70 Popular Dohe of Kabir with Meaning in Hindi
Kabir Ke Dohe – कबीर दास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी नामक स्थान में हुआ था। वे हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। उनकी वाणी को साखी, संबंध, ओर रमैनी तीनों रूपों में लिखा गया है। भले ही वे स्कूल नहीं गए थे, लेकिन वे बहुत होशियार थे। उनकी भोजपुरी, हिंदी, अवधी जैसे अलग-अलग भाषाओं में अच्छी पकड़ थी। उनके दोहे हमें एक अच्छा जीवन जीने का तरीका सिखाते हैं। हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन में उनकी रचनाएँ महत्वपूर्ण थी और वे अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी पाई जाती हैं। इस ब्लॉग में, हम कुछ प्रसिद्ध Kabir Ke Dohe (कबीर के दोहे) के बारे में अधिक जानेंगे जो हमें जीवन में सही राह चुनने में मदद कर सकते हैं।
दोहा – 1
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए।।
शब्दार्थ
डाकिनी – चुड़ैल, डायन
कलेजा – छाती
वैद – वैद्यकशास्त्र के अनुसार रोगियों की चिकित्सा करने वाला, विद्वान या पंडित
दवा – औषधि
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि चिंता एक ऐसी डायन है जो व्यक्ति का कलेजा काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। अर्थात चिंता जैसी खतरनाक बीमारी का कोई इलाज नहीं है।
दोहा – 2
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
शब्दार्थ
पंथी – पथिक, राही
अति – बहुत, सीमा के पार
भावार्थ:- कई लोगों को अपने बड़े होने अर्थात अपने गुणों पर बड़ा घमंड होता है। लेकिन जब तक व्यक्ति में विनम्रता नहीं होती उसके इन गुणों का कोई फायदा नहीं हैं। इस बात को कबीर दास ने एक उदाहरण द्वारा समझाया है। जिस प्रकार खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है लेकिन उससे न तो किसी व्यक्ति को छाया मिल पाती है और न ही उसके फल किसी के हाथ आते हैं।
दोहा – 3
कागा का को धन हरे, कोयल का को देय ।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।।
शब्दार्थ
कागा – कौआ
देय – देने योग्य
जग – संसार
भावार्थ:- कौआ किसी का धन नहीं चुराता, फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीं कोयल किसी को धन नहीं देती, लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फ़र्क़ है बोली का, कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।
दोहा – 4
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
शब्दार्थ
बुरा – ख़राब, निकृष्ट
कोय – कोई भी
भावार्थ:- कबीर कहते हैं कि जब मैं इस दुनिया में बुराई खोजने गया, तो मुझे कुछ भी बुरा नहीं मिला और जब मैंने खुद के अंदर झांका तो मुझसे खुद से ज्यादा बुरा कोई इंसान नहीं मिला।
दोहा – 5
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
शब्दार्थ
माली – बागवानी करने वाला व्यक्ति; माला बनाने वाला व्यक्ति; फूल बेचने वाला व्यक्ति
सींचे – पेड़-पौधों को पानी देना
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते है कि ऐ मन तुम धीरज रखो, क्योंकि धीरज से ही तुम्हें उस पद की प्राप्ति होगी जिसके लिए तुम भक्ति कर रहे हो, उदाहरण के तौर पर, जिस प्रकार माली हर दिन पानी देता है खाद देता है लेकिन जब फल लगने का समय आता है तभी फल लगता है, इसलिए कभी भी भक्ति कर रहे है, तो धीरज रखे सही से आंतरिक अभ्यास करते रहे एक दिन सत्यपुरुष का दर्शन जरूर मिलेगा।
दोहा – 6
रुखा सूखा खाइकै, ठंडा पानी पीव।
देख विरानी चूपड़ी, मन ललचावै जीव।।
शब्दार्थ
रुखा – जिसमें घी, तेल आदि चिकने पदार्थ न पड़े या न लगे हों (जैसे-रूखी रोटी)
सूखा – शुष्क, खुश्क
जीव – प्राण, जान
भावार्थ:- ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसी में संतोष करना चाहिए। यदि ईश्वर ने रूखी सूखी दो रोटी दी है तो उसे ही ख़ुशी से खाकर ठंडा पानी पीकर सो जाना चाहिए। दुसरो की घी की चुपड़ी रोटी देखकर मन नहीं ललचाना चाहिए।
दोहा – 7
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय।।
शब्दार्थ
मरि – मारना
भला – अच्छा, नेक
अजय – जिससे जीता न जा सके
अमर – न मरनेवाला
भावार्थ:- जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना – विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।
दोहा – 8
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
शब्दार्थ
पोथी – छोटी पुस्तक
जग – संसार, जगत्
मुआ – मरा हुआ, मृत
पंडित – निपुण, कुशल, विद्वान
ढाई – दो और आधा
आखर – अक्षर
भावार्थ:- बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ कर संसार में कितने लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, लेकिन सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
दोहा – 9
जिहिं घर साधु न पूजिये, हरि की सेवा नांहि।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन मांहि।।
शब्दार्थ
घर – निवास-स्थान
साधु – सज्जन व्यक्ति
हरि – भगवान, ईश्वर
सेवा – ख़िदमत
मरघट – चिता जलाने का स्थान
भूत – प्रेत, पिशाच
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि जिस घर में ईश्वर की भक्ति और साधुओं का सम्मान नहीं होता है, वह घर मरघट के समान होता है, वहाँ भूतों का निवास ही रहता है। अर्थात प्रत्येक सदगृहस्थ को अपने घर में साधुओं की सेवा और ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये।
दोहा – 10
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
शब्दार्थ
माला – गले में पहनने का हार, एक आभूषण, हार
जुग – युग
भावार्थ:- कोई व्यक्ति लंबे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
दोहा – 11
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात।।
शब्दार्थ
बुदबुदा – बुलबुला
अस – इस प्रकार का, ऐसा, तुल्य
मानस – मन, मन में उत्पन्न संकल्प विकल्प
ज्यों – जिस प्रकार, जिस तरह
परभात – प्रातःकाल, सबेरा
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं एक पानी के बुलबुले के समान हैं जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सब मोह माया और सारा अंधकार छिप जायेगा।
दोहा – 12
चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिए, सो जग साहन साह।।
शब्दार्थ
चाह – लालसा, इच्छा
चिंता – चिंतन करने का कार्य
बेपरवाह – जिसे किसी बात की परवाह न हो
जग – संसार, जगत्
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि यदि मनुष्य सुख चाहता है, अपनी चिंताए मिटाना चाहता है तो उसे अपनी इच्छाओं को समाप्त कर देना चाहिए। क्योंकि इच्छाएं समाप्त होने से मन की समस्त चिंताए समाप्त हो जाती है और उसका मन मस्त हो जाता है तथा उसको किसी बात की परवाह नहीं होती है। जिसे इस संसार में किसी वस्तु इच्छा नहीं होती है वही संसार के शाहो का शाह है।
दोहा – 13
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल।।
शब्दार्थ
विचारी – विचारशील
गुरुमुख – जिसने गुरु से मंत्र लिया हो, दीक्षित
निहाल – हर तरह से तृप्त, सफल–मनोरथ
काल – समय, अवसर, अवधि
भावार्थ:- गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
दोहा – 14
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय।।
शब्दार्थ
मिरतक – मृत शरीर, मरा हुआ
काया – शरीर, देह
माया – दया, ममता
बजाय – बदले में
भावार्थ:- जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।
दोहा – 15
‘कबीर’ संगत साधु की, हरै और की व्याधि।
संगत बुरी असाधु की, करै और ही व्याधि।।
शब्दार्थ
संगत – मंडली, दल
साधु – सज्जन व्यक्ति
असाधु – बुरा आदमी, असदाचारी
व्याधि – बीमारी
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि साधु की संगत सभी प्रकार की व्याधि को हरने वाली होती है जबकि असाधु की संगत व्याधि को बढ़ाने वाली होती है। अर्थात सज्जन व्यक्ति की संगत से जीवन सरल हो जाता है तथा दुर्जन व्यक्ति की संगत से जीवन और मुश्किल हो जाता है।
दोहा – 16
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
शब्दार्थ
तन – शरीर, देह
जोगी – साधु, योगी
सिद्धि – सफलता, निश्चय
भावार्थ:- शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है। यदि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
दोहा – 17
सरवर तरुबर संतजन, चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारो धरी देह।।
शब्दार्थ
सरवर – तालाब
तरुबर – वृक्ष, पेड़
संतजन – संत समाज; संत लोग
मेह – वर्षा
परमारथ – निष्ठापूर्वक कर्तव्य का निर्वहन करना
देह – शरीर
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि सरोवर, वृक्ष, संत व्यक्ति और वर्षा के मेघ यह चारों दूसरों की भलाई के लिये ही शरीर को धारण करते हैं।
दोहा – 18
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार ।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार।।
शब्दार्थ
सत्संगति – उत्तम साथ
सूप – अनाज फटकने के लिए बाँस एवं सरकंडे की तीलियों से बना एक पात्र
असार – व्यर्थ, सारहीन
विकार – ख़राबी
भावार्थ:- सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।
दोहा – 19
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आगे सिर पर काल।।
शब्दार्थ
गुरु – पूज्य पुरुष
आज्ञा – अनुमति
अटपटी – अजीब, अनोखी
चाल – गति
लोक – संसार
वेद – धार्मिक ज्ञान
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि जो गुरु के आदेशों को नहीं मानता है और मनमाने ठंग से चलता है उसके लोक परलोक दोनों बेकार हो जाते है तथा उसके सिर पर काल मंडराने लगता है।
दोहा – 20
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय ।।
शब्दार्थ
सुमिरन – स्मरण, ध्यान
सुख – आनंद , आराम, चैन
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता।
यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों !
दोहा – 21
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय।।
शब्दार्थ
गुरु – शिक्षक, पूज्य पुरुष
गोविंद – श्री कृष्ण, परमात्मा
दोऊ – दोनों
पाँय – चरण, पैर, कदम
बलिहारी – निछावर होना
भावार्थ:- कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि अगर हमारे सामने गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे? गुरु ने अपने ज्ञान से ही हमें भगवान से मिलने का रास्ता बताया है इसलिए गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर है और हमें गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए।
दोहा – 22
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
शब्दार्थ
सुख – आराम, चैन
बैकुंठ – भगवान विष्णु का आवास
संग – साथ, मिलन
भावार्थ:- जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्योंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।
दोहा – 23
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए।।
शब्दार्थ
निंदक – निंदा करनेवाला
नियेरे – पास
आँगन – घर के अंदर या सामने का खुला स्थान
कुटी – झोंपड़ी
निर्मल – साफ़, स्वच्छ
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि निंदक हमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो आपकी बुराइयाँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियां सुधार सकते हैं। इसलिए कबीर जी ने कहा है कि निंदक लोग इंसान का स्वभाव शीतल बना देते हैं।
दोहा – 24
माटी कहे कुम्भार से, तू क्यों रौदे मोए।
एक दिन ऐसा आएगा, मै रौंदूंगी तोए।।
शब्दार्थ
माटी – मिट्टी
कुम्भार – मिट्टी के बर्तन बनाने वाला
भावार्थ:- कबीर साहेब कहते है – माटी कुम्भार से कहता है जिस प्रकार तुम मुझे रौद रहे हो एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन मई तुम्हे रौंदूंगी ( जब इंसान मरता है तो उसकी शरीर जो मिटटी से ही बनी है वो वापस मिटटी में ही मिल जाती है ) इसी को मिटटी कहता है, के आज इस अभिमान को छोड़ दो क्यूंकि एक दिन तुमको भी मुझ में ही मिल जाना है यानि मिटटी में।
दोहा – 25
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।
शब्दार्थ
संचे – संग्रह, धन, जन
सीस – सिर, माथा
पोटली – छोटी गठरी
भावार्थ:- कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
दोहा – 26
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई।।
शब्दार्थ
बादल – मेघ
बरसा – बारिश
आतमा – आत्मा, मन
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं, प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पड़ा। जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा भरा हो गया। खुश हाल हो गया, यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है। हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते।
दोहा – 27
कबीर यह तनु जात है, सकै तो लेहू बहोरि।
नंगे हाथूं ते गए, जिनके लाख करोडि।।
शब्दार्थ
तनु – देह, शरीर
नंगे – नग्न, खुला हुआ
हाथूं – हाथ, भुजा
भावार्थ:- यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ, इसे संभाल लो। जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं। इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो। कुछ सार्थक भी कर लो, जीवन को कोई दिशा दे लो, कुछ भले काम कर लो।
दोहा – 28
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।।
शब्दार्थ
माया – दया, ममता
सरीर – देह, शरीर
आसा – आशा
त्रिसना – विशेष कामना रखनेवाला
भावार्थ:- कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
दोहा – 29
सो दिन गया अकाज में, संगत भई ना संत।
प्रेम बिना पशु जीवना, भाव बिना भटकन्त।।
शब्दार्थ
अकाज – कार्यहानि
संगत – मंडली, दल
संत – परम धार्मिक और साधु व्यक्ति
भाव – प्रीति, प्रेम, स्नेह
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि सैकड़ो दिन व्यर्थ गवा दिए और हमने एक भी दिन साधु की संगत नहीं करी। प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन पशु के सामान है जो बिना भावो के केवल इधर उधर भटकता रहता है।
दोहा – 30
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
शब्दार्थ
दुर्लभ – कठिनता से प्राप्त होनेवाला
मानुष – मनुष्य
देह – शरीर
बारम्बार – अनेक बार, पुनः-पुनः
तरुवर – वृक्ष; पेड़
झड़े – गिरना
डार – शाख़ा , डाल
भावार्थ:- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
दोहा – 31
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
शब्दार्थ
बोली – बोल, वचन
अनमोल – अमूल्य, कीमती
हिये – हृदय, मन
तराजू – सामान तौलने हेतु दो पलड़ों का बना एक यंत्र
मुख – प्राणी का मुँह, चेहरा
भावार्थ:- यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
दोहा – 32
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय।।
शब्दार्थ
शीतल – ठंडा
चंद्रमा – चाँद
हिम – बर्फ़
संत – सज्जन और महात्मा
जन – लोक, लोग
सनेही – प्रेम करनेवाला
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिमबर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
दोहा – 33
सच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप।।
शब्दार्थ
तप – तपस्या
जाके – जिसका
हृदय – छाती, सीना
आप – स्वयं, स्वतः, खुद
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते है कि सत्य के बराबर कोई तप नहीं है, और झूठ के बराबर कोई पाप नहीं है , और जिसका हृदय साँच है, यानी जिसके हृदय में कोई छल कपट नहीं है , जिसके हृदय में सभी के प्रति सम दया और प्रेम है , उसके हृदय में मालिक निवास करते है।
दोहा – 34
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।
शब्दार्थ
अबुध – मूर्ख, नासमझ
सुबुध – सरल
सुत – पुत्र, आत्मज, बेटा
मातु पितु – माता-पिता
प्रतिपाल – रक्षा करनेवाला, रक्षक
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि पुत्र ज्ञानी हो या अज्ञानी, अच्छा हो या बुरा जैसा भी हो, माता-पिता अपने पुत्र का पालन पोषण करते हैं। इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को पुत्र की भाँति अपनी मर्यादा में रहते हुए ज्ञान की सीख देता है।
दोहा – 35
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
शब्दार्थ
तन – शरीर, देह
विष – ज़हर, हलाहल
गुरु – शिक्षक , पूज्य पुरुष
अमृत – सुधा रस, न मरनेवाला
खान – ख़ज़ाना, भंडार
शीश – सिर, शिर, सर
सस्ता – कम मूल्य का
जान – समझ, जानकारी
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीशसर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
दोहा – 36
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।
शब्दार्थ
चलती – जो गति करता हो
चक्की – पीसने का यंत्र
पाटन – चीरने–फाड़ने, तोड़ने–फोड़ने की क्रिया
साबुत – जो खंडित न हुआ हो, ठीक, दुरुस्त
भावार्थ:- चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।
दोहा – 37
कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि परयौ भू लेटना, ऊपरि जामै घास।।
शब्दार्थ
अवास – ठिकाना, मंजिल
काल्हि – काल, आने वाला कल
भू – पृथ्वी
जामै – जमने या जमाने की क्रिया
घास – तृण, तिनका
भावार्थ:- कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो? कल या परसों ये ऊंचाइयां और आप भी धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे। और ऊपर से घास उगने लगेगी। वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है, इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए।
दोहा – 38
कबीरा गरब ना कीजिये, कभू ना हासिये कोय।
अजहू नाव समुद्र में, ना जाने का होए।।
शब्दार्थ
गरब – गर्व
कभू – कभी
नाव – नौका
भावार्थ:- मत करो, गर्व महसूस मत करो। कभी दूसरों पर हँसो मत। आपका जीवन सागर में एक जहाज है जिसे आप नहीं जानते कि अगले क्षण क्या हो सकता है।
दोहा – 39
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए।।
शब्दार्थ
गुरु – पूज्य पुरुष
गुण – निजी विशेषता, निपुणता
भावार्थ:- कबीर दास जी यह कहते हैं अगर वह पूरी धरती के बराबर इतना बड़ा कागज बना दे और दुनिया की सभी वृक्षों से कलम बना ले और सातों समुद्रों के बराबर सही बना ले तो भी वह गुरु के गुणों को लिखना असंभव है।
दोहा – 40
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए।।
शब्दार्थ
लालची – लोभी
भक्ति – सेवा, आराधना
सुरमा – योद्धा, बहादुर
जाती – जाति
कुल – परिवार, खानदान
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।
दोहा – 41
मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।।
शब्दार्थ
मलिन – जो माला बनाता है, फूल चुगता है
कलि – फूलों का प्रारंभिक एवं अविकसित रूप
भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं बगीचे में जब कलियां माली को आकर देखती है तब आपस में बातचीत करती है कि माली आज फूल को तोड़ कर ले कर गया फिर कल हमारी भी बारी आएगी।कबीर दास जी यह समझाना चाहते हैं कि आज आप जवान हैं तो कल आप भी बुड्ढे हो जाओगे, और मिट्टी में भी मिल जाओगे।
दोहा – 42
मूरख संग न कीजिए , लोहा जलि न तिराई ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ।।
शब्दार्थ
मूरख – मूर्ख
संग – साथ
सीप – शंख, घोंघे आदि की जाति का एक जलचर प्राणी
भूवंग – सांप
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि मूर्ख व्यक्ति का साथ कभी नहीं करना चाहिए, इससे कुछ भी फलित नहीं है। जैसे लोहे की नाँव पर चढ़कर कोई पार नहीं जा सकता है। वर्षा के पानी की बूँद केले पर गिरी तो कपूर बन गया, सीप पर गिरी तो मोती बन गई और वही पानी की बूँद सर्प के मुँह में गिरी तो विष बन गई। अतः संगति का बहुत महत्त्व है।
दोहा – 43
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
शब्दार्थ
तुर्क – तुर्किस्तान का निवासी
रहमाना – परम दयालु, परम कृपालु
दोउ – दोनों
लड़ी – गुच्छा, कतार, पंक्ति
कोउ – कोई
भावार्थ:- कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
दोहा – 44
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।
शब्दार्थ
लहरि – नदी या समुद्र में उठनेवाली लहरें
समंद – समुद्र; सागर
मोती – समुद्री सीपी से निकलनेवाला एक अत्यंत क़ीमती रत्न
भेद – रहस्य, छिपी हुई बात
भावार्थ:- कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
दोहा – 45
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।।
शब्दार्थ
काठ – लकड़ी
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि पानी के गुण को तो हरा वृक्ष ही जानता है, क्योंकि उसी के प्रभाव से वह फलता फूलता है, वही सूखी लकड़ी को क्या पता कि कब पानी बरसा? उसे तो कितना भी पानी में डूबो दो, वह उसके प्रभाव से फलती फूलती नहीं है। अर्थात सद्गुरुओ के ज्ञान का प्रभाव योग्य या जिज्ञासु व्यक्तियों पर ही होता है, अयोग्य व्यक्तियों पर नहीं होता है।
दोहा – 46
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।।
शब्दार्थ
तीरथ – धर्मस्थान, पवित्र या पौराणिक महत्व का कोई स्थान
संत – सज्जन और महात्मा
सतगुरु – सच्चा गुरु
विचार – मन ही मन तर्क वितर्क करते हुए सोचना, समझना
भावार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि तीर्थ करने से हमें एक पुण्य मिलता है परंतु संतों की संगति से हमें पूर्णिया मिलते हैं और अगर हमें सच्चे गुरु पाले तो जीवन में अनेक पुण्य मिलते है।
दोहा – 47
अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
ना जानौ छिन एक में, किसका पहिरा होय।।
शब्दार्थ
छिन – क्षण
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि इस संसार में मोह में पड़कर क्यों सो रहे हो? मनुष्य जीवन के अवसर को व्यर्थ मत जाने दो। यह आपका अपना पहर (समय) है। इसलिये मनुष्य जीवन में अपने आत्मस्वरूप को जगाओ। न जाने क्षण भर में क्या हो जाये? और यह अवसर आपके हाथ से निकल जाये।
दोहा – 48
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।।
शब्दार्थ
मन – अंतरात्मा
मैल – दोष, विकार
मीन – मछली
बास – दुर्गन्ध
भावार्थ:- कबीर के दोहे में कबीर दास जी हमें हमें यह कहते हैं कि हम कितना भी ना भूले लेकिन अगर मन साफ नहीं हुआ तो नहाने का कोई भी फायदा नहीं है जैसे मछली हमेशा पानी में ही रहती है परंतु वह साफ नहीं होती हमेशा मछली में से तेज बदबू आती ही रहती है।
दोहा – 49
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी।।
शब्दार्थ
जपे – किसी मंत्र या वाक्य का बार बार धीरे धीरे पाठ करना
मुरारी – कृष्णजी की उपाधि, विष्णु जी का नाम
पसारी – निश्चित होना, बेखटके सोना
पाँव – पैर
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा।
दोहा – 50
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक।
जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।।
शब्दार्थ
भीतर – अंदर, मन में
बाहर – अलग
अनेक – एक से अधिक
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि सभी व्यक्तियों के हृदय में ईश्वर तो एक ही है, परन्तु बाहर की और इसके अनेक भेद है। जिस व्यक्ति ने अपने ह्रदय के अंदर ईश्वर दर्शन कर लिये, उसके लिये तो अंदर और बाहर ईश्वर एक ही है।
दोहा – 51
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।।
शब्दार्थ
साईं – ईश्वर, अधिपति, पालक, प्रभु
आग – अग्नि, ताप, गरमी
भावार्थ:- कबीर दास जी हमें यह समझाते हैं जैसे तेल के अंदर तेल होता है, आग के अंदर रोशनी होती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर हमारी अंदर है, उसे ढूंढ सको तो ढूंढ लो।
दोहा – 52
‘कबीर’ नौबत आपनी, दस दिन लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली, बहुरि न देखौ आय।।
शब्दार्थ
नौबत – अवांछनीय घटना के घटित होने की स्थिति
पुर – बस्ती, घर
पट्टन – शहर, नगर
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि मनुष्य को यथाशीघ्र सत्कर्म कर लेने चाहिए। मनुष्य इस संसार में दस दिन मौज कर ले,मृत्यु के बाद यह संसार,नगर,यह गलियां तुझे देखने को भी नहीं मिलेंगी। अर्थात मृत्यु के बाद पुनः मानव देह मिलनी कठिन है, इसलिए जो कुछ सत्कर्म करने है, जल्दी से कर ले।
दोहा – 53
लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट।।
शब्दार्थ
हरी – भगवान
प्राण – साँस, श्वास
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।
दोहा – 54
त्रिस्ना अग्नि प्रलय किया, तृप्त न कबहूं होय।
सुर नर मुनि और रंक सब,भस्म करत है सोय।।
शब्दार्थ
अग्नि – आग
प्रलय – नाश, भू–भाग में होनेवाली भयंकर बर्बादी
तृप्त – अघाया हुआ
सुर, नर, मुनि – देवता, मनुष्य , साधु
रंक – ग़रीब, दरिद्र
भस्म – राख
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि तृष्णा की आग इतनी भयंकर होती है की वह प्रलय मचा देती है और फिर भी तृप्ति नहीं होती है और इस तृष्णा की आग में देवता, मनुष्य, साधु ऋषि और ग़रीब सब भस्म हो जाते है।
दोहा – 55
सोना सज्जन साधू जन, टूट जुड़े सौ बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एइके ढाका दरार।।
शब्दार्थ
साधू – वह जो ‘ साधना ‘ करता है
जन – लोक, लोग
दुर्जन – दुष्ट व्यक्ति
कुम्भ – घड़ा, जार, बर्तन
कुम्हार – मिट्टी के बर्तन बनानेवाली एक जाति
भावार्थ:- अच्छे लोगों को फिर से अच्छा होने में समय नहीं लगेगा, भले ही उन्हें दूर करने के लिए कुछ किया जाए। वे सोने के जैसे हैं और सोना लचीला है और भंगुर नहीं है। लेकिन दुर्जन व्यक्ति कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का बर्तन जैसा होता है जो भंगुर होता है और एक बार टूट जाने पर वह हमेशा के लिए टूट जाता है।
दोहा – 56
ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक।
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।।
शब्दार्थ
ज्ञानी – योग्य एवं समझदार
निर्भय – निडर, भय-हीन
नरक – धर्म शास्त्रानुसार पापात्माओं, पापियों के रहने का स्थान
निशंक – जिसे किसी प्रकार की शंका या डर न हो
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है, क्योंकि उसके मन में परमात्मा के लिए कोई शंका नहीं होती है। लेकिन वह जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर विषय भोग में पड़ा रहता है, उसे निश्चित ही नरक की प्राप्ति होती है।
दोहा – 57
कबीर, खाट पड़ै तब झखई, नयनन आवै नीर ।
यतन तब कछु बनै नहीं, तनु व्याप मृत्यु पीर।।
शब्दार्थ
खाट – चारपाई, खटिया
नयनन – आँख
नीर – आँसू, नेत्र–जल
यतन – यत्न करना
पीर – वृद्ध, बुड्ढा
भावार्थ:- वृद्ध होकर या रोगी होकर जब मानव चारपाई पर पड़ा होता है और आँखों में आँसू बह रहे होते हैं, उस समय कोई बचाव नहीं हो सकता । कबीर कहते हैं कि जो भक्ति नहीं करते, उनका अंत समय महाकष्टदायक होता है।
दोहा – 58
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।।
शब्दार्थ
लोभ – लालच, लालसा, कामना
पाप – अपराध, क़सूर
काल – समय, अवसर, अवधि
क्षमा – माफ़ी, अपराध को बिना प्रतिकार भावना के सह लेने की प्रवृत्ति
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीं धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
दोहा – 59
अवगुण कहूँ शराब का, आपा अहमक होय।
मानुष से पशुआ भय, दाम गाँठ से खोये।।
शब्दार्थ
अवगुण – ऐब, बुराई, दोष
शराब – दारू, मद्य, मदिरा
अहमक – मूर्ख, बेवकूफ़
दाम – मूल्य, क़ीमत
भावार्थ:- मैं तुमसे शराब की बुराई करता हूं कि शराब पीकर आदमी अपना संतुलन खो देता है, मूर्ख और जानवर बन जाता है और जेब से रकम भी लगती है सो अलग।
दोहा – 60
अपना तो कोई नहीं, देखी ठोकी बजाय।
अपना अपना क्या करि, मोह भरम लपटायी।।
शब्दार्थ
ठोकी – पीटना
मोह – स्नेह, ममता
भरम – संदेह, वहम
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि बहुत कोशिश करने पर, बहुत ठोक बजाकर देखने पर भी संसार में अपना कोई नहीं मिला। इस संसार के लोग माया मोह में पढ़कर संबंधो को अपना पराया बोलते हैं। परन्तु यह सभी सम्बन्ध क्षणिक और भ्रम मात्र है।
दोहा – 61
कबीर, फल कारण सेवा करै, निशदिन याचै राम।
कह कबीर सेवा नहीं, जो चाहै चौगुने दाम।।
शब्दार्थ
सेवा – पूजा, आराधना, ख़िदमत
निशदिन – रातदिन, सदा
याचै – माँगता
चौगुने – वस्तु का चार गुना
दाम – मूल्य, क़ीमत
भावार्थ:- जो किसी कार्य की सिद्धि के लिए सेवा करता है, दिन-रात परमात्मा से माँगता रहता है। परमेश्वर कबीर जी कहते है कि वह सेवा सेवा नहीं जो चार गुणा धन सेवा के बदले इच्छा करता है।
दोहा – 62
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
शब्दार्थ
पल – समय का बहुत ही छोटा भाग
परलय – विलीन होना , न रह जाना
बहुरि – फिर, पुनः
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है, जो काम कल करना है वो आज करो, और जो आज करना है वो अभी करो, क्यूंकि पलभर में प्रलय जो जाएगी फिर आप अपने काम कब करेंगे।
दोहा – 63
आसपास जोधा खड़े, सभी बजावे गाल।
मंझ महल में ले चला, ऐसा काल कराल।।
शब्दार्थ
जोधा – योद्धा
काल – समय, अवधि
कराल – डरावना, भयानक
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि काल ऐसा महाबली है जिसके आगे किसी की नहीं चलती है। चारो तरफ बड़े – बड़े शूरवीर खड़े थे, सभी बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे, लेकिन जब काल आया तो सबके बीच से भरे महल से उसे उठाकर ले गया। कोई कुछ नहीं कर सका।
दोहा – 64
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
शब्दार्थ
अति – बहुत, सीमा के पार
बरसना – वर्षा होना
धूप – घाम, सूर्य का प्रकाश
भावार्थ:- न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
दोहा – 65
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।
शब्दार्थ
जग – संसार, जगत्
करनी – कर्म, कार्य
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनिया रोये और हम हँसे।
दोहा – 66
कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट।
सब जग फन्दै पड़ा, गया कबीरा काट।।
शब्दार्थ
माया – दया, ममता
पापिनी – पाप करने वाली
फंद – फंदा
जग – संसार
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि यह माया बहुत बड़ी पापिन है, जो इस संसार रूपी बाजार में सुन्दर भोग विलास की सामग्री लेकर अपने फंदे में फंसाने के लिए बैठी है। जिसने सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वह इसके फंदे में फंस जाते है और जिसने सद्गुरु के सुधामय ज्ञानोपदेश को ग्रहण किया, वह इसके बंधन को काटकर निकल गये।
दोहा – 67
कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।
शब्दार्थ
ठगाइये – धूर्तता, छल, चालाकी
सुख – आराम, चैन
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि किसी को भी अपने आप को मूर्ख बनाना चाहिए, दूसरों को नहीं। जो दूसरों को मूर्ख बनाता है वह दुखी हो जाता है। खुद को बेवकूफ बनाने में कोई बुराई नहीं है क्योंकि वह सच्चाई को जल्द या बाद में जान जाएगा।
दोहा – 68
कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।
कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ।।
शब्दार्थ
खारा – क्षारयुक्त, नमकीन
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि यह जीवन कुछ नहीं है, पल भर में खारा है और पल भर में मीठा है। जो वीर योद्धा कल युद्धभूमि में मार रहा था, वह आज वह शमशान में मरा पड़ा है।
दोहा – 69
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।।
शब्दार्थ
अकारथ – बेकार, व्यर्थ, अनुपयोगी
संगत – मंडली, दल
संग – साथ, मिलन
भगवंत – भगवान्
भावार्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के हृदय में भगवान का वास होता है।
दोहा – 70
आतम अनुभव ज्ञान की , जो कोई पुछै बात ।
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुख स्वाद।।
शब्दार्थ
अनुभव – काम की जानकारी, तजुर्बा
ज्ञान – विद्या , जानकारी
गूंगा – जो बोल न सके, मूक
गुड़ – मिठास
स्वाद – टेस्ट, भोजन आदि खाने-पीने पर जीभ को होने वाला रसानुभव
भावार्थ:- कबीरदास कहते है कि परमात्मा के ज्ञान का आत्मा के अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इस अनुभव को बतलाना कठिन है। जिस प्रकार कोई गूंगा गुड़ खाकर उसके स्वाद को नहीं बता सकता है।
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