CBSE Class 10 Hindi Chapter 12 “Sanskriti”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 2 Book
संस्कृति– Here is the CBSE Class 10 Hindi Kshitij Bhag 2 Chapter 12 Sanskriti Summary with detailed explanation of the lesson ‘Sanskriti’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary.
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 10 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 2 के पाठ 12 संस्कृति के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 संस्कृति पाठ के बारे में जानते हैं।
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- संस्कृति पाठ प्रवेश
- संस्कृति पाठ सार
- संस्कृति पाठ व्याख्या
- संस्कृति प्रश्न – अभ्यास
“संस्कृति”
लेखक परिचय –
लेखक – भदंत आनंद कौसल्यायन
संस्कृति पाठ प्रवेश (Sanskriti – Introduction to the chapter)
‘ संस्कृति ‘ निबंध् हमें सभ्यता और संस्कृति से जुड़े हुए अनेक ऐसे कठिन प्रश्नों से टकराने की प्रेरणा देता है , जो अक्सर हमारे अंदर उठते जरूर हैं किन्तु किन्हीं कारण वंश हम उन्हें दूसरों के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाते। इस निबंध् में लेखक ‘ भदंत आनंद कौसल्यायन जी ‘ ने अनेक उदाहरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहते हैं , दोनों एक ही वस्तु हैं अथवा अलग – अलग। लेखक सभ्यता को संस्कृति का परिणाम मानते हुए कहते हैं कि मानव संस्कृति कोई विभाजित करने की वस्तु नहीं है। लेखक को संस्कृति का बँटवारा करने वाले लोगों पर आश्चर्य होता है और साथ – ही – साथ दुख भी। उनकी दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी अथवा हितकर नहीं है , वह न तो सभ्यता हो सकती है और न ही उसे संस्कृति कहा जा सकता है।
संस्कृति पाठ सार(Sanskriti Summary)
लेखक कहते हैं कि हम अपने जीवन में बहुत से शब्दों का प्रयोग करते हैं कुछ हमें समझ में आते हैं और कुछ समझ में नहीं आते। ऐसे ही दो शब्द हैं – सभ्यता और संस्कृति । ऐसे तो लगता है कि हम इन दोनों शब्दों के अर्थ जानते हैं परन्तु इन दो शब्दों के साथ जब अनेक विशेषण लग जाते हैं , उदाहरण के लिए जैसे भौतिक – सभ्यता और आध्यात्मिक – सभ्यता , तब दोनों शब्दों का जो थोड़ा बहुत अर्थ पहले समझ में आया रहता है , वह भी इन विशेषणों के कारण गलत – सलत हो जाता है। लेखक को यह समझ में नहीं आता कि क्या सभ्यता और संस्कृति एक ही चीज़ है अथवा दो वस्तुएँ है ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अंतर है ? लेखक उस समय के बारे में सोचने को कह रहे हैं जब मनुष्य ने आग का आविष्कार नहीं किया था। लेखक इसलिए कल्पना करने को कह रहे हैं क्योंकि आज तो घर – घर चूल्हा जलता है। अर्थात आज तो हर घर में आग का प्रयोग होता है। परन्तु लेखक हमें सोचने के लिए कहते हैं कि सोचिए जिस आदमी ने पहली बार आग का आविष्कार किया होगा , वह कितना बड़ा आविष्कर्ता अर्थात कितना बड़ा आविष्कार करने वाला व्यक्ति होगा। क्योंकि आग के आविष्कार के बाद मनुष्य अधिक सरल जीवन जी पाया और अधिक सभ्य भी बन पाया। अथवा लेखक हमें उस समय की कल्पना करने के लिए भी कहते हैं जब मानव को सुई – धागे के बारे में कुछ भी पता नहीं था , जिस मनुष्य के दिमाग में पहली बार यह बात आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और उस छेद में धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं , वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा। इन दोनों उदाहरणों में दो चीज़े हैं ; पहले उदाहरण में एक चीज़ है किसी व्यक्ति विशेष की आग का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है आग का आविष्कार। इसी प्रकार दूसरे सुई – धागे के उदाहरण में एक चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार। लेखक कहते हैं कि जिस योग्यता अथवा जिस प्रेरणा या उमंग के बल पर आग का व सुई – धागे का आविष्कार हुआ है , वह किसी व्यक्ति विशेष की संस्कृति कही जाती है ; और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ , अथवा जो चीज़ उस व्यक्ति ने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की है , उसका नाम है सभ्यता। जिस व्यक्ति में पहली चीज़ , अर्थात योग्यता जितनी अधिक व स्वच्छ मात्रा में होगी , वह व्यक्ति उतना ही अधिक स्वच्छ आविष्कर्ता होगा। एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है , किन्तु उसकी संतान या उसकी आने वाली पीढ़ी को वह चीज़ बिना कोशिश के स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया या आविष्कार किया , वह व्यक्ति ही वास्तविक या यथार्थ संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान अपने पूर्वज की ही तरह सभ्य अथवा शिष्ट भले ही बन जाए , किन्तु उसे संस्कृत नहीं कहलाया जा सकता। और अच्छे से समझाने के लिए लेखक एक वर्तमान समय का उदाहरण लेते है कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण अर्थात ग्रैविटेशन के सिद्धांत का आविष्कार किया। इसलिए वह संस्कृत मानव था। आज के विद्यार्थी को भले ही गुर्त्वाकर्षण के साथ – साथ कई सिद्धांत और बातें पता हों लेकिन ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सकते है पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते। आग का आविष्कार करने के लिए पेट की भूख कारण रही होगी जिस कारण अच्छा भोजन पका के खाने की इच्छा ही आग के आविष्कार का कारण रही होगी। ठण्ड के मौसम में शरीर को बचाने के लिए कपड़ों को जोड़ने और गर्मी के मौसम में शरीर को सजाने के लिए कपड़ों को अलग – अलग तरीके से जोड़ने के लिए सुई – धागे का आविष्कार किया गया होगा। अब लेखक कल्पना करने के लिए कहते हैं कि उस आदमी की जिसका पेट भरा हुआ है , जिसका शरीर ढँका हुआ है , लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के समय आकाश में जगमगाते हुए तारों को देखता है , तो उसको केवल इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान होता रहता है कि आखिर यह मोतियों से भरी बड़ी थाली क्या है ? लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि केवल पेट को भरने और शरीर को ढँकने की इच्छा ही मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति का पेट भरा हुआ हो और जिसका शरीर ढँका हुआ हो , फिर भी जो खाली नहीं बैठ सकता , वही असल में संस्कृत व्यक्ति है। लेखक बताते हैं कि हमारी सभ्यता का एक बहुत बड़ा भाग हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है , जिनकी बुद्धि पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है , किन्तु हमारी सभ्यता का कुछ हिस्सा हमें ऐसे विद्वान , बुद्धिमान अथवा चिंतन – मनन करने वाले व्यक्तियों से भी मिला है जिन्होंने तथ्य – विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वश में होकर या सम्मोहित हो कर नहीं , बल्कि उनके अपने अंदर की सहज या सरल संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। और रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला विद्वान मनुष्य ही हमारे आज के ज्ञान को हम तक पहुंचाने वाला पहला व्यक्ति था। दूसरे के मुँह में रोटी का एक टुकड़ा डालने के लिए जो अपने मुँह के रोटी के टुकड़े को छोड़ देना , एक रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए माता के बैठे रहने , लेनिन द्वारा अपनी डबल रोटी के सूखे टुकड़े को स्वयं न खाकर दूसरों को खिलाना , संसार के मज़दूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता देना और सिद्धार्थ का अपना घर केवल इसलिए त्याग देना कि प्रबल वासना के वशीभूत लड़ती – कटती मानवता सुख से रह सके। ऐसी भावनाएँ व्यक्ति में कहाँ से उत्पन्न होती हैं। जो भी योग्यता दूसरों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए कोई आविष्कार करवाती है या किसी नए तथ्य की जानकारी उपलब्ध करवाती है वह संस्कृति है। तो सभ्यता क्या है ? तो इसका उत्तर है कि सभ्यता , संस्कृति का परिणाम है। संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी। यदि कल्याण भावना से कोई आविष्कार किया गया है तो वह संस्कृति है परन्तु यदि कल्याण की भावना निहित नहीं है तो वह असंस्कृति ही होगी। मानव ने जब – जब बुद्धि , समझ अथवा विवेक और दोस्ती या मित्रता के भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है , जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की ज़रूरत है। जिस तथ्य का आविष्कार सभी के कल्याण के लिए किया गया हो उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हथियार या दल – बल की आवश्यकता नहीं होती। लेखक समझाते हैं कि मानव संस्कृति को विभाजित नहीं किया जा सकता , यह कोई बाँटे जाने वाली वस्तु नहीं है और मानव संस्कृति में जितना भाग कल्याण का है , वह अकल्याणकर की तुलना में ज्यादा सर्वोत्तम और उत्कृष्ट ही नहीं बल्कि स्थायी अर्थात हमेशा बना रहने वाला भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि कल्याण का अंश कभी नष्ट नहीं होता और न ही कोई नष्ट करता है।
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संस्कृति पाठ व्याख्या (Sanskriti Lesson Explanation)
पाठ – जो शब्द सबसे कम समझ में आते हैं और जिनका उपयोग होता है सबसे अधिक ; ऐसे दो शब्द हैं सभ्यता और संस्कृति।
इन दो शब्दों के साथ जब अनेक विशेषण लग जाते हैं , उदाहरण के लिए जैसे भौतिक – सभ्यता और आध्यात्मिक – सभ्यता , तब दोनों शब्दों का जो थोड़ा बहुत अर्थ समझ में आया रहता है , वह भी गलत – सलत हो जाता है। क्या यह एक ही चीज़ है अथवा दो वस्तुएँ ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अंतर है ? हम इसे अपने तरीके पर समझने की कोशिश करें।
शब्दार्थ
उपयोग – किसी वस्तु , व्यक्ति अथवा स्थान को इस्तेमाल में लाना , प्रयोग में लाना
सभ्यता – सभ्य होने की अवस्था भाव , शिष्टता , तहज़ीब , अदब , कायदा , शराफ़त , शालीनता , बुद्धिमान होने का गुण , विचारशीलता
संस्कृति – परंपरा से चली आ रही आचार – विचार , रहन – सहन एवं जीवन पद्धति , संस्कार
विशेषण – संज्ञा की विशेषता बताने वाला शब्द , वह जिससे कोई विशेषता सूचित हो
भौतिक – शरीर संबंधी , पार्थिव , सांसारिक , लौकिक , पाँचों भूत से बना हुआ
आध्यात्मिक – अध्यात्म या धर्म संबंधी , परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला
अंतर – फ़र्क , भिन्नता , भेदभाव , किन्हीं दो स्थानों के बीच का फ़ासला , स्थान संबंधी दूरी
तरीका – काम करने का ढंग या शैली , उपाय , युक्ति , आचार या व्यवहार
नोट – इस गद्यांश में लेखक बताते हैं कि जिन दो शब्दों का प्रयोग हम सबसे ज्यादा करते हैं , सभ्यता और संस्कृति। उन्हीं शब्दों के आगे जब कोई विशेषण लगा दिया जाता है तब इन दोनों के अर्थों को समझने में कठिनाई आने लगती है।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि हम अपने जीवन में बहुत से शब्दों का प्रयोग करते हैं कुछ हमें समझ में आते हैं और कुछ समझ में नहीं आते। लेखक यहाँ पर भी ऐसे दो शब्दों का वर्णन कर रहे हैं जो शब्द सबसे कम समझ में आते हैं और जिनका उपयोग सबसे अधिक होता है और वे दो शब्द हैं – सभ्यता अर्थात तहज़ीब या बुद्धिमान होने का गुण और संस्कृति अर्थात परंपरा से चली आ रही आचार – विचार , रहन – सहन एवं जीवन पद्धति या संस्कार। ऐसे तो लगता है कि हम इन दोनों शब्दों के अर्थ जानते हैं परन्तु इन दो शब्दों के साथ जब अनेक विशेषण लग जाते हैं , उदाहरण के लिए जैसे भौतिक अर्थात शरीर संबंधी या सांसारिक – सभ्यता और आध्यात्मिक अर्थात अध्यात्म या धर्म संबंधी या परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाली -सभ्यता , तब दोनों शब्दों का जो थोड़ा बहुत अर्थ पहले समझ में आया रहता है , वह भी इन विशेषणों के कारण गलत – सलत हो जाता है। लेखक आगे पाठ में कुछ प्रश्नों को अपने तरीके से समझने की कोशिश करने वाले हैं। ये प्रश्न है – क्या सभ्यता और संस्कृति एक ही चीज़ है अथवा दो वस्तुएँ ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अंतर है ? कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक इस लेख में सभ्यता और संस्कृति से जुड़े प्रश्नों को हल करने की कोशिश कर रहे हैं।
पाठ – कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव समाज का अग्नि देवता से साक्षात नहीं हुआ था। आज तो घर – घर चूल्हा जलता है। जिस आदमी ने पहले पहल आग का आविष्कार किया होगा , वह कितना बड़ा आविष्कर्ता होगा !
अथवा कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव को सुई – धागे का परिचय न था , जिस मनुष्य के दिमाग में पहले – पहल बात आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और छेद में धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं , वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा !
इन्हीं दो उदाहरणों पर विचार कीजिए ; पहले उदाहरण में एक चीज़ है किसी व्यक्ति विशेष की आग का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है आग का आविष्कार। इसी प्रकार दूसरे सुई – धागे के उदाहरण में एक चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार।
शब्दार्थ
कल्पना – सोचना , मान लेना , रचनाशीलता की मानसिक शक्ति , कल्पित करने का भाव
साक्षात – मूर्तिमान , साकार , आँखों के सामने , प्रत्यक्ष , सम्मुख या मुँह की सीध में , शरीरधारी व्यक्ति के रूप में
आविष्कार – प्राकट्य , नई खोज , ईजाद
आविष्कर्ता – आविष्कार करने वाला , नई खोज करने वाला
परिचय – पहचान , ( इंट्रोडक्शन ) , जानकारी , जान – पहचान
पिरोना – सुई आदि से किसी छेद वाली वस्तु में धागा डालना
नोट – इस गद्यांश में लेखक दो उदहारण दे रहे हैं – एक आग का आविष्कार और दूसरा सुई – धागे का आविष्कार।
व्याख्या – लेखक हम सभी से उस समय की कल्पना करने के लिए कहते हैं जब मानव समाज का अग्नि देवता से आमना – सामना नहीं हुआ था। अर्थात लेखक उस समय के बारे में सोचने को कह रहे हैं जब मनुष्य ने आग का आविष्कार नहीं किया था। लेखक इसलिए कल्पना करने को कह रहे हैं क्योंकि आज तो घर – घर चूल्हा जलता है। अर्थात आज तो हर घर में आग का प्रयोग होता है। परन्तु लेखक हमें सोचने के लिए कहते हैं कि सोचिए जिस आदमी ने पहली बार आग का आविष्कार किया होगा , वह कितना बड़ा आविष्कर्ता अर्थात कितना बड़ा आविष्कार करने वाला व्यक्ति होगा। क्योंकि आग के आविष्कार के बाद मनुष्य अधिक सरल जीवन जी पाया और अधिक सभ्य भी बन पाया। अथवा लेखक हमें उस समय की कल्पना करने के लिए भी कहते हैं जब मानव को सुई – धागे के बारे में कुछ भी पता नहीं था , जिस मनुष्य के दिमाग में पहली बार यह बात आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और उस छेद में धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं , वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति के दिमाग में यह बात आई होगी की कपडे के दो टुकड़ों को आपस में सुई – धागे की मदद से जोड़ कर एक अच्छा वस्त्र तैयार किया जा सकता है वह व्यक्ति एक बहुत अच्छा आविष्कर्ता रहा होगा। लेखक ज्यादा उलझन पैदा न करते हुए इन्हीं दो उदाहरणों पर सोचने के लिए कहते हैं ; इन दोनों उदाहरणों में दो चीज़े हैं ; पहले उदाहरण में एक चीज़ है किसी व्यक्ति विशेष की आग का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है आग का आविष्कार। इसी प्रकार दूसरे सुई – धागे के उदाहरण में एक चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है सुई – धागे का आविष्कार। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक समझाना चाहते हैं कि केवल किसी चीज़ के बारे में सोचने मात्र से उस चीज़ का आविष्कार नहीं हो जाता। उस चीज़ के आविष्कार के लिए व्यक्ति विशेष की बुद्धि और विवेक अथवा योग्यता एक अहम भूमिका निभाती है।
पाठ – जिस योग्यता , प्रवृत्ति अथवा प्रेरणा के बल पर आग का व सुई – धागे का आविष्कार हुआ , वह है व्यक्ति विशेष की संस्कृति ; और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ , जो चीज़ उसने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की , उसका नाम है सभ्यता।
जिस व्यक्ति में पहली चीज़ , जितनी अधिक व जैसी परिष्कृत मात्र में होगी , वह व्यक्ति उतना ही अधिक व वैसा ही परिष्कृत आविष्कर्ता होगा।
एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है ; किन्तु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया , वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई है , वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए , संस्कृत नहीं कहला सकता। एक आधुनिक उदाहरण लें। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया। वह संस्कृत मानव था। आज के युग का भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से तो परिचित है ही ; लेकिन उसके साथ उसे और भी अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त है जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहा। ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सके ; पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते।
शब्दार्थ
योग्यता – गुण , क्षमता , औकात , बुद्धिमानी
प्रवृत्ति – स्वभाव , आदत , झुकाव , रुझान , प्रवाह , बहाव , आचार – व्यवहार
प्रेरणा – उत्तेजन , उकसाव , मन की तरंग , उमंग
आविष्कृत – जिसका आविष्कार हुआ हो
परिष्कृत – जिसका परिष्कार किया गया हो , शुद्ध किया हुआ , जिसे सजाया या सँवारा गया हो , अलंकृत , स्वच्छ , निर्मल
पूर्वज – परबाबा – बाबा – दादा आदि पुरखे , बड़ा भाई , अग्रज , जिसकी उत्पत्ति या जन्म पहले हुआ हो , अपने से पूर्व का जन्मा हुआ
अनायास – बिना कोशिश के , बिना मेहनत के , आसानी से , स्वतः
विवेक – अच्छे – बुरे की परख , सत्य का बोध , सद्बुद्धि , अच्छी समझ
तथ्य – यथार्थपरक बात , सच्चाई , वास्तविकता
वास्तविक – यथार्थ , ( रीअल ) , परमार्थ , सत्य
सभ्य – शिष्ट , शरीफ़ , भले आदमियों की तरह व्यवहार करने वाला , सुशील , विनम्र , सामाजिक – राजनीतिक – शैक्षणिक आदि सभी दृष्टियों से उन्नत व उत्तम
आधुनिक – वर्तमान समय या युग का , समकालीन , सांप्रतिक , हाल का
गुरुत्वाकर्षण – भार के कारण वस्तु का पृथ्वी के केंद्र की ओर खींचा जाना , ( ग्रैविटेशन )
सिद्धांत – पर्याप्त तर्क – वितर्क के पश्चात निश्चित किया गया मत , उसूल , ( प्रिंसिपल )
भौतिक विज्ञान – प्राकृतिक नियमों के सिद्धांतों का विज्ञान
नोट – इस गद्यांश में लेखक वास्तविक संस्कृत व्यक्ति किसे कहा जा सकता है , इस बात का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि जिस योग्यता , क्षमता या बुद्धिमानी से , अथवा जिस स्वभाव , आदत या आचार – व्यवहार के कारण अथवा जिस प्रेरणा या उमंग के बल पर आग का व सुई – धागे का आविष्कार हुआ है , वह किसी व्यक्ति विशेष की संस्कृति कही जाती है ; और उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ , अथवा जो चीज़ उस व्यक्ति ने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की है , उसका नाम है सभ्यता। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति की योग्यता , स्वभाव या आचार – व्यवहार को उसकी संस्कृति कहा जाता है और उस योग्यता , स्वभाव अथवा आचार – व्यवहार के द्वारा जो सर्व कल्याण को ध्यान में रखते हुए आविष्कार किया जाता है वह सभ्यता कहा जाता है। लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति में पहली चीज़ , अर्थात योग्यता , स्वभाव अथवा आचार – व्यवहार जितनी अधिक व जैसी अलंकृत अथवा स्वच्छ मात्रा में होगी , वह व्यक्ति उतना ही अधिक व वैसा ही अलंकृत अथवा स्वच्छ आविष्कर्ता होगा। अर्थात वैसा ही बड़ा आविष्कर्ता होगा। लेखक समझाते हुए कहते हैं कि एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है , किन्तु उसकी संतान या उसकी आने वाली पीढ़ी को वह चीज़ अपने परबाबा – बाबा – दादा आदि से बिना कोशिश के स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। अर्थात खोज़ एक व्यक्ति करता है और बाकी सभी व्यक्तियों को उस चीज़ का लाभ बिना किसी मेहनत के ही मिल जाता है। संस्कृत व्यक्ति की परिभाषा को और स्पष्ट करते हुए लेखक कहते हैं कि जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक अथवा अच्छे – बुरे की परख ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया या आविष्कार किया , वह व्यक्ति ही वास्तविक या यथार्थ संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु बिना किसी मेहनत के ही प्राप्त हो गई है , वह अपने पूर्वज की ही तरह सभ्य अथवा शिष्ट , सामाजिक – राजनीतिक – शैक्षणिक आदि सभी दृष्टियों से उन्नत व उत्तम भले ही बन जाए , किन्तु उसे संस्कृत नहीं कहलाया जा सकता। और अच्छे से समझाने के लिए लेखक एक वर्तमान समय या युग का उदाहरण लेते है कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण अर्थात ग्रैविटेशन के सिद्धांत अथवा प्रिंसिपल का आविष्कार किया। इसलिए वह संस्कृत मानव था। आज के युग का भौतिक विज्ञान अर्थात प्राकृतिक नियमों के सिद्धांतों के विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से तो परिचित है ही , उसके साथ उसे और भी अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त है जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहा। अर्थात आज के विद्यार्थी को भले ही गुर्त्वाकर्षण के साथ – साथ कई सिद्धांत और बातें पता हों लेकिन ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सकते है पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते। क्योंकि न्यूटन ने अपनी योग्यता , स्वभाव या आचार – व्यवहार का इस्तेमाल करके नए तथ्य का आविष्कार किया जबकि आज के विद्यार्थियों को ये आविष्कार बिना किसी कोशिश के ही प्राप्त हुए हैं।
पाठ – आग के आविष्कार में कदाचित पेट की ज्वाला की प्रेरणा एक कारण रही। सुई – धागे के आविष्कार में शायद शीतोष्ण से बचने तथा शरीर को सजाने की प्रवृति का विशेष हाथ रहा। अब कल्पना कीजिए उस आदमी की जिसका पेट भरा है , जिसका तन ढँका है , लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के जगमगाते तारों को देखता है , तो उसको केवल इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान है कि आखिर यह मोती भरा थाल क्या है ? पेट भरने और तन ढँकने की इच्छा मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। पेट भरा और तन ढँका होने पर भी ऐसा मानव जो वास्तव में संस्कृत है , निठल्ला नहीं बैठ सकता। हमारी सभ्यता का एक बड़ा अंश हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है , जिनकी चेतना पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है , किन्तु उसका कुछ हिस्सा हमें मनीषियों से भी मिला है जिन्होंने तथ्य – विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वशीभूत हो कर नहीं , बल्कि उनके अपने अंदर की सहज संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला मनीषी हमारे आज के ज्ञान का ऐसा ही प्रथम पुरस्कर्ता था।
शब्दार्थ
कदाचित – संभवतः , शायद , कभी
शीतोष्ण – शीत और उष्ण , ठंडा और गरम , शीत और उष्ण का लगभग बराबर तालमेल , ( टेंपरेट )
प्रवृति – स्वभाव , आदत , झुकाव , रुझान , प्रवाह , बहाव , आचार – व्यवहार , अध्यवसाय
कल्पना – रचनाशीलता की मानसिक शक्ति , कल्पित करने का भाव , सोचना , मान लेना
थाल – पीतल या स्टील का चौड़ा और छिछला पात्र जिसमें भोजन परोसा जाता है , बड़ी थाली
निठल्ला – जिसके पास कोई काम – धंधा न हो , बेरोज़गार , खाली , बेकार , जो कोई काम न करता हो , आलसी
चेतना – ज्ञान , बुद्धि , याद , स्मृति , चेतनता , जीवन , सोचना , समझना
स्थूल – बड़े आकार का , बड़ा , जो सूक्ष्म न हो , जो स्पष्ट दिखाई देता हो , मंद बुद्धि का , मूर्ख
मनीषियों – विद्वान , बुद्धिमान , पंडित , ज्ञानी , चिंतन – मनन करने वाला , विचारशील
वशीभूत – अधीन हो कर , वश में होकर , मुग्ध , मोहित , सम्मोहित
सहज – सरल , सुगम , स्वाभाविक , सामान्य , साधारण
पुरस्कर्ता – प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति , सामने लाने वाला व्यक्ति
नोट – इस गद्यांश में लेखक आग के आविष्कार और सुई – धागे के आविष्कार के कारणों का वर्णन कर रहे हैं और हमारे आज के ज्ञान के सही संस्कृत व्यक्ति के बारे में भी बता रहे हैं।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि आग के आविष्कार में संभवतः अथवा शायद पेट की ज्वाला की प्रेरणा एक कारण रही होगी। अर्थात आग का आविष्कार करने के लिए पेट की भूख कारण रही होगी जिस कारण अच्छा भोजन पका के खाने की इच्छा ही आग के आविष्कार का कारण रही होगी। उसी तरह सुई – धागे के आविष्कार में शायद ठंड और गरम मौसम से बचने तथा शरीर को सजाने की प्रवृति का विशेष हाथ रहा होगा। अर्थात ठण्ड के मौसम में शरीर को बचाने के लिए कपड़ों को जोड़ने और गर्मी के मौसम में शरीर को सजाने के लिए कपड़ों को अलग – अलग तरीके से जोड़ने के लिए सुई – धागे का आविष्कार किया गया होगा। यह तो बात की लेखक ने आवश्यकता के अनुसार किए गए आविष्कारों की , अब लेखक कल्पना करने के लिए कहते हैं कि उस आदमी की जिसका पेट भरा हुआ है , जिसका शरीर ढँका हुआ है , लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के समय आकाश में जगमगाते हुए तारों को देखता है , तो उसको केवल इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान होता रहता है कि आखिर यह मोतियों से भरी बड़ी थाली क्या है ? लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि केवल पेट को भरने और शरीर को ढँकने की इच्छा ही मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति का पेट भरा हुआ हो और जिसका शरीर ढँका हुआ हो , फिर भी जो खाली नहीं बैठ सकता , वही असल में संस्कृत व्यक्ति है। लेखक बताते हैं कि हमारी सभ्यता का एक बहुत बड़ा भाग हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है , जिनकी बुद्धि पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है , किन्तु हमारी सभ्यता का कुछ हिस्सा हमें ऐसे विद्वान , बुद्धिमान अथवा चिंतन – मनन करने वाले व्यक्तियों से भी मिला है जिन्होंने तथ्य – विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वश में होकर या सम्मोहित हो कर नहीं , बल्कि उनके अपने अंदर की सहज या सरल संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। और रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला विद्वान मनुष्य ही हमारे आज के ज्ञान को हम तक पहुंचाने वाला पहला व्यक्ति था। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें आज जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है वह दोनों तरह की सभ्यता से हमें प्राप्त हुआ है किन्तु जो ज्ञान हमें पहले प्राप्त हुआ है वह किसी आवश्यकता से जन्म लेने वाला आविष्कार नहीं बल्कि भौतिक कारणों से दूर हुए विद्वान मनुष्यों द्वारा प्राप्त हुआ है।
पाठ – भौतिक प्रेरणा , ज्ञानेप्सा – क्या ये दो ही मानव संस्कृति के माता – पिता हैं ? दूसरे के मुँह में कौर डालने के लिए जो अपने मुँह का कौर छोड़ देता है , उसको यह बात क्यों और कैसे सूझती है ? रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए जो माता बैठी रहती है , वह आखिर ऐसा क्यों करती है ? सुनते हैं कि रूस का भाग्यविधाता लेनिन अपनी डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सूखे टुकड़े स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था। वह आखिर ऐसा क्यों करता था ? संसार के मज़दूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता दिया। और इन सबसे बढ़कर आज नहीं , आज से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया कि किसी तरह तृष्णा के वशीभूत लड़ती – कटती मानवता सुख से रह सके।
हमारी समझ में मानव संस्कृति की जो योग्यता आग व सुई – धागे का आविष्कार कराती है ; वह भी संस्कृति है जो योग्यता तारों की जानकारी कराती है , वह भी है ; और जो योग्यता किसी महामानव से सर्वस्व त्याग कराती है , वह भी संस्कृति है।
और सभ्यता ? सभ्यता है संस्कृति का परिणाम। हमारे खाने – पीने के तरीके , हमारे ओढ़ने पहनने के तरीके , हमारे गमना – गमन के साधन , हमारे परस्पर कट मरने के तरीके ; सब हमारी सभ्यता हैं। मानव की जो योग्यता उससे आत्म – विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है , हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति ? और जिन साधनों के बल पर वह दिन – रात आत्म – विनाश में जुटा हुआ है , उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता ? संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यंभावी परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा?
शब्दार्थ
ज्ञानेप्सा – ज्ञान प्राप्त करने की लालसा
कौर – रोटी का एक टुकड़ा , ग्रास , निवाला
तृष्णा – अप्राप्त को पाने की तीव्र इच्छा , पिपासा , लालसा , प्रबल वासना , कामना
सर्वस्व – सब कुछ , सारी धन – संपत्ति , अमूल्य निधि या पदार्थ
गमना – गमन – आने – जाने
परस्पर – एक दूसरे के साथ , एक दूसरे के प्रति , दो या दो से अधिक पक्षों में
अवश्यंभावी – जिसका होना निश्चित हो , जिसके होने की पूरी संभावना हो , जिसे टाला न जा सके , अनिवार्य
नोट – इस गद्यांश में लेखक संस्कृति – असंस्कृति तथा सभ्यता – असभ्यता के बारे में स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक प्रश्न करते हैं कि क्या भौतिक प्रेरणा और ज्ञान प्राप्त करने की लालसा ये दो ही मानव संस्कृति के माता – पिता हैं ? अर्थात क्या किसी और से मानव संस्कृति का जन्म नहीं ही सकता है ? लेखक कुछ उदाहरण देते हुए कहते हैं कि दूसरे के मुँह में रोटी का एक टुकड़ा डालने के लिए जो अपने मुँह के रोटी के टुकड़े को छोड़ देता है , उसको यह बात क्यों और कैसे सूझती है ? एक रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए जो माता बैठी रहती है , वह आखिर ऐसा क्यों करती है ? लेखक ने तो यह भी सूना हैं कि रूस का भाग्यविधाता लेनिन अपनी डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सूखे टुकड़े को स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था। वह आखिर ऐसा क्यों करता था ? संसार के मज़दूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता दिया। और इन सबसे बढ़कर आज नहीं , लगभग आज से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया था कि किसी तरह अप्राप्त को पाने की तीव्र इच्छा या प्रबल वासना के वशीभूत लड़ती – कटती मानवता सुख से रह सके। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक दूसरों के लिए सब कुछ त्याग देनी वाली भावना को समझना और समझाना चाहते हैं कि ऐसी भावनाएँ व्यक्ति में कहाँ से उत्पन्न होती हैं। लेखक संस्कृति के बारे में अपनी समझ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हमारी समझ में मानव संस्कृति की जो योग्यता आग व सुई – धागे का आविष्कार कराती है ; वह भी संस्कृति है और जो योग्यता तारों की जानकारी कराती है , वह भी संस्कृति है ; और जो योग्यता किसी महामानव से सब कुछ अर्थात सारी धन – संपत्ति , अमूल्य निधि या पदार्थ का त्याग कराती है , वह भी संस्कृति है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो भी योग्यता दूसरों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए कोई आविष्कार करवाती है या किसी नए तथ्य की जानकारी उपलब्ध करवाती है वह संस्कृति है। संस्कृति को स्पष्य करने के बाद प्रश्न उठता है कि सभ्यता क्या है ? तो इसका उत्तर है कि सभ्यता , संस्कृति का परिणाम है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे खाने – पीने के तरीके , हमारे ओढ़ने पहनने के तरीके , हमारे आने – जाने के साधन , हमारे परस्पर एक दूसरे के लिए कट मरने के तरीके ; यह सब हमारी सभ्यता हैं। संस्कृति और सभ्यता को काफी हद तक स्पष्ट करने के बाद अब लेखक कहते हैं कि मानव की जो योग्यता उससे आत्म – विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है , हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति ? और जिन साधनों के बल पर वह दिन – रात आत्म – विनाश में जुटा हुआ है , उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता ? अर्थात अब लेखक इस बात पर परेशान हो रहे हैं कि जिन साधनों का निर्माण व्यक्ति ने विनाश के लिए कर लिया है तथा जिनसे वह विनाश भी कर रहा है वह उसकी संस्कृति है या असंस्कृति और उसकी सभ्यता है या असभ्यता। इस बात को समझाते हुए लेखक कहते हैं कि संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यंभावी अर्थात जिसके होने की पूरी संभावना हो ऐसा परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा ? कहने का अभिप्राय यह है कि यदि कल्याण भावना से कोई आविष्कार किया गया है तो वह संस्कृति है परन्तु यदि कल्याण की भावना निहित नहीं है तो वह असंस्कृति ही होगी।
पाठ –संस्कृति के नाम से जिस कूड़े – करकट के ढेर का बोध होता है , वह न संस्कृति है न रक्षणीय वस्तु। क्षण – क्षण परिवर्तन होने वाले संसार में किसी भी चीज़ को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता। मानव ने जब – जब प्रज्ञा और मैत्री भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है , जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की ज़रूरत है।
मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है , वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं स्थायी भी है।
शब्दार्थ
रक्षणीय – रक्षा करने योग्य , जिसे सुरक्षित रखना हो , रखने योग्य
प्रज्ञा – बुद्धि , समझ , विवेक , मति , मनीषा
मैत्री – दोस्ती , मित्रता
अविभाज्य – जो विभाजित न किया जा सके , जिसे बाँटा न जा सके
अपेक्षा – तुलना में
श्रेष्ठ – सर्वोत्तम , उत्कृष्ट , जो सबसे अच्छा हो
स्थायी – हमेशा बना रहने वाला , सदा स्थित रहने वाला , नष्ट न होने वाला
नोट – इस गद्यांश में लेखक यह समझाना चाहते हैं कि किसी भी आविष्कार या निर्माण को संस्कृति नहीं कहा जा सकता।
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि संस्कृति के नाम से जिस कूड़े – करकट के ढेर का ज्ञान होता है , वह न संस्कृति है न रक्षा करने योग्य या सुरक्षित रखने योग्य वस्तु। अर्थात संस्कृति के नाम पर किसी भी वस्तु को संरक्षित कर के नहीं रखा जा सकता क्योंकि हर पल बदलने वाले इस संसार में किसी भी चीज़ को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि समय के साथ – साथ मनुष्य की आवश्यकताएँ भी बदल रही है , तो हम कैसे पुरानी चीजों को संभालने की होड़ में नई चीजों को नज़रअंदाज़ करे। मानव ने जब – जब बुद्धि , समझ अथवा विवेक और दोस्ती या मित्रता के भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है , जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की ज़रूरत है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तथ्य का आविष्कार सभी के कल्याण के लिए किया गया हो उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हथियार या दल – बल की आवश्यकता नहीं होती। लेखक समझाते हैं कि मानव संस्कृति को विभाजित नहीं किया जा सकता , यह कोई बाँटे जाने वाली वस्तु नहीं है और मानव संस्कृति में जितना भाग कल्याण का है , वह अकल्याणकर की तुलना में ज्यादा सर्वोत्तम और उत्कृष्ट ही नहीं बल्कि स्थायी अर्थात हमेशा बना रहने वाला भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि कल्याण का अंश कभी नष्ट नहीं होता और न ही कोई नष्ट करता है।
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