Rahim Ke Dohe

 

50 Popular Rahim Dohe with Meaning

Rahim Ke Dohe – रहीम दास एक प्रसिद्ध कवि और लेखक थे जिनका जन्म 17 दिसंबर 1556 को लाहौर में हुआ था। वे अपनी सुंदर कविताओं के लिए जाने जाते थे और उन्हें अकबर के दरबार में नवरत्न की उपाधि दी गई थी। उनका पूरा नाम अब्दुल रहीम दास खान-ए-खाना था। रहीम ने कई किताबें लिखीं और उनकी कविताएँ आज भी लोगों द्वारा पसंद की जाती हैं और पढ़ी जाती हैं।आइए पढ़ते हैं रहीम दास के कुछ लोकप्रिय दोहे (Rahim Ke Dohe), जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित हैं।

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दोहा – 1

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोये।
औरन को सीतल करै, आपहुं सीतल होय।।

शब्दार्थ
बानी – वचन, प्रतिज्ञा रूप में कही गई बात
आपा – अपना अस्तित्व
सीतल – ठंडा, सर्द, जो ठंडक उत्पन्न करता हो

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को सुख पहुंचाती ही है, इसके साथ ही खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।

 

दोहा – 2

हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खेंचि आपनी ओर को, डारि दीयों पुनि दूर।।

शब्दार्थ
हरि – भगवान, ईश्वर, प्रभु
ज्यों – जिस प्रकार, जिस तरह
कमान – धनुष
सर – बाण, तीर

भावार्थ:- रहीम कहते है जैसे धनुष पर चढ़ाया हुआ तीर पहले  तो अपनी तरफ खींचा जाता है , और फिर उसे छोड़कर बहुत दूर फेंक देते हैं । वैसे ही प्रभु पहले आपने तो कृपा कर मुझे अपनी ओर खींच लिया और फिर इस तरह दूर फेक दिया कि मै दर्शन पाने को तरस रहा हूँ ।

 

दोहा – 3

रहिमन विपदा हूँ भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।।

शब्दार्थ
विपदा – विपत्ति, आफत , दुःख, शोक या संकट
हित – भलाई, उपकार, कल्याण, मंगल
अनहित – बुराई, हानि, अमंगल
परत – तह, स्तर

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि थोड़े दिन की विपत्ति भी अच्छी होती है। क्योंकि विपत्ति के समय मनुष्य को अपने शुभचिंतकों का ज्ञान हो जाता है। कौन हमारा हित चाहने वाला है और कौन नहीं। 

 

दोहा – 4

ओछे को सतसंग, ‘रहिमन’ तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरै पै कारौ लगै।।

शब्दार्थ
ओछे – तुच्छ, छिछोरा
सतसंग भली संगत, अच्छी सोहबत, साधु, महात्माओं का संग
अंगार – अंगारा, दहकता कोयला या पत्थर
ज्यों – जिस प्रकार, जिस तरह
तातो – जल्दी, तब तक

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए। क्योंकि हर अवस्था में उससे हानि ही होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब कोयला ठंडा हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है। 

 

दोहा – 5

वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।

शब्दार्थ
भखैं – निगलना, खाना
संचै – एकत्र, संग्रह
नीर – पानी, जल
परमारथ – उच्चतम सत्य, मोक्ष 

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार श्रेष्ठ व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए देह धारण करते हैं।

 

दोहा – 6

सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक।। 

शब्दार्थ
नित – प्रतिदिन , रोज , सदा
चूक – भूल, गलती
उलूक – उल्लू

भावार्थ:- जो शीत हरता है, अंधकार का हरण करता है अर्थात अँधेरा दूर भगाता है और संसार का भरण करता है। रहीम कहते हैं कि उस सूर्य को अगर उल्लू कमतर आँकता है तो उस सूर्य को क्या फ़र्क पड़ता है! यानी महान लोगों की महानता पर ओछे इंसान के कहने से आँच नहीं आती।

 

दोहा – 7

आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं ।
जो ‘रहीम’ कोटिन मिलै, धिक जीवन जग माहीं ।। 

शब्दार्थ
नरेस – राजा, मनुष्य का प्रभु
ढिंग – पास, समीप, निकट, नजदीक
जग – संसार, जगत्

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जहां व्यक्ति को मान-सम्मान और आदर ना मिले, वैसे स्थान पर कभी नहीं रहना चाहिए। अगर राजा भी आपका आदर सम्मान ना करें तो उसके पास अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। अगर आपको करोड़ों रुपए भी मिले किंतु वहां आदर ना मिले, ऐसे करोड़ों रुपए धिक्कार के समान है।

 

दोहा – 8

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।

शब्दार्थ
रूठे – नाराज़ हो जाना, अप्रसन्न हो जाना
सुजन – भला आदमी, नेक आदमी
फिरि – बार-बार , दोबारा
मुक्ता – मोती

भावार्थ:- रहीमदास जी कहते हैं कि अगर सज्जन व्यक्ति आपसे सौ बार भी नाराज़ हो जाए, तो भी उस नाराज हुए व्यक्ति को बार-बार मनाना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार टूटे हुए मोतियों के हार को पुनः पिरोकर हार बना लिया जाता है अर्थात सज्जन व्यक्ति आपके जीवन में मोतियों के हार के समान होता है।

 

दोहा – 9

बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।
‘रहिमन’ हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल।। 

शब्दार्थ
बड़ाई – प्रशंसा, तारीफ़
बोल – बात, वचन, शब्द
टका – सिक्का, रुपया
मोल – मूल्य, दाम

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जिनमें बड़प्पन होता है, वे अपनी प्रशंसा कभी नहीं करते। जैसे हीरा कितना भी अमूल्य क्यों न हो, उसे कभी किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि उसका दाम क्या है।

 

दोहा – 10

‘रहिमन’ वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।। 

शब्दार्थ
नर – पुरुष, मर्द, मनुष्य
कहुँ  – कही
जाहिं – जाते है
पहिले – पहले
मुए – मृत , मरा हुआ
निकसत निकलता है

भावार्थ:- भीख माँगना मरने से बदतर है। इसी संदर्भ में रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य भीख माँगने की स्थिति में आ गया अर्थात् जो कहीं माँगने जाता है, वह मरे हुए के समान है। वह मर ही गया है लेकिन जो व्यक्ति माँगने वाले को किसी वस्तु के लिए ना करता है अर्थात उत्तर देता है, वह माँगने वाले से पहले ही मरे हुए के समान है।

 

दोहा – 11

‘रहिमन’ छोटे नरन सों, होत बड़ो नहीं काम।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम।। 

शब्दार्थ
मढ़ो – चढ़ाना, मढ़ना, लगाना
चाम – चमड़ा, खाल

भावार्थ:– रहीम कहते हैं कि ओछे आदमी से बड़े काम नहीं हो सकते। उनसे यह आशा रखना नितांत व्यर्थ है कि वे किसी काम में सहायक सिद्ध होंगे। यदि नगाड़े पर चमड़ा मढ़ना हो तो उसे मढ़ने के लिए बड़े पशु का चाम ही काम आएगा जबकि सौ चूहों का चाम भी किसी काम का साबित नहीं होता।

 

दोहा – 12

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
उत्तम – सबसे अच्छा, श्रेष्ठ
प्रकृति – स्वभाव, मिजाज
कुसंग बुरी संगति
विष जहर
व्यापत फैलना, छा जाना · समाहित हो जाना
भुजंग साँप

भावार्थ:- रहीम दास जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं, उनको बुरी संगति भी नहीं बिगाड़ पाती। जिस प्रकार जहरीले सांप सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उसको अपने विष से हानि नहीं पहुँचा पाते तथा उसकी शीतलता नष्ट नहीं कर पाते, उसी प्रकार दुष्टों की संगति सज्जनों को प्रभावित नहीं कर पाती।

 

दोहा – 13

‘रहिमन’ देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तलवारि।। 

शब्दार्थ
बड़ेन – बड़े
लघु – छोटा
डारि – तिरस्कार करना
तलवारि – तलवार

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि बड़ी या मँहगी वस्तु हाथ लगने पर छोटी या सस्ती वस्तु का मूल्य कम नहीं हो जाता। हर वस्तु का अपना महत्त्व होता है। जहाँ सूई काम आती है, वहाँ सूई ही काम करेगी, तलवार नहीं।

 

दोहा – 14

अमृत ऐसे वचन में, ‘रहिमन’ रिस की गाँस।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस।। 

शब्दार्थ
अमृत – सुधा रस
गाँस – गाँठ
मिसिरिहु – मिश्री में भी
निरस – रसहीन, फीकी
फाँस – बारीक तिनको, शरीर में चुभ जाने वाला बाँस का रेशा

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि अमृत जैसे मधुर वचनों में कटु शब्द गाँठ या बाधा का काम करता है। क्योंकि कर्ण प्रिय, मृदुल बोली में कटु शब्दों का प्रयोग उसी प्रकार बुरा लगता है। जिस प्रकार मिश्री में मिली हुई नीरस बाँस की फाँस बुरी लगती है।

 

दोहा – 15

निज कर क्रिया ‘रहीम’ कहि, सीधी भावी के हाथ।
पाँसा अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ।।

शब्दार्थ
निज – अपना, मुख्य, प्रधान
क्रिया – कुछ करना (जैसे—स्थान क्रिया, पाठन क्रिया)
भावी – भविष्य में होनेवाला, किस्मत में बदा हुआ
पाँसा – चौसर का खेल
दाँव – दफा, बार, मर्तबा (जैसे—दो दाँव का खेल) / पारी, बारी (जैसे—हम दो दाँव से जीत गए)।

भावार्थ:- रहीम दास जी कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है। सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है। जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव में क्या आएगा, यह अपने हाथ में नहीं होता।

 

दोहा – 16

बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों ‘रहीम’ हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय।।

शब्दार्थ
ओछो – छोटा , कम
बड़ाई – प्रशंसा, तारीफ़
ज्यों जिस प्रकार, जिस तरह
हनुमंत – हनुमान जी
गिरिधर गिरि अर्थात पर्वत को धारण करने वाले

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जब ओछे ध्येय के लिए लोग बड़े काम करते हैं तो उनकी बड़ाई नहीं होती है। जब हनुमान जी ने धोलागिरी को उठाया था तो उनका नाम ‘गिरिधर’ नहीं पड़ा क्योंकि उन्होंने पर्वत राज को छति पहुंचाई थी, पर जब श्री कृष्ण ने पर्वत उठाया तो उनका नाम ‘गिरिधर’ पड़ा क्योंकि उन्होंने सर्व जन की रक्षा हेतु पर्वत को उठाया था।

 

दोहा – 17

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय।। 

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
मँड़ए मंडप

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि निजी संबंधों में जहाँ गाँठ होती है, वहाँ प्रेम या मिठास नहीं होती है लेकिन शादी के मंडप में बाँधी गई गाँठ के पोर-पोर में प्रेम-रस भरा होता है।

 

दोहा – 18

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।। 

शब्दार्थ
दीन – दयनीय दशावाला, ग़रीब, दरिद्र
लखत – देखता
दीनहिं – दीन को
दीनबंधु – दुखियों का सहायक, ईश्वर का एक नाम
सम – एक ही, एक सा

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि ग़रीब सबकी ओर देखता है, पर ग़रीब को कोई नहीं देखता। जो ग़रीब को प्रेम से देखता है, उससे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करता है और उसकी मदद करता है, वह दीनबंधु भगवान के समान हो जाता है।

 

दोहा – 19

एके साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
‘रहिमन’ मूलहिं सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय ।।

शब्दार्थ
एके – एक को
साधे – कार्य पर ध्यान
सब – सारा
सधै – काम पूरा होना
सब साधे – सभी कार्यों पर एक साथ ध्यान देना
मूलहिं जड़
सींचिबो – सिंचाई करना, पौधों को पानी देना
अघाय – तृप्त

भावार्थ: – रहीम के अनुसार अगर हम एक-एक कर कार्यों को पूरा करने का प्रयास करें तो हमारे सारे कार्य पूरे हो जाएँगे, सभी काम एक साथ शुरू कर दिए तो कोई भी कार्य पूरा नहीं हो पाएगा। जैसे वृक्ष की एकमात्र जड़ को सींचने पर पत्ते, डालियाँ, फूल और फल सब अपने आप फलते-फूलते हैं ।

 

दोहा – 20

‘रहिमन’ रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।

शब्दार्थ
रीति – क़ायदा, नियम, रस्म रिवाज
सराहिए – सराहना, प्रशंसा करना
घट – कलश, घड़ा
गुन – निजी विशेषता
भीति – डर, भय
तोय – जल, पानी

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि हमें उस व्यवहार की प्रशंसा करनी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार की समान हो।  घड़ा और रस्सी दोनों जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं जब घड़ा कुँए में जाता है तो रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है।  

 

दोहा – 21

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
दिनन – पंथ, रास्ता
फेर – घुमाव, चक्कर, फेरना
नीके – अच्छे
बनत – किसी चीज के बनने या बनाये जाने का ढंग, प्रक्रिया या भाव

भावार्थ:- रहीम दास जी कहते है कि जब ख़राब समय चल रहा हो तो मौन रहना ही उचित है। क्योंकि जब अच्छा समय आता हैं, तब काम बनते देर नहीं लगतीं। अतः हमेशा सही समय का इंतजार करना चाहिए।

 

दोहा – 22

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ।।

शब्दार्थ
कुटिल – तेज धार वाली
कुठार – कुल्हाड़ी
डारत – डालती है
टूक – टुकड़े
चतुरन – समझदार व्यक्ति
हूक – पीड़ा या कसरत

भावार्थ :- रहीम कहते हैं कि बुरे शब्द एक कुल्हाड़ी की तरह है। जिस तरह कुल्हाड़ी लकड़ी को दो हिस्सों में बांटती है, उसी तरह कड़वा शब्द व्यक्ति को आपसे दूर कर देता है। एक विवेकशील व्यक्ति दुःख में भी कटु वचन नहीं बोलता है, वह चुप रहता है और समय पर सभी उत्तर छोड़ देता है।

 

दोहा – 23

धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय।।

शब्दार्थ
धनि – धन्य
पंक – कीचड़
लघु – छोटा
उदधि – सागर
पिआसो – प्यासा

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि कीचड़ का जल सागर के जल से महान है क्योंकि कीचड़ के जल से कितने ही लघु जीव प्यास बुझा लेते हैं। सागर का जल अधिक होने पर भी पीने योग्य नहीं है। संसार के लोग उसके किनारे आकर भी प्यासे के प्यासे रह जाते हैं। मतलब यह कि महान वही है जो किसी के काम आए।

 

दोहा – 24

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताहिं की तलवार।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
मारे –  मारता है
सीस – सिर
ताहिं – उसकी

भावार्थ:- रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सिर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।

 

दोहा – 25

‘रहिमन’ नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ।।

शब्दार्थ
नीर – पानी
पखान – पत्थर
बूड़ै – पड़ा होने पर
सीझै – नरम होना
बूझै पै – ज्ञान दिये जाने पर
सूझै – समझना

भावार्थ:- जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता ठीक उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को चाहे कितना भी ज्ञान दे दो, उसकी समझ में कुछ नहीं आता।

 

दोहा – 26

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।। 

शब्दार्थ
चाह – लालसा, इच्छा
कछु – कुछ

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि किसी चीज़ को पाने की लालसा जिसे नहीं है, उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं हो सकती। जिसका मन इन तमाम चिंताओं से ऊपर उठ गया, किसी इच्छा के प्रति बेपरवाह हो गए, वही राजाओं के राजा हैं।

 

दोहा – 27

‘रहिमन’ अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गँभीर।
बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुँज, करीर।। 

शब्दार्थ
बिरछ पेड़
छाँह – वह स्थान जहाँ आड़ या रोक के कारण धूप या चाँदनी न पड़ती हो (जैसे, पेड़ कीछाह)
सेंहुड़ – थूहर
कुँज – लता-झाड़ियों से घिरा हुआ मंडप
करीर – बाँस का नया कल्ला

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि वे पेड़ आज कहाँ, जिनकी घनी छाया होती थी! अब तो इस संसार रूपी बाग़ में काँटेदार सेंहुड़, कटीली झाड़ियाँ और करील देखने को मिलते हैं। कहने का भाव यह है कि सज्जन और परोपकारी लोग अब नहीं रहे, जो अपने सद्कर्मों से इस जगत को सुखी रखने का जतन करते थे। अब तो ओछे लोग ही अधिक मिलते हैं जो सुख नहीं, दु:ख ही देते हैं।

 

दोहा – 28

‘रहिमन’ मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु।
बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ।। 

शब्दार्थ
सुहाय – अच्छा लगना
अमी – अमृत
मान बिनु – बिना सम्मान के साथ
विष – जहर
मरिबो – मरना

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि बिना मान-सम्मान के अगर कोई अमृत भी पिलाए तो भी मुझे नहीं रुचता है। भले ही मान सहित घर बुलाकर कोई ज़हर पिला दे, वह स्वीकार है। इज़्ज़त से तो मरना भी भला होता है।

 

दोहा – 29

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड।। 

शब्दार्थ
उदर – पेट
जुदे-जुदे – अलग-अलग

भावार्थ:- कुरंड पक्षी की एक पेट और दो चोंच होता है। इससे उसे ही परेशानी होती है। जिनके दो अलग-अलग शरीर हों, वे कैसे जीवित रह सकते हैं! रहीम कहते हैं कि पेट भरने, जीवन-निर्वाह की समस्या तो है ही। जिनके खर्च अधिक हों, उनके लिए तो और कठिनाई होती है।

 

दोहा – 30

खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
मलियत – मलना
लौंन – नमक
करुए – कड़वे
सजाय – सजा

भावार्थ:- खीरे का कड़वापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है। रहीम कहते हैं कि कड़ुवे मुंह वाले के लिए या कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा ठीक है।

 

दोहा – 31

संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि।।

शब्दार्थ

 

भावार्थ:- रहीम दास जी कहते है कि जिस प्रकार चाँद दिन में होते हुए भी ना होने के समान रहता है यानी आभाहीन हो जाता हैं। उसी प्रकार व्यक्ति झूठे सुख के चक्कर में गलत मार्ग यानी बुरी लत में पड़कर अपना सब कुछ खो देता है और दुनिया से ओझल हो जाता हैं।

 

दोहा – 32

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

शब्दार्थ
बिगरी – बिगड़ी
फाटे दूध – फटा हुआ दूध
मथे – मथना

भावार्थ:- रहीम जी कहते है कि मनुष्य को इस समाज में सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एकबार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा।

 

दोहा – 33

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।

शब्दार्थ
बड़ेन – बड़े
लघु – छोटा
नाहिं – नहीं

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती। 

 

दोहा – 34

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।

शब्दार्थ
जान –  परिचय, समझ, जानकारी, परिज्ञान
काक – कौआ
पिक – कोयल
रितु – ऋतु (एक वर्ष से छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएँ एक खास प्रकार की होती हैं।)

भावार्थ:- रहीम जी कहते है कि कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है। ‘समाज’ चाहे किसी भी राष्ट्र का हो वहाँ हर धर्म के, हर जाति के लोग रहते हैं, हिन्दू हो या मुसलमान सभी के लिए समाज तो एक समान ही होता है। और यही सामाजिक व्यवस्था साहित्यकारों के साहित्य को प्रभावित करती है।

 

दोहा – 35

‘रहिमन’ अंसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
अंसुवा – आसू
नयन – आंख
ढरि – ढुलककर
निकारौ – निकालना
गेह – घर
भेद – रहस्य, छिपी हुई बात , सुराग

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि आंसू नयनों से बहकर मन का दुख प्रकट कर देते हैं। उसी प्रकार यह सत्य है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही देगा।

 

दोहा – 36

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग।।

शब्दार्थ
नर – पुरुष, मर्द, मनुष्य
उपकारी – भलाई करने वाले
बांटन वारे – बांटने वाले

भावार्थ:- रहीम दास जी कहते हैं कि धन्य हैं वे लोग, जिनका जीवन सदा परोपकारी के लिए बीतता है। उन पर उस परोपकार का प्रभाव उसी तरह उकर आता है जैसे मेहंदी बांटने वाले के अंग पर मेहंदी का रंग लग जाता है। 

 

दोहा – 37

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहै नहिं एक सी, का ‘रहीम’ पछितात।।

शब्दार्थ
झरी – गिरना, झरना
पछितात – पछताना 

भावार्थ:- हमेशा हर किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती जैसे रहीम कहते हैं कि जब सही समय आएगा तो पेड़ पर फल लगेंगे और जब गिरने का समय आएगा तो वे गिरेंगे। इसी तरह दुख के समय पछताना व्यर्थ है।

 

दोहा – 38

कहु ‘रहीम’ कैसे निभै , बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।

शब्दार्थ
बेर एक कँटीला पौधा होता है जिसपर हरे-हरे फल लगते है
केर – केला
फाटत – फटना

भावार्थ:- रहीम कहते ​​है कि विपरीत व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों के बीच दोस्ती नहीं टिक सकती। वह बेर और केले का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से एक साथ नहीं रह सकते। बेर के पेड़ का अपने मौज में हिलने के कारण केले के पेड़ को नुकसान पहुंचाता है, यह दर्शाता है कि कैसे एक नैतिक रूप से ईमानदार व्यक्ति और एक नैतिक रूप से भ्रष्ट व्यक्ति के बीच संबंध अस्थिर होते हैं।

 

दोहा – 39

जैसी परै सो सही रहे, कही ‘रहीम’ यह देह।
धरती ही पर परग है, सित घाम औ’ मेह।।

शब्दार्थ
देह – शरीर
सित घाम सर्दी, गर्मी
मेह – बरसात

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जिस तरह धरती सर्दी, गर्मी और बारिश को सहन कर लेती है, उसी तरह मानव शरीर को भी सुख और दुख दोनों को सहन करना चाहिए।

 

दोहा – 40

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट।।

शब्दार्थ
पट – वस्त्र, कपड़ा
ओट – आड़ (जैसे—परदे की ओट में)

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जब रात होती है तब दिये की आवश्यकता होती है जो कि औरत उसे हवा का झोंका आने पर अपने पल्लू से ढक कर बुझने से बचा लेती है। लेकिन जब सुबह उसका समय ख़तम हो जाता है अर्थात सूर्य निकल जाता है तब वही औरत उसे अपने पल्लू की चोट मारकर उसे बुझा देती है।

 

दोहा – 41

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्यौं, थामे बरै बरेह ।।

शब्दार्थ
आवत – आने वाला
काज – कार्य, काम
जीरन – पुराना, बहुत दिनों का

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि मुश्किल समय और आपदाओं के दौरान केवल प्यार करने वाले दोस्त व स्नेही बंधु ही सहायता प्रदान कर सकते हैं। वह बरगद के पेड़ का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जैसे बरगद अपनी जटाओं का सहारा मिलने से कभी जीर्ण अथवा कमज़ोर नहीं होता है। अर्थात् बरगद का पेड़ ज़मीन तक लटकने वाली अपनी जटाओं से धरती से पोषक तत्त्व लेकर सदा नया बना रहता है।

 

दोहा – 42

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।

शब्दार्थ
पावस – वर्षा काल, बरसात
कोइल – कोयल
दादुर – मेंढक
वक्ता – बोलनेवाला

भावार्थ:- वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है। उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।

 

दोहा – 43

जो ‘रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे , बढ़े अंधेरो होय।। 

शब्दार्थ
गति – चाल, रफ़्तार
कपूत – नालायक बेटा, कुल का नाम डुबानेवाला लड़का, कुपुत्र
कुल – परिवार, खानदान, वंश
उजियारो – उजाला, प्रकाश

भावार्थ:- दीपक की तथा कुल में पैदा हुए कुपूत की गति एक-सी है। दीपक जलाया तो उजाला हो गया और बुझा दिया तो अन्धेरा-ही-अंधेरा। कुपूत बचपन में तो प्यारा लगता है और बड़ा होने पर बुरी करतूतों से अपने कुल की कीर्ति को नष्ट कर देता है।

 

दोहा – 44

जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।

शब्दार्थ
हित – भलाई, उपकार
बापुरो – तुच्छ, हीन, जिसकी देख-रेख करने, बात पूछने या रक्षा करनेवाला कोई न हो
मिताई – मित्रता , दोस्ती 

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि जो गरीब से प्रेम करे, उनका हित करे वही बड़े लोग होते हैं। इस संसार में धनी व्यक्तियों से ही प्रेम करने वाले लोग होते हैं, गरीब से प्रेम करने वाले तो कुछ ही महान लोग होते हैं। जिस प्रकार कृष्ण ने अपने गरीब मित्र सुदामा से मित्रता निभाई थी।

 

दोहा – 45

तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझै पियास।।

शब्दार्थ
सरवर – तालाब
रीते – खाली
पियास – प्यास

भावार्थ:- रहीम कहते है कि हमें केवल उन्हीं लोगों से उम्मीद रखनी चाहिए जो हमारी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हों। जिस तरह बिना पानी के झील में प्यास बुझाने की कोशिश करना बेकार है, उसी तरह किसी ऐसे व्यक्ति से मदद माँगना भी बेकार है जो आपकी मदद नहीं कर सकता।

 

दोहा – 46

‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत।।

शब्दार्थ
कपट – धोखा, छल
ढेंकुली कुँए से पानी निकालने का बर्तन
सींचत – पानी देना

भावार्थ:- रहीम कहते है कि ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।

 

दोहा – 47

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरी का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।

 

Rahim Ke Dohe

 

शब्दार्थ
छिमा – क्षमा , माफी
बड़न – बड़े
छोटन – छोटा
उतपात – बदमाश, शरारत
घट्यौ – कम होना
भृगु – एक प्रसिद्ध मुनि का नाम

भावार्थ:- उम्र से बड़े लोगों को क्षमा शोभा देती हैं, और छोटों को बदमाशी। मतलब छोटे बदमाशी करे तो कोई बात नहीं बड़ों ने छोटों को इस बात पर क्षमा कर देना चाहिए। अगर छोटे बदमाशी करते हैं तो उनकी मस्ती भी छोटी ही होती हैं। जैसे अगर छोटा सा कीड़ा लात भी मारे तो उससे कोई नुकसान नहीं होता।

 

दोहा – 48

माँगे मुकरि न को गयो , केहि न त्यागियो साथ।
माँगत आगे सुख लह्यो, तै `रहीम’ रघुनाथ।।

शब्दार्थ
मुकरि – नकारना, इनकार करना
सुख – आनंद, आराम, चैन
रघुनाथ – श्री रामचंद्र

भावार्थ:- वर्तमान समय में अगर आप कुछ भी किसी दूसरे से मांगते हैं तो वह सदैव मुकर जाता है। कोई भी आपको आपके आवश्यकता की वस्तु उपलब्ध नहीं कराता, किंतु केवल ईश्वर ही है जो मांगने पर प्रसन्न होते हैं और आपसे निकटता भी स्थापित कर लेते हैं।

 

दोहा – 49

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन साँचे सूर को, बैरी करे बखान।।

शब्दार्थ
सराहै – प्रशंसा करना
जती – यति, जेता, जीतनेवाला
साँचा – ढाँचा (जैसे—ईंट ढालने का साँचा), फरमा, कलबूत
बैरी – विरोधी, शत्रुता रखनेवाला
बखान – तारीफ़, प्रशंसा, विस्तार रूप में किया गया वर्णन

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।

 

दोहा – 50

गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलवधू, पर घर जात लजाय।।

शब्दार्थ
गरज – आवश्यकता, ज़रूरत
कुलवधू – बहू
लजाय – शर्म

भावार्थ:- रहीम कहते हैं कि अपनी गरज की बात किसी से कही नहीं जा सकती। इज्जतदार आदमी ऐसा करते हुए शर्मिन्दा होता है, अपनी गरज को वह मन में ही रखता है। जैसे कि किसी कुलवधू को पराये घर में जाते हुए शर्म आती है।

 

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