार्गे लेखिका को बता रहा था कि यूमथांग यानी घाटियाँ। और सारे रास्ते हिमालय की सबसे गहरी घाटियाँ और सबसे घनी फूलों से लदी वादियाँ उन्हें देखने को मिलेंगी। लेखिका ने बड़े बचपने अंदाज में उससे पूछा कि क्या वहाँ बर्फ मिलेगी? जगह-जगह गदराए पाईन और धूपी के खूबसूरत नुकीले पेड़ों का निरिक्षण लेते हुए लेखिका व् उनकी टीम पहाड़ी रास्तों पर जब आगे बढ़ने लगे तो उन्हें एक जगह दिखाई दी जहाँ एक पंक्ति में सफेद-सफेद बौद्ध पताकाएँ लगी हुई थी। ये पताकायें किसी ध्वज की तरह लहरा रही थी। शांति और अहिंसा की प्रतीक इन पताकाओं पर मंत्र लिखे हुए थे। लेखिका के पूछने पर नार्गे ने बताया कि यहाँ बुद्ध की बड़ी मान्यता है। उसने यह भी बताया कि जब भी किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है, उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी भी पवित्र स्थान पर एक सौ आठ सफेद पताकाएँ फहरा दी जाती हैं। और इन्हें कभी उतारा नहीं जाता है, ये धीरे-धीरे अपने आप ही नष्ट हो जाती हैं। कभी कबार किसी नए कार्य की शुरुआत में भी ये पताकाएँ लगा दी जाती हैं केवल अंतर् इतना होता है कि वे रंगीन होती हैं। नार्गे जब लेखिका को सभी जानकारी देता जा रहा था, तब लेखिका की नज़र उसकी जीप में लगी दलाई लामा की तसवीर पर टिकी हुई थी। लेखिका ने कई दुकानों पर भी दलाई लामा की वैसी ही तसवीर देखी थी।
पाठ
हिचकोले खाती हमारी जीप थोड़ी और आगे बढ़ी। अपनी लुभावनी हँसी बिखेरते हुए जितेन बताने लगा…इस जगह का नाम है कवी-लोंग स्टॉक। यहाँ ‘गाइड’ फ़िल्म की शूटिंग हुई थी। तिब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संधि-पत्र पर यहीं हस्ताक्षर किए थे। एक पत्थर यहाँ स्मारक के रूप में भी है। (लेपचा और भुटिया सिक्किम की इन दोनों स्थानीय जातियों के बीच चले सुदीर्घ झगड़ों के बाद शांति वार्ता का शुरुआती स्थल।)
उन्हीं रास्तों पर मैंने देखा-एक कुटिया के भीतर घूमता चक्र। यह क्या? नार्गे कहने लगा…”मैडम यह धर्म चक्र है। प्रेयर व्हील। इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं।”
“क्या?” चाहे मैदान हो या पहाड़, तमाम वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद इस देश की आत्मा एक जैसी। लोगों की आस्थाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ एक जैसी।
रफ़्ता-रफ़्ता हम ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे। बाजार, लोग और बस्तियाँ पीछे छूटने लगे। अब परिदृश्य से चलते-चलते स्वेटर बुनती नेपाली युवतियाँ और पीठ पर भारी-भरकम कार्टून ढोते बौने से दिखते बहादुर नेपाली ओझल हो रहे थे। अब नीचे देखने पर घाटियों में ताश के घरों की तरह पेड़-पौधों के बीच छोटे-छोटे घर दिखाई दे रहे थे।
हिमालय भी अब छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में नहीं वरन् अपने विराट रूप एवं वैभव के साथ सामने आने वाला था। न जाने कितने दर्शकों, यात्रियों और तीर्थाटानियों का काम्य हिमालय। पल-पल परिवर्तित हिमालय!
शब्दार्थ –
हिचकोले – हिलना-डुलना
लुभावनी – मन को भाने वाली
स्मारक – मकबरा, समाधि, स्तूप, निशानी, स्मृतिचिह्न
रफ़्ता-रफ़्ता – धीरे-धीरे
परिदृश्य – चारों ओर दिखने वाला दृश्य
ओझल – दृष्टि की सीमा से बाहर, छिपा हुआ, गायब
विराट – विशाल
वैभव – संपदा, समृद्धि, धन-दौलत, ऐश्वर्य
काम्य – जिसकी कामना की जाए, जो कामना के योग्य हो, जो इच्छा के अनुकूल हो, कमनीय, सुंदर
परिवर्तित – बदलने वाला
व्याख्या – हिलती-ढुलती लेखिका के जीप थोड़ी और आगे बढ़ी। अपनी मन को मोहित करने वाली हँसी बिखेरते हुए जितेन फिर लेखिका को जानकारी देने लगा कि इस जगह का नाम है कवी-लोंग स्टॉक। यहाँ ‘गाइड’ फ़िल्म की शूटिंग हुई थी। तिब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संधि-पत्र पर यहीं हस्ताक्षर किए थे। एक पत्थर यहाँ स्मृति-चिह्न के रूप में भी है। उन्हीं रास्तों पर लेखिका ने देखा कि एक कुटिया के भीतर एक घूमता चक्र था। उसके बारे में जब लेखिका ने नार्गे से पूछा तो वह कहने लगा कि मैडम यह धर्म चक्र है। इसे प्रेयर व्हील भी कहा जाता है। इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं। लेखिका को यह सुन कर एक बात समझ में आई कि चाहे मैदान हो या पहाड़, सभी वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद इस देश की आत्मा एक जैसी। लोगों की आस्थाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ एक जैसी ही हैं। धीरे-धीरे जैसे-जैसे लेखिका और उनकी टीम और ऊँचाई की ओर बढ़ने लगे। बाजार, लोग और बस्तियाँ पीछे छूटने लगे। अब चारों ओर दिखने वाला दृश्य से चलते-चलते स्वेटर बुनती नेपाली युवतियाँ और पीठ पर भारी-भरकम कार्टून ढोते बौने से दिखते बहादुर नेपाली गायब हो रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ रही थी वैसे-वैसे बाजार, लोग और बस्तियाँ दिखने बंद हो रहे थे। ऊँचाई पर से अब नीचे देखने पर लेखिका को घाटियों में ताश के घरों की तरह पेड़-पौधों के बीच छोटे-छोटे घर दिखाई दे रहे थे। जैसे दूर से हिमालय छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में दिखाई देता था, अब वह छोटी-छोटी पहाड़ियों के रूप में नहीं बल्कि अपने विशाल रूप एवं समृद्धि के साथ लेखिका के सामने आने वाला था। न जाने कितने दर्शकों, यात्रियों और तीर्थाटानियों की कामना यह हिमालय है। पल-पल बदलता हिमालय! अर्थात हिमालय में हर पल मौसम और परिस्तिथियाँ बदलती रहती हैं और दर्शकों, यात्रियों और तीर्थाटानियों को इसमें रोमांच मिलता है।
पाठ
और देखते-देखते रास्ते वीरान, सँकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे। हिमालय बड़ा होते-होते विशालकाय होने लगा। घटाएँ गहराती-गहराती पाताल नापने लगीं। वादियाँ चौड़ी होने लगीं। बीच-बीच में करिश्मे की तरह रंग-बिरंगे फूल शिद्दत से मुसकराने लगे। उन भीमकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने संकरे कच्चे-पक्के रास्तों से गुज़रते यूँ लग रहा था जैसे हम किसी सघन हरियाली वाली गुफा के बीच हिचकोले खाते निकल रहे हों।
इस बिखरी असीम सुंदरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी सैलानी झूम-झूमकर गाने लगे-“सुहाना सफर और ये मौसम हँसी…।”
पर मैं मौन थी। किसी ऋषि की तरह शांत थी। मैं चाहती थी कि इस सारे परिदृश्य को अपने भीतर भर लूँ। पर मेरे भीतर कुछ बूँद-बूँद पिघलने लगा था। जीप की खिड़की से मुंडकी निकाल-निकाल मैं कभी आसमान को छूते पर्वतों के शिखर देखती तो कभी ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल-प्रपातों को। तो कभी नीचे चिकने-चिकने गुलाबी पत्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती, चाँदी की तरह कौंध मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को। सिलीगुड़ी से ही हमारे साथ थी यह तिस्ता नदी। पर यहाँ उसका सौंदर्य पराकाष्ठा पर था। इतनी खूबसूरत नदी मैंने पहली बार देखी थी। मैं रोमांचित थी। पुलकित थी। चिड़िया के पंखों की तरह हलकी थी।
“मेरे नगपति मेरे विशालय्” मैंने हिमालय को सलामी देनी चाही कि तभी जीप एक जगह रुकी…खूब ऊँचाई से पूरे वेग के साथ ऊपर शिखरों के भी शिखर से गिरता फेन उगलता झरना। इसका नाम था-‘सेवन सिस्टर्स वॉटर फॉल।’ फ़्लैश चमकने लगे। सभी सैलानी इन खूबसूरत लम्हों की रंगत को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे।
शब्दार्थ –
वीरान – जिसमें बस्ती न हो, निर्जन, सुनसान, एकांत
सँकरे – पतला और तंग, जिसकी चौड़ाई कम हो
करिश्मे – चमत्कार
शिद्दत – तीव्रता, प्रबलता, अधिकता
भीमकाय – अत्यधिक विशाल
सघन – घना, गझिन, ठोस
असीम – अपार, अमित, बेहद
सैलानी – सैर करने वाला, घुमक्कड़
मुंडकी – सिर
कौंध – चमक, आकाशीय विद्युत की चमक
मशगूल – व्यस्थ
व्याख्या – जैसे-जैसे लेखिका और उनकी टीम और ऊँचाई में जाते जा रहे थे उनके रास्ते सुनसान, तंग और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे। हिमालय बड़ा होते-होते अत्यधिक विशालकाय होने लगा। घटाएँ इतनी गहरी होती जा रही थी कि लग रहा था जैसे वह पाताल नाप रही हों। वादियाँ चौड़ी होती जा रही थी। बीच-बीच में किसी चमत्कार की तरह रंग-बिरंगे फूल प्रबलता से मुस्कुराते हुए लग रहे थे। उन विशालकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने तंग कच्चे-पक्के रास्तों से गुज़रते हुए लेखिका को ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी घनी हरियाली वाली गुफा के बीच हिलते-ढुलते निकल रहे हों। इस बिखरी हुई बेहद सुंदरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी घूमने आए हुए यात्री झूम-झूमकर गाना गाने लगे-“सुहाना सफर और ये मौसम हँसी…।” परन्तु लेखिका खामोश थी। वह किसी ऋषि की तरह शांत बैठी हुई थी। इसका कारण यह था कि लेखिका अपने चारों और की प्राकृतिक सुंदरता को अपने अंदर समाना चाहती थी। परन्तु लेखिका को अपने अंदर कुछ बूँद-बूँद पिघलने सा प्रतीत हो रहा था। जीप की खिड़की से अपना सिर निकाल-निकाल कर लेखिका कभी आसमान को छूते पर्वतों के शिखर देखती तो कभी ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल-प्रपातों को। तो कभी नीचे चिकने-चिकने गुलाबी पत्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती, चाँदी की तरह चमक मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को। तिस्ता नदी सिलीगुड़ी से ही लेखिका के साथ थी। परन्तु यहाँ पर उसका सौंदर्य अद्धभुत लग रहा था। इतनी खूबसूरत नदी लेखिका ने पहली बार देखी थी। लेखिका रोमांचित व् पुलकित हो गई थी। लेखिका को लग रहा था कि वह चिड़िया के पंखों की तरह हलकी हो गई थी। लेखिका ने हिमालय को सलामी देनी चाही “मेरे नगपति मेरे विशालय्” परन्तु तभी जीप एक जगह रुकी। वहां लेखिका ने देखा कि बहुत ऊँचाई से पूरे वेग के साथ ऊपर शिखरों के भी शिखर से फेन उगलता एक झरना गिर रहा था। उस झरने का नाम था-‘सेवन सिस्टर्स वॉटर फॉल।’ फ़्लैश चमकने लगे। क्योंकि सभी घूमने आए यात्री इन खूबसूरत लम्हों की रंगत को अपने कैमरे में कैद करने में व्यस्थ हो गए थे।
पाठ
आदिम युग की किसी अभिशप्त राजकुमारी-सी मैं भी नीचे बिखरे भारी-भरकम पत्थरों पर बैठ झरने के संगीत के साथ ही आत्मा का संगीत सुनने लगी। थोड़ी देर बाद ही बहती जलधारा में पाँव डुबोया तो भीतर तक भीग गई। मन काव्यमय हो उठा। सत्य और सौंदर्य को छूने लगा।
जीवन की अनंतता का प्रतीक वह झरना…उन अद्भुत-अनूठे क्षणों में मुझमें जीवन की शक्ति का अहसास हो रहा था। इस कदर प्रतीत हुआ कि जैसे मैं स्वयं भी देश और काल की सरहदों से दूर बहती धारा बन बहने लगी हूँ। भीतर की सारी तामसिकताएँ और दुष्ट वासनाएँ इस निर्मल धारा में बह गईं। मन हुआ कि अनंत समय तक ऐसे ही बहती रहूँ…सुनती रहूँ इस झरने की पुकार को। पर जितेन मुझे ठेलने लगा…आगे इससे भी सुंदर नजारे मिलेंगे।
अनमनी-सी मैं उठी। थोड़ी देर बाद ही फिर वही नजारे-आँखों और आत्मा को सुख देने वाले। कहीं चटक हरे रंग का मोटा कालीन ओढ़े तो कहीं हलका पीलापन लिए, तो कहीं पलस्तर उखड़ी दीवार की तरह पथरीला और देखते ही देखते परिदृश्य से सब छू-मंतर…जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। सब पर बादलों की एक मोटी चादर।
सब कुछ बादलमय।
चित्रलिखित-सी मैं ‘माया’ और ‘छाया’ के इस अनूठे खेल को भर-भर आँखों देखती जा रही थी। प्रकृति जैसे मुझे सयानी बनाने के लिए जीवन रहस्यों का उद्घाटन करने पर तुली हुई थी।
धीरे-धीरे धुंध की चादर थोड़ी छँटी। अब वहाँ पहाड़ नहीं, दो विपरीत दिशाओं से आते छाया-पहाड़ थे और थोड़ी देर बाद ही वे छाया-पहाड़ अपने श्रेष्ठतम रूप में मेरे सामने थे। जीप थोड़ी देर के लिए रुकवा दी गई थी। मैंने गर्दन घुमाई…सब ओर जैसे जन्नत बिखरी पड़ी थी। नशरों के छोर तक खूबसूरती ही खूबसूरती। अपने को निरंतर दे देने की अनुभूति कराते पर्वत, झरने, फूलों, घाटियों और वादियों के दुर्लभ नजारे! वहीं कहीं लिखा था…‘थिंक ग्रीन।’
आश्चर्य! पलभर में ब्रह्मांड में कितना कुछ घटित हो रहा था। सतत प्रवाहमान झरने, नीचे वेग से बहती तिस्ता नदी। सामने उठती धुंध। ऊपर मँडराते आवारा बादल। मद्धिम-मद्धिम हवा में हिलोरे लेते प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल। सब अपनी-अपनी लय तान और प्रवाह में बहते हुए। चैरवेति-चैरवेति। और समय के इसी सतत प्रवाह में तिनके-सा बहता हमारा वज़ूद ।
पहली बार अहसास हुआ…जीवन का आनंद है यही चलायमान सौंदर्य।
शब्दार्थ –
आदिम – सर्वप्रथम, आदि में उत्पन्न, पहला
अभिशप्त – शापित, अभियुक्त
सरहदों – सीमा
तामसिकताएँ – तमोगुण से युक्त, कुटिल
वासनाएँ – बुरी इच्छाएँ
सयानी – समझदार, चतुर
जन्नत – स्वर्ग
मद्धिम-मद्धिम – धीरे-धीरे
चैरवेति-चैरवेति – चलते रहो-चलते रहो
वज़ूद – अस्तित्व
सयानी – समझदार, चतुर
उद्घाटन – आवरण या परदा हटाना, खोलना, प्रकट करना
जन्नत – स्वर्ग
चैरवेति-चैरवेति – चलते रहो-चलते रहो
वज़ूद – अस्तित्व
व्याख्या – लेखिका अपने आपकी किसी पुराने समय की किसी शापित राजकुमारी से तुलना करती हुई कहती हैं कि वह किसी शापित राजकुमारी की तरह नीचे बिखरे भारी-भरकम पत्थरों पर बैठ कर झरने के संगीत के साथ ही आत्मा का संगीत सुनने लगी। थोड़ी देर बाद ही जब लेखिका ने बहती जलधारा में पाँव डुबोया तो उसे ऐसा लगा जैसे वह भीतर तक भीग गई हो। लेखिका का मन आनंदमय हो उठा और प्रकृति के सत्य और सौंदर्य को छूने लगा। लेखिका को वह झरना कभी न समाप्त होने वाले जीवन का प्रतीक लग रहा था। उन अद्भुत-अनूठे क्षणों में लेखिका को अपने अंदर जीवन की शक्ति का अहसास हो रहा था। लेखिका को इस कदर प्रतीत हुआ कि जैसे वह स्वयं भी देश और काल की सीमा से दूर उस बहती धारा के रूप में बहने लगी हो। उसके भीतर की सारी कुटिल) और बुरी इच्छाएँ मानो उस निर्मल धारा में बह गईं। लेखिका का मन कर रहा था कि हमेशा के लिए वह ऐसे ही बहती रहे और इस झरने की पुकार व् संगीत को ऐसे ही सुनते रहे। पर जितेन लेखिका को बार-बार वहां से उठने को कहने लगा कि आगे इससे भी सुंदर नजारे मिलेंगे। लेखिका का मन नहीं था परन्तु बेमन से वह उठी। परन्तु थोड़ी देर बाद ही सफ़र में फिर वही नजारे लेखिका की आँखों और आत्मा को सुख देने लगे। कहीं चटक हरे रंग का मोटा कालीन ओढ़े, तो कहीं हलका पीलापन लिए, तो कहीं पलस्तर उखड़ी दीवार की तरह पथरीला और देखते ही देखते चारों ओर दिखने वाले मनमोहक दृश्य ऐसे छू-मंतर हो गए जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। सब पर बादलों की एक मोटी चादर छा गई। सब जगह केवल बादल ही बादल। लेखिका प्रकृति के इस ‘माया’ और ‘छाया’ जैसे अनूठे खेल को अपनी आँखों में भर लेने के इरादे से देखती जा रही थी। लेखिका को लग रहा था जैसे प्रकृति उन्हें समझदार व् चतुर बनाने के लिए जीवन के रहस्यों से परदा उठाने पर तुली हुई थी। धीरे-धीरे धुंध की चादर थोड़ी छँटी। अब वहाँ लेखिका को पहाड़ नहीं बल्कि दो विपरीत दिशाओं से आते छाया-पहाड़ दिखाई दे रहे थे और थोड़ी देर बाद ही वे छाया-पहाड़ अपने और अधिक सुंदर रूप में लेखिका के सामने थे। वहां के दर्शन के लिए जीप थोड़ी देर के लिए रुकवा दी गई थी। लेखिका ने गर्दन घुमाई तो पाया सब ओर जैसे स्वर्ग बिखरा पड़ा हो। जहाँ तक लेखिका की नज़रे पहुँच रही थी वहाँ तक खूबसूरती ही खूबसूरती थी। उन पर्वत, झरने, फूलों, घाटियों और वादियों के दुर्लभ नजारे देख कर लग रहा था जैसे वे अपने आप को समर्पित किए हुए हो। वहीं पर कहीं श्लोगन लिखा था ‘थिंक ग्रीन।’ लेखिका को सोच कर आश्चर्य हो रहा था कि पलभर में ब्रह्मांड में कितना कुछ घटित हो रहा था। हर पल बहने वाले झरने, नीचे वेग से बहती तिस्ता नदी। सामने उठती धुंध। ऊपर मँडराते आवारा बादल। धीरे-धीरे हवा में हिलोरे लेते प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल। सब अपनी-अपनी लय तान और प्रवाह में बहते हुए। चलते रहो-चलते रहो और समय के इसी हमेशा बहती गति में तिनके की तरह हमारा अस्तित्व भी बहता रहता है। लेखिका को पहली बार अहसास हुआ कि जीवन का आनंद इसी हमेशा चलते रहने वाले सौंदर्य में है।
पाठ
संपूर्णता के उन क्षणों में मन इस बिखरे सौंदर्य से इस कदर एकात्म हो रहा था कि भीतर-बाहर की रेखा मिट गई थी, आत्मा की सारी खिड़कियाँ खुलने लगी थीं…मैं सचमुच ईश्वर के निकट थी। सुबह सीखी प्रार्थना फिर होठों को छूने लगी थी…साना-साना हाथ जोड़ि…कि तभी वह अतींद्रिय संसार खंड-खंड हो गया! वह महाभाव सूखी टहनी-सा टूट गया।
दरअसल मंत्रमुग्ध-सी मैं तंद्रिल अवस्था में ही थोड़ी दूर तक निकल आई थी कि अचानक पाँवों पर ब्रेक सी लगी…जैसे समाधिस्थ भाव में नृत्य करती किसी आत्मलीन नृत्यांगना के नुपूर अचानक टूट गए हों। मैंने देखा इस अद्वितीय सौंदर्य से निरपेक्ष कुछ पहाड़ी औरतें पत्थरों पर बैठीं पत्थर तोड़ रही थीं। गुँथे आटे-सी कोमल काया पर हाथों में कुदाल और हथौड़े! कईयों की पीठ पर बँधी डोको में उनके बच्चे भी बँधे हुए थे। कुछ कुदाल को भरपूर ताकत के साथ ज़मीन पर मार रही थीं।
इतने स्वर्गीय सौंदर्य, नदी, फूलों, वादियों और झरनों के बीच भूख, मौत, दैन्य और जिन्दा रहने की यह जंग! मातृत्व और श्रम साधना साथ-साथ। वहीं पर खड़े बी.आर.ओ. (बोर्ड रोड आर्गेनाइजेशन) के एक कर्मचारी से पूछा मैंने, “यह क्या हो रहा है? उसने चुहलबाजी के अंदाज़ में बताया जिन रास्तों से गुज़रते हुए आप हिम-शिखरों से टक्कर लेने जा रही हैं उन्हीं रास्तों को ये पहाड़िनें चौड़ा बना रही हैं।”
“बड़ा खतरनाक कार्य होगा यह” मेरे मुँह से अकस्मात निकला। वह संजीदा हो गया। कहने लगा, पिछले महीने तो एक की जान भी चली गई थी। बड़ा दुसाध्य कार्य है पहाड़ों पर रास्ता बनाना। पहले डाइनामाइट से चट्टानों को उड़ा दिया जाता है। फिर बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़-मोड़कर एक आकार के छोटे-छोटे पत्थरों में बदला जाता है, फिर बड़े-से जाले में उन्हें लंबी पट्टी की तरह बिठाकर कटे रास्तों पर बाड़े की तरह लगाया जाता है। ज़रा-सी चूक और सीधा पाताल प्रवेश!
और तभी मुझे ध्यान आया…इन्हीं रास्तों पर एक जगह सिक्किम सरकार का बोर्ड लगा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “एवर वंडर्ड हू डिपफाइड डेथ टू बिल्ड दीज रोड्स।” (आप ताज्जुब करेंगे पर इन रास्तों को बनाने में लोगों ने मौत को झुठलाया है।)
एकाएक मेरा मानसिक चैनल बदला। मन पीछे घूम गया। इसी प्रकार एक बार पलामू और गुमला के जंगलों में देखा था…पीठ पर बच्चे को कपड़े से बाँधकर पत्तों की तलाश में वन-वन डोलती आदिवासी युवतियाँ। उन आदिवासी युवतियों के फूले हुए पाँव और इन पत्थर तोड़ती पहाड़िनों के हाथों में पड़े ठाठे, एक ही कहानी कह रहे थे कि आम ज़िंदगियों की कहानी हर जगह एक-सी है कि सारी मलाई एक तरफ; सारे आँसू, अभाव, यातना और वंचना एक तरफ!
और तभी मेरी सहयात्री मणि और जितेन मुझे खोजते-खोजते वहाँ तक आ गए थे।
मुझे गमगीन देख जितेन कहने लगा, “मैडम, ये मेरे देश की आम जनता है, इन्हें तो आप कहीं भी देख लेंगी…आप इन्हें नहीं, पहाड़ों की सुंदरता को देखिए… जिसके लिए आप इतने पैसे खर्च करके आई हैं।”
‘ये देश की आम जनता ही नहीं, जीवन का प्रति संतुलन भी हैं। ये ‘वेस्ट एट रिपेईंग’ (कम लेना और ज्यादा देना) हैं। कितना कम लेकर ये समाज को कितना अधिक वापस लौटा देती हैं’, मन ही मन सोचा मैंने। हम वापस जीप की ओर मुड़ने लगे कि तभी मैंने देखा-वे श्रम-सुंदरियाँ किसी बात पर इस कदर खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं कि जीवन लहरा उठा था और वह सारा खंडहर ताजमहल बन गया था।
शब्दार्थ –
संपूर्णता – संपूर्ण होने की अवस्था, गुण या भाव, पूर्णता, समग्रता, अंत, समाप्ति
अतींद्रिय – जिसका अनुभव इंद्रियों द्वारा न हो, अगोचर, अलौकिक
तंद्रिल – तंद्रावाला, उनींदा
डोको – बड़ी टोकरी
अकस्मात – अचानक
संजीदा – गंभीर
दुसाध्य – जिसका उपाय या प्रतिकार करना बहुत कठिन हो, कठिनाई से वश में होने वाला
ठाठे – हाथ पर पड़ने वाली गाठे या निशान
यातना – मृत्यु के समय होने वाला कष्ट
वंचना – ठगी, धोखा, जाल, फ़रेब, छल
व्याख्या – यात्रा के उन आखरी क्षणों में लेखिका का मन अब प्रकृति के इस बिखरे सौंदर्य से इस कदर जुड़ गया था कि उनके भीतर-बाहर की रेखा मिट गई थी, आत्मा की सारी खिड़कियाँ खुलने लगी थीं और ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वे सचमुच ईश्वर के निकट थी। सुबह सीखी प्रार्थना फिर उनके होठों को छूने लगी थी…साना-साना हाथ जोड़ि…कि तभी वह अलौकिक संसार खंड-खंड हो गया। वह महाभाव जिसमें लेखिका आनंद महसूस कर रही थी एकाएक किसी सूखी टहनी की तरह टूट गया। असल में उस प्राकृतिक सौंदर्य में डूबी लेखिका आधी नींद की अवस्था में थोड़ी दूर तक निकल आई थी कि अचानक उनके पाँवों पर मानो ब्रेक सी लगी जैसे अपना सब कुछ भूल कर नृत्य करती अपने में ही मस्त हुई नृत्यांगना के घुंघरू अचानक टूट गए हों। लेखिका ने देखा कि प्रकृति के इस अद्वितीय सौंदर्य से बिलकुल अलग कुछ पहाड़ी औरतें पत्थरों पर बैठीं पत्थर तोड़ रही थीं। गुँथे आटे के समान कोमल शरीर और हाथों में कुदाल और हथौड़े। कई औरतों की पीठ पर बँधी डोको (बड़ी टोकरी) में उनके बच्चे भी बँधे हुए थे। कुछ औरतें कुदाल को अपनी पूरी ताकत के साथ ज़मीन पर मार रही थीं। इतने सुंदर स्वर्ग के समान सौंदर्य, नदी, फूलों, वादियों और झरनों के बीच भूख, मौत, दैन्य और जिन्दा रहने की यह जंग देखकर लेखिका आश्चर्यचकित थी। लेखिका मातृत्व और श्रम साधना का यह दृश्य एक साथ देख रही थी। वहीं पर खड़े बी.आर.ओ. (बोर्ड रोड आर्गेनाइजेशन) के एक कर्मचारी से जब लेखिका ने पूछा की यह क्या हो रहा है? तो उसने मज़ाकिय भाव में बताया कि जिन रास्तों से गुज़रते हुए वे हिम-शिखरों से टक्कर लेने जा रही हैं उन्हीं रास्तों को ये पहाड़िनें चौड़ा बना रही हैं। लेखिका के मुँह से अचानक निकला कि यह तो बड़ा खतरनाक कार्य होगा। इस पर वह कर्मचारी गंभीर हो गया और कहने लगा कि पिछले महीने तो एक की जान भी चली गई थी। पहाड़ों पर रास्ता बनाना बड़ा कठिन कार्य है। पहले डाइनामाइट से चट्टानों को उड़ा दिया जाता है। फिर बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़-मोड़कर एक आकार के छोटे-छोटे पत्थरों में बदला जाता है, फिर बड़े-से जाले में उन्हें लंबी पट्टी की तरह बिठाकर कटे रास्तों पर बाड़े की तरह लगाया जाता है। थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो समझो सीधा पाताल प्रवेश हो जाएगा अर्थात सीधे मृत्यु का रास्ता खुल जाएगा। यह सब बातें सुनकर लेखिका को ध्यान आया की इन्हीं रास्तों पर एक जगह सिक्किम सरकार का बोर्ड लगा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “एवर वंडर्ड हू डिपफाइड डेथ टू बिल्ड दीज रोड्स।” अर्थात आप ताज्जुब करेंगे पर इन रास्तों को बनाने में लोगों ने मौत को झुठलाया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इन लोगों की मेहनत को सिक्किम सरकार अच्छी तरह समझती है अतः लोगो का ध्यान इनकी मेहनत की ओर लाने के लिए जगह-जगह पर श्लोगन लिखे हैं जैसे आप लोगों को आश्चर्य होगा कि इन रास्तों को बनाने में लोगों ने अपनी मौत को करीब से देखा है। सभी बातें सुनकर लेखिका को पहले के कुछ दृश्य याद आने लगे। इसी प्रकार एक बार पलामू और गुमला के जंगलों में लेखिका ने पीठ पर बच्चे को कपड़े से बाँधकर पत्तों की तलाश में वन-वन डोलती आदिवासी युवतियों को देखा था। उन आदिवासी युवतियों के फूले हुए पाँव और इन पत्थर तोड़ती पहाड़िनों के हाथों में पड़े गाठे या निशान , एक ही कहानी कह रहे थे कि आम ज़िंदगियों की कहानी हर जगह एक-सी है। अर्थात आम लोगों की जिंदगी हर जगह एक समान होती है। सारी मलाई एक तरफ; सारे आँसू, अभाव,
यातना और वंचना एक तरफ! कहने का तात्पर्य यह है कि समृद्ध लोग किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं सहते और आम जनता कठिन कार्य भी करती है और उन्हें फिर भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। लेखिका यह सब सोच रही थी कि तभी लेखिका के साथ यात्रा करने वाली मणि और जितेन उसे खोजते-खोजते वहाँ तक आ गए थे। लेखिका को उदास देखकर जितेन ने लेखिका से कहा कि ये तो मेरे देश की आम जनता है, इन्हें तो वे कहीं भी देख लेंगी इसलिए वे इन्हें नहीं, पहाड़ों की सुंदरता को देखिए, जिसके लिए वह इतने पैसे खर्च करके आई हैं। गाइड की बातें सुन कर लेखिका मन ही मन सोचने लगी कि ये देश की आम जनता ही नहीं, जीवन का प्रति संतुलन भी हैं। क्योंकि ये बहुत कम लेते हैं और बहुत ज्यादा देते हैं। ये आम जनता कितना कम लेकर समाज को कितना अधिक वापस लौटा देती हैं। जब लेखिका और गाइड वापस जीप की ओर मुड़ने लगे कि तभी लेखिका ने देखा वे काम करने वाली सुंदर औरतें किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं जिसे देखकर ऐसा लग रहा था कि जीवन लहरा उठा हो और वह सारा खंडहर ताजमहल बन गया हो। अर्थात उन औरतों की हँसी उनकी सारी कठिनाइयों को मानो समाप्त कर रही हो।
पाठ
यूमथांग पहुँचने के लिए हमें रात भर लायुंग में पड़ाव लेना था। गगनचुंबी पहाड़ों के तल में साँस लेती एक नन्हीं-सी शांत बस्ती लायुंग। सारी दौड़-धूप से दूर जिंदगी जहाँ निश्चिन्त सो रही थी।
उसी लायुंग में हम ठहरे थे। तिस्ता नदी के तीर पर बसे लकड़ी के एक छोटे-से घर में। मुँह-हाथ धोकर मैं तुरंत ही तिस्ता नदी के किनारे बिखरे पत्थरों पर बैठ गई थी। सामने बहुत ऊपर से बहता झरना नीचे कल-कल बहती तिस्ता में मिल रहा था। मद्धिम-मद्धिम हवा बह रही थी। पेड़-पौधे झूम रहे थे। गहरे बादलों की परत ने चाँद को ढक रखा था…बाहर परिंदे और लोग अपने घरों को लौट रहे थे। वातावरण में अद्भुत शांति थी। मंदिर की घंटियों सी… घुँघरुओं की रुनझुनाहट-सी। आँखें अनायास भर आईं।
ज्ञान का नन्हा-सा बोधिसत्व जैसे भीतर उगने लगा…वहीं सुख शांति और सुकून है जहाँ अखंडित संपूर्णता है-पेड़, पौधे, पशु, और आदमी-सब अपनी-अपनी लय, ताल और गति में हैं। हमारी पीढ़ी ने प्रकृति की इस लय, ताल और गति से खिलवाड़ कर अक्षम्य अपराध किया है। हिमालय अब मेरे लिए कविता ही नहीं, दर्शन बन गया था।
अँधेरा होने के पहले ही किसी प्रकार डगमगाती शिलाओं और पत्थरों से होकर तिस्ता नदी की धार तक पहुँची। बहते पानी को अपनी अंजुलि में भरा तो अतीत भीतर धड़कने लगा…स्मृति में कौंधा…हमारे यहाँ जल को हाथ में लेकर संकल्प किया जाता है…क्या संकल्प करूँ? पर मैं संकल्प की स्थिति में नहीं थी…भीतर थी एक प्रार्थना…एक कमजोर व्यक्ति की प्रार्थना…भीतर का सारा हलाहल , सारी तामसिकताएँ बह जाएँ…इसी बहती धारा में! रात धीरे-धीरे गहराने लगी। हिमालय ने काला कंबल ओढ़ लिया था। जितेन ने लकड़ी के बने खिलौने से उस छोटे से गेस्ट हाऊस में गाने की तेज़ धुन पर जब अपने संगी-साथियों के साथ नाचना शुरू किया तो देखते-देखते एक आदिम रात्रि की महक से परियों की कहानी-सी मोहक वह रात महक उठी। मस्ती और मादकता का ऐसा संक्रमण हुआ कि एक-एक कर हम सभी सैलानी गोल-गोल घेरा बनाकर नाचने लगे। मेरी पचास वर्षीय सहेली मणि ने कुमारियों को भी मात करते हुए वो जानदार नृत्य प्रस्तुत किया कि हम सब अवाक उसे ही देखते रह गए। कितना आनंद भरा था उसके भीतर! कहाँ से आता था इतना आनंद?
लायुंग की सुबह! बेहद शांत और सुरम्य। तिस्ता नदी की शांत धारा के समान ही कल-कल कर बहती हुई। अधिकतर लोगों की जीविका का साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और दारू का व्यापार। सुबह मैं अकेले ही टहलने निकल गई थी। मैंने उम्मीद की थी कि यहाँ मुझे बर्फ मिलेगी पर अप्रैल के शुरुआती महीने में यहाँ बर्फ का एक कतरा भी नहीं था। यद्यपि हम सी लेवल (तल, स्तर) से 14000 फीट की ऊँचाई पर थे। मैं बर्फ देखने के लिए बैचेन थी…हम मैदानों से आए लोगों के लिए बर्फ से ढके पहाड़ किसी जन्नत से कम नहीं होते।
वहीं पर घूमते हुए एक सिक्किमी नवयुवक ने मुझे बताया कि प्रदूषण के चलते स्नो-फॉल लगातार कम होती जा रही है पर यदि मैं ‘कटाओ’ चली जाऊँ तो मुझे वहाँ शर्तिया बर्फ मिल जाएगी…कटाओ यानी भारत का स्विट्जरलैंड! कटाओ जो कि अभी तक टूरिस्ट स्पॉट नहीं बनने के कारण सुर्खियों में नहीं आया था, और अपने प्राकृतिक स्वरूप में था। कटाओ जो लायुंग से 500 फीट ऊँचाई पर था और करीब दो घंटे का सफ़र था। एक नवयुवक मुझे बतिया रहा था और उसकी घरवाली अपने छोटे से लकड़ी के घर के बाहर हमें उत्सुकतापूर्वक देख रही थी कि तभी गाय ने आकर बाहर थैले में रखा उसका महुआ गुडुप कर लिया था। मीठी झिड़कियाँ देकर उसने गाय को भगा दिया था।
शब्दार्थ –
पड़ाव – डेरा, शिविर, अस्थायी ठहरने का स्थान
गगनचुंबी – आसमान को छूने वाला
मद्धिम-मद्धिम – धीमी, हलकी
अक्षम्य – जो क्षमा के योग्य न हो, अक्षंतव्य, अनुचित, अन्यायपूर्ण
हलाहल – विष, ज़हर
संक्रमण – मिलन, संयोग
सुरम्य – अत्यंत मनोरम, रमणीय, बेहद सुंदर
सुर्खियों – चर्चा में आना
गुडुप – निगल लिया
व्याख्या – यूमथांग पहुँचने के लिए हमें रात भर लायुंग में डेरा डालना था। आसमान को छूने वाले पहाड़ों के नीचे समतल जगह में साँस लेती एक छोटी-सी शांत बस्ती थी – लायुंग। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सारी दौड़-धूप से दूर जिंदगी जहाँ निश्चिन्त होकर सो रही थी। लेखिका और उनके साथी लायुंग में ही ठहरे थे। तिस्ता नदी के किनारे पर बसे लकड़ी के एक छोटे-से घर में लेखिका और उनके साथी ठहरे हुए थे। लेखिका मुँह-हाथ धोकर तुरंत ही तिस्ता नदी के किनारे बिखरे पत्थरों पर बैठ गई थी। उसके सामने बहुत ऊपर से बहता झरना नीचे कल-कल बहती तिस्ता नदी में मिल रहा था। धीमी, हलकी हवा बह रही थी। पेड़-पौधे झूम रहे थे। चाँद को गहरे बादलों की परत ने ढक रखा था। बाहर से पक्षी और लोग अपने घरों को लौट रहे थे। वातावरण में अद्भुत शांति फैली हुई थी। मंदिर की घंटियों की ध्वनि ऐसी लग रही थी जैसे घुँघरुओं की रुनझुनाहट हो रही हो। ऐसा मनमोहक दृश्य देखकर लेखिका की आँखें स्वतः ही भर आईं थी।
लेखिका को ऐसा लग रहा था जैसे उनके अंदर ज्ञान का नन्हा-सा बोधिसत्व उगने लगा हो। वहाँ लेखिका को सुख शांति और सुकून मिल रहा था। लेखिका को वहां अखंडित संपूर्णता महसूस हो रही थी क्योंकि वहाँ पेड़, पौधे, पशु, और आदमी-सब अपनी-अपनी लय, ताल और गति में थे। उस दृश्य को देखकर लेखिका को एहसास हो रहा था कि हमारी पीढ़ी ने प्रकृति की इस लय, ताल और गति से खिलवाड़ करके ऐसा अपराध किया है, जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। लेखिका के लिए अब हिमालय कोई कविता नहीं बल्कि दर्शन बन गया था।
अँधेरा होने के पहले ही किसी तरह डगमगाती शिलाओं और पत्थरों से होकर लेखिका तिस्ता नदी की धार तक पहुँची। उसने बहते पानी को अपने दोनों हाथों में भरा तो उसके अतीत की स्मृति में कुछ याद आया कि हमारे यहाँ जल को हाथ में लेकर संकल्प किया जाता है। लेखिका ने भी हाथों में जल लिया हुआ था अतः वह सोचने लगी कि उसे क्या संकल्प करना चाहिए। पर उस समय लेखिका संकल्प की स्थिति में नहीं थी। उसके अंदर एक प्रार्थना थी जिसे वह एक कमजोर व्यक्ति की प्रार्थना बताती हैं। वह प्रार्थना करने लगी कि उसके भीतर का सारा विष अथवा ज़हर, सारी बुरी इच्छाएँ इसी बहती धारा में बह जाए। रात धीरे-धीरे गहरी होने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे हिमालय ने कोई काला कंबल ओढ़ लिया हो। जितेन ने लकड़ी के बने खिलौने से उस छोटे से गेस्ट हाऊस में गाने की तेज़ धुन पर जब अपने संगी-साथियों के साथ नाचना शुरू किया तो देखते-देखते एक साधारण रात्रि से परिवर्तित हो कर वह परियों की कहानी की तरह मन -मोहक रात बन गई। मस्ती और मादकता का ऐसा मिलन व् संयोग हुआ कि एक-एक कर सभी सैलानी गोल-गोल घेरा बनाकर नाचने लगे। लेखिका की पचास वर्षीय सहेली मणि ने ऐसा जानदार नृत्य प्रस्तुत किया कि बाकि सब आश्चर्य से उसे ही देखते रह गए क्योंकि वह कुमारियों को भी मात दे रही थी। उसे ऐसा देखकर लेखिका सोचने लगी कि उसके भीतर कितना आनंद भरा था? और इतना आनंद आखिर कहाँ से आता था? लायुंग की सुबह, बहुत ही शांत और अत्यंत सुंदर थी। तिस्ता नदी की शांत धारा के समान ही कल-कल कर बहती हुई। वहाँ के अधिकतर लोगों की जीविका का साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और दारू का व्यापार है। सुबह लेखिका अकेले ही घूमने निकल गई थी। लेखिका ने उम्मीद की थी कि यहाँ उन्हें बर्फ मिलेगी पर अप्रैल के शुरुआती महीने में वहाँ बर्फ का एक कतरा भी नहीं था। जबकि वे सी स्तर से 14000 फीट की ऊँचाई पर थे। लेखिका बर्फ देखने के लिए बैचेन थी क्योंकि मैदानों से आए लोगों के लिए बर्फ से ढके पहाड़ किसी स्वर्ग से कम नहीं होते। एक सिक्किमी नवयुवक ने लेखिका को बताया कि प्रदूषण के चलते स्नो-फॉल लगातार कम होती जा रही है पर यदि वे ‘कटाओ’ चली जाएँ तो उन्हें वहाँ जरूर बर्फ मिल जाएगी। कटाओ को भारत का स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है। कटाओ जो कि अभी तक चर्चा में नहीं आया था इसका कारण यह था कि कटाओ अब तक टूरिस्ट स्पॉट नहीं बना था, और अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही था। कटाओ लायुंग से 500 फीट ऊँचाई पर था और करीब दो घंटे का सफ़र तय करना होता था। एक नवयुवक लेखिका को यह सब बता ही रहा था और उसकी घरवाली अपने छोटे से लकड़ी के घर के बाहर हमें उत्सुकतापूर्वक देख रही थी कि तभी गाय ने आकर बाहर थैले में रखा उसका महुआ निगल लिया था। मीठी डाँट-झपट देकर उसने गाय को भगा दिया था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वहाँ के लोग कितने शांत व् मिलनसार हैं।
पाठ
उम्मीद, आवेश और उत्तेजना के साथ अब हमारा सफर कटाओ की ओर। कटाओ का रास्ता और खतरनाक था अैर उस पर धुंध और बारिश। जितेन लगभग अंदाज़ से गाड़ी चला रहा था। पहाड़, पेड़, आकाश, घाटियाँ सब पर बादलों की परत। सब कुछ बादलमय। बादलों को चीरकर निकलती हमारी जीप। खतरनाक रास्तों के अहसास ने हमें मौन कर दिया था। और उस पर बारिश। एक चूक और सब खलास…साँस रोके हम धुंध और फिसलन भरे रास्ते पर सँभल-सँभलकर आगे बढ़ती जीप को देख रहे थे। हमारी साँस लेने की आवाजों के सिवाय आस-पास जीवन का कोई पता नहीं था। फिर नज़र पड़ी बड़े-बड़े शब्दों में लिखी एक चेतावनी पर…‘इफ यू आर मैरिड, डाइवोर्स स्पीड।’ थोड़ी ही दूर आगे बढ़े कि फिर एक चेतावनी-‘दुर्घटना से देर भली, सावधानी से मौत टली।’
करीब आधे रास्ते बाद धुंध छँटी और साथ ही सृष्टि और हमारे बीच फैला सन्नाटा भी हटा। नार्गे उत्साहित होकर कहने लगा, “कटाओ हिन्दुस्तान का स्विट्शरलैंड है।” मेरी सहेली मणि स्विट्शरलैंड घूम आई थी, उसने तुरंत प्रतिवाद किया-“नहीं स्विट्शरलैंड भी इतनी ऊँचाई पर नहीं है और न ही इतना सुंदर।”
हम कटाओ के करीब आ रहे थे क्योंकि दूर से ही बर्फ से ढके पहाड़ दिखने लगे थे। पास में जो पर्वत थे वे आधे हरे-काले दिख रहे थे। लग रहा था जैसे किसी ने इन पहाड़ों पर पाउडर छिड़क दिया हो। कहीं पाउडर बची रह गई हो और कहीं वह धूप में बह गई हो। नार्गे ने उत्तेजित होकर कहा-“देखिए एकदम ताजा बर्फ है, लगता है रात में गिरी है यह बर्फ।” थोड़ा और आगे बढ़ने पर अब हमें पूरी तरह बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे। साबुन के झाग की तरह सब ओर गिरी हुई बर्फ। मैं जीप की खिड़की से मुंडी निकाल-निकाल दूर-दूर तक देख रही थी…चाँदी से चमकते पहाड़!
एकाएक जितेन ने पूछा, “कैसा लग रहा है?”
मैंने जवाब दिया-“राम रोछो” (अच्छा लगा)।
वह उछल पड़ा-“अरे, यह नेपाली बोली कहाँ से सीखी?” अपनी भाषा के गर्व से उसकी आँखें चमक उठी, चेहरा इतराने लगा। और तभी किसी चमत्कार की तरह हलकी-हलकी बर्फ, एकदम महीन-महीन मोती की तरह गिरने लगी!
“तिम्रो माया सैंधै मलाई सताऊँछ”, (तुम्हारा प्यार मुझे सदैव रुलाता है।) चहुँ ओर बिखरी यह बर्फीली सुंदरता जितेन के मन पर भी थाप लगाने लगी थी। प्रेम की झील में तैरते हुए झूम-झूम गाने लगा था वह।
हम सभी सैलानी अब जीप से उतर कर बर्फ पर कूदने लगे थे। यहाँ बर्फ सर्वाधिक थी। घुटनों तक नरम-नरम बर्फ। ऊपर आसमान और बर्फ से ढके पहाड़ एक हो रहे थे। कई सैलानी बर्फ पर लेटकर हर लम्हे की रंगत को कैमरे में कैद करने में लगे थे।
मेरे पाँव झन-झन करने लगे थे। पर मन वृंदावन हो रहा था। भीतर जैसे देवता जाग गए थे। ख्वाहिश हुई कि मैं भी बर्फ पर लेटकर इस बर्फीली जन्नत को जी भर देखूँ। पर मेरे पास बर्फ पर पहनने वाले लंबे-लंबे जूते नहीं थे। मैंने चाहा कि किराए पर ले लूँ पर कटाओ, यूमथांग और झांगू लेक की तरह टूरिस्ट स्पॉट (भ्रमण-स्थल) नहीं था, इस कारण यहाँ झांगू की तरह दुनिया भर की तो क्या एक भी दुकान नहीं थी। खैर…
दनादन फोटो खिंचवाने की बजाय मैं उस सारे परिदृश्य को अपने भीतर लगातार खींच रही थी जिससे महानगर के डार्क रूम में इसे फिर-फिर देख सकूँ। संपूर्णता के उन क्षणों में यह हिमशिखर मुझे मेरे आध्यात्मिक अतीत से जोड़ रहे थे। शायद ऐसी ही विभोर कर देने वाली दिव्यता के बीच हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों की रचना की होगी। जीवन सत्यों को खोजा होगा। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का महामंत्र पाया होगा। अंतिम संपूर्णता का प्रतीक वह सौंदर्य ऐसा कि बड़ा से बड़ा अपराधी भी इसे देख ले तो क्षणों के लिए ही सही ‘करुणा का अवतार’ बुद्ध बन जाए।
और तभी दिमाग में कौंधा कि मिल्टन ने ईव की सुंदरता का वर्णन करते हुए लिखा था कि शैतान भी उसे देखकर ठगा-सा रह जाता था और दूसरों का अमंगल करने की वृत्ति भूल जाता था। मैंने मणि से पूछा-“क्या उसने पढ़ी है मिल्टन की वह कविता?”
शब्दार्थ –
उम्मीद – आशा, अपेक्षा
आवेश – जोश, तैश, आक्रोश, उद्दीप्त मनोवेग
उत्तेजना – रोष, क्रोध, प्रेरणा
सन्नाटा – मौन, चुप्पी
प्रतिवाद – विरोध, खंडन
महीन-महीन – बारीक-बारीक
टूरिस्ट स्पॉट – भ्रमण-स्थल
व्याख्या – आशा, जोश और प्रेरणा के साथ अब लेखिका का सफर कटाओ की ओर चल पड़ा। कटाओ का रास्ता और भी अधिक खतरनाक था और उस पर धुंध और बारिश उस रास्ते को और भी खतरनाक बना रही थी। जितेन लगभग अंदाज़े से ही गाड़ी चला रहा था। पहाड़, पेड़, आकाश, घाटियाँ सब पर बादलों की परत बिछी हुई थी। ऐसा लग रहा था बादलों को चीरकर हमारी जीप निकल रही है। खतरनाक रास्तों के अहसास ने सभी को मौन कर दिया था। अर्थात कोई भी डर के मारे कुछ नहीं बोल रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि एक चूक और सब ख़त्म हो जाएगा। सभी साँस रोके धुंध और फिसलन भरे रास्ते पर सँभल-सँभलकर आगे बढ़ती हुई जीप को देख रहे थे। उनकी साँस लेने की आवाजों के सिवाय आस-पास जीवन का कोई पता नहीं था। फिर उनकी नज़र बड़े-बड़े शब्दों में लिखी एक चेतावनी पर पड़ी ‘इफ यू आर मैरिड, डाइवोर्स स्पीड।’ थोड़ी ही दूर आगे बढ़े कि फिर एक चेतावनी-‘दुर्घटना से देर भली, सावधानी से मौत टली।’ अर्थात यात्रियों को जगह – जगह सावधान करने के लिए चेतावनियाँ लिखी गई थी। करीब आधे रास्ते के बाद धुंध हटी और साथ ही सृष्टि और यात्रियों के बीच फैला मौन भी हटा। नार्गे अत्यधिक खुश होकर कहने लगा कि कटाओ हिन्दुस्तान का स्विट्शरलैंड है। परन्तु लेखिका की सहेली मणि स्विट्शरलैंड घूम कर आई थी, उसने तुरंत गाइड की बातों का खंडन किया कि नहीं स्विट्शरलैंड भी इतनी ऊँचाई पर नहीं है और न ही इतना सुंदर है। वे कटाओ के करीब आ रहे थे क्योंकि दूर से ही बर्फ से ढके पहाड़ दिखने लगे थे। पास में जो पर्वत थे वे आधे हरे-काले दिख रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने इन पहाड़ों पर कोई पाउडर छिड़क दिया हो। कहीं पाउडर बची रह गई हो और कहीं वह धूप में बह गई हो। नार्गे ने फिर खुश होकर कहा कि देखिए एकदम ताजा बर्फ है, लगता है रात में यह बर्फ गिरी है। थोड़ा और आगे बढ़ने पर अब लेखिका व् उनके साथियों को पूरी तरह बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे। सब ओर गिरी हुई बर्फ साबुन के झाग की तरह लग रही थी। लेखिका जीप की खिड़की से सिर निकाल-निकाल कर दूर-दूर तक देख रही थी। बर्फ से पहाड़ चाँदी की तरह चमक रहे थे। जितेन ने पूछने पर कि लेखिका को कैसा लग रहा है? लेखिका ने नेपाली भाषा में जवाब दिया “राम रोछो” (अच्छा लगा)। यह सुन कर वह उछल पड़ा कि यह नेपाली बोली लेखिका ने कहाँ से सीखी? अपनी भाषा के गर्व से उसकी आँखें चमक उठी थी, उसका चेहरा इतराने लगा था। और तभी किसी चमत्कार की तरह हलकी-हलकी बर्फ, एकदम बारीक-बारीक मोती की तरह गिरने लगी। चारों ओर बिखरी यह बर्फीली सुंदरता जितेन के मन पर भी थाप लगाने लगी थी। प्रेम की झील में तैरते हुए झूम-झूमचारों ओर बिखरी यह बर्फीली सुंदरता जितेन के मन पर भी थाप लगाने लगी थी। प्रेम की झील में तैरते हुए वह “तिम्रो माया सैंधै मलाई सताऊँछ”, (तुम्हारा प्यार मुझे सदैव रुलाता है।) गीत झूम-झूम कर गाने लगा था।
सभी सैलानी अब जीप से उतर कर बर्फ पर कूदने लगे थे। यहाँ बर्फ बहुत अधिक थी। घुटनों तक नरम-नरम बर्फ, ऊपर आसमान और बर्फ से ढके पहाड़ मानो एक ही हो रहे थे। कई सैलानी बर्फ पर लेटकर हर लम्हे की रंगत को कैमरे में कैद करने में लगे थे। लेखिका के पाँव भी झन-झन करने लगे थे। पर मन मानो वृंदावन हो रहा था। भीतर जैसे देवता जाग गए थे। लेखिका की इच्छा हुई कि वह भी बर्फ पर लेटकर इस बर्फीली जन्नत को जी भर देखे। पर लेखिका के पास बर्फ पर पहनने वाले लंबे-लंबे जूते नहीं थे। लेखिका ने चाहा कि वह जुटे किराए पर ले, पर कटाओ, यूमथांग और झांगू लेक की तरह टूरिस्ट स्पॉट (भ्रमण-स्थल) नहीं था, इस कारण यहाँ झांगू की तरह दुनिया भर की तो क्या एक भी दुकान नहीं थी। लगातार फोटो खिंचवाने की बजाय लेखिका चारों और के उस सुन्दर दृश्य को अपने भीतर लगातार खींच रही थी जिससे महानगर के डार्क रूम में इसे फिर-फिर देख सकूँ। अर्थात जब भी लेखिका को याद आए तो वह सारी सुंदरता को आँख बंद कर हु-ब-हु देख सके। अपने आप में पुरे उन क्षणों में वह हिमशिखर लेखिका को उसके आध्यात्मिक अतीत से जोड़ रहे थे। लेखिका अंदाजा लगा रही थी कि शायद ऐसी ही मनमोहक दिव्यता के बीच हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों की रचना की होगी। जीवन के सत्यों को खोजा होगा। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का महामंत्र पाया होगा। अर्थात आध्यात्म के लिए जिस तरह के मौहौल की आवश्यकता होती है लेखिका को अपने आस-पास का मौहौल वैसा ही शांत व् मनमोहक लैह रहा था। अंतिम संपूर्णता का प्रतीक वह सौंदर्य ऐसा लग रहा था कि बड़ा से बड़ा अपराधी भी अगर इसे देख ले तो क्षणों के लिए ही सही ‘करुणा का अवतार’ बुद्ध बन जाए। अर्थात अपने सरे पाप भूल आध्यात्म से जुड़ जाए। यही सब सोचते हुए लेखिका के दिमाग में कौंधा कि मिल्टन ने ईव की सुंदरता का वर्णन करते हुए लिखा था कि शैतान भी उसे देखकर ठगा-सा रह जाता था और दूसरों का अमंगल करने के अपने स्वभाव को भूल जाता था। लेखिका ने मणि से पूछा कि क्या उसने मिल्टन की वह कविता पढ़ी है?
पाठ
पर मणि उस समय किसी दूसरे ही सवाल से जूझ रही थी। वह एकाएक दार्शनिकों की तरह कहने लगी, “ये हिमशिखर जल स्तंभ हैं, पूरे एशिया के। देखो, प्रकृति भी किस नायाब ढंग से सारा इंतजाम करती है। सर्दियों में बर्फ के रूप में जल संग्रह कर लेती है और गर्मियों में पानी के लिए जब त्राहि-त्राहि मचती है तो ये ही बर्फ शिलाएँ पिघल-पिघल जलधारा बन हमारे सूखे कंठों को तरावट पहुँचाती हैं। कितनी अद्भुत व्यवस्था है जल संचय की!”
मणि ने अभिभूत हो माथा नवाया-“जाने कितना ऋण है हम पर इन नदियों का, हिम शिखरों का।” ‘संसार कितना सुंदर।’ स्वप्न जगाते उन लम्हों में मैंने सोचा। पर तभी उदासी की एक झीनी-सी परत मुझ पर छा गई। उड़ते बादलों की तरह पत्थर तोड़ती उन पहाड़िनों का खयाल आ गया।
आत्मा की अनंत परतों को छीलता हुआ हमारा यह सफर थोड़ा और आगे बढ़ा कि तभी देखा-इक्की-दुक्की फौजी छावनियाँ। ध्यान आया यह बॉर्डर एरिया है। थोड़ी दूरी पर ही चीन की सीमा है। एक फौजी से मैंने कहा-“इतनी कड़कड़ाती ठंड में (उस समय तापमान माइनस 15 डिग्री सेल्यिसय था) आप लोगों को बहुत तकलीफ होती होगी।” वह हँस दिया-एक उदास हँसी, “आप चैन की नींद सो सकें, इसीलिए तो हम यहाँ पहरा दे रहे हैं।”
‘फेरी भेटुला’ (फिर मिलेंगे) कहते हुए जितेन ने जीप चालू कर दी। थोड़ी देर बाद ही फिर दिखी एक फौजी छावनी जिस पर लिखा था-‘वी गिव अवर टुडे फॉर योर टुमारो।’
मन उदास हो गया। भीतर कुछ पिघलने लगा। महानगर में रहते हुए कभी ध्यान ही नहीं आया कि जिन बर्फीले इलाकों में वैसाख के महीने में भी पाँच मिनट में ही हम ठिठुरने लगे थे, हमारे ये जवान पौष और माघ में भी जबकि सिवाय पेट्रोल के सब कुछ जम जाता है, तैनात रहते हैं। और जिन सँकरे घुमावदार और खतरनाक रास्तों से गुज़रने भर में हमारे प्राण काँप उठते हैं उन रास्तों को बनाने में जाने कितनों के जीवन अपनी मीआद के पूर्व ही खत्म हो गए हैं। मेरे लिए यह यात्रा सचमुच ही एक खोज यात्रा थी।
पूरा सफर चेतना और अंतरात्मा में हलचल मचाने वाला था। बहरहाल…अब हम लायुंग वापस लौटकर फिर यूमथांग की ओर। जितेन कुछ दिन पूर्व ही नेपाल से ताजा-ताजा आया था।
यूमथांग की घाटियों में एक नया आकर्षण और जुड़ गया था…ढेरों-ढेर प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूल। जितेन बताने लगा, “बस पंद्रह दिनों में ही देखिएगा पूरी घाटी फूलों से इस कदर भर जाएगी कि लगेगा फूलों की सेज रखी हो।”
यहाँ रास्ते अपेक्षाकृत चौड़े थे, इस कारण खतरों का अहसास कम था। इन घाटियों में कई बंदर भी दिखे। कुछ अकेले तो कुछ अपने बाल-बच्चों के साथ।
बहरहाल…घाटियों, वादियों, पहाड़ों और बादलों की आँख-मिचौली दिखाती, पहाड़ी कबूतरों को उड़ाती हमारी जीप जब यूमथांग पहुँची तो हम थोड़े निराश हुए। बर्फ से ढके कटाओ के हिम-शिखरों को देखने के बाद यूमथांग थोड़ा फीका लगा और यह भी अहसास हुआ कि मंज़िल से कहीं ज़्यादा रोमांचक होता है मंज़िल तक का सफर।
बहरहाल यूमथांग में चिप्स बेचती एक सिक्किमी युवती से मैंने पूछा-“क्या तुम सिक्किमी हो?”
“नहीं मैं इंडियन हूँ,” उसने जवाब दिया।
सुनकर बहुत अच्छा लगा। सिक्किम के लोग भारत में मिलकर बहुत खुश हैं। जब सिक्किम स्वतंत्र रजवाड़ा था तब टूरिस्ट उद्योग इतना नहीं फला-फूला था। हर एक सिक्किमी भारतीय आबोहवा में इस कदर घुलमिल गया है कि लगता ही नहीं, कभी सिक्किम भारत में नहीं था।
जीप में बैठने को हुए कि एक पहाड़ी कुत्ते ने रास्ता काट दिया। मणि ने बताया, “ये पहाड़ी कुत्ते हैं। ये भौंकते नहीं हैं। ये सिर्फ चाँदनी रात में ही भौंकते हैं। “
“क्या?” विस्मय और अविश्वास से मैं उसे सुनती रही। क्या समुद्र की तरह कुत्तों पर भी पूर्णिमा की चाँदनी कामनाओं का श्वार-भाटा जगाती है! खैर…।
लौटती यात्रा में जीप में भी जितेन हमें रकम-रकम की जानकारियाँ देता रहा “मैडम, यहाँ एक पत्थर है जिस पर गुरुनानक के फुट प्रिंट हैं। कहते हैं यहाँ गुरुनानक की थाली से थोड़े से चावल छिटक कर बाहर गिर गए थे। जिस जगह चावल छिटक कर गिरे थे, वहाँ चावल की खेती होती है।”
करीब तीन-चार किलोमीटर बाद ही उसने फिर उँगली दिखाई, “मैडम इसे खेदुम कहते हैं। यह पूरा लगभग एक किलोमीटर का एरिया है। यहाँ देवी-देवताओं का निवास है, यहाँ जो गंदगी फैलाएगा, वह मर जाएगा।”
“तुम लोग पहाड़ों पर गंदगी नहीं फैलाते…?”
उसने जीभ निकालते हुए कहा-“नहीं मैडम, पहाड़, नदी, झरने…हम इनकी पूजा करते हैं, इन्हें गंदा करेंगे तो हम मर जाएँगे।”
“तभी गैंगटॉक इतना सुंदर है”, मैंने कहा।
“गैंगटॉक नहीं मैडम गंतोक कहिए। इसका असली नाम गंतोक है। गंतोक का मतलब है पहाड़…।”
मैं कुछ पूछती कि वह फिर चालू हो गया, ” मैडम यूमथांग भी पहले टूरिस्ट स्पॉट नहीं था। यह तो सिक्किम जब भारत में मिला उसके भी कई वर्षों बाद भारतीय आर्मी के कप्तान शेखर दत्ता के दिमाग में आया कि यहाँ सिर्फ फौजियों को रखकर क्या होगा, घाटियों के बीच रास्ते निकालकर इसे टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है। आप देखिए, अभी भी रास्ते बन रहे हैं।”
‘हाँ, रास्ते अभी भी बन ही रहे हैं। नए-नए स्थानों की खोज अभी भी जारी है। शायद मनुष्य की इसी असमाप्त खोज का नाम सौंदर्य है’…मन-ही-मन मैं कहती हूँ।
जीप आगे बढ़ने लगती है।
शब्दार्थ –
नायाब – बेहतरीन
संग्रह – इकठ्ठा
तरावट – शीतलता, ठंडक
अभिभूत – मुग्ध, भावविभोर, विह्वल
रजवाड़ा – देशी रियासत, राजाओं के रहने का स्थान
व्याख्या – लेखिका की मित्र का उनकी बातों पर ध्यान नहीं था वह किसी दूसरे ही सवाल से जूझ रही थी। वह एकाएक दार्शनिकों की तरह कहने लगी कि ये हिमशिखर पूरे एशिया के जल स्तंभ हैं। अर्थात बर्फ के शिखर पुरे एशिया के जल का इंतजाम करते हैं। प्रकृति बहुत ही बेहतरीन ढंग से यह सारा इंतजाम करती है। सर्दियों में बर्फ के रूप में जल को इकठ्ठा कर लेती है और गर्मियों में पानी के लिए जब सभी जगह परेशानी बढ़ती जाती है तो ये ही बर्फ शिलाएँ पिघल-पिघल कर जलधारा बन कर हमारे सूखे कंठों को गर्मी से ठंडक पहुँचाती हैं। जल संचय की इस अद्भुत व्यवस्था को देखकर सभी हैरान है। मणि ने भावविभोर हो कर माथा झुकाया और कहा कि न जाने हम पर इन नदियों का, हिम शिखरों का कितना ऋण है। यह संसार कितना सुंदर है। ये सारे लम्हें लेखिका को किसी स्वप्न से जगाने वाले लग रहे थे। परन्तु तभी लेखिका के मन में उदासी की एक पतली सी परत छा गई। उड़ते बादलों की तरह पत्थर तोड़ती उन पहाड़िनों का खयाल लेखिका को आ गया, जिन्हें लेखिका ने अपने सफ़र के दौरान देखा था। यह यात्रा लेखिका की आत्मा की अंदर तक की परतों को छीलता हुआ आगे बढ़ रहा था कि तभी लेखिका को इक्की-दुक्की फौजी छावनियाँ दिखी। लेखिका को ध्यान आया कि यह बॉर्डर एरिया है। थोड़ी दूरी पर ही चीन की सीमा है। एक फौजी से जब लेखिका ने कहा कि इतनी कड़कड़ाती ठंड में जब तापमान माइनस 15 डिग्री सेल्यिसय है उन लोगों को बहुत तकलीफ होती होगी। तो वह फौजी एक उदास हँसी के साथ बोला कि आप चैन की नींद सो सकें, इसीलिए तो हम यहाँ पहरा दे रहे हैं। उनकी बात सुन कर जितेन ने जीप चालू कर दी और ‘फेरी भेटुला’ अर्थात फिर मिलेंगे कहते हुए निकल गए। थोड़ी देर बाद ही फिर लेखिका को एक फौजी छावनी दिखी, जिस पर लिखा था-‘वी गिव अवर टुडे फॉर योर टुमारो।’ यह पढ़ कर लेखिका का मन उदास हो गया। लेखिका को ऐसा महसूस होने लगा जैसे उसके भीतर कुछ पिघल रहा हो। लेखिका सोचने लगी कि महानगर में रहते हुए कभी भी यह ध्यान ही नहीं आया कि जिन बर्फीले इलाकों में वैसाख के महीने में भी पाँच मिनट में ही लेखिका और उनके साथी लोग ठिठुरने लगे थे, हमारे ये जवान पौष और माघ में भी जबकि सिवाय पेट्रोल के सब कुछ जम जाता है, हमारी सुरक्षा के लिए तैनात रहते हैं। और जिन तंग घुमावदार और खतरनाक रास्तों से गुज़रने भर में उनके प्राण काँप उठे थे, उन रास्तों को बनाने में जाने कितनों के जीवन अपनी अंतिम स्थिति पर पहुँचने के पूर्व ही खत्म हो गए हैं। लेखिका मानती है कि उनके लिए यह यात्रा सचमुच ही एक खोज यात्रा थी। पूरा सफर चेतना और अंतरात्मा में हलचल मचाने वाला था। अब लेखिका और उनके साथी लायुंग वापस लौटकर फिर यूमथांग की ओर चल पड़े। जितेन कुछ दिन पहले ही नेपाल से ताजा-ताजा आया था। यात्रा के दौरान लेखिका ने पाया कि ढेरों-ढेर प्रियुता और रूडोडेंड्रो के फूलों के कारण यूमथांग की घाटियों में एक नया आकर्षण और जुड़ गया था। उन्हें देखकर जितेन बताने लगा कि बस पंद्रह दिनों में ही पूरी घाटी फूलों से इस कदर भर जाएगी कि लगेगा जैसे फूलों की सेज रखी हो। अब यात्रा में रास्ते पहले की अपेक्षाकृत चौड़े थे, इस कारण अब लेखिका और उनके साथियों को खतरों का अहसास कम था। इन घाटियों में उन्हें कई बंदर भी दिखे। कुछ अकेले तो कुछ अपने बाल-बच्चों के साथ थे।
घाटियों, वादियों, पहाड़ों और बादलों की आँख-मिचौली दिखाती, पहाड़ी कबूतरों को उड़ाती उनकी जीप जब यूमथांग पहुँची तो वे अब थोड़े निराश हुए। क्योंकि बर्फ से ढके कटाओ के हिम-शिखरों को देखने के बाद अब उन्हें यूमथांग थोड़ा फीका लग रहा था और यह भी अहसास हुआ कि मंज़िल से कहीं ज़्यादा रोमांचक मंज़िल तक का सफर तय करने का होता है। लेखिका को यूमथांग में चिप्स बेचती एक सिक्किमी युवती दिखी लेखिका ने उससे पूछा कि क्या वह सिक्किमी है?” इस पर उसने जवाब दिया कि नहीं वह इंडियन है। उसका जवाब सुनकर लेखिका को बहुत अच्छा लगा। सिक्किम के लोग भारत में मिलकर बहुत खुश हैं। जब सिक्किम स्वतंत्र रजवाड़ा था तब वहाँ पर टूरिस्ट उद्योग इतना नहीं फला-फूला था। हर एक सिक्किमी भारतीय इस कदर भारत की संस्कृति व् सभ्यता में घुलमिल गया है कि ऐसा लगता ही नहीं था, कि कभी सिक्किम भारत में नहीं था। जब वे जीप में बैठने को हुए तो एक पहाड़ी कुत्ते ने रास्ता काट दिया। मणि ने लेखिका को बताया कि ये पहाड़ी कुत्ते हैं। ये भौंकते नहीं हैं। ये सिर्फ चाँदनी रात में ही भौंकते हैं। विस्मय और अविश्वास से लेखिका उसे सुनती रही। कि क्या समुद्र की तरह इन पहाड़ी कुत्तों पर भी पूर्णिमा की चाँदनी कामनाओं का श्वार-भाटा जगाती है। सफ़र से लौटते हुए भी जीप में जितेन उन्हें तरह-तरह की जानकारियाँ देता रहा जैसे वहाँ एक पत्थर था जिस पर गुरुनानक के फुट प्रिंट हैं। कहते हैं यहाँ गुरुनानक की थाली से थोड़े से चावल छिटक कर बाहर गिर गए थे। जिस जगह चावल छिटक कर गिरे थे, वहाँ चावल की खेती होती है। करीब तीन-चार किलोमीटर बाद ही गाइड ने फिर उँगली दिखाई, कि इसे खेदुम कहते हैं। यह पूरा लगभग एक किलोमीटर का एरिया है। यहाँ देवी-देवताओं का निवास है, यहाँ जो गंदगी फैलाएगा, वह मर जाएगा। यह सुनते ही लेखिका ने पूछा कि क्या वे लोग पहाड़ों पर गंदगी नहीं फैलाते? उस पर गाइड ने जीभ निकालते हुए कहा कि नहीं मैडम, पहाड़, नदी, झरने यह सब उनके लिए पूजा योग्य हैं, इन्हें गंदा करेंगे तो वे मर जाएँगे। तभी लेखिका ने कहा कि यही कारण है कि गैंगटॉक इतना सुंदर है। गाइड ने लेखिका को सही करते हुए कहा कि गैंगटॉक नहीं मैडम गंतोक कहिए। इसका असली नाम गंतोक है। गंतोक का मतलब है – पहाड़। लेखिका कुछ और पूछने वाली थी परन्तु गाइड लगातार कहने लगा कि मैडम यूमथांग भी पहले टूरिस्ट स्पॉट नहीं था। यह तो सिक्किम जब भारत में मिला उसके भी कई वर्षों बाद भारतीय आर्मी के कप्तान शेखर दत्ता के दिमाग में आया कि यहाँ सिर्फ फौजियों को रखकर क्या होगा, घाटियों के बीच रास्ते निकालकर इसे टूरिस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है। उन्होंने देखा होगा कि अभी भी रास्ते बन रहे हैं। लेखिका भी मन ही मन कहने लगी कि हाँ, रास्ते तो अभी भी बन ही रहे हैं। नए-नए स्थानों की खोज अभी भी जारी है। शायद मनुष्य की इसी असमाप्त खोज का नाम ही सौंदर्य है। लेखिका की जीप आगे बढ़ने लगती है। अर्थात लेखिका की यात्रा अब भी जारी थी।
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