नीलकंठ पाठ के पाठ सार, पाठव्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर

Neelkanth Class 7 Summary NCERT Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 book Chapter 15 Neelkanth Summary and detailed explanation of lesson along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with all the exercises, Questions and Answers are given at the back of the lesson. Take Free Online MCQs Test for Class 7.

इस लेख में हम हिंदी कक्षा 7 ” वसंत भाग-2 ” के पाठ-15 नीलकंठपाठ के पाठ प्रवेश , पाठ सार , पाठव्याख्या , कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर , इन सभी के बारे में चर्चा करेंगे

 

नीलकंठ Class 7

 

लेखिका परिचय 

लेखिका – महादेवी वर्मा

 

नीलकंठ पाठ प्रवेश 

” नीलकंठ ” ‘ महादेवी वर्मा ‘ द्वारा लिखी गई एक रेखाचित्र है। महादेवी वर्मा जी को पशु – पक्षियों से बड़ा प्रेम था। नीलकंठ कहानी भी उनके द्वारा लिखी गई पशु – पक्षियों की कहानी में से एक अत्यंत सुंदर कहानी है। उनकी इस रचना में मनुष्य और पक्षियों के आपसी प्रेम का बहुत ही सुंदर रूप देखने को मिलता है। इस कहानी में महादेवी जी उनके जीवन में आए मोर के दो बच्चों के जीवन से जुड़ी घटनाओं का वर्णन कर रही हैं। दोनों बच्चे किस तरह महादेवी जी के जीवन में आए ? किस तरह उन्होंने महादेवी जी के घर को अपना घर बनाया ? किस तरह अन्य पशु – पक्षियों के साथ उनका मेलजोल बड़ा ? उनके जीवन की दुःखद घटना कौन सी साबित हुई ? और किस तरह दोनों जुदा हो गए ? इन सभी प्रश्नों को और मोर के दोनों बच्चों के जीवन से जुड़ी अन्य घटनाओं को महादेवी वर्मा जी ने अत्यधिक सुंदरता के साथ इस कहानी में पिरोया है।


नीलकंठ पाठ सार (Summary)

” नीलकंठ ” ‘ महादेवी वर्मा ‘ द्वारा लिखी गई एक रेखाचित्र है। महादेवी वर्मा जी को पशु – पक्षियों से बड़ा प्रेम था। लेखिका अपने भूतकाल के किसी दिन का स्मरण करते हुए बताती हैं कि एक दिन अपने घर आए एक अतिथि को वापिस उनके घर लौटाने के लिए स्टेशन गई थी और जब वे स्टेशन से वापिस लौट रही थी तभी उन्हें चिड़ियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और उन्होंने अपने ड्राइवर को उसी दूकान की ओर चलने का आदेश दे दिया। उस पशु – पक्षियों की दूकान को सभी बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के नाम से जानते थे। बड़े मियाँ लेखिका को गुरु जी कह कर सम्बोधित करते थे। जब लेखिका पिछली बार उनकी दूकान पर आई थी तब उन्होंने मोर के बच्चों के लिए पूछा था। शंकरगढ़ से एक पक्षियों को पकड़ने वाले ने दो मोर के बच्चों को पकड़ा और उसके पास ले कर आया। जिसमें से एक मोर है और एक मोरनी है। जब बड़े मियाँ एक बार बात करना शुरू कर देते थे तो वे तब तक बात करना बंद नहीं करते थे जब तक उन्हें कोई रोक न दें। लेखिका बड़े मियाँ की इस सच्चाई से परिचित थी , जिसके कारण लेखिका ने बड़े मियाँ को बीच में ही रोककर उनसे पूछा कि वे मोर के बच्चे कहाँ हैं ? बड़े मियाँ ने लेखिका की बात सुनते ही अपने हाथ से एक ओर इशारा किया और  लेखिका ने जब बड़े मियाँ के हाथ के इशारे का पीछा किया तो उनकी नज़रे एक तार के छोटे – से पिंजड़े तक पहुँची जिसमें पक्षी के दो बच्चे बैठे थे जो तीतर के बच्चों के समान लग रहे थे। तीस रूपए पक्षी पकड़ने वाले के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के धर्म के देकर जब लेखिका ने वह छोटा पिंजड़ा अपनी कार में रखा तब ऐसा लग रहा था कि वह जाली के पिंजड़े की देहलीज़ का चित्र जीवित हो गया। जब लेखिका मोर के दोनों बच्चों को लेकर घर पहुँची तब घर के सभी सदस्य कहने लगे थे कि लेखिका को किसी ने अधिक लाभ कमाने के लिए यह कहकर बेवकूफ़ बना लिया है कि ये दो बच्चे मोर के हैं जबकि ये दोनों तो तीतर के बच्चे हैं। लेखिका को भी लग रहा था कि ऐसा हो सकता है क्योंकि अनेक बार लेखिका को इस तरह बेवकूफ़ बनाया गया था और कई बार बेवकूफ़ बनाए जाने के कारण ही यह बात लेखिका के परेशान हो जाने की एक कमज़ोरी बन गई थी। परिवार वालों की बातों से दुःखी होकर लेखिका ने उनसे कहा कि मोर में  क्या कोई विशेष गुण होता है क्योंकि होता तो वह भी अन्य पक्षियों की तरह एक पक्षी ही होता है। सबसे पहले लेखिका उन्हें अपने पढ़ने – लिखने के कमरे में ले गई और उनके पिंजड़ा को वहाँ रखकर उसका दरवाजा खोला , फिर लेखिका ने दो कटोरों में सत्तू की छोटी – छोटी गोलियाँ और पानी रखा दिया। लेखिका कहती हैं कि जब लेखिका ने उन दोनों पक्षियों को उस छोटे से पिंजड़े से निकला तो ऐसा लग रहा था जैसे वे दोनों लेखिका के कमरे में मानो खो गए हो क्योंकि कभी वे मेज़ के नीचे घुस जाते थे तो कभी अलमारी के पीछे चले जाते थे। लेखिका के उस कमरे की खिड़कियों में तो जाली लगी थी , परन्तु लेखिका को दरवाजा हमेशा बंद रखना पड़ता था क्योंकि अगर दरवाजा खुला रहता तो लेखिका की बिल्ली जिसका नाम चित्रा था वह इन दो नए आए हुए मेहमानों का पता लगा सकती थी और तब उसके द्वारा की गई इस खोज का क्या परिणाम होता , यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।  जब लेखिका ने मोर ने दोनों बच्चों को अपने पढ़ने – लिखने वाले कमरे में रखा था तब उन दोनों ने लेखिका के कमरे को पढ़ने – लिखने वाले कमरे से बदल कर चिड़ियाघर का रूप दे दिया था , तब लेखिका ने बड़ी कठिनाई से उन दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचा दिया था जो लेखिका के द्वारा पाले जा रहे जीव – जंतुओं का सामान्य निवास था। अर्थात लेखिका के सभी पालतू जीव – जन्तु उस जाली के बड़े घर में रखे गए थे। जब लेखिका ने उन दोनों मोर के बच्चों को उस जाली के बड़े घर में रखा तो उन दोनों के नए होने की वजह से उस जाली के घर में पहले से रहने वाले पशु – पक्षियों में उन दोनों को ले कर  वैसा ही आश्चर्य जाएगा जैसा आश्चर्य परिवार के लोगो में उस समय जागता है जब परिवार में किसी नई दुल्हन का आगमन होता है। लेखिका के पालतू लक्का कबूतर अपना नाचना छोड़कर उन दोनों मोर के बच्चों की ओर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम – घूमकर गुटरगूँ – गुटरगूँ का संगीत गुनगुनाने लगे। लेखिका के पालतू खरगोशों में से बड़े खरगोश संस्कारी सभा – जनों के समान पंक्ति में बैठकर गंभीर भाव से उन दोनों की जाँच – परख करने लगे। छोटे खरगोश जब उन दोनों के चारों ओर उछलकूद मचा रहे थे तब वे ऐसे लग रहे थे जैसे ऊन की गेंद उछल रही हों। लेखिका के पालतू तोते उन्हें अच्छे से देखने के लिए एक आँख बंद करके उनकी जाँच – परख करने लगे थे। उन मोर के बच्चों का शारीरिक विकास बहुत सुंदर तरीके से हो रहा था। मोर के सिर पर बनी चोटी और भी घनी , ऊँची तथा चमकीली हो गई थी। उसकी चोंच पहले से कहीं अधिक तिरछी और नुकीली हो गई थी , उसकी गोल आँखों में इंद्रनी की नीलाभ जैसी  चमक  झलकने लगी थी। उसकी लंबी नीली और हरी गरदन की हर कोमल चेष्टायों में धूप और छाँव जैसी तरंगें उठने – गिरने लगीं थी। दक्षिण – वाम दोनों पंखों में सलेटी और सफ़ेद चित्रांकन स्पष्ट होने लगे थे। उसकी पूँछ समय बीतने के साथ ही लंबी हुई और उसके पंखों पर बने चंद्रिकाओं में अब इंद्रधनुषी रंग प्रकट हो उठे थे। उसके पैर जिनमें कोई रंग नहीं था उन रंग – रहित पैरों को भी उसकी गरवीली गति ने एक नया गौरव और प्रसन्नता प्रदान कर दी थी। उसकी हर चेष्टा अपने आप में आकर्षक थी जैसे – उसका गरदन ऊँची कर देखना , विशेष भंगिमा के साथ गर्दन नीची कर दाना चुगना , सतर्क हो कर पानी पीना , गर्दन को टेढ़ी करके शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो कोमलता और सौंदर्य था , उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता था। मोरनी का विकास मोर के समान अलौकिक यानि अद्भुत तरीके से तो नहीं हुआ था , परंतु उसमें भी कई सुन्दर बदलाव आए थे जिसमें उसकी लंबी धूपछाँही गरदन , हवा में लगातार हिलते रहने वाली कलगी , पंखों की काली – सफेद धारियाँ , अपनी धीमी चाल आदि से वह भी मोर की समान ही अद्भुत लगती थी और मोर की साथी  होने का सबूत देने लगी थी।  गरदन में हलके नीले रंग की आभा या झलक होने के कारण मोर का नाम नीलकंठ रखा गया और उसकी छाया के समान उसके साथ रहने के कारण मोरनी का नामकरण राधा हुआ था। मोर अब सभी पशु – पक्षियों पर हुकूमत करने लगा था। सुबह होते ही वह सब खरगोश , कबूतर आदि की सेना को इकठ्ठा कर के उस ओर ले जाता जहाँ दाना दिया जाता था और फिर चारों और घूमता रहता था। ऐसा लगता था जैसे वह घूम – घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता हो। यदि कोई पशु या पक्षी किसी प्रकार की कोई गड़बड़ करता तो वह अपने तीखे चोंच के हमले से उसे दंड देने दौड़ पड़ता था। खरगोश के छोटे बच्चों को वह अपनी चोंच से उनके कान पकड़कर ऊपर उठा लेता था और जब तक वे बहुत ज्यादा दर्द से चिल्लाने नहीं लगते तब तक उन्हें अपनी चोंच में लटकाए रखता था। कभी – कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कान छेदन का संस्कार हो जाता था। सभी को सज़ा देने के समान ही उन जीव – जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था। एक दिन जब सभी पशु – पक्षी अपने कामों में व्यस्त थे और मोर भी झूले में आराम कर रहा था तो ऐसी ही स्थिति में एक साँप कहीं से जाली के भीतर पहुँच गया। सब जीव – जंतु उस साँप को देखकर इधर – उधर भाग गए और कहीं छिप गए , केवल एक छोटा खरगोश का बच्चा उस साँप की पकड़ में आ गया। वह साँप उस छोटे से बच्चे को निगलने का प्रयास करने लगा और उसी प्रयास में साँप ने उस बच्चे का आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था बाकि शेष आधा जो बाहर था , उससे चीं – चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को अच्छे से सुनाई दे सके और वह उसकी मदद करे। नीलकंठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। वहाँ तक उस छोटे से बच्चे के धीमे स्वर न के बराबर पहुँच रहे थे परन्तु नीलकंठ के सतर्क कानों ने उस धीमे स्वर की पीड़ा  को पहचान लिया और वह अपनी पूँछ – पंख समेटकर झट से एक झपट्टे में नीचे आ गया। नीलकंठ ने अपनी जन्मजात चेतना से ही समझ लिया होगा कि यदि वह सीधे साँप के फन पर चोंच मारेगा तो उस से खरगोश का बच्चा भी घायल हो सकता है। इसी कारण वश उसने साँप को फन के पास से पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने हमले किए कि वह साँप लगभग अधमरा हो गया। जैसे ही अधमरा होने के कारण उसकी ढीली पड़ी वैसे ही खरगोश का बच्चा उस साँप के मुख से निकल तो आया , परंतु बेहोश – सा वहीं पड़ा रहा। राधा ने साँप को मारने में नीलकंठ की सहायता करने की आवश्यकता नहीं समझी , परंतु उसने अपनी धीमी कूक से किसी असाधारण घटना की सूचना सब ओर फैला दी। राधा की कूक से माली भी वहाँ पहुँचा और फिर लेखिका और दूसरे लोग भी वहाँ पहुँचे। नीलकंठ जब साँप के दो टुकड़े कर चुका , तब उस खरगोश के बच्चे के पास गया और रातभर उसे अपने पंखों के नीचे रख कर उसे गर्मी देता रहा। लेखिका मोर की प्रशंसा करते हुए कहती हैं कि भगवान् कार्तिकेय ने अपने युद्ध – वाहन के लिए मोर को क्यों चुना होगा , यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है। क्योंकि मोर एक कलाप्रिय वीर पक्षी है , वह केवल हिंसा करने वाला या दूसरों की बुराई चाहने और करने वाला नहीं है। इसी कारण से मोर को बाज़ , चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि इन पक्षियों का जीवन ही हिंसक कार्य करने वाला है। जब वह बादलों की साँवली छाया में अपने इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को गोलाकार बनाकर नाचता था , तब उस नृत्य में एक ऐसा लय – ताल रहता था जिसे देखकर ऐसा लगता था जैसे उसके नृत्य ने भी उसी साथ जन्म लिया हो। आगे – पीछे , दाहिने – बाएँ घूमकर वह बीच – बीच में बिना किसी लक्ष्य के एक ही लय में ठहर जाता था। राधा नीलकंठ के तरह तो नहीं नाच सकती थी , परंतु उसकी गति अर्थात उसके नृत्य में भी एक छंद रहता था। वह नाच में खोए हुए नीलकंठ की दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बाईं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर चली आती थी। इस प्रकार उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाने में भी एक ऐसा ताल – परिचय मिलता था जो अपने आप में पूरा मालूम पड़ता था। लेखिका यह समझ नहीं पाती थी कि जो चोंच किसी को नुक्सान पहुँचा सकती है वही कोमलता का गुण कैसे रख सकती है। नीलकंठ को फलों के वृक्षों से अधिक वो वृक्ष पसंद थे जिसमें फूल खिले हुए हों या जो हरा – भरा एवं लहराता हुआ हो। जब वंसत ऋतू में आम के पेड़ सोने के रंग वाले आम्र पुष्पों से भर जाते थे और वर्ष भर हरे रहने वाले अशोक के वृक्ष नए निकले हुए कोमल पत्तों के समूह या गुच्छों से ढँक जाते थे , तब नीलकंठ जालीघर में इतना अधिक बेचैन हो उठता कि उसे बाहर छोड़ना ही पड़ता था। नीलकंठ और राधा के इस ख़ुशी के उत्सव की संगीत बेला में अनमेल स्वर कैसे बज उठा अर्थात उन दोनों के बीच कैसे दूरियाँ आ गई , इसके पीछे भी एक करुणा उत्पन्न करने वाली कहानी है। एक दिन लेखिका को किसी जरुरी काम से बाज़ार के उसी कोने से निकलना पड़ा जहाँ पशुओं और पक्षियों को ख़रीदा और बेचा जाता था। जैसे ही लिखिका की कार बड़े मियाँ की दूकान के पास पहुँची बड़े मियाँ ने पहले की ही तरह कार को रोक लिया। इस बार लेखिका ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि इस बार वह किसी पिंजड़े की ओर नहीं देखेगी , क्योंकि लेखिका को पशु – पक्षियों से बहुत प्यार था और वह किसी भी जीव – जन्तु को परेशानी में नहीं देख सकती थी जिस कारण उसके घर पर एक अच्छा ख़ासा चिड़ियाघर बन चूका था। किसी पिंजड़े की ओर न देखने का दृढ़ निश्चय करके लेखिका ने बड़े मियाँ की पतली दाढ़ी और सफ़ेद डोरे से कान में बंधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केंद्र बनाया ताकि उनका ध्यान इधर – उधर किसी कैद जीव पर न पड़े। परन्तु बडे़ मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना लेखिका के लिए कठिन था। वह मोरनी राधा के समान ही थी। लेखिका ने उस अधमरी मोरनी को सात रूपए देकर खरीद लिया और उसे कार की अगली सीट पर रखवाकर घर ले आई और एक बार फिर से लेखिका ने अपने पढ़ने – लिखने के कमरे को अस्पताल बना दिया। लेखिका को महीने भर उस अधमरी मोरनी के पंजों की मरहमपट्टी और देखभाल करनी पड़ी तब जा कर वह अच्छी हो गई। उसकी वह टूटी उँगलियाँ तो सही नहीं हो पाई परन्तु वे वैसी ही टेढ़ी – मेढ़ी रहीं और उसके पंजे किसी काटे गए या टूटे हुए पेड़ के धड़ के समान लगते थे , परंतु वह उन पंजों से जैसे – तैसे डगमगाती हुई चलने लगी थी। तब उसे भी दूसरे पशु – पक्षियों के साथ जालीघर में पहुँचाया गया और उसका नाम कुब्जा रखा गया। यह नाम उसके रूप को देख कर रखा गया था और वह अपने नाम के अनुरूप ही  स्वभाव से भी कुब्जा ही प्रमाणित हुई। जब तक कुब्जा नहीं थी तब तक नीलकंठ और राधा साथ – साथ ही रहते थे। परन्तु अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती थी। कुब्जा के व्यवहार के कारण न किसी जीव – जंतु से उसकी मित्राता थी और न ही वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी। समय इसी तरह बीत रहा था और उसी बीच राधा ने दो अंडे दिए , जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। जैसे ही कुब्जा को पता चला तो कुब्जा ने चोंच मार – मारकर राधा को अंडों के ऊपर से ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़ दिए उसके बाद अपने उन्हीं टूटे हुए पेड़ के धड़ के समान पैरों से सब ओर बिखरा दिए। इन लड़ाई – झगडे और शोर – शराबे से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की ख़ुशी का तो अंत ही हो गया था। नीलकंठ कुब्जा से दुखी हो कर कई बार जाली के घर से निकल भागा था। एक बार तो वह कई दिनों तक भूखा – प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा। लेखिका को इन मामलों में कोई अनुभव नहीं था जिसके कारण लेखिका यह आशा कर रही थी कि थोड़े दिन बाद सबमें मेल हो जाएगा अर्थात कुछ दिनों में सब आपस में मिलजुल कर रहने लगेंगे इसलिए लेखिका ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अंत में तीन – चार महीने  बीत जाने के बाद एक दिन सवेरे जब लेखिका नीलकंठ को देखने गई तब उन्होंने देखा कि नीलकंठ पूँछ – पंख फैलाए धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है , जैसे वह तब बैठता था जब वह खरगोश के बच्चों को पंखों में छिपाकर बैठता था। लेखिका ने नीलकंठ की ऐसी हालत देखकर उसे पुकारने लगी परन्तु लेखिका के बुलाए जाने पर भी वह नहीं उठा और उसके न उठने पर लेखिका को थोड़ा शक हुआ। वास्तव में नीलकंठ मर गया था। जब गंगा की बीच धार में उसे बह जाने के लिए छोड़ा गया , तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिंबित – प्रतिबिंबित होकर गंगा का चौड़ा सूखा हुआ भाग एक बड़े मोर के समान  लहराता हुआ प्रतीत हो रहा था। नीलकंठ के साथ न रहने पर राधा तो जैसे बेहोश सी कई दिन एक कोने में बैठी रही। नीलकंठ पहले भी वह कई बार जाली के घर से भागकर वापिस लौट आया था , इसी कारण राधा इंतज़ार के भाव से दरवाज़े पर नजर लगाए रहती थी। अर्थात राधा को उम्मीद थी कि नीलकंठ वापिस लौट आएगा। इसके विपरीत कुब्जा ने शोर मचाते हुए नीलकंठ की खोज – खबर लेना शुरू कर दिया था। जब वह नीलकंठ को ढूँढ रही थी उसी खोज के क्रम में वह अक्सर जैसे ही जाली का दरवाजा खुलता था वह बाहर निकल आती थी और आम , अशोक , कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। एक दिन जब वह नीलकंठ को आम के पेड़ पेड़ ढूंढते हुए निचे उतरी ही थी कि कजली यानि लेखिका की अल्सेशियन कुत्ती उसके सामने आ गई। अपने स्वभाव के अनुसार कुब्जा ने कजली पर भी चोंच से हमला किया। जिसके परिणाम स्वरूप कजली के दो दाँत कुब्जा की गरदन पर लग गए। इस बार उसका शोर गुल मचाने वाला और शत्रुता और प्रेम भरा जीवन समाप्त हो गया अर्थात कुब्जा की भी मृत्यु हो गई। परंतु इन तीन पक्षियों ने लेखिका को पक्षी – प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया था , वह लेखिका के लिए विशेष महत्त्व रखता था। क्योंकि नीलकंठ , राधा और कुब्जा के साथ रहते हुए लेखिका को पक्षियों के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली थी। राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली रह गई है अर्थात अब राधा ही नीलकंठ की मृत्यु से अनजान उसका इन्तजार कर रही थी। आषाढ़ में जब आकाश बादलों से ढक जाता है तब राधा आज भी कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक वृक्ष की डाल पर अपनी कूंक को तेज़ करके नीलकंठ को बुलाती रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज भी राधा नीलकंठ का इन्तजार कर रही है , आज भी उसे नीलकंठ की मृत्यु का आभास तक नहीं है।


नीलकंठ पाठ व्याख्या (Neelkant Explanation) 

पाठ – उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर मैं लौट रही थी कि चिड़ियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया।
बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरंभ किया , ” सलाम  गुरु जी ! पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था। शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड़ लाया है , एक मोर है , एक मोरनी। आप पाल लें। मोर के पंजों से दवा बनती है , सो ऐसे ही लोग खरीदने आए थे। आखिर मेरे सीने में भी तो इनसान का दिल है। मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दूँ ! टालने के लिए मैंने कह दिया – ‘ गुरु जी ने मँगवाए हैं। ’ वैसे यह कमबख्त रोज़गार ही खराब है। बस , पकड़ो – पकड़ो , मारो – मारो। “

शब्दार्थ
अतिथि – मेहमान
निकट – समीप , नज़दीक
संकेत – निशान , चिह्न , इंगित , इशारा , अंगचेष्टा , आँख या हाथ से किया जाने वाला संकेत
आरंभ – प्रारंभ , शुभारंभ , प्रस्थान , शुरुआत
चिड़ीमार – पक्षियों को पकड़ के कैद करने वाला , पक्षियों को मारने वाला , पक्षियों का क्रय – विक्रय करने वाला
टालना – अपने स्थान से अलग करना , हटाना , दूसरे स्थान पर भेज देना , दूर करना , भगा देना
कमबख्त – कम किस्मत वाला , बुरी किस्मत वाला
रोज़गार – काम

नोट – इस गद्यांश में हमें लेखिका का पशु – पक्षियों  प्रति प्रेम का पता चलता है। साथ ही हमें समाज के उस वर्ग का भी पता चलता है जो मासूम पक्षियों को पकड़ कर या मार कर अपनी आजीविका चलाते हैं।

व्याख्या – लेखिका अपने भूतकाल के किसी दिन का स्मरण करते हुए बताती हैं कि एक दिन अपने घर आए एक अतिथि को वापिस उनके घर लौटाने के लिए स्टेशन गई थी और जब वे स्टेशन से वापिस लौट रही थी तभी उन्हें चिड़ियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और उन्होंने अपने ड्राइवर को उसी दूकान की ओर चलने का आदेश दे दिया। उस पशु – पक्षियों की दूकान को सभी बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के नाम से जानते थे। लेखिका की गाड़ी जैसे ही उस दूकान के नज़दीक पहुँची उन दूकान वाले बड़े मियाँ ने सड़क पर आकर लेखिका की गाड़ी के ड्राइवर को रुकने का इशारा कर दिया। जिससे पहले लेखिका बड़े मियाँ से कोई प्रश्न करती उससे पहले ही बड़े मियाँ ने लेखिका से बात करना शुरू कर दिया। बड़े मियाँ लेखिका को गुरु जी कह कर सम्बोधित करते थे। बड़े मियाँ ने लेखिका को सलाम  गुरु जी कहा और अपनी बात कहने लगे कि जब लेखिका पिछली बार उनकी दूकान पर आई थी तब उन्होंने मोर के बच्चों के लिए पूछा था। शंकरगढ़ से एक पक्षियों को पकड़ने वाले ने दो मोर के बच्चों को पकड़ा और उसके पास ले कर आया। जिसमें से एक मोर है और एक मोरनी है। बड़े मियाँ लेखिका को कहते हैं कि वे उन्हें खरीद के पाल सकती हैं। बड़े मियाँ अपनी बात ज़ारी रखते हुए कहते हैं कि क्योंकि मोर के पंजों से दवा बनती है इसी वजह से जब ऐसे ही लोगों को पता चला जो मोर के पंजों से दवा बनाते हैं तो वो इन्हें खरीदने आए थे। परन्तु बड़े मियाँ अपनी तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि आखिरकार उनके सीने में भी तो इनसान का ही दिल है। वो कैसे मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को उन्हें दे सकते थे इसलिए उन लोगों को मोर के बच्चे न देने पड़े इसलिए उनसे उन्होंने कह दिया था कि ये दोनों बच्चे गुरु जी ने मँगवाए हैं। अपने काम के बारे में बड़े मियाँ लेखिका को बताते हैं कि उनका यह काम ही बहुत खराब है। क्योंकि इसमें बस मासूम पशु – पक्षियों को पकड़ना और मारना ही शामिल है।

पाठ – बड़े मियाँ के भाषण की तूफ़ानमेल के लिए कोई निश्चित स्टेशन नहीं है। सुननेवाला थककर जहाँ रोक दे वहीं स्टेशन मान लिया जाता है। इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही मैंने बीच में उन्हें रोककर पूछा , ” मोर के बच्चे हैं कहाँ ? ” बड़े मियाँ के हाथ के संकेत का अनुसरण करते हुए मेरी दृष्टि एक तार के छोटे – से पिंजड़े तक पहुँची जिसमें तीतरों के समान दो बच्चे बैठे थे। पिंजड़ा  इतना संकीर्ण था कि वे पक्षी – शावक जाली के गोल फ्रेम में किसी जड़े चित्र जैसे लग रहे थे।
मेरे निरीक्षण के साथ – साथ बड़े मियाँ की भाषण – मेल चली जा रही थी , ” ईमान कसम , गुरु जी – चिड़ीमार ने मुझसे इस मोर के जोड़े के  नकद तीस रुपये लिए हैं। बारहा कहा , भई ज़रा सोच तो , अभी इनमें मोर की कोई खासियत भी है कि तू इतनी बड़ी कीमत ही माँगने चला ! पर वह मूँजी क्यों सुनने लगा। आपका खयाल करके अछता – पछताकर देना ही पड़ा। अब आप जो मुनासिब समझें। ” अस्तु , तीस चिड़ीमार के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के ईमान के देकर जब मैंने वह छोटा पिंजड़ा  कार में रखा तब मानो वह जाली के चौखटे का चित्र जीवित हो गया। दोनों पक्षी – शावकों के छटपटाने से लगता था मानो पिंजड़ा ही सजीव और उड़ने योग्य हो गया है।

शब्दार्थ
तूफ़ानमेल – तूफान के समान
तथ्य – सत्य , सचाई , यथार्थता , हक़ीक़त , विवरण , बात
अनुसरण – पीछे चलना , अनुकरण , अनुकूल आचरण
संकीर्ण – सँकरा , संकुचित , तंग , जो चौड़ा या विस्तृत न हो , क्षुद्र , छोटा , तुच्छ , नीच
पक्षी – शावक – पक्षी का छोटा बच्चा
निरीक्षण – मूल्यांकन , जांच , समीक्षा , अवलोकन , अन्वेषण , सर्वेक्षण , चेकअप , परीक्षा
ईमान – धर्म , श्रद्धा , निष्ठा , यक़ीन , मज़हब
नकद – तैयार रुपया , रुपया पैसा , धन जो सिक्कों के रूप में हो
बारहा – अनेक बार , अक्सर , बार-बार , बहुधा , प्रायः , कई बार
खासियत – गुण , विशिष्टता , विशेषता
मूँजी – दुष्ट , कंजूस
मुनासिब – उचित , परिमित , न्यायी , ज्ञानवान , सहनीय , नियत , यथोचित , ठीक
अस्तु – जो भी हो , ऐसा हो , ख़ैर
चौखट – लकड़ी या लोहे का वह चौकोर ढाँचा या फ्रेम जिसमें किवाड़ के पल्ले लगाए जाते हैं , देहली , देहरी , मर्यादा , सीमा
छटपटाना – पीड़ा के कारण हाथ – पैर पटकना , फेंकना , कराहना , तड़फड़ाना , तड़पना , दुख आदि के कारण व्याकुल होना , बेचैन होना , अधीर होना

नोट – इस गद्यांश में बड़े मियाँ लेखिका को मोर के दोनों बच्चों को खरीदने के लिए राज़ी कर लेते है और लेखिका दोनों बच्चों को खरीद लेती है।

व्याख्या – जब बड़े मियाँ लेखिका से बात करते हुए अपनी दूकान के अंदर आ रहे थे और उनकी बातों में कोई विराम नहीं लग रहा था तब लेखिका बड़े मियाँ की इस तरह बात करने की आदत के बारे में बताते हुए कहती हैं कि बड़े मियाँ के इस तरह तूफ़ान के समान बात करने का कोई भी निश्चित विराम स्टेशन नहीं था। सुनने वाला बड़े मियाँ को थककर जहाँ रोक दे वहीं स्टेशन मान लिया जाता था। कहने का तात्पर्य यह है की जब बड़े मियाँ एक बार बात करना शुरू कर देते थे तो वे तब तक बात करना बंद नहीं करते थे जब तक उन्हें कोई रोक न दें। लेखिका बड़े मियाँ की इस सच्चाई से परिचित थी , जिसके कारण लेखिका ने बड़े मियाँ को बीच में ही रोककर उनसे पूछा कि वे मोर के बच्चे कहाँ हैं ? बड़े मियाँ ने लेखिका की बात सुनते ही अपने हाथ से एक ओर इशारा किया और  लेखिका ने जब बड़े मियाँ के हाथ के इशारे का पीछा किया तो उनकी नज़रे एक तार के छोटे – से पिंजड़े तक पहुँची जिसमें पक्षी के दो बच्चे बैठे थे जो तीतर के बच्चों के समान लग रहे थे। पिंजड़ा इतना छोटा था कि वे पक्षी के बच्चे जाली के गोल फ्रेम में ऐसे लग रहे थे जैसे वे कोई सजीव पक्षी न हो कर कोई चित्र हों। जब लेखिका उन पक्षियों की जाँच कर रही थी तब भी बड़े मियाँ की भाषण – मेल चली जा रही थी , वे अपने धर्म की कसम खाते हुए कह रहे थे कि उस पक्षी पकड़ने वाले ने उससे उस मोर के जोड़े के तीस रुपये लिए हैं। बड़े मियाँ ने कई बार उस पक्षी पकड़ने वाले से कहा कि वह ज़रा सोच कर उन मोर के बच्चों का मोल करे क्योंकि अभी इनमें मोर के बच्चों में मोर की कोई विशेषता भी नहीं थी जो वो इतनी बड़ी कीमत ही माँगने लगा था। बड़े मियाँ ने आगे बताया कि परन्तु वह पक्षी पकड़ने वाला उस कँजूस यानि बड़े मियाँ को क्यों सुनने वाला था। बड़े मियाँ लेखिका को मक्खन लगते हुए कहते है कि जब उन्हें लेखिका का ध्यान आया तो उन्हें पक्षी पकड़ने वाले को न चाहते हुए भी उसके मनचाहे रूपए देना ही पड़े। अब लेखिका को जो भी सही लगे वो बड़े मियाँ को उन दोनों बच्चों के दे सकती हैं। जो भी हो , तीस रूपए पक्षी पकड़ने वाले के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के धर्म के देकर जब लेखिका ने वह छोटा पिंजड़ा अपनी कार में रखा तब ऐसा लग रहा था कि वह जाली के पिंजड़े की देहलीज़ का चित्र जीवित हो गया। पक्षी के दोनों बच्चे छटपटाने लगे थे और उन्हें देखकर लग रहा था जैसे वह पिंजड़ा ही सजीव हो गया हो और वह उड़ने योग्य हो गया हो।             

पाठ – घर पहुँचने पर सब कहने लगे , ” तीतर हैं , मोर कहकर ठग लिया है। “
कदाचित अनेक बार ठगे जाने के कारण ही ठगे जाने की बात मेरे चिढ़ जाने की दुर्बलता बन गई है। अप्रसन्न होकर मैंने कहा , ” मोर के क्या सुरखाब के पर लगे हैं। है तो पक्षी ही। ” चिढ़ा दिया जाने के कारण ही संभवतः उन दोनों पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई।
पहले अपने पढ़ने – लिखने के कमरे में उनका पिंजड़ा  रखकर उसका दरवाजा खोला , फिर दो कटोरों में सत्तू की छोटी – छोटी गोलियाँ और पानी रखा। वे दोनों चूहेदानी जैसे पिंजड़े से निकलकर कमरे में मानो खो गए , कभी मेज़ के नीचे घुस गए , कभी अलमारी के पीछे। अंत में इस लुकाछिपी से थककर उन्होंने मेरे रद्दी कागजों की टोकरी को अपने नए बसेरे का गौरव प्रदान किया। दो – चार दिन वे इसी प्रकार दिन में इधर – उधर गुप्तवास करते और रात में रद्दी की टोकरी में प्रकट होते रहे। फिर आश्वस्त हो जाने पर कभी मेरी मेज़ पर , कभी कुरसी पर और कभी मेरे सिर पर अचानक आविर्भूत होने लगे। खिड़कियों में तो जाली लगी थी , पर दरवाजा मुझे निरंतर बंद रखना पड़ता था। खुला रहने पर चित्रा ( मेरी बिल्ली ) इन नवागंतुकों का पता लगा सकती थी और तब उसके शोध का क्या परिणाम होता , यह अनुमान करना कठिन नहीं है। वैसे वह चूहों पर भी आक्रमण नहीं करती , परंतु यहाँ तो दो सर्वथा अपरिचित पक्षियों की अनधिकार चेष्टा का प्रश्न था। उसके लिए दरवाजा बंद रहे और ये दोनों ( उसकी दृष्टि में ) ऐरे – गैरे मेरी मेज़ को अपना सिंहासन बना लें , यह स्थिति चित्रा जैसी अभिमानिनी मार्जारी के लिए असह्य ही कही जाएगी।

शब्दार्थ
ठगना – किसी से कोई वस्तु या धन धोखा देकर ले लेना , धोखा देकर लूटना , क्रय – विक्रय में अधिक लाभ कमाने के लिए कम और रद्दी वस्तु देना
कदाचित – सम्भव है , हो सकता है , मुमकिन है , शायद
दुर्बलता – कमज़ोरी , दुबलापन
अप्रसन्न – जो प्रसन्न न हो , नाख़ुश , दुखी , रुष्ट , नाराज़ , नाख़ुशी , नाराज़गी
सुरखाब के पर लगना ( मुहावरा ) – कोई विशेष गुण होना
संभवतः – हो सकता है , मुमकिन है
यत्न – कोशिश , प्रयत्न , प्रयास , चेष्टा
सत्तू – सत्तू एक प्रकार का देशज व्यंजन है , जो भूने हुए जौ , मक्का और चने को पीस कर बनाया जाता है
रद्दी – घटिया माल , पाखाना , फाल्तू सामान
आश्वस्त – निश्चित , धैर्यपूर्ण , विश्वस्त
आविर्भूत – प्रकाश , प्राकटय , उत्पति
नवागंतुक – नया आया हुआ
अनुमान – अटकल , अंदाज़ा , प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष का ज्ञान
आक्रमण – आक्रमणीय , आक्रमित , आक्रांत ,बलपूर्वक सीमा का उल्लंघन करना , हमला , चढ़ाई
अनधिकार –  निषिद्ध , अप्राधिकृत , बेकायदा , अधिकार का न होना या प्रभुत्व का अभाव
अभिमानिनी – अहंकारा , घमंड़ी , दर्पी , अपने को कुछ लगाने वाला
मार्जारी – बिल्ली
असह्य – असहनीय , असहनशीलता , असहजता , असहज , असम्मिलित , असम्माननीय

नोट – इस गद्यांश में , जब लेखिका उन दो मोर के बच्चों को घर ले गई तो लेखिका के घर वालों की और लेखिका की पालतू बिल्ली की क्या प्रतिक्रिया थी और मोर के दोनों बच्चों ने लेखिका के घर पर कैसा व्यवहार किया , इन सभी घटनाओं का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – जब लेखिका मोर के दोनों बच्चों को लेकर घर पहुँची तब घर के सभी सदस्य कहने लगे थे कि लेखिका को किसी ने अधिक लाभ कमाने के लिए यह कहकर बेवकूफ़ बना लिया है कि ये दो बच्चे मोर के हैं जबकि ये दोनों तो तीतर के बच्चे हैं। लेखिका को भी लग रहा था कि ऐसा हो सकता है क्योंकि अनेक बार लेखिका को इस तरह बेवकूफ़ बनाया गया था और कई बार बेवकूफ़ बनाए जाने के कारण ही यह बात लेखिका के परेशान हो जाने की एक कमज़ोरी बन गई थी। परिवार वालों की बातों से दुःखी होकर लेखिका ने उनसे कहा कि मोर में  क्या कोई विशेष गुण होता है क्योंकि होता तो वह भी अन्य पक्षियों की तरह एक पक्षी ही होता है। लेखिका कहती हैं कि इस तरह सभी के द्वारा चिढ़ा दिया जाने के कारण ही संभव है कि उन दोनों पक्षियों के प्रति लेखिका के व्यवहार और उनके पालन की कोशिश में कुछ विशेषता आ गई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखिका उन दोनों मोर के बच्चों का ज्यादा ध्यान रखने  लगी थी। सबसे पहले लेखिका उन्हें अपने पढ़ने – लिखने के कमरे में ले गई और उनके पिंजड़ा को वहाँ रखकर उसका दरवाजा खोला , फिर लेखिका ने दो कटोरों में सत्तू की छोटी – छोटी गोलियाँ और पानी रखा दिया। लेखिका कहती हैं कि जब लेखिका ने उन दोनों पक्षियों को उस छोटे से पिंजड़े से निकला तो ऐसा लग रहा था जैसे वे दोनों लेखिका के कमरे में मानो खो गए हो क्योंकि कभी वे मेज़ के नीचे घुस जाते थे तो कभी अलमारी के पीछे चले जाते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वे नई जगह पर थे और लेखिका से डर भी रहे थे। परन्तु अंत में इस लुकाछिपी से थककर उन्होंने लेखिका के फाल्तू कागजों की टोकरी को अपना नया घर बना दिया। लेखिका बताती हैं कि दो – चार दिन तक इसी वे इसी प्रकार तरह वे दिन में इधर – उधर छुप कर रहते थे और रात में फाल्तू कागजों की टोकरी में प्रकट होते थे। फिर जब उन्हें पूरा विशवास हो गया कि उन्हें यहाँ कोई खतरा नहीं है तो उसके बाद वे कभी लेखिका की मेज़ पर , कभी कुरसी पर और कभी लेखिका के  सिर पर अचानक आ जाया करते थे। लेखिका कहती हैं कि उस कमरे की खिड़कियों में तो जाली लगी थी , परन्तु लेखिका को दरवाजा हमेशा बंद रखना पड़ता था क्योंकि अगर दरवाजा खुला रहता तो लेखिका की बिल्ली जिसका नाम चित्रा थावह इन दो नए आए हुए मेहमानों का पता लगा सकती थी और तब उसके द्वारा की गई इस खोज का क्या परिणाम होता , यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। वैसे तो वह चूहों पर भी हमला नहीं करती थी , परंतु यहाँ पर बात दो एक दम से ऐसे पक्षियों की थी जिनसे वह बिलकुल भी परिचत नहीं थी। लेखिका दरवाजा बंद करके रखने लगी थी जिस कारण चित्रा अब अंदर नहीं आ सकती थी तो उसके लिए दरवाजा बंद रहे और ये दोनों पक्षी जो उसकी दृष्टि में ऐरे – गैरे थे वे लेखिका की मेज़ को अपना सिंहासन बना लें , यह स्थिति चित्रा जैसी घमंड़ी  बिल्ली के लिए असहनीय ही कही जाएगी क्योंकि अब लेखिका का ध्यान उससे हट के उन दोनों पर रहने लगा था। 

पाठ – जब मेरे कमरे का कायाकल्प चिड़ियाखाने के रूप में होने लगा , तब मैंने बड़ी कठिनाई से दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचाया जो मेरे जीव – जंतुओं का सामान्य निवास है।
दोनों नवागंतुकों ने पहले से रहनेवालों में वैसा ही कुतूहल जगाया जैसा नववधू के आगमन पर परिवार में स्वाभाविक है। लक्का कबूतर नाचना छोड़कर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम – घूमकर गुटरगूँ – गुटरगूँ की रागिनी अलापने लगे। बड़े खरगोश सभ्य सभासदों के समान क्रम से बैठकर गंभीर भाव से उनका निरीक्षण करने लगे। ऊन की गेंद जैसे छोटे खरगोश उनके चारों ओर उछलकूद मचाने लगे। तोते मानो भलीभाँति देखने के लिए एक आँख बंद करके उनका परीक्षण करने लगे। उस दिन मेरे चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया।

शब्दार्थ
कायाकल्प – कायापलट , शरीर – कल्प , काया – कल्प, पुनरुद्धार
निवास – आवास , घर , मकान , वास
कुतूहल – क्रींडा , खिलवाड़ ,आश्चर्य , अचंभा
नववधू – नई दुल्हन
आगमन – प्रवेश ,आना
स्वाभाविक – प्राकृतिक या प्रकृति स्वभाव आदत
रागिनी – राग , संगीत
अलापने – सुर खींचना , तान लगाना , गाने से पहले आवाज़ का उतार चढ़ाव करना , लय ठीक करना , सुर मिलना , तकलीफ़ से कराहना , चीख़ना
सभ्य – आदरणीय , संस्कारी
निरीक्षण – जाँचना , जाँच – परख करना
भलीभाँति – अच्छी प्रकार से

नोट –  इस गद्यांश में , जब लेखिका ने मोर के दोनों बच्चों को दूसरे पशु – पक्षियों के साथ एक ही जाली के बड़े घर में रख दिया था तब उन पशु – पक्षियों द्वारा किए गए व्यवहार का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – जब लेखिका ने मोर ने दोनों बच्चों को अपने पढ़ने – लिखने वाले कमरे में रखा था तब उन दोनों ने लेखिका के कमरे को पढ़ने – लिखने वाले कमरे से बदल कर चिड़ियाघर का रूप दे दिया था , तब लेखिका ने बड़ी कठिनाई से उन दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचा दिया था जो लेखिका के द्वारा पाले जा रहे जीव – जंतुओं का सामान्य निवास था। अर्थात लेखिका के सभी पालतू जीव – जन्तु उस जाली के बड़े घर में रखे गए थे। जब लेखिका ने उन दोनों मोर के बच्चों को उस जाली के बड़े घर में रखा तो उन दोनों के नए होने की वजह से उस जाली के घर में पहले से रहने वाले पशु – पक्षियों में उन दोनों को ले कर  वैसा ही आश्चर्य जाएगा जैसा आश्चर्य परिवार के लोगो में उस समय जागता है जब परिवार में किसी नई दुल्हन का आगमन होता है। लेखिका के पालतू लक्का कबूतर अपना नाचना छोड़कर उन दोनों मोर के बच्चों की ओर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम – घूमकर गुटरगूँ – गुटरगूँ का संगीत गुनगुनाने लगे। लेखिका के पालतू खरगोशों में से बड़े खरगोश संस्कारी सभा – जनों के समान पंक्ति में बैठकर गंभीर भाव से उन दोनों की जाँच – परख करने लगे। छोटे खरगोश जब उन दोनों के चारों ओर उछलकूद मचा रहे थे तब वे ऐसे लग रहे थे जैसे ऊन की गेंद उछल रही हों। लेखिका के पालतू तोते उन्हें अच्छे से देखने के लिए एक आँख बंद करके उनकी जाँच – परख करने लगे थे। लेखिका कहती हैं कि जिस दिन लेखिका ने उन दोनों मोर के बच्चों को उस जाली के बड़े घर में रखा था उस दिन लेखिका के उस छोटे से चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया था क्योंकि वे दोनों सभी के लिए अनोखे और नए थे।

पाठ – धीरे – धीरे दोनों मोर के बच्चे बढ़ने लगे। उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमशः और रंगमय था जैसा इल्ली से तितली का बनना।
मोर के सिर की कलगी और सघन , ऊँची तथा चमकीली हो गई। चोंच अधिक बंकिम और पैनी हो गई , गोल आँखों में इंद्रनी की नीलाभ द्युति झलकने लगी। लंबी नील – हरित ग्रीवा की हर भंगिमा में धूपछाँही तरंगें उठने – गिरने लगीं। दक्षिण – वाम दोनों पंखों में सलेटी और सफ़ेद आलेखन स्पष्ट होने लगे। पूँछ लंबी हुई और उसके पंखों पर चंद्रिकाओं के इंद्रधनुषी रंग उद्दीप्त हो उठे। रंग – रहित पैरों को गरवीली गति ने एक नयी गरिमा से रंजित कर दिया। उसका गरदन ऊँची कर देखना , विशेष भंगिमा के साथ उसे नीची कर दाना चुगना , पानी पीना , टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो सुकुमारता और सौंदर्य था , उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता है। गति का चित्र नहीं आँका जा सकता।

शब्दार्थ
क्रमशः – . नियत क्रम के अनुसार , क्रमानुसार , बारी – बारी से , एक – एक कर के , धीरे – धीरे , थोड़ा – थोड़ा कर के
रंगमय – रंगों से पूर्ण , रंगों से भरा हुआ
इल्ली – चींटियों , कीट – पतंगों , तितलियों आदि के अंडे से निकलने के बाद की अवस्था , रेंगकर चलने वाला एक छोटा – पतला सफ़ेद कीड़ा
कलगी – कुछ पक्षियों के सिर पर बने परों , बालों आदि का गुच्छा , टोपी – पगड़ी या ताज पर लगाए जाने वाले सुंदर एवं कोमल गुच्छे , मुर्गे या मोर के सिर पर की चोटी
सघन –  घना , गझिन , ठोस
बंकिम –  तिरछा , टेढ़ा , बाँका
पैनी – नुकीली , तेज़ , तीक्ष्ण , कुशाग्र
द्युति – चमक , आभा , कांति , लावण्य , सौंदर्य,  छवि , किरण
नील – हरित – नीली और हरी
ग्रीवा –  सिर व धड़ को जोड़ने वाला शरीर का भाग , गला , गरदन
भंगिमा – . कला पूर्ण शारीरिक मुद्रा , स्त्रियों के हाव – भाव या कोमल चेष्टाएँ , कुटिलता ,  वक्रता
धूपछाँही – धूप और छाँव जैसी
आलेखन – लेखन – क्रिया , लिखना , तस्वीर बनाना , चित्रांकन
उद्दीप्त – भड़काया अथवा जगाया हुआ , उत्तेजित , प्रज्वलित , चमकता हुआ।  चमकीला , जाग्रत किया हुआ
गरिमा – गुरुत्त्व , भारीपन , महत्व , गौरव , गर्व , शेखी , आत्मश्लाघा
रंजित –  रँगा हुआ , आनंदित , प्रसन्न , अनुरक्त
सुकुमारता – कोमलता , यौवन , जवानी , यौवनकाल


नोट – इस गद्यांश में लेखिका मोर के बच्चे का एक विकसित मोर में बदलने के दौरान आए उसमें परिवर्तन का अद्भुत वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या – लेखिका मोर के बच्चों के विकास का वर्णन करते हुए कहती हैं कि समय बीतने के साथ धीरे – धीरे दोनों मोर के बच्चे बड़े होने लगे। उनका शारीरिक विकास वैसा ही क्रम के अनुसार और रंगों से भरपूर था जैसा ककून से तितली के बनने की प्रक्रिया के दौरान होता है , कहने का तात्पर्य यह है कि उन मोर के बच्चों का शारीरिक विकास बहुत सुंदर तरीके से हो रहा था। लेखिका मोर के नर बच्चे के विकास का वर्णन करते हुए कहती है कि मोर के सिर पर बनी चोटी और भी घनी , ऊँची तथा चमकीली हो गई थी। उसकी चोंच पहले से कहीं अधिक तिरछी और नुकीली हो गई थी , उसकी गोल आँखों में इंद्रनी की नीलाभ जैसी  चमक  झलकने लगी थी। उसकी लंबी नीली और हरी गरदन की हर कोमल चेष्टायों में धूप और छाँव जैसी तरंगें उठने – गिरने लगीं थी। दक्षिण – वाम दोनों पंखों में सलेटी और सफ़ेद चित्रांकन स्पष्ट होने लगे थे। उसकी पूँछ समय बीतने के साथ ही लंबी हुई और उसके पंखों पर बने चंद्रिकाओं में अब इंद्रधनुषी रंग प्रकट हो उठे थे। उसके पैर जिनमें कोई रंग नहीं था उन रंग – रहित पैरों को भी उसकी गरवीली गति ने एक नया गौरव और प्रसन्नता प्रदान कर दी थी। उसकी हर चेष्टा अपने आप में आकर्षक थी जैसे – उसका गरदन ऊँची कर देखना , विशेष भंगिमा के साथ गर्दन नीची कर दाना चुगना , सतर्क हो कर पानी पीना , गर्दन को टेढ़ी करके शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो कोमलता और सौंदर्य था , उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता था। कहने का तात्पर्य कि मोर का वह विकसित होता रूप तभी अच्छे से महसूस किया जा सकता है जब आप स्वयं किसी मोर को बड़ा होते हुए देखेंगे क्योंकि इस तरह से किसी के भी विकास को चित्र या अक्षरों द्वारा मापा नहीं जा सकता।

पाठ – मोरनी का विकास मोर के समान चमत्कारिक तो नहीं हुआ – परंतु अपनी लंबी धूपछाँही गरदन , हवा में चंचल कलगी , पंखों की श्याम – श्वेत पत्रलेखा , मंथर गति आदि से वह भी मोर की उपयुक्त सहचारिणी होने का प्रमाण देने लगी।
नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा।

शब्दार्थ
चमत्कारिक – अलौकिक , विलक्षण
मंथर गति – धीमी गति , मंद गति , रुक – रुक कर चलना
सहचारिणी – साथ में रहने वाली, सहचरी, सखी , पत्नी
प्रमाण – सबूत , साक्ष्य
नीलाभ – जिसमें नीले रंग की आभा या झलक हो , हलका नीला


नोट – इस गद्यांश में लेखिका ने मोरनी के विकास का वर्णन किया है।

व्याख्या – लेखिका मोरनी के विकसित होने पर उसमें आए परिवर्तनों का वर्णन करते हुए कहती हैं कि मोरनी का विकास मोर के समान अलौकिक यानि अद्भुत तरीके से तो नहीं हुआ था , परंतु उसमें भी कई सुन्दर बदलाव आए थे जिसमें उसकी लंबी धूपछाँही गरदन , हवा में लगातार हिलते रहने वाली कलगी , पंखों की काली – सफेद धारियाँ , अपनी धीमी चाल आदि से वह भी मोर की समान ही अद्भुत लगती थी और मोर की साथी  होने का सबूत देने लगी थी। लेखिका मोर के बच्चों के नाम रखने के पीछे के तथ्य समझाती हुई कहती है कि गरदन में हलके नीले रंग की आभा या झलक होने के कारण मोर का नाम नीलकंठ रखा गया और उसकी छाया के समान उसके साथ रहने के कारण मोरनी का नामकरण राधा हुआ था।

पाठ – मुझे स्वयं ज्ञात नहीं कि कब नीलकंठ ने अपने आपको चिड़ियाघर के निवासी जीव – जंतुओं का सेनापति और संरक्षक नियुक्त कर लिया। सवेरे ही वह सब खरगोश , कबूतर आदि की सेना एकत्र कर उस ओर ले जाता जहाँ दाना दिया जाता है और घूम – घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता। किसी ने कुछ गड़बड़ की और वह अपने तीखे चंचु – प्रहार से उसे दंड देने दौड़ा।
खरगोश के छोटे बच्चों को वह चोंच से उनके कान पकड़कर ऊपर उठा लेता था और जब तक वे आर्तक्रंदन न करने लगते उन्हें अधर में लटकाए रखता। कभी – कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कर्णवेध संस्कार हो जाता था , पर वे फिर कभी उसे क्रोधित होने का अवसर न देते थे। दंडविधान के समान ही उन जीव – जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था। प्रायः वह मिट्टी में पंख फैलाकर बैठ जाता और वे सब उसकी लंबी पूँछ और सघन पंखों में छुआ – छुऔअल – सा खेलते रहते थे।

शब्दार्थ
निवासी – किसी क्षेत्र में रहने या निवास करने वाला , रहने या बसने वाला
सेनापति – सेना का नेतृत्व करने वाला अधिकारी , सेना का अगुआ , सेनानायक
संरक्षक – वह जो भरण – पोषण , देख – रेख आदि करता हो , अभिभावक , गार्जियन , आश्रय या शरण देने वाला
नियुक्त – किसी काम पर लगाया हुआ , तैनात या मुकर्रर किया हुआ , जो किसी पद पर रखा गया हो , नियोजित
एकत्र – एक स्थान पर जमा , इकट्ठा , एक जगह संगृहीत
चंचु – प्रहार – चोंच से हमला
आर्तक्रंदन – दिल की अतल गहराई से निकल कर , दबी , धीमी आवाज़ में , करुणा और व्यथा से लिप्त
अधर – नीचे का होंठ , शून्य , अंतरिक्ष  , शरीर का निचला भाग
कर्णवेध – कान को छेदना
दंडविधान – दंड की व्यवस्था , जुर्म और सज़ा का कानून
छुआ – छुऔअल – एक प्रकार का लुका – छुपी का खेल


नोट – इस गद्यांश में लेखिका मोर का दूसरे जीव – जंतुओं के साथ व्यवहार का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि वे हमेशा अपने सभी पालतू पशु – पक्षियों की देखरेख करती थी परन्तु उन्हें खुद भी यह ज्ञात नहीं कि कब नीलकंठ ने अपने आपको लेखिका के चिड़ियाघर का स्थाई सदस्य बना लिया और कब उसने अपने आप को सभी जीव – जंतुओं का सेनानायक और आश्रय या शरण देने वाला तैनात कर लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि मोर अब सभी पशु – पक्षियों पर हुकूमत करने लगा था। सुबह होते ही वह सब खरगोश , कबूतर आदि की सेना को इकठ्ठा कर के उस ओर ले जाता जहाँ दाना दिया जाता था और फिर चारों और घूमता रहता था। ऐसा लगता था जैसे वह घूम – घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता हो। यदि कोई पशु या पक्षी किसी प्रकार की कोई गड़बड़ करता तो वह अपने तीखे चोंच के हमले से उसे दंड देने दौड़ पड़ता था। खरगोश के छोटे बच्चों को वह अपनी चोंच से उनके कान पकड़कर ऊपर उठा लेता था और जब तक वे बहुत ज्यादा दर्द से चिल्लाने नहीं लगते तब तक उन्हें अपनी चोंच में लटकाए रखता था। कभी – कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कान छेदन का संस्कार हो जाता था अर्थात उनके नाजुक कानों में उसकी चोंच से छेद हो जाता था। मोर के इस व्यवहार के कारण वे फिर कभी उसे क्रोधित होने का अवसर नहीं देते थे। सभी को सज़ा देने के समान ही उन जीव – जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था। कहने का तात्पर्य यह है कि भले ही वह सभी जीव – जंतुओं को सज़ा देता रहता हो परन्तु वह सभी से प्यार भी बहुत करता था। प्रायः वह मिट्टी में पंख फैलाकर बैठ जाता था और वे सब उसकी लंबी पूँछ और घने पंखों में लुका – छुपी सा खेलते रहते थे।

पाठ –  ऐसी ही किसी स्थिति में एक साँप जाली के भीतर पहुँच गया। सब जीव – जंतु भागकर इधर – उधर छिप गए , केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड़ में आ गया। निगलने के प्रयास में साँप ने उसका आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था , शेष आधा जो बाहर था , उससे चीं – चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को स्पष्ट सुनाई दे सके। नीलकंठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। उसी के चौकन्ने कानों ने उस मंद स्वर की व्यथा पहचानी और वह पूँछ – पंख समेटकर सर से एक झपट्टे में नीचे आ गया। संभवतः अपनी सहज चेतना से ही उसने समझ लिया होगा कि साँप के फन पर चोंच मारने से खरगोश भी घायल हो सकता है।
उसने साँप को फन के पास पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने प्रहार किए कि वह अधमरा हो गया। पकड़ ढीली पड़ते ही खरगोश का बच्चा मुख से निकल तो आया , परंतु निश्चेष्ट – सा वहीं पड़ा रहा।
राधा ने सहायता देने की आवश्यकता नहीं समझी , परंतु अपनी मंद केका से किसी असामान्य घटना की सूचना सब ओर प्रसारित कर दी। माली पहुँचा , फिर हम सब पहुँचे। नीलकंठ जब साँप के दो खंड कर चुका , तब उस शिशु खरगोश के पास गया और रातभर उसे पंखों के नीचे रखे उष्णता देता रहा। कार्तिकेय ने अपने युद्ध – वाहन के लिए मयूर को क्यों चुना होगा , यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है।
मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी है , हिंसक मात्र नहीं। इसी से उसे बाज़ , चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता , जिनका जीवन ही क्रूर कर्म है।

शब्दार्थ
चौकन्ने – चारों ओर की आहट लेता हुआ , सतर्क , चौकस , सावधान , होशियार
व्यथा – मानसिक या शारीरिक क्लेश , पीड़ा , वेदना , चिंता , कष्ट
सहज – जो किसी के साथ उत्पन्न हुआ हो , जन्मजात , सरल , सुगम , स्वाभाविक , सामान्य , साधारण
निश्चेष्ट – जिसमें चेष्टा या गति न हो , चेष्टारहित , बेहोश , अचेत , मूर्छित , स्थिर , अचल , निश्चल
केका –  मयूर की बोली , मोर की कूक या पुकार
असामान्य – जो सामान्य न हो , असाधारण , गैरमामूली , भिन्न , विचित्र , विक्षिप्त
प्रसारित – फैलाया हुआ , पसारा हुआ , विस्तृत , प्रदर्शित
उष्णता –  तपन , गरमी , ताप
हिंसक – हिंसा करने वाला , दूसरों की बुराई चाहने और करने वाला , कष्ट पहुँचाने वाला , पीड़ित करने वाला , घातक
क्रूर – निर्दय , हिंसक कार्य करने वाला

नोट – इस गद्यांश में लेखिका मोर के द्वारा खरगोश के छोटे बच्चे का साँप से बचाए जाने का वर्णन कर रहीं हैं।

व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि एक दिन जब सभी पशु – पक्षी अपने कामों में व्यस्त थे और मोर भी झूले में आराम कर रहा था तो ऐसी ही स्थिति में एक साँप कहीं से जाली के भीतर पहुँच गया। सब जीव – जंतु उस साँप को देखकर इधर – उधर भाग गए और कहीं छिप गए , केवल एक छोटा खरगोश का बच्चा उस साँप की पकड़ में आ गया। वह साँप उस छोटे से बच्चे को निगलने का प्रयास करने लगा और उसी प्रयास में साँप ने उस बच्चे का आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था बाकि शेष आधा जो बाहर था , उससे चीं – चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को अच्छे से सुनाई दे सके और वह उसकी मदद करे। नीलकंठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। वहाँ तक उस छोटे से बच्चे के धीमे स्वर न के बराबर पहुँच रहे थे परन्तु नीलकंठ के सतर्क कानों ने उस धीमे स्वर की पीड़ा  को पहचान लिया और वह अपनी पूँछ – पंख समेटकर झट से एक झपट्टे में नीचे आ गया। कहने का तात्पर्य यह है कि नीलकंठ ने उस धीरे से आती आवाज से ही समझ लिया था कि कोई किसी मुसीबत में है और वह हर बार की तरह सभी का रक्षक बन कर उस आवाज की और बढ़ गया ताकि वह मुसीबत में पड़े अपने परिवार के सदस्य की मदद कर सके। यह भी संभव है कि नीलकंठ ने अपनी जन्मजात चेतना से ही समझ लिया होगा कि यदि वह सीधे साँप के फन पर चोंच मारेगा तो उस से खरगोश का बच्चा भी घायल हो सकता है। इसी कारण वश उसने साँप को फन के पास से पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने हमले किए कि वह साँप लगभग अधमरा हो गया। जैसे ही अधमरा होने के कारण उसकी ढीली पड़ी वैसे ही खरगोश का बच्चा उस साँप के मुख से निकल तो आया , परंतु बेहोश – सा वहीं पड़ा रहा। राधा ने साँप को मारने में नीलकंठ की सहायता करने की आवश्यकता नहीं समझी , परंतु उसने अपनी धीमी कूक से किसी असाधारण घटना की सूचना सब ओर फैला दी। राधा की कूक से माली भी वहाँ पहुँचा और फिर लेखिका और दूसरे लोग भी वहाँ पहुँचे। लेखिका बताती हैं कि नीलकंठ जब साँप के दो टुकड़े कर चुका , तब उस खरगोश के बच्चे के पास गया और रातभर उसे अपने पंखों के नीचे रख कर उसे गर्मी देता रहा। लेखिका मोर की प्रशंसा करते हुए कहती हैं कि भगवान् कार्तिकेय ने अपने युद्ध – वाहन के लिए मोर को क्यों चुना होगा , यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है। क्योंकि मोर एक कलाप्रिय वीर पक्षी है , वह केवल हिंसा करने वाला या दूसरों की बुराई चाहने और करने वाला नहीं है। इसी कारण से मोर को बाज़ , चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि इन पक्षियों का जीवन ही हिंसक कार्य करने वाला है।

पाठ – नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थीं ही , उनका मानवीकरण भी हो गया था। मेघों की साँवली छाया में अपने इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को मंडलाकार बनाकर जब वह नाचता था , तब उस नृत्य में एक सहजात लय – ताल रहता था। आगे – पीछे , दाहिने – बाएँ क्रम से घूमकर वह किसी अलक्ष्य सम पर ठहर – ठहर जाता था।
राधा नीलकंठ के समान नहीं नाच सकती थी , परंतु उसकी गति में भी एक छंद रहता था। वह नृत्यमग्न नीलकंठ की दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बाईं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर। इस प्रकार उसकी परिक्रमा में भी एक पूरक ताल – परिचय मिलता था। नीलकंठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य मुझे बहुत भाता है , यह तो नहीं बताया जा सकता , परंतु अचानक एक दिन वह मेरे जालीघर के पास पहुँचते ही अपने झूले से उतरकर नीचे आ गया और पंखों का सतरंगी मंडलाकार छाता तानकर नृत्य की भंगिमा में खड़ा हो गया। तब से यह नृत्य – भंगिमा नित्य का क्रम बन गई। प्रायः मेरे साथ कोई – न – कोई देशी – विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की मुद्रा को अपने प्रति सम्मानपूर्वक समझकर विस्मयाभिभूत हो उठता था। कई विदेशी महिलाओं ने उसे ‘ परफेक्ट जेंटिलमैन ’ की उपाधि दे डाली। जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड – खंड कर सकता था , उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले – हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी और विस्मय भी होता था। फलों के वृक्षों से अधिक उसे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष भाते थे।

शब्दार्थ
जातिगत – जाति के आधार पर , जाति संबंधी
मंडलाकार – जो मंडल के आकार का हो , गोलाकार , गोला , चक्राकार
सहजात – साथ – साथ जन्म लेने वाला या उत्पन्न होने वाला , समवयस्क , सहोदर , एक ही माता – पिता से पैदा हुए
अलक्ष्य –  जिसे लक्ष्य न बनाया गया हो अथवा जिस पर ध्यान न दिया गया हो , जो चिह्नित न किया जा सके , चिह्नरहित , अज्ञेय
सम – बराबर , एक – सा , एक ही , समकोटीय , एकरूप जिसका तल बराबर हो
नृत्यमग्न – नाच में खोए हुए
परिक्रमा –  किसी स्थान या वस्तु के चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना , प्रदक्षिणा , फेरी
पूरक –  पूरा करने वाला , तुष्ट करने वाला
सतरंगी – सात रंगों से पूर्ण , सात रंगों वाला
नित्य – हमेशा , हर रोज
हौले – हौले  – धीरे – धीरे
विस्मय –  आश्चर्य , ताज़्ज़ुब , अचंभा
पुष्पित – पुष्पों से युक्त , विकसित , खिला हुआ , जिसमें फूल लगे हों
पल्लवित – जिसमें पल्लव लगे हों , जिसमें नए पत्ते निकल रहे हों , जो हरा – भरा एवं लहराता हुआ हो

नोट – इस गद्यांश में लेखिका ने नीलकंठ और राधा की विशेषताओं का अद्भुत वर्णन किया है।

व्याख्या – लेखिका नीलकंठ की प्रशंसा करते हुए कहती है कि नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ अर्थात मोर की स्वभाविक विशेषताएँ तो उसमें थीं ही साथ ही साथ उनका मानवीकरण भी हो गया था अर्थात उसकी सभी विशेषताओं में मानव की तरह भावनाएँ प्रदर्शित हो रहीं थी। लेखिका उसके नृत्य की प्रशंसा करते हुए कहती हैं कि जब वह बादलों की साँवली छाया में अपने इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को गोलाकार बनाकर नाचता था , तब उस नृत्य में एक ऐसा लय – ताल रहता था जिसे देखकर ऐसा लगता था जैसे उसके नृत्य ने भी उसी साथ जन्म लिया हो। आगे – पीछे , दाहिने – बाएँ घूमकर वह बीच – बीच में बिना किसी लक्ष्य के एक ही लय में ठहर जाता था। राधा नीलकंठ के तरह तो नहीं नाच सकती थी , परंतु उसकी गति अर्थात उसके नृत्य में भी एक छंद रहता था। वह नाच में खोए हुए नीलकंठ की दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बाईं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर चली आती थी। इस प्रकार उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाने में भी एक ऐसा ताल – परिचय मिलता था जो अपने आप में पूरा मालूम पड़ता था। लेखिका को नीलकंठ का नृत्य बहुत अच्छा लगता था परन्तु नीलकंठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य लेखिका को बहुत अच्छा लगता है , यह तो लेखिका हमें नहीं बता सकती , परंतु अचानक एक दिन जब लेखिका नीलकंठ का नृत्य देखने जालघर के पास पहुँची तो लेखिका को देखते ही नीलकंठ अपने झूले से उतरकर नीचे आ गया और अपने सात रंगों से पूर्ण पंखों का सतरंगी गोलाकार छाता तानकर नृत्य की मुद्रा में खड़ा हो गया। उसके बाद से ही यह नृत्य की मुद्रा का क्रम हमेशा बना  रहा। अर्थात अब जब भी लेखिका जलीघर के पास आती तब नीलकंठ नृत्य की मुद्रा बना देता। हमेशा लेखिका के साथ कोई – न – कोई देशी – विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की नृत्य मुद्रा को अपने प्रति सम्मान समझकर उनका हृदय आनन्दित हो उठता था। कई विदेशी महिलाओं ने उसे ‘ परफेक्ट जेंटिलमैन ’ की उपाधि दे डाली। अपनी जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विष धारक साँप के टुकड़े – टुकड़े कर सकता था , उसी नुकीली पैनी चोंच से वह लेखिका की हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से धीरे – धीरे उठाकर खाता था कि लेखिका को हँसी भी आती थी और आश्चर्य भी होता था। क्योंकि लेखिका यह समझ नहीं पाती थी कि जो चोंच किसी को नुक्सान पहुँचा सकती है वही कोमलता का गुण कैसे रख सकती है। नीलकंठ को फलों के वृक्षों से अधिक वो वृक्ष पसंद थे जिसमें फूल खिले हुए हों या जो हरा – भरा एवं लहराता हुआ हो।

पाठ – वंसत में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे , अशोक नए लाल पल्लवों से ढँक जाता था , तब जालीघर में वह इतना अस्थिर हो उठता कि उसे बाहर छोड़ देना पड़ता।
नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतू तो वर्षा ही थी। मेघों के उमड़ आने से पहले ही वे हवा में उसकी सजल आहट पा लेते थे और तब उनकी मंद केका की गूँज – अनुगूँज तीव्र से तीव्रतर होती हुई मानो बूँदों के उतरने के लिए सोपान – पंक्ति बनने लगती थी। मेघ के गर्जन के ताल पर ही उसके तन्मय नृत्य का आरंभ होता। और फिर मेघ जितना अधिक गरजता , बिजली जितनी अधिक चमकती , बूँदों की रिमझिमाहट जितनी तीव्र होती जाती , नीलकंठ के नृत्य का वेग उतना ही अधिक बढ़ता जाता और उसकी केका का स्वर उतना ही मंद्र से मंद्रतर होता जाता। वर्षा के थम जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर सुखाता। कभी – कभी वे दोनों एक – दूसरे के पंखों से टपकनेवाली बूँदों को चोंच से पी – पीकर पंखों का गीलापन दूर करते रहते। इस आनंदोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा , यह भी एक करुण कथा है।

शब्दार्थ
सुनहला – सोने के रंग का , सोने का सा
मंजरी – आम्र पुष्प , आम के बौर , नया कल्ला , कोंपल
अशोक – वर्ष भर हरा रहने वाला एक वृक्ष , कटुक
पल्लव – नए निकले हुए कोमल पत्तों का समूह या गुच्छा
सजल – जल से युक्त , भीगा हुआ
गूँज – अनुगूँज – प्रतिध्वनि , टकरा कर लौटने वाली ध्वनि , देर तक बरकरार रहने वाली ध्वनि
तीव्रतर – तेज़ी , तीक्ष्णता , प्रखरता , शीघ्रता
सोपान – सीढ़ी ,  ऊपर चढ़ने का रास्ता , मोक्ष प्राप्ति का उपाय
गर्जन – बादलों की गड़गड़ाहट , गुस्सा , युद्ध , फटकार , भर्त्सना
तन्मय – किसी काम में बहुत एकाग्र भाव से लगा हुआ , लीन , व्यस्त , समाधिस्थ
मंद्र – धीमा , मंद , मनोहर , सुंदर , प्रसन्न , गहरा , गंभीर ध्वनि
आनंदोत्सव – आनंद मनाना , ख़ुशी का उत्सव , जश्न
रागिनी – संगीत में किसी राग का परिवर्तित रूप
बेमेल – जिसका किसी से मेल न बैठता हो , अनमेल , अनमिल
करुण – करुणायुक्त , करुणा उत्पन्न करने वाला , दुःख


नोट – इस गद्यांश में लेखिका नीलकंठ और राधा के नृत्य का अद्भुत वर्णन किया है।

व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि जब वंसत ऋतू में आम के पेड़ सोने के रंग वाले आम्र पुष्पों से भर जाते थे और वर्ष भर हरे रहने वाले अशोक के वृक्ष नए निकले हुए कोमल पत्तों के समूह या गुच्छों से ढँक जाते थे , तब नीलकंठ जालीघर में इतना अधिक बेचैन हो उठता कि उसे बाहर छोड़ना ही पड़ता था। लेखिका बताती हैं कि नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतू वर्षा ऋतू ही थी। वर्षा ऋतू में बादलों के आने से पहले ही वे दोनों हवा से ही यह जान लेते थे कि वे बादल जल से युक्त हैं और तब उन दोनों की धीमे से कूंक की आवाज धीरे – धीरे तेज़ से और तेज़ होती हुई ऐसी प्रतीत होती थी मानो उनकी आवाज़ कहीं दूर जा कर टकरा कर लौट रही हों और उन्हें देख कर लगता था जैसे वे बारिश की बूँदों के उतरने के लिए मोक्ष प्राप्ति का रास्ता बनने लगे हों। बादलों की गड़गड़ाहट के ताल पर ही नीलकंठ के एकाग्र रूप से करने वाले नृत्य की शुरुआत होती थी। और फिर बादलों की गड़गड़ाहट जितनी अधिक होती , बिजली जितनी अधिक चमकती , बूँदों की रिमझिमाहट जितनी तेज़ होती जाती , नीलकंठ के नृत्य में उतनी ही अधिक तीव्रता आती और वह उतना ही अधिक नृत्य करने लगता। उसके नृत्य के साथ ही उसकी कूंक का स्वर उतना ही धीरे से और धीरे होता जाता। बारिश के रुक जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर उन्हें सुखाता था। कभी – कभी नीलकंठ और राधा दोनों ही एक – दूसरे के पंखों से टपकने वाली बारिश की बूँदों को चोंच से पी – पीकर पंखों का गीलापन दूर करते रहते थे। लेखिका कहती हैं कि नीलकंठ और राधा के इस ख़ुशी के उत्सव की संगीत बेला में अनमेल स्वर कैसे बज उठा अर्थात उन दोनों के बीच कैसे दूरियाँ आ गई , इसके पीछे भी एक करुणा उत्पन्न करने वाली कहानी है।

पाठ – एक दिन मुझे किसी कार्य से नखासकोने से निकलना पड़ा और बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक लिया। इस बार किसी पिंजड़े की ओर नहीं देखूँगी , यह संकल्प करके मैंने बड़े मियाँ की विरल दाढ़ी और सफ़ेद डोरे से कान में बंधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केंद्र बनाया। पर बडे़ मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना कठिन था। मोरनी राधा के समान ही थी। उसके मूँज से बँधे दोनों पंजों की उँगलियाँ टूटकर इस प्रकार एकत्रित हो गई थीं कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी।
बड़े मियाँ की भाषण – मेल फिर दौड़ने लगी – ” देखिये गुरु जी , कमबख्त चिड़ीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है। ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है ! आप न आई होतीं तो मैं उसी के सिर पर इसे पटक देता। पर आपसे भी यह अधमरी मोरनी ले जाने को कैसे कहूँ ! “

शब्दार्थ
नखास – बाज़ार , प्राचीन काल में पशुओं एवं दासों के क्रय – विक्रय का स्थान
संकल्प –  दृढ़ निश्चय , प्रतिज्ञा , इरादा , विचार ,कोई कार्य करने की दृढ इच्छा या निश्चय
विरल – दुर्लभ , जो घना न हो , शून्य , रिक्त , ख़ाली , पतला , अल्प , थोड़ा , कम
मूँज – सरकंडे का पौधा , सरकंडों का छिलका जिससें रस्सी तैयार की जाती है


नोट – इस गद्यांश में लेखिका उसके जीवन में राधा के ही समान एक और मोरनी के आने का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि एक दिन लेखिका को किसी जरुरी काम से बाज़ार के उसी कोने से निकलना पड़ा जहाँ पशुओं और पक्षियों को ख़रीदा और बेचा जाता था। जैसे ही लिखिका की कार बड़े मियाँ की दूकान के पास पहुँची बड़े मियाँ ने पहले की ही तरह कार को रोक लिया। इस बार लेखिका ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि इस बार वह किसी पिंजड़े की ओर नहीं देखेगी , क्योंकि लेखिका को पशु – पक्षियों से बहुत प्यार था और वह किसी भी जीव – जन्तु को परेशानी में नहीं देख सकती थी जिस कारण उसके घर पर एक अच्छा ख़ासा चिड़ियाघर बन चूका था। किसी पिंजड़े की ओर न देखने का दृढ़ निश्चय करके लेखिका ने बड़े मियाँ की पतली दाढ़ी और सफ़ेद डोरे से कान में बंधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केंद्र बनाया ताकि उनका ध्यान इधर – उधर किसी कैद जीव पर न पड़े। परन्तु बडे़ मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना लेखिका के लिए कठिन था। वह मोरनी राधा के समान ही थी। उसके पंजों को सरकंडों के छिलके से तैयार रस्सी से बाँधा गया था , उसके दोनों पंजों की उँगलियाँ टूटकर इस प्रकार इकट्ठी हो गई थीं कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी। बड़े मियाँ की भाषण – मेल फिर से दौड़ने लगी और वे लेखिका को उस मोरनी के बारे में बताने लगे कि देखिये गुरु जी , कमबख्त चिड़ीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है। ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है क्या ? अगर लेखिका वहाँ न आई होतीं तो बड़े मियाँ के अनुसार वे इस मोरनी को उसी चिड़ीमार के सिर पर पटक देता अर्थात वे उससे इस मोरनी को न खरीदते। पर बड़े मियाँ को समझ नहीं आ रहा था कि वे लेखिका से कैसे कहे कि वे इस अधमरी मोरनी को ले जाएँ।

पाठ –  सारांश यह कि सात रूपए देकर मैं उसे अगली सीट पर रखवाकर घर ले आई और एक बार फिर मेरे पढ़ने – लिखने का कमरा अस्पताल बना। पंजों की मरहमपट्टी और देखभाल करने पर वह महीनेभर में अच्छी हो गई। उँगलियाँ वैसी ही टेढ़ी – मेढ़ी रहीं , परंतु वह ठूँठ जैसे पंजों पर डगमगाती हुई चलने लगी। तब उसे जालीघर में पहुँचाया गया और नाम रखा गया – कुब्जा। नाम के अनुरूप वह स्वभाव से भी कुब्जा ही प्रमाणित हुई। अब तक नीलकंठ और राधा साथ रहते थे। अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती। चोंच से मार – मारकर उसने राधा की कलगी नोच डाली , पंख नोच डाले। कठिनाई यह थी कि नीलकंठ उससे दूर भागता था और वह उसके साथ रहना चाहती थी। न किसी जीव – जंतु से उसकी मित्राता थी , न वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी। उसी बीच राधा ने दो अंडे दिए , जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। पता चलते ही कुब्जा ने चोंच मार – मारकर राधा को ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़कर ठूँठ जैसे पैरों से सब ओर छितरा दिए। इस कलह – कोलाहल से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की प्रसन्नता का अंत हो गया।

शब्दार्थ 
ठूँठ – बिना पत्तों या शाखाओं का वृक्ष , सूखा पेड़ , काटे गए या टूटे हुए पेड़ का धड़
छितराना – बिखेरना , फैलाना
कलह – कोलाहल – लड़ाई-झगड़ा , शोर – शराबा


नोट – इस गद्यांश में लेखिका कुब्जा नामक नई मोरनी के क्रूर व्यवहार का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि बड़े मियाँ के कहने के उपरान्त लेखिका ने उस अधमरी मोरनी को सात रूपए देकर खरीद लिया और उसे कार की अगली सीट पर रखवाकर घर ले आई और एक बार फिर से लेखिका ने अपने पढ़ने – लिखने के कमरे को अस्पताल बना दिया। लेखिका को महीने भर उस अधमरी मोरनी के पंजों की मरहमपट्टी और देखभाल करनी पड़ी तब जा कर वह अच्छी हो गई। उसकी वह टूटी उँगलियाँ तो सही नहीं हो पाई परन्तु वे वैसी ही टेढ़ी – मेढ़ी रहीं और उसके पंजे किसी काटे गए या टूटे हुए पेड़ के धड़ के समान लगते थे , परंतु वह उन पंजों से जैसे – तैसे डगमगाती हुई चलने लगी थी। तब उसे भी दूसरे पशु – पक्षियों के साथ जालीघर में पहुँचाया गया और उसका नाम कुब्जा रखा गया। यह नाम उसके रूप को देख कर रखा गया था और वह अपने नाम के अनुरूप ही  स्वभाव से भी कुब्जा ही प्रमाणित हुई। जब तक कुब्जा नहीं थी तब तक नीलकंठ और राधा साथ – साथ ही रहते थे। परन्तु अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती थी। चोंच से मार – मारकर उसने राधा की कलगी तक नोच डाली थी और उसके पंख भी नोच डाले थे। लेखिका उन सब की कठिनाई बताते हुए कहते हैं कि उन सब में कठिनाई यह थी कि नीलकंठ कुब्जा से दूर भागता था और कुब्जा नीलकंठ के साथ रहना चाहती थी। कुब्जा के व्यवहार के कारण न किसी जीव – जंतु से उसकी मित्राता थी और न ही वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी। समय इसी तरह बीत रहा था और उसी बीच राधा ने दो अंडे दिए , जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। जैसे ही कुब्जा को पता चला तो कुब्जा ने चोंच मार – मारकर राधा को अंडों के ऊपर से ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़ दिए उसके बाद अपने उन्हीं टूटे हुए पेड़ के धड़ के समान पैरों से सब ओर बिखरा दिए। इन लड़ाई – झगडे और शोर – शराबे से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की ख़ुशी का तो अंत ही हो गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि कुब्जा के आ जाने के कारण सभी जीव – जंतु परेशान हो गए थे और इसका सबसे ज्यादा असर नीलकंठ पर पड़ा था।

पाठ – कई बार वह जाली के घर से निकल भागा। एक बार कई दिन भूखा – प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा , जहाँ से बहुत पुचकारकर मैंने उतारा। एक बार मेरी खिड़की के शेड पर छिपा रहा।
मेरे दाना देने जाने पर वह सदा की भाँति पंखों को मंडलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था , पर उसकी चाल में थकावट और आँखों में एक शून्यता रहती थी। अपनी अनुभवहीनता के कारण ही मैं आशा करती रही कि थोड़े दिन बाद सबमें मेल हो जाएगा। अंत में तीन – चार मास के उपरांत एक दिन सवेरे जाकर देखा कि नीलकंठ पूँछ – पंख फैलाए धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है , जैसे खरगोश के बच्चों को पंखों में छिपाकर बैठता था। मेरे पुकारने पर भी उसके न उठने पर संदेह हुआ।
वास्तव में नीलकंठ मर गया था। ‘ क्यों ’ का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है। न उसे कोई बीमारी हुई , न उसके रंग – बिरंगे फूलों के स्तबक जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला। मैं अपने शाल में लपेटकर उसे संगम ले गई। जब गंगा की बीच धार में उसे प्रवाहित किया गया , तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिंबित – प्रतिबिंबित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा। नीलकंठ के न रहने पर राधा तो निश्चेष्ट – सी कई दिन कोने में बैठी रही। वह कई बार भागकर लौट आया था , अतः वह प्रतीक्षा के भाव से द्वार पर दृष्टि लगाए रहती थी। पर कुब्जा ने कोलाहल के साथ खोज – ढूँढ़ आरंभ की। खोज के क्रम में वह प्रायः जाली का दरवाजा खुलते ही बाहर निकल आती थी और आम , अशोक , कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। एक दिन आम से उतरी ही थी कि कजली ( अल्सेशियन कुत्ती ) सामने पड़ गई। स्वभाव के अनुसार उसने कजली पर भी चोंच से प्रहार किया। परिणामतः कजली के दो दाँत उसकी गरदन पर लग गए। इस बार उसका कलह – कोलाहल और द्वेष – प्रेम भरा जीवन बचाया न जा सका। परंतु इन तीन पक्षियों ने मुझे पक्षी – प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया है , वह मेरे लिए विशेष महत्त्व रखता है।
राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली है। आषाढ़ में जब आकाश मेघाच्छन्न हो जाता है तब वह कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक की डाल पर अपनी केका को तीव्रतर करके नीलकंठ को बुलाती रहती है।

शब्दार्थ
पुचकारना – प्यार से कहना , प्रेम से मनाना , स्नेह व्यक्त करना
अनुभवहीनता – अनुभवशून्यता , अनुभव आदि का न होना , संवेदनहीनता
संदेह –  संशय , शंका , शक
स्तबक – फूलों का गुच्छा , गुलदस्ता
प्रवाहित – बहता हुआ , बहाया हुआ , नदी की धारा में बह जाने के लिए छोड़ा हुआ , ढोया हुआ
प्रतिबिंब – जिस पर बिंब या प्रतिबिंब पड़ा हो
पाट – नदी का सूखा हुआ भाग
तरंगित – जिसमें लहरें या तरंगें उठ रही हों , तरंगयुक्त , लहराता हुआ , जो बार – बार नीचे गिरकर फिर ऊपर उठता हो
द्वेष – वैर का भाव , मनमुटाव , शत्रुता , चिढ़
दुकेली – जिसके साथ कोई दूसरा भी हो , जो अकेला न हो , बल्कि किसी के साथ हो
मेघाच्छन्न – बादलों से ढका हुआ , बादलों से छाया (घिरा) हुआ

नोट – इस गद्यांश में लेखिका नीलकंठ और कुब्जा की जिंदगी के दुखदाई अंत और राधा का नीलकंठ की मौत से अनजान होने के कारण उसका इन्तजार करने के दुखद अंत का अत्यधिक करुणापूर्ण रूप से वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या – लेखिका कहती हैं कि नीलकंठ कुब्जा से दुखी हो कर कई बार जाली के घर से निकल भागा था। एक बार तो वह कई दिनों तक भूखा – प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा , जहाँ से लेखिका द्वारा बहुत ज्यादा प्यार से कहने पर ही उसे उतारा जा सका था। एक बार लेखिका की खिड़की के शेड पर छिपा रहा। लेखिका कहती हैं कि जब लेखिका उसे दाना देने जाती थी तो वह हमेशा की ही तरह अपने पंखों का गोलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था , परन्तु अब उसमें वह पहले की तरह बात नहीं थी उसकी चाल में थकावट साफ़ नजर आती थी और उसकी आँखों में एक प्रकार की शून्यता रहती थी। अर्थात अब उसकी आँखों में कोई प्रसन्नता नहीं दिखती थी। लेखिका कहती हैं कि इन मामलों में उन्हें कोई अनुभव नहीं था जिसके कारण लेखिका यह आशा कर रही थी कि थोड़े दिन बाद सबमें मेल हो जाएगा अर्थात कुछ दिनों में सब आपस में मिलजुल कर रहने लगेंगे इसलिए लेखिका ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अंत में तीन – चार महीने  बीत जाने के बाद एक दिन सवेरे जब लेखिका नीलकंठ को देखने गई तब उन्होंने देखा कि नीलकंठ पूँछ – पंख फैलाए धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है , जैसे वह तब बैठता था जब वह खरगोश के बच्चों को पंखों में छिपाकर बैठता था। लेखिका ने नीलकंठ की ऐसी हालत देखकर उसे पुकारने लगी परन्तु लेखिका के बुलाए जाने पर भी वह नहीं उठा और उसके न उठने पर लेखिका को थोड़ा शक हुआ। वास्तव में नीलकंठ मर गया था। नीलकंठ के साथ अचानक ऐसा क्यों हुआ इसका उत्तर तो अब तक लेखिका को नहीं मिल सका है। क्योंकि नीलकंठ को न तो कोई बीमारी हुई थी , न उसके रंग – बिरंगे फूलों के गुलदस्ते जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला था , जिसके आधार पर कहा जा सके कि इस कारण नीलकंठ की मौत हुई हो। लेखिका ने नीलकंठ को अपने शाल में लपेटा और  उसे संगम ले गई। जब गंगा की बीच धार में उसे बह जाने के लिए छोड़ा गया , तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिंबित – प्रतिबिंबित होकर गंगा का चौड़ा सूखा हुआ भाग एक बड़े मोर के समान  लहराता हुआ प्रतीत हो रहा था। नीलकंठ के साथ न रहने पर राधा तो जैसे बेहोश सी   कई दिन एक कोने में बैठी रही। नीलकंठ पहले भी वह कई बार जाली के घर से भागकर वापिस लौट आया था , इसी कारण राधा इंतज़ार के भाव से दरवाज़े पर नजर लगाए रहती थी। अर्थात राधा को उम्मीद थी कि नीलकंठ वापिस लौट आएगा। इसके विपरीत कुब्जा ने शोर मचाते हुए नीलकंठ की खोज – खबर लेना शुरू कर दिया था। जब वह नीलकंठ को ढूँढ रही थी उसी खोज के क्रम में वह अक्सर जैसे ही जाली का दरवाजा खुलता था वह बाहर निकल आती थी और आम , अशोक , कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। एक दिन जब वह नीलकंठ को आम के पेड़ पेड़ ढूंढते हुए निचे उतरी ही थी कि कजली यानि लेखिका की अल्सेशियन कुत्ती उसके सामने आ गई। अपने स्वभाव के अनुसार कुब्जा ने कजली पर भी चोंच से हमला किया। जिसके परिणाम स्वरूप कजली के दो दाँत कुब्जा की गरदन पर लग गए। इस बार उसका शोर गुल मचाने वाला और शत्रुता और प्रेम भरा जीवन समाप्त हो गया अर्थात कुब्जा की भी मृत्यु हो गई। परंतु इन तीन पक्षियों ने लेखिका को पक्षी – प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया था , वह लेखिका के लिए विशेष महत्त्व रखता था। क्योंकि नीलकंठ , राधा और कुब्जा के साथ रहते हुए लेखिका को पक्षियों के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली थी। राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली रह गई है अर्थात अब राधा ही नीलकंठ की मृत्यु से अनजान उसका इन्तजार कर रही थी। आषाढ़ में जब आकाश बादलों से ढक जाता है तब राधा आज भी कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक वृक्ष की डाल पर अपनी कूंक को तेज़ करके नीलकंठ को बुलाती रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज भी राधा नीलकंठ का इन्तजार कर रही है , आज भी उसे नीलकंठ की मृत्यु का आभास तक नहीं है।

 

Neelkanth Question Answers (NCERT SOLUTIONS)

प्रश्न 1 – मोर – मोरनी के नाम किस आधार पर रखे गए ?
उत्तर – मोर की गर्दन का पिछला भाग नीला था जिस कारण उसका कंठ नीला दिखाई पड़ता था इसी कारण मोर का नाम नीलकंठ रखा गया और उसकी छाया के समान उसके साथ रहने के कारण मोरनी का नामकरण राधा हुआ।

प्रश्न 2 – जाली के बड़े घर में पहुँचने पर मोर के बच्चों का किस प्रकार स्वागत हुआ ?
उत्तर – मोर के दोनों शावकों को जब जाली के बड़े घर में लाया गया तब वहाँ पहले से रहने वाले पशु – पक्षियों में वैसा ही कुतूहल जगा जैसा नयी दुल्हन के आने  पर परिवार में आमतौर पर होता है। लक्का कबूतर नाचना छोड़कर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम – घूमकर गुटरगूँ – गुटरगूँ की रागिनी अलापने लगे। बड़े खरगोश सभ्य सभासदों के समान एक पंक्ति में बैठकर गंभीर भाव से उनका निरीक्षण करने लगे। ऊन की गेंद जैसे छोटे खरगोश उनके चारों ओर उछलकूद मचाने लगे। तोते मानो भलीभाँति देखने के लिए एक आँख बंद करके उनका परीक्षण करने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि मोर के दोनों बच्चे नयी नवेली दुल्हन की तरह जाली के बड़े घर में आए थे और जाली के घर में पहले से रहने वाले पशु – पक्षियों ने परिवार के सदस्य होने के नाते उन दोनों का अच्छे से स्वागत किया था।

 प्रश्न 3 – लेखिका को नीलकंठ की कौन – कौन सी चेष्टाएँ बहुत भाती थीं ?
उत्तर – नीलकंठ देखने में बहुत सुंदर था। नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थीं ही और उसकी हर चेष्टा अपने आप में आकर्षक थी लेकिन महादेवी वर्मा को नीलकंठ की और भी कई चेष्टाएँ भाती थीं जैसे –
गर्दन ऊँची करके देखना।
विशेष भंगिमा के साथ गर्दन नीची कर दाना चुगना।
सतर्क हो कर पानी पीना।
गर्दन को टेढ़ी करके शब्द सुनना।
मेघों की गर्जन ताल पर उसका इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को मंडलाकार बनाकर तन्मय नृत्य करना।
जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड – खंड कर सकता था , उसी से महादेवी वर्मा की हथेली पर रखे हुए भुने चने बड़ी ही कोमलता से हौले – हौले उठाना।
महादेवी के सामने पंख फैलाकर खड़े होना।

 प्रश्न 4 – इस आनंदोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा – वाक्य किस घटना की ओर संकेत कर रहा है ?
उत्तर – ” इस आनंदोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा ” , यह वाक्य उस घटना की ओर संकेत कर रहा है जब लेखिका ने बड़े मियाँ से एक अधमरी मोरनी खरीदी और उसे घर ले गई। उसका नाम कुब्जा रखा गया क्योंकि पैरों की चोट के ठीक हो जाने के बाद भी वह ठीक से नहीं चल पाती थी। उसे नीलकंठ और राधा का साथ रहना नहीं पसंद नहीं आता था। वह नीलकंठ के साथ रहना चाहती थी जबकि नीलकंठ उससे दूर भागता था। कुब्जा ने ईर्ष्या के कारण एक बार राधा के अंडे तोड़कर बिखेर दिए थे। इससे नीलकंठ की प्रसन्नता का अंत हो गया था क्योंकि उसकी राधा से दूरी बढ़ गई थी। कुब्जा ने नीलकंठ के शांतिपूर्ण जीवन में ऐसा कोलाहल मचाया कि दुःख सहन न कर पाने के कारण बेचारे नीलकंठ का अंत ही हो गया।

 प्रश्न 5 – वसंत ऋतु में नीलकंठ के लिए जालीघर में बंद रहना असहनीय क्यों हो जाता था ?
उत्तर – नीलकंठ और राधा को वसंत ऋतु सबसे अधिक प्रिय थी। वसंत ऋतु में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे और अशोक के वृक्ष नए पत्तों से ढक जाते थे तब नीलकंठ जालीघर में अस्थिर हो जाता था। वह वसंत ऋतु में किसी घर में बंदी होकर नहीं रह सकता था उसे फल वाले वृक्षों से कही अच्छे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष लगते थे। तब उसे बाहर छोड़ देना पड़ता था।

 प्रश्न 6 – जालीघर में रहने वाले सभी जीव एक – दूसरे के मित्र बन गए थे , पर कुब्जा के साथ ऐसा संभव क्यों नहीं हो पाया ?
उत्तर – जालीघर में रहने वाले सभी जीव – जंतु एक – दूसरे के मित्र बन गए थे , पर कुब्जा के साथ ऐसा संभव नहीं हो पाया , क्योंकि कुब्जा किसी से मित्रता करना नहीं चाहती थी। वह सबसे लड़ती रहती थी , उसे केवल नीलकंठ के साथ रहना पसंद था। वह और किसी को उसके पास नहीं जाने देती थी। किसी को उसके साथ देखते ही वह चोंच से मारना शुरू कर देती थी। उसके इसी आक्रमक स्वभाव के कारण कोई उसे पसंद नहीं करता था और न ही कोई उसका मित्र बन सका।

 प्रश्न 7 – नीलकंठ ने खरगोश के बच्चे को साँप से किस तरह बचाया ? इस घटना के आधार पर नीलकंठ के स्वभाव की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – एक बार एक साँप जालीघर के भीतर आ गया। सब जीव – जंतु साँप को देख कर भागकर इधर – उधर छिप गए , केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड़ में आ गया। साँप ने उसे निगलना चाहा और उसका आधा पिछला शरीर मुँह में दबा लिया। नन्हा खरगोश धीरे – धीरे चीं – चीं कर रहा था। सोए हुए नीलकंठ ने दर्दभरी व्यथा सुनी तो वह अपने पंख समेटता हुआ झूले से नीचे आ गया। अब उसने बहुत सतर्क होकर साँप के फन के पास पंजों से दबाया , क्योंकि उसके प्रहार से नन्हें खरगोश को भी चोट आ सकती थी और फिर अपनी चोंच से सतर्कता के साथ इतने प्रहार उस साँप पर किए कि वह अधमरा हो गया और फन की पकड़ ढीली होते ही खरगोश का बच्चा मुख से निकल आया। इस प्रकार नीलकंठ ने खरगोश के बच्चे को साँप से बचाया।
इस घटना के आधार पर नीलकंठ के स्वभाव की निम्न विशेषताएँ उभर कर सामने आती हैं –
सतर्कता – जालीघर के ऊँचे झूले पर सोते हुए भी उसे खरगोश के नन्हे बच्चे की धीमी – धीमी चीं – चीं की आवाज सुनाई पड़ी और उसे यह शक हो गया कि कोई प्राणी कष्ट में है और वह झट से झूले से नीचे उतरा। वहाँ की स्थिति को देखते ही बड़ी सावधानी से साँप पर प्रहार किया ताकि नन्हें बच्चे को हानि न पहुंचे।
वीरता – नीलकंठ एक कलाप्रिय प्राणी होने के साथ – साथ वीर प्राणी भी है। अकेले ही उसने साँप से खरगोश के बच्चे को बचाया और साँप के दो खंड (टुकड़े) करके अपनी वीरता का परिचय दिया।
कुशल संरक्षक – खरगोश को मृत्यु के मुँह से बचाकर उसने सिद्ध कर दिया कि वह कुशल संरक्षक है। उसके संरक्षण में किसी प्राणी को कोई भय न था।


 
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