NCERT Class 7 Hindi Chapter 14 Khanpan Ki Badalti Tasveer Summary, Explanation and Question Answers from Vasant Bhag 2 Book
Khanpan Ki Badalti Tasveer Summary – NCERT Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 book Chapter 14 Khanpan Ki Badalti Tasveer Summary and detailed explanation of lesson “Khanpan Ki Badalti Tasveer” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with all the exercises, Questions and Answers are given at the back of the lesson. Take Free Online MCQs Test for Class 7.
इस लेख में हम हिंदी कक्षा 7 ” वसंत भाग – 2 ” के पाठ – 14 खानपान की बदलती तसवीर ” पाठ के पाठ – प्रवेश , पाठ – सार , पाठ – व्याख्या , कठिन – शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर , इन सभी के बारे में चर्चा करेंगे –
“खानपान की बदलती तसवीर”
- खानपान की बदलती तसवीर पाठ प्रवेश
- खानपान की बदलती तसवीर पाठ सार
- खानपान की बदलती तसवीर पाठ की व्याख्या
- खानपान की बदलती तसवीर प्रश्न–अभ्यास
- Class 7 Hindi Chapter 14 Khanpan Ki Badalti Tasveer MCQs
- खानपान की बदलती तसवीर Question Answers, Class 7 Chapter 14 NCERT Solutions
- Class 7 Hindi Chapter Wise Word Meanings
लेखक परिचय
लेखक – प्रयाग शुक्ल
खानपान की बदलती तसवीर पाठ प्रवेश
प्रस्तुत पाठ ” खानपान की बदलती तसवीर ” में लेखक प्रयाग शुक्ल जी हमारा ध्यान स्थानीय व्यंजनों की गुणवत्ता , सरसता , मिठास और कई गुणों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। वे हमें बताते हैं कि स्थानीय स्थानों पर स्थानीय भोजन तो मिलता ही है इसके साथ ही अब अन्य प्रदेशों के भोजन – पकवान भी प्रायः हर क्षेत्र में मिलने लगे हैं और जहाँ बीते समय में मध्यमवर्गीय जीवन में सादा भोजन ही होता था वहाँ आज के समय में मध्यमवर्गीय जीवन में भोजन के विषय में अनेकरूपता ने अपनी जगह बना ली है। आज के समय में सभी इतने व्यस्त हो गए हैं कि इस तरह के व्यंजन बनाना उनके लिए सचमुच असंभव है। यह भी एक कारण है कि स्थानीय व्यंजन लुप्त होते जा रहे हैं। पश्चमी सभ्यता की नक़ल करने के कारण अपने स्थानीय भोजन को हम न भूल जाए इसी प्रयास में लेखक ने इस पाठ के जरिए हम सभी को जागरूक करने का अथक प्रयास किया है।
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खानपान की बदलती तसवीर पाठ सार
प्रस्तुत पाठ ” खानपान की बदलती तसवीर ” में लेखक बीते पिछले दस – पंद्रह सालों में भोजन सम्बन्धी जो व्यवहार हमें पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया गया था उसमें आए बदलाव के बारे में हमें बता रहे हैं। उदहारण देते हुए लेखक बताते हैं कि जैसे इडली – डोसा – बड़ा – साँभर – रसम ये सभी दक्षिण भारत के भोजन थे परन्तु अब केवल दक्षिण भारत तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। अब ये दक्षिण भारत के साथ – साथ उत्तर भारत के भी हर शहर में उपलब्ध हैं और इसी तरह अब तो उत्तर भारत की ‘ ढाबा ’ संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। इसी के साथ – साथ ‘ फ़ास्ट फ़ूड ‘ यानी तुरंत भोजन का चलन भी बड़े शहरों में बहुत अधिक बढ़ गया है। ‘टू मिनट्स नूडल्स’ यानि दो मिनट में तैयार होने वाली नूडल्स की लोकप्रियता के बारे में बताते हुए कहते हैं कि दो मिनट में तैयार होने वाली नूडल्स जो बंद पैकेट के रूप में आती हैं उसे तो सभी बच्चे – बूढे़ जान ही चुके हैं। स्थानीय स्थानों पर स्थानीय भोजन तो मिलता ही है इसके साथ ही अब अन्य प्रदेशों के भोजन – पकवान भी प्रायः हर क्षेत्र में मिलने लगे हैं और जहाँ बीते समय में मध्यमवर्गीय जीवन में सादा भोजन ही होता था वहाँ आज के समय में मध्यमवर्गीय जीवन में भोजन के विषय में अनेकरूपता ने अपनी जगह बना ली है। लेखक के अनुसार खानपान के व्यवहार के इस बदलाव के कारण सबसे अधिक प्रभाव जिस पर पड़ा है , वह है नयी पीढ़ी। क्योंकि नयी पीढ़ी पहले के स्थानीय व्यंजनों के बारे में बहुत कम जानती है , परन्तु कई नए व्यंजनों के बारे में बहुत – कुछ जानती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की नयी पीढ़ी बीते हुए समय में बनाए जाने वाले कई स्थानीय व्यंजनों को बिलकुल भूल गई है उन्हें केवल आज के दौर के नए – नए व्यंजन ही पता है। इसका एक कारण यह भी है कि नए व्यंजन आ जाने के कारण स्थानीय व्यंजन भी तो अब घटकर कुछ ही चीजों तक सीमित रह गए हैं। जैसे – बंबई की पाव – भाजी और दिल्ली के छोले – कुलचों की दुनिया पहले की तुलना में बड़ी ज़रूर है , परन्तु इनके कारण अन्य स्थानीय व्यंजनों की दुनिया छोटी हुई है। व्यंजनों के जानकार ये भी बताते हैं कि बीते समय के मथुरा के पेड़ों और आगरा के पेठे – नमकीन अब पहले की तरह नहीं रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो स्थानीय व्यंजन आज भी बचे हुए हैं , उनमें अब वह गुणवत्ता नहीं रही है जो पहले हुआ करती थी। इसके साथ ही साथ पहले मौसम और ऋतुओं के अनुसार फलों – खाद्यान्नों से जो व्यंजन और पकवान बना करते थे , उन्हें बनाने का समय भी अब कितने लोगों के पास रह गया है। अर्थात अब गृहिणियों या कामकाजी महिलाओं के पास उतना समय ही नहीं है कि वे पहले खरबूजे के बीज सुखाऐं फिर उन्हें छीले और फिर उनसे व्यंजन तैयार करे। आज के समय में सभी इतने व्यस्त हो गए हैं कि इस तरह के व्यंजन बनाना उनके लिए सचमुच असंभव है। यह भी एक कारण है कि स्थानीय व्यंजन लुप्त होते जा रहे हैं। लेखक नयी पीढ़ी का उनके स्थानीय भोजन से ज्यादा विदेशी या अन्य राज्यों के भोजन के बारे में जानकारी रखने के लिए उन्हें इसका दोषी न मान कर इसका सही कारण समझाने की कोशिश करते हुए कहता है कि आज के समय में जब हम अपने आस – पास भोजन की विविधता को देखते हैं तो हम पाते हैं कि एक ओर जहाँ समय की कमी के कारण स्थानीय भोजन की विविधता में कमी आई है वहीँ दूसरी ओर भले ही देसी – विदेशी व्यंजन अपनी दिनचार्य में शामिल कर रहे हैं परन्तु समय की कमी के कारण वे ही देसी – विदेशी व्यंजन अपनाए जा रहे हैं , जिन्हें बनाने में अथवा पकाने में कम समय लगता हो या जो बनाने में आसान हो। खानपान की जो एक मेल – जोल वाली संस्कृति ( स्थानीय व्यंजनो तथा देसी – विदेशी व्यंजन ) बनी है , इसके अपने सकारात्मक पक्ष भी हैं। जैसे – घर में ही रहने वाली महिलाओं और काम पर जाने वाली महिलाओं को अब जल्दी तैयार हो जाने वाले अनेक प्रकार के व्यंजनों की विधियाँ उपलब्ध हैं , जिससे वे अपने लिए और आराम करने के लिए समय बचा पाती हैं। नयी पीढ़ी को देश – विदेश के व्यंजनों को जानने का सुअवसर भी मिला है – भले ही इसके कोई भी कारण रहे हों और चाहे इन व्यंजनों को बनाने के लिए किन्हीं खास रूपों का प्रयोग करना पड़ा हो क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि ये अनेक प्रकार के व्यंजन इस नयी पीढ़ी को निखालिस रूप में उपलब्ध नहीं हैं। लेखक भोजन संस्कृति के विस्तार का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आज़ादी के बाद लोगो के व्यापार – धंधों , नौकरियों तथा नौकरियों में तबदीली का जो एक नया विस्तार हुआ है , वह भी एक कारण माना जा सकता है जिसके कारण खानपान की चीज़े किसी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में पहुँची हैं। एक और उदाहरण देते हुए लेखक कहता है कि बड़े शहरों में जब स्कूलों में दोपहर के समय भोजन के वक्त मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों अपना दोपहर के भोजन का डिब्बा खुलते हैं तो उन डब्बों से विभिन्न प्रदेशों के व्यंजनों की एक सुगंध उठती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब भी शहरों के बच्चे अपना दोपहर के भोजन का डब्बा खोलते हैं तब उन डब्बों में उनकी माँ स्थानीय भोजन के साथ – साथ कभी – कभार अन्य प्रदेशों के भोजन भी बना कर डाल देती हैं। जब भोजन के साथ – साथ हम उस भोजन से जुड़े दूसरे तथ्यों को जानेंगे तभी सही मायने में एकता की ओर कदम बढ़ाया जा सकता है। हम लोगो को स्थानीय व्यंजन केवल पाँच सितारा होटलों में केवल प्रचार आदि करने के लिए नहीं छोड़ देने चाहिए। क्योंकि पाँच सितारा होटलों में वे कभी – कभार मिलते जरूर रहेंगे , पर घरों – बाजारों से गायब हो जाएँगे तो यह बात हम सब के लिए बहुत ही बुरी बात होगा। यहाँ पर एक और भी कड़वा सच है कि कई स्थानीय व्यंजनों को हमने केवल नाम मात्र की आधुनिकता के चलते छोड़ दिया है और पश्चिम की नकल करने दौड़ में बहुत सी ऐसी चीज़े अपना ली हैं , जो न तो स्वाद में , न स्वास्थ्य में और न ही सरसता के मामले में हमारे बहुत अनुकूल हैं। कभी – कभार यह भी हो रहा है कि खानपान की इस मिश्रित संस्कृति में हम कई बार चीज़ो का असली और अलग स्वाद नहीं ले पा रहे। अकसर ही ख़ुशी में दिए जाने वाले भोजन और पार्टियों में एक साथ ढेरों चीज़े रख दी जाती हैं और उनका स्वाद बिना किसी क्रम का होता रहता है। खानपान की मिश्रित या विविध संस्कृति हमें कुछ चीज़े चुनने का अवसर देती है , परन्तु आडंबना यह है कि हम उसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। हम अकसर एक ही प्लेट में कई तरह के और कई बार तो बिलकुल विपरीत प्रकृतिवाले व्यंजन परोस लेना चाहते हैं। इसलिए खानपान की यह जो मिश्रित – विविध संस्कृति बनी है – ऐसा लग रहा है कि यही और अधिक विकसित होने वाली है – उसे तरह – तरह से जाँचते रहना जरूरी है। ताकि हम पश्चमी सभ्यता की नक़ल करने के कारण अपना स्थानीय भोजन को ही न भूल जाए।
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खानपान की बदलती तसवीर पाठ व्याख्या
पाठ – पिछले दस – पंद्रह वर्षों में हमारी खानपान की संस्कृति में एक बड़ा बदलाव आया है। इडली – डोसा – बड़ा – साँभर – रसम अब केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं हैं। ये उत्तर भारत के भी हर शहर में उपलब्ध हैं और अब तो उत्तर भारत की ‘ ढाबा ’ संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। अब आप कहीं भी हों , उत्तर भारतीय रोटी – दाल – साग आपको मिल ही जाएँगे। ‘ फ़ास्ट फ़ूड ‘ ( तुरंत भोजन ) का चलन भी बड़े शहरों में खूब बढ़ा है। इस ‘ फ़ास्ट फ़ूड ‘ में बर्गर , नूडल्स जैसी कई चीशें शामिल हैं। एक ज़माने में कुछ ही लोगों तक सीमित ‘ चाइनीश नूडल्स ’ अब संभवतः किसी के लिए अजनबी नहीं रहे।
शब्दार्थ
खानपान – भोजन सम्बन्धी
संस्कृति – संस्कृति हमारे द्वारा सीखा गया वह व्यवहार है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता है , कल्चर ( culture )
संभवतः – संभव है कि , मुमकिन है कि , संभावना है कि, हो सकता है कि
अजनबी – जो स्थान आदि से परिचित न हो अथवा जिससे लोग परिचित न हो
नोट – इस गद्यांश में लेखक हमारे भोजन सम्बन्धी व्यवहार में आए बदलावों के बारे में बता रहा है।
व्याख्या – लेखक कहता है कि बीते पिछले दस – पंद्रह सालों में भोजन सम्बन्धी जो व्यवहार हमें पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया गया था उसमें बहुत बड़ा बदलाव देखने में आया है। उदहारण देते हुए लेखक बताते हैं कि जैसे इडली – डोसा – बड़ा – साँभर – रसम ये सभी दक्षिण भारत के भोजन थे परन्तु अब केवल दक्षिण भारत तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। अब ये दक्षिण भारत के साथ – साथ उत्तर भारत के भी हर शहर में उपलब्ध हैं और इसी तरह अब तो उत्तर भारत की ‘ ढाबा ’ संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। अब आप देश के किसी भी भाग में हों , उत्तर भारतीय रोटी – दाल – साग आपको मिल ही जाएँगे। इसी के साथ – साथ ‘ फ़ास्ट फ़ूड ‘ यानी तुरंत भोजन का चलन भी बड़े शहरों में बहुत अधिक बढ़ गया है। इस ‘ फ़ास्ट फ़ूड ‘ में बर्गर , नूडल्स जैसी कई चीशें शामिल हैं। लेखक बीते समय की बात बताते हुए कहते हैं कि एक ज़माना ऐसा भी था कि केवल कुछ ही लोगों तक ‘ चाइनीश नूडल्स ’ सीमित थी परन्तु अब कहना गलत नहीं होगा कि ‘ चाइनीश नूडल्स ’ अब किसी के लिए अजनबी नहीं है अर्थात आज संभव है कि सभी ‘ चाइनीश नूडल्स ’ के बारे में जानते हैं।
पाठ – ‘टू मिनट्स नूडल्स’ के पैकेटबंद रूप से तो कम – से – कम बच्चे – बूढे़ सभी परिचित हो चुके हैं। इसी तरह नमकीन के कई स्थानीय प्रकार अभी तक भले मौजूद हों , लेकिन आलू – चिप्स के कई विज्ञापित रूप तेज़ी से घर – घर में अपनी जगह बनाते जा रहे हैं।
गुजराती ढोकला – गाठिया भी अब देश के कई हिस्सों में स्वाद लेकर खाए जाते हैं और बंगाली मिठाइयों की केवल रसभरी चर्चा ही नहीं होती , वे कई शहरों में पहले की तुलना में अधिक उपलब्ध हैं। यानी स्थानीय व्यंजनों के साथ ही अब अन्य प्रदेशों के व्यंजन – पकवान भी प्रायः हर क्षेत्र में मिलते हैं और मध्यमवर्गीय जीवन में भोजन – विविधता अपनी जगह बना चुकी है।
शब्दार्थ
टू मिनट्स नूडल्स – दो मिनट में तैयार होने वाली नूडल्स
पैकेटबंद – पैकेट में बंद
परिचित – जिसका परिचय प्राप्त हो , जिसे जानते हों , जाना – पहचाना हुआ , समझा हुआ , ज्ञात , जिससे जान – पहचान या मेलजोल हो
विज्ञापित – जो सूचित किया गया हो , जिसका ज्ञापन हुआ हो , जिसका प्रचार किया गया हो
रसभरी – रस से भरी हुई या स्वाद से भरी हुई
व्यंजन – भोजन , आहार , अन्न , रोटी
विविधता – अनेकरूपता , अनेकता
नोट – इस गद्यांश में लेखक पैकेट में बंद नूडल्स और भोजन में अनेकरूपता के बारे में बता रहे हैं।
व्याख्या – लेखक ‘टू मिनट्स नूडल्स’ यानि दो मिनट में तैयार होने वाली नूडल्स की लोकप्रियता के बारे में बताते हुए कहते हैं कि दो मिनट में तैयार होने वाली नूडल्स जो बंद पैकेट के रूप में आती हैं उसे तो सभी बच्चे – बूढे़ जान ही चुके हैं। इसका एक उदाहरण लेखक और बताते हैं कि नमकीन के कई स्थानीय प्रकार अभी तक भले ही बाजार में मौजूद हों , लेकिन आलू – चिप्स के कई ऐसे रूप जिनका प्रचार – प्रसार किया जाता है , वे बड़ी तेज़ी से घर – घर में अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। अर्थात भले ही नमकीनें आज भी लोग पसंद करते हैं परन्तु आलू – चिप्स आज सभी की पहली पसंद बनती जा रही है। इनके साथ – ही – साथ गुजराती ढोकला – गाठिया भी अब केवल गुजरात तक ही सीमित नहीं रही बल्कि देश के कई हिस्सों में स्वाद लेकर खाए जाते हैं और बीते समय में बंगाली मिठाइयों की केवल रस से भरी बातें ही होती थी परन्तु अब ऐसा नहीं होता क्योंकि अब बंगाली मिठाइयाँ कई शहरों में पहले की तुलना में अधिक उपलब्ध हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि स्थानीय स्थानों पर स्थानीय भोजन तो मिलता ही है इसके साथ ही अब अन्य प्रदेशों के भोजन – पकवान भी प्रायः हर क्षेत्र में मिलने लगे हैं और जहाँ बीते समय में मध्यमवर्गीय जीवन में सादा भोजन ही होता था वहाँ आज के समय में मध्यमवर्गीय जीवन में भोजन के विषय में अनेकरूपता ने अपनी जगह बना ली है।
पाठ – कुछ चीज़े और भी हुई हैं। मसलन अंग्रेज़ी राज तक जो ब्रेड केवल साहबी ठिकानों तक सीमित थी , वह कस्बों तक पहुँच चुकी है और नाश्ते के रूप में लाखों – करोड़ों भारतीय घरों में सेंकी – तली जा रही है। खानपान की इस बदली हुई संस्कृति से सबसे अधिक प्रभावित नयी पीढ़ी हुई है , जो पहले के स्थानीय व्यंजनों के बारे में बहुत कम जानती है , पर कई नए व्यंजनों के बारे में बहुत – कुछ जानती है। स्थानीय व्यंजन भी तो अब घटकर कुछ ही चीजों तक सीमित रह गए हैं। बंबई की पाव – भाजी और दिल्ली के छोले – कुलचों की दुनिया पहले की तुलना में बड़ी ज़रूर है , पर अन्य स्थानीय व्यंजनों की दुनिया में छोटी हुई है। जानकार ये भी बताते हैं कि मथुरा के पेड़ों और आगरा के पेठे – नमकीन में अब वह बात कहाँ रही ! यानी जो चीज़े बची भी हुई हैं , उनकी गुणवत्ता में फ़र्क पड़ा है। फिर मौसम और ऋतुओं के अनुसार फलों – खाद्यान्नों से जो व्यंजन और पकवान बना करते थे , उन्हें बनाने की फुरसत भी अब कितने लोगों को रह गई है। अब गृहिणियों या कामकाजी महिलाओं के लिए खरबूजे के बीज सुखाना – छीलना और फिर उनसे व्यंजन तैयार करना सचमुच दुःसाध्य है।
शब्दार्थ
मसलन – उदाहरणस्वरूप , उदाहरणार्थ , मिसाल के तौर पर
राज – शासन
नाश्ते – सुबह का भोजन
सेंकना – आग पर भोजन पकाना
तलना – तेल में भोजन पकाना
प्रभावित – असर
गुणवत्ता – गुणों से युक्त , योग्यता
फ़र्क – असर
फुरसत – समय , वक्त , मौका , क्षण
दुःसाध्य – दुष्कर , कठिन काम जिसे करना कठिन हो , जो मुश्किल से हो सके , जो बहुत दूर हो , जो बात अनुमान में न आ सके
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने बीते समय से अब तक आए भोजन सम्बन्धी बदलाव के कुछ और उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि स्थानीय व्यंजनों का देश के हर कोने में उपलब्ध होने के साथ-साथ कुछ चीज़े और भी हुई हैं। उदाहरण के लिए आप ब्रेड को ही ले लीजिए , जब हमारे देश पर अंग्रेज़ी शासन था तब तक जो ब्रेड केवल अंग्रेजों के साहबी ठिकानों तक ही सीमित थी अर्थात तब ब्रेड केवल अंग्रेजों तक ही सिमित थी परन्तु आज के समय में वही ब्रेड अब छोटे – छोटे कस्बों तक पहुँच चुकी है और सुबह के भोजन के रूप में लाखों – करोड़ों भारतीय घरों में या तो तवे पर सेक कर या फिर तेल में तल कर खाई जा रही है। लेखक के अनुसार खानपान के व्यवहार के इस बदलाव के कारण सबसे अधिक प्रभाव जिस पर पड़ा है , वह है नयी पीढ़ी। क्योंकि नयी पीढ़ी पहले के स्थानीय व्यंजनों के बारे में बहुत कम जानती है , परन्तु कई नए व्यंजनों के बारे में बहुत – कुछ जानती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की नयी पीढ़ी बीते हुए समय में बनाए जाने वाले कई स्थानीय व्यंजनों को बिलकुल भूल गई है उन्हें केवल आज के दौर के नए – नए व्यंजन ही पता है। इसका एक कारण यह भी है कि नए व्यंजन आ जाने के कारण स्थानीय व्यंजन भी तो अब घटकर कुछ ही चीजों तक सीमित रह गए हैं। जैसे – बंबई की पाव – भाजी और दिल्ली के छोले – कुलचों की दुनिया पहले की तुलना में बड़ी ज़रूर है , परन्तु इनके कारण अन्य स्थानीय व्यंजनों की दुनिया छोटी हुई है। व्यंजनों के जानकार ये भी बताते हैं कि बीते समय के मथुरा के पेड़ों और आगरा के पेठे – नमकीन अब पहले की तरह नहीं रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो स्थानीय व्यंजन आज भी बचे हुए हैं , उनमें अब वह गुणवत्ता नहीं रही है जो पहले हुआ करती थी। इसके साथ ही साथ पहले मौसम और ऋतुओं के अनुसार फलों – खाद्यान्नों से जो व्यंजन और पकवान बना करते थे , उन्हें बनाने का समय भी अब कितने लोगों के पास रह गया है। अर्थात अब गृहिणियों या कामकाजी महिलाओं के पास उतना समय ही नहीं है कि वे पहले खरबूजे के बीज सुखाऐं फिर उन्हें छीले और फिर उनसे व्यंजन तैयार करे। आज के समय में सभी इतने व्यस्त हो गए हैं कि इस तरह के व्यंजन बनाना उनके लिए सचमुच असंभव है। यह भी एक कारण है कि स्थानीय व्यंजन लुप्त होते जा रहे हैं।
पाठ – यानी हम पाते हैं कि एक ओर तो स्थानीय व्यंजनों में कमी आई है , दूसरी ओर वे ही देसी – विदेशी व्यंजन अपनाए जा रहे हैं , जिन्हें बनाने – पकाने में सुविधा हो। जटिल प्रक्रियाओं वाली चीज़े तो कभी – कभार व्यंजन – पुस्तिकाओं के आधार पर तैयार की जाती हैं। अब शहरी जीवन में जो भागमभाग है , उसे देखते हुए यह स्थिति स्वाभाविक लगती है। फिर कमरतोड़ महँगाई ने भी लोगों को कई चीज़ो से धीरे – धीरे वंचित किया है। जिन व्यंजनों में बिना मेवों के स्वाद नहीं आता , उन्हें बनाने – पकाने के बारे में भला कौन चार बार नहीं सोचेगा !
खानपान की जो एक मिश्रित संस्कृति बनी है , इसके अपने सकारात्मक पक्ष भी हैं। गृहिणियों और कामकाजी महिलाओं को अब जल्दी तैयार हो जाने वाले विविध व्यंजनों की विधियाँ उपलब्ध हैं। नयी पीढ़ी को देश – विदेश के व्यंजनों को जानने का सुयोग मिला है – भले ही किन्हीं कारणों से और किन्हीं खास रूपों में ( क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि ये विविध व्यंजन इन्हें निखालिस रूप में उपलब्ध नहीं हैं। )
शब्दार्थ
सुविधा – सुगमता , सहूलियत , सरलता
जटिल – क्लिष्ट , उलझा हुआ , मुश्किल , कठिन
भागमभाग – अस्तव्यस्थता
स्वाभाविक – प्राकृतिक , कुदरती , नैसर्गिक , अकृत्रिम ( नैचुरल )
कमरतोड़ – अत्यधिक कठिन
वंचित – हीन , रहित , विमुख
मिश्रित – मिला – जुला , ( मिक्स्ड )
सकारात्मक – जो सार्थक हो , जो नकारात्मक न हो , निश्चित और स्थिर स्वरूप वाला , निश्चयी , ( पॉजिटिव )
विविध – कई तरह के , भिन्न-भिन्न प्रकार के , विभिन्न , भाँति – भाँति के , मिला – जुला , अनेक
निखालिस – अशुद्ध , बुरा
नोट – इस गद्यांश में लेखक नयी पीढ़ी का उनके स्थानीय भोजन से ज्यादा विदेशी या अन्य राज्यों के भोजन के बारे में जानकारी रखने के लिए उन्हें इसका दोषी न मान कर इसका सही कारण समझाने की कोशिश कर रहा है।
व्याख्या – लेखक नयी पीढ़ी का उनके स्थानीय भोजन से ज्यादा विदेशी या अन्य राज्यों के भोजन के बारे में जानकारी रखने के लिए उन्हें इसका दोषी न मान कर इसका सही कारण समझाने की कोशिश करते हुए कहता है कि आज के समय में जब हम अपने आस – पास भोजन की विविधता को देखते हैं तो हम पाते हैं कि एक ओर जहाँ समय की कमी के कारण स्थानीय भोजन की विविधता में कमी आई है वहीँ दूसरी ओर भले ही देसी – विदेशी व्यंजन अपनी दिनचार्य में शामिल कर रहे हैं परन्तु समय की कमी के कारण वे ही देसी – विदेशी व्यंजन अपनाए जा रहे हैं , जिन्हें बनाने में अथवा पकाने में कम समय लगता हो या जो बनाने में आसान हो। भोजन बनाने की जिन प्रक्रियाओं में कठिनाई का सामना करना पड़ता है ऐसी भोजन सामग्री वाली चीज़े तो कभी – कभार ही बनाई जाती है वो भी व्यंजन – पुस्तिकाओं के आधार पर तैयार की जाती हैं ,क्योंकि कठिन विधियों से बनने वाले भोजन को सही तरीके से बनाने के लिए इन व्यंजन – पुस्तिकाओं की ही मदद लेनी पड़ती है। अब यदि हम शहर के जीवन में जो अस्तव्यस्थता या समय की कमी पर नजर डाले तो उसे देखते हुए यह सारी स्थिति प्राकृतिक ही लगती है और इसी के साथ ही कमर को तोड़ कर रख देने वाली महँगाई ने भी लोगों को कई चीज़ो से धीरे – धीरे मजबूरी के कारण दूर कर दिया है। उदाहरण के लिए जिन व्यंजनों में बिना मेवों के स्वाद नहीं आता , उन्हें बनाने या पकाने के बारे में भला कौन चार बार नहीं सोचेगा ! अर्थात जिन व्यंजनों को तैयार करने में ज्यादा पैसे खर्च होते हैं , महँगाई के कारण लोग उन व्यंजनो को बनाने और पकाने से बचने का प्रयास करते रहते हैं। लेखक बताते है कि खानपान की जो एक मेल – जोल वाली संस्कृति ( स्थानीय व्यंजनो तथा देसी – विदेशी व्यंजन ) बनी है , इसके अपने सकारात्मक पक्ष भी हैं। जैसे – घर में ही रहने वाली महिलाओं और काम पर जाने वाली महिलाओं को अब जल्दी तैयार हो जाने वाले अनेक प्रकार के व्यंजनों की विधियाँ उपलब्ध हैं , जिससे वे अपने लिए और आराम करने के लिए समय बचा पाती हैं। नयी पीढ़ी को देश – विदेश के व्यंजनों को जानने का सुअवसर भी मिला है – भले ही इसके कोई भी कारण रहे हों और चाहे इन व्यंजनों को बनाने के लिए किन्हीं खास रूपों का प्रयोग करना पड़ा हो क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि ये अनेक प्रकार के व्यंजन इस नयी पीढ़ी को निखालिस रूप में उपलब्ध नहीं हैं।
पाठ – आज़ादी के बाद उद्योग – धंधों , नौकरियों – तबादलों का जो एक नया विस्तार हुआ है , उसके कारण भी खानपान की चीज़े किसी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में पहुँची हैं। बड़े शहरों के मध्यमवर्गीय स्कूलों में जब दोपहर के ‘ टिफ़िन ’ के वक्त बच्चों के टिफ़िन – डिब्बे खुलते हैं तो उनसे विभिन्न प्रदेशों के व्यंजनों की एक खुशबू उठती है।
हम खानपान से भी एक – दूसरे को जानते हैं। इस दृष्टि से देखें तो खानपान की नयी संस्कृति में हमें राष्ट्रीय एकता के लिए नए बीज भी मिल सकते हैं। बीज भलीभाँति तभी अंकुरित होंगे जब हम खानपान से जुड़ी हुई दूसरी चीज़ो की ओर भी ध्यान देंगे। मसलन हम उस बोली – बानी , भाषा – भूषा आदि को भी किसी – न – किसी रूप में ज्यादा जानेंगे , जो किसी खानपान – विशेष से जुड़ी हुई है।
शब्दार्थ
उद्योग – व्यापार , उद्यम , कारख़ाना , ( इंडस्ट्री )
तबादला – परहस्त , तबदीली , समर्पण , स्थानांतर करना
टिफ़िन – दोपहर का भोजन रखने का डिब्बा
विभिन्न – कई तरह के , तरह – तरह के
दृष्टि – नज़र
भलीभाँति – भरपूर , पूरी तरह से , परिपूर्ण , संतुष्ट
अंकुरित – जिसका अंकुर निकल आया हो , अंकुरयुक्त , आरंभ , उत्पन्न , उद्भूत
नोट – इस गद्यांश में लेखक आज़ादी के बाद आई भोजन संस्कृति में विस्तार का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या – लेखक भोजन संस्कृति के विस्तार का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आज़ादी के बाद लोगो के व्यापार – धंधों , नौकरियों तथा नौकरियों में तबदीली का जो एक नया विस्तार हुआ है , वह भी एक कारण माना जा सकता है जिसके कारण खानपान की चीज़े किसी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में पहुँची हैं। एक और उदाहरण देते हुए लेखक कहता है कि बड़े शहरों में जब स्कूलों में दोपहर के समय भोजन के वक्त मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों अपना दोपहर के भोजन का डिब्बा खुलते हैं तो उन डब्बों से विभिन्न प्रदेशों के व्यंजनों की एक सुगंध उठती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब भी शहरों के बच्चे अपना दोपहर के भोजन का डब्बा खोलते हैं तब उन डब्बों में उनकी माँ स्थानीय भोजन के साथ – साथ कभी – कभार अन्य प्रदेशों के भोजन भी बना कर डाल देती हैं। लेखक एक महत्वपूर्ण बात की ओर हमारा ध्यान खींचते हुए हमें बताते हैं कि हम खानपान के द्वारा भी एक – दूसरे को जानते हैं। अर्थात हर जगह का कोई न कोई स्थानीय भोजन प्रसिद्ध होता है जिससे उस जगह के लोगों की पहचान की जा सकती है। लेखक के अनुसार अगर हम इस नजरिए से देखें तो खानपान की जो ये नयी संस्कृति पनपी है उससे हमें राष्ट्रीय एकता के लिए नए बीज भी मिल सकते हैं। क्योंकि जब एक प्रदेश का भोजन दूसरे प्रदेश में सम्मलित होगा तब लोगों में भी भाईचारे की भावना का विकास होगा। परन्तु यह बीज रूपी एकता पूरी तरह से तभी उत्पन्न होंगे जब हम खानपान के आलावा उससे जुड़ी हुई दूसरी चीज़ो की ओर भी ध्यान देंगे। मिसाल के तौर पर हम उस बोली , भाषा , भूषा आदि को भी किसी – न – किसी रूप में ज्यादा जानेंगे , जो किसी खानपान – विशेष से जुड़ी हुई है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब भोजन के साथ – साथ हम उस भोजन से जुड़े दूसरे तथ्यों को जानेंगे तभी सही मायने में एकता की ओर कदम बढ़ाया जा सकता है।
पाठ – इसी के साथ ध्यान देने की बात यह है कि ‘ स्थानीय ’ व्यंजनों का पुनरुद्धार भी जरूरी है जिन्हें अब ‘ एथनिक ’ कहकर पुकारने का चलन बढ़ा है। ऐसे स्थानीय व्यंजन केवल पाँच सितारा होटलों के प्रचारार्थ नहीं छोड़ दिए जाने चाहिए। पाँच सितारा होटलों में वे कभी – कभार मिलते रहें , पर घरों – बाजारों से गायब हो जाएँ तो यह एक दुर्भाग्य ही होगा। अच्छी तरह बनाई – पकाई गई पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ – जलेबियाँ भी अब बाजारों से गायब हो रही हैं। मौसमी सब्जियाँ से भरे हुए समोसे भी अब कहाँ मिलते हैं ? उत्तर भारत में उपलब्ध व्यंजनों की भी दुर्गति हो रही है।
अचरज नहीं कि पहले उत्तर भारत में जो चीजें गली – मुहल्लों की दुकानों में आम हुआ करती थीं , उन्हें अब खास दुकानों में तलाशा जाता है। यह भी एक कड़वा सच है कि कई स्थानीय व्यंजनों को हमने तथाकथित आधुनिकता के चलते छोड़ दिया है और पश्चिम की नकल में बहुत सी ऐसी चीज़े अपना ली हैं , जो स्वाद , स्वास्थ्य और सरसता के मामले में हमारे बहुत अनुकूल नहीं हैं।
हो यह भी रहा है कि खानपान की मिश्रित संस्कृति में हम कई बार चीज़ो का असली और अलग स्वाद नहीं ले पा रहे। अकसर प्रीतिभोजों और पार्टियों में एक साथ ढेरों चीज़े रख दी जाती हैं और उनका स्वाद गड्डमड्ड होता रहता है। खानपान की मिश्रित या विविध संस्कृति हमें कुछ चीज़े चुनने का अवसर देती है , हम उसका लाभ प्रायः नहीं उठा रहे हैं। हम अकसर एक ही प्लेट में कई तरह के और कई बार तो बिलकुल विपरीत प्रकृतिवाले व्यंजन परोस लेना चाहते हैं।
इसलिए खानपान की जो मिश्रित – विविध संस्कृति बनी है – और लग यही रहा है कि यही और अधिक विकसित होने वाली है – उसे तरह – तरह से जाँचते रहना जरूरी है।
शब्दार्थ
पुनरुद्धार – पुनःस्थापन , फिर से स्थापित करना , फिर से उत्पन्न करना
एथनिक – सामान्य नस्लीय , राष्ट्रीय , भाषाई , या सांस्कृतिक मूल या पृष्ठभूमि
प्रचारार्थ – प्रचार करने वाला , विस्तार करने वाला , फैलाने वाला , प्रसारित करने वाला
दुर्भाग्य – बुरा भाग्य , भाग्य के विपरीत
दुर्गति – बुरी गति , दुर्दशा , बुरा हाल , जिल्लत
अचरज – हैरानी
तलाश – खोज
तथाकथित – तथाकथ्य , नाम भर का , कहने भर का , नाम चार का
सरसता – रसीलापन , रसिकता , सुंदरता , मधुरता , मिठास
प्रीतिभोजों – ख़ुशी के मौके पर दिया जाने वाला भोजन
गड्डमड्ड – मिली – जुली , अव्यवस्थित , बिना किसी क्रम के , बेमेल , बेतरतीब
अवसर – मौका
नोट – इस गद्यांश में लेखक ने हमें स्थानीय व्यंजनों की और आकर्षित होने तथा विविध प्रकार के व्यंजनों को समय – समय पर जाँचते रहने को कहा है।
व्याख्या – लेखक स्थानीय व्यंजनों को महत्त्व देते हुए कहते हैं कि हमारे द्वारा ध्यान देने योग्य बात यह है कि हर जगह वहां के ‘ स्थानीय ’ व्यंजनों को दुबारा पुःस्ठापित करना भी जरूरी है , ताकि स्थानीय व्यंजन लुप्त न हो जाए। इन स्थानीय व्यंजनों को ‘ एथनिक ’ अर्थात सामान्य नस्लीय कहकर पुकारने का चलन बढ़ गया है। लेखक हम लोगो को समझाते हुए कहते हैं कि हम लोगो को स्थानीय व्यंजन केवल पाँच सितारा होटलों में केवल प्रचार आदि करने के लिए नहीं छोड़ देने चाहिए। क्योंकि पाँच सितारा होटलों में वे कभी – कभार मिलते जरूर रहेंगे , पर घरों – बाजारों से गायब हो जाएँगे तो यह बात हम सब के लिए बहुत ही बुरी बात होगा। लेखक स्थानीय व्यंजनों को याद करते हुए कहते हैं कि बीते समय की तरह अच्छी तरह बनाई – पकाई गई पूड़ियाँ – कचौड़ियाँ – जलेबियाँ भी अब बाजारों से गायब हो रही हैं। मौसमी सब्जियाँ से भरे हुए समोसे भी अब कहीं नहीं मिलते हैं। इस के साथ ही साथ उत्तर भारत में उपलब्ध व्यंजनों की भी बहुत बुरी स्थिति हो रही है। इस बात में कोई हैरानी नहीं है कि पहले उत्तर भारत में जो चीजें गली – मुहल्लों की दुकानों में आसानी से मिला करती थीं , उन्हें अब खास दुकानों में खोजै जाता है। यहाँ पर एक और भी कड़वा सच है कि कई स्थानीय व्यंजनों को हमने केवल नाम मात्र की आधुनिकता के चलते छोड़ दिया है और पश्चिम की नकल करने दौड़ में बहुत सी ऐसी चीज़े अपना ली हैं , जो न तो स्वाद में , न स्वास्थ्य में और न ही सरसता के मामले में हमारे बहुत अनुकूल हैं। कभी – कभार यह भी हो रहा है कि खानपान की इस मिश्रित संस्कृति में हम कई बार चीज़ो का असली और अलग स्वाद नहीं ले पा रहे। अकसर ही ख़ुशी में दिए जाने वाले भोजन और पार्टियों में एक साथ ढेरों चीज़े रख दी जाती हैं और उनका स्वाद बिना किसी क्रम का होता रहता है। खानपान की मिश्रित या विविध संस्कृति हमें कुछ चीज़े चुनने का अवसर देती है , परन्तु आडंबना यह है कि हम उसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। हम अकसर एक ही प्लेट में कई तरह के और कई बार तो बिलकुल विपरीत प्रकृतिवाले व्यंजन परोस लेना चाहते हैं। इसलिए खानपान की यह जो मिश्रित – विविध संस्कृति बनी है – ऐसा लग रहा है कि यही और अधिक विकसित होने वाली है – उसे तरह – तरह से जाँचते रहना जरूरी है। ताकि हम पश्चमी सभ्यता की नक़ल करने के कारण अपना स्थानीय भोजन को ही न भूल जाए।
Khanpan Ki Badalti Tasveer Question Answer
प्रश्न 1 – खानपान की मिश्रित संस्कृति से लेखक का क्या मतलब है ? अपने घर के उदाहरण देकर इसकी व्याख्या करें।
उत्तर – खानपान की मिश्रित संस्कृति से लेखक का मतलब है – स्थानीय अन्य प्रांतों तथा विदेशी व्यंजनों के खानपान का आनंद उठाना यानी स्थानीय व्यंजनों के खाने – पकाने में रुचि रखना , उसकी गुणवत्ता तथा स्वाद को बनाए रखना। इसके अलावे अपने पसंद के आधार पर एक – दूसरे प्रांत को खाने की चीजों को अपने भोज्य पदार्थों में शामिल किया है। जैसे आज दक्षिण भारत के व्यंजन इडली – डोसा, साँभर इत्यादि उत्तर भारत में चाव से खाए जाते हैं और उत्तर भारत के ढाबे के व्यंजन सभी जगह पाए जाते हैं। यहाँ तक पश्चिमी सभ्यता का व्यंजन बर्गर , नूडल्स का चलन भी बहुत बढ़ा है। हमारे घर में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय दोनों प्रकार के व्यंजन तैयार होते हैं। मसलन मैं उत्तर भारतीय हूँ , हमारा भोजन रोटी – चावल – दाल है लेकिन इन व्यंजनों से ज्यादा इडली साँभर , चावल , चने – राजमा , पूरी, आलू, बर्गर अधिक पसंद किए जाते हैं। यहाँ तक कि हम यह बाजार से ना लाकर घर पर ही बनाते हैं। इतना ही नहीं विदेशी व्यंजन भी बड़ी रुचि से खाते हैं। लेखक के अनुसार यही खानपान की मिश्रित संस्कृति है।
प्रश्न 2 – खानपान में बदलाव के कौन से फ़ायदे हैं ? फिर लेखक इस बदलाव को लेकर चिंतित क्यों है ?
उत्तर – खानपान में बदलाव से निम्न फ़ायदे हैं –
एक प्रदेश की संस्कृति का दूसरे प्रदेश की संस्कृति से मिलना।
राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलना।
गृहिणियों व कामकाजी महिलाओं को जल्दी तैयार होने वाले विविध व्यंजनों की विधियाँ उपलब्ध होना।
बच्चों व बड़ों को मनचाहा भोजन मिलना।
देश-विदेश के व्यंजन मालूम होना।
स्वाद, स्वास्थ्य व सरसता के आधार पर भोजन का चयन कर पाना।
खानपान में बदलाव से होने वाले फ़ायदों के बावजूद लेखक इस बदलाव को लेकर चिंतित है क्योंकि उसका मानना है कि आज खानपान की मिश्रित संस्कृति को अपनाने से नुकसान भी हो रहे हैं जो निम्न रूप से हैं
स्थानीय व्यंजनों का चलन कम होता जा रहा है जिससे नई पीढी स्थानीय व्यंजनों के बारे में जानती ही नहीं
खाद्य पदार्थों में शुद्धता की कमी होती जा रही है।
उत्तर भारत के व्यंजनों का स्वरूप बदलता ही जा रहा है।
प्रश्न 3 – खानपान के मामले में स्वाधीनता का क्या अर्थ है ?
उत्तर – खानपान के मामले में स्वाधीनता का अर्थ है किसी विशेष स्थान के खाने – पीने का विशेष व्यंजन। जिसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक हो। मसलन मुंबई की पाव भाजी , दिल्ली के छोले कुलचे , मथुरा के पेड़े व आगरे के पेठे , नमकीन आदि। पहले स्थानीय व्यंजनों का प्रचलन था। हर प्रदेश में किसी न किसी विशेष स्थान का कोई-न-कोई व्यंजन अवश्य प्रसिद्ध होता था। भले ही ये चीजें आज देश के किसी कोने में मिल जाएँगी लेकिन ये शहर वर्षों से इन चीजों के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन आज खानपान की मिश्रित संस्कृति ने लोगों को खाने-पीने के व्यंजनों में इतने विकल्प दे दिए हैं कि स्थानीय व्यंजन प्रायः लुप्त होते जा रहे हैं। आज की पीढ़ी तो कई व्यंजनों से भलीभाँति अवगत/परिचित भी नहीं है। दूसरी तरफ़ महँगाई बढ़ने के कारण इन व्यंजनों की गुणवत्ता में कमी होने से भी लोगों का रुझान इनकी ओर कम होता जा रहा है। हाँ, पाँच सितारा होटल में इन्हें ‘एथनिक’ कहकर परोसने लगे हैं।
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